श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तुमरी क्रिपा ते लागी प्रीति ॥ दइआल भए ता आए चीति ॥ दइआ धारी तिनि धारणहार ॥ बंधन ते होई छुटकार ॥७॥

पद्अर्थ: ते = से, साथ, के द्वारा। दइआल = दयावान। चीति = चिक्त में। तिनि = उस (प्रभु) ने। धारणहार = दया धारणहार, दया कर सकने की सामर्थ्य कर सकने वाले प्रभु ने। ते = से। छुटकार = सदा के लिए निजात।7।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से ही (तेरे चरणों में किसी भाग्यशाली की) प्रीति बनती है। (हे भाई! जिस मनुष्य पर जब प्रभु जी) दयावान होते हैं तब उसके हृदय में आ बसते हैं। हे भाई! दया करने में समर्थ उस (प्रभु) ने (जिस व्यक्ति पर) दया की, (उस व्यक्ति को माया के मोह के) बंधनो से सदा के लिए खलासी मिल गई।7।

सभि थान देखे नैण अलोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ भ्रम भै छूटे गुर परसाद ॥ नानक पेखिओ सभु बिसमाद ॥८॥४॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। नैण = आँखों (से)। अलोइ = देख के, ध्यान से देख के। अवरु = कोई और। भै = सारे डर। भ्रम = (बहुवचन) सारे वहम। परसाद = किरपा। सभु = हर जगह। बिसमाद = आश्चर्य रूप परमात्मा।8।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के) सारे वहम सारे डर समाप्त हो जाते हैं, वह हर जगह उस आश्चर्य रूप परमात्मा को ही देखता है। वह मनुष्य आँखें खोल के सब जगह देखता है, उसको (कहीं भी) उस परमात्मा के बिना कोई और दूसरा नहीं दिखता।8।4।

रामकली महला ५ ॥ जीअ जंत सभि पेखीअहि प्रभ सगल तुमारी धारना ॥१॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। पेखीअहि = देखे जा रहे हैं। प्रभू = हे प्रभु! धारना = आसरा।1।

नोट: ‘पेखीअहि’ करम वाच, वर्तमान काल, बहुवचन, अंनपुरख।

अर्थ: हे भाई! ये सारे जीव-जंतु जो दिखाई दे रहे हैं, ये सारे तेरे ही आसरे हैं।1।

इहु मनु हरि कै नामि उधारना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि कै नाम = परमात्मा के नाम से। उधारना = पार उतारा, निस्तारा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा आदि से) इस मन को परमात्मा के नाम से ही बचाया जा सकता है।1। रहाउ।

खिन महि थापि उथापे कुदरति सभि करते के कारना ॥२॥

पद्अर्थ: थापि = बना के। उथापे = नाश करता है। कुदरति = रचना। करते के = कर्तार के। कारना = ढंग।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा इस रचना को एक-छिन में पैदा करके फिर नाश भी कर सकता है। ये सारे कर्तार के ही खेल हैं।2।

कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिदारना ॥३॥

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। बिदारना = नाश किए जा सकते हैं।3।

अर्थ: हे भाई! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा आदि विकारों को गुरु की संगति में रह के (अपने मन में से चीर-फाड़ के) दूर कर सकते हैं।3।

नामु जपत मनु निरमल होवै सूखे सूखि गुदारना ॥४॥

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। सूखे सूखि = सुख में ही सुख में ही। गुदारना = गुज़ारना, गुजारी जा सकती है (‘ज़’ की जगह पर ‘द’ का प्रयोग और भी जगहों पर किया गया है = काज़ी, कादी; कागज़, कागद। अरबी में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं: ‘ज़ुआद’ को ‘दुआद’ पढ़ना)।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है। (मनुष्य की उम्र) केवल आत्मिक आनंद में ही बीतती है।4।

भगत सरणि जो आवै प्राणी तिसु ईहा ऊहा न हारना ॥५॥

पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में।5।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की बँदगी करने वाले लोगों की शरण में आता है, वह मनुष्य इस लोक में और परलोक में भी (विकारों के हाथों अपनी मनुष्य जीवन की बाजी) हारता नहीं।5।

सूख दूख इसु मन की बिरथा तुम ही आगै सारना ॥६॥

पद्अर्थ: बिरथा = (व्यथा) दुख, फरयाद। सारना = गुजारी जा सकती है।6।

अर्थ: हे भाई! इस मन की सुखों की माँग और दुखों की तरफ से पुकार, प्रभु तेरे आगे ही की जा सकती है।6।

तू दाता सभना जीआ का आपन कीआ पालना ॥७॥

पद्अर्थ: कीआ = किया हुआ, पैदा किया हुआ जगत।7।

अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीवों को ही दातें देने वाला है, अपने पैदा किए जीवों को तू स्वयं ही पालने वाला है।7।

अनिक बार कोटि जन ऊपरि नानकु वंञै वारना ॥८॥५॥

पद्अर्थ: अनिक बार कोटि = अनेक बार, करोड़ों बार। वंञै वारना = सदके जाता है। नानकु = (कर्ता करक, एकबचन)। नानकु वंञै = नानक जाता है।8।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरा दास) नानक तेरे भक्तों (के चरणों) से अनेक बार करोड़ों बार बलिहार जाता है।8।5।

रामकली महला ५ असटपदी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दरसनु भेटत पाप सभि नासहि हरि सिउ देइ मिलाई ॥१॥

पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए, प्राप्त होते। सभि = सारे (बहुवचन)। नासहि = (बहुवचन) नाश हो जाते हैं। सिउ = साथ। देइ = देता है। देइ मिलाई = मिलाय देय, जोड़ देता है।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु के दर्शन प्राप्त होने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, (गुरु मनुष्य को) परमात्मा के साथ जोड़ देता है।1।

मेरा गुरु परमेसरु सुखदाई ॥ पारब्रहम का नामु द्रिड़ाए अंते होइ सखाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुखदाई = सुखों का दाता। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का कर देता है। अंते = आखिरी समय में भी। सखाई = साथी, मित्र।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु परमेश्वर (का रूप) है, सारे सुख देने वाला है। हे भाई! गुरु परमात्मा का नाम (मनुष्य के हृदय में) पक्का कर देता है (और इस तरह) आखिरी वक्त भी (मनुष्य का) मित्र बनता है।1। रहाउ।

सगल दूख का डेरा भंना संत धूरि मुखि लाई ॥२॥

पद्अर्थ: सगल = सारे। भंना = गिर गया। संत धूरि = गुरु के चरणों की धूल। मुखि = मुँह पर।2।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुरु के चरणों की धूल (अपने) माथे पर लगाता है (उसके अंदर से) सारा ही दुखों का अड्डा ही समाप्त हो जाता है।2।

पतित पुनीत कीए खिन भीतरि अगिआनु अंधेरु वंञाई ॥३॥

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए लोग। पुनीत = पवित्र। खिन भीतरि = छिन में। अगिआन = आत्मिक जीवन की तरफ से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा। वंञाई = दूर करता है।3।

अर्थ: हे भाई! (गुरु ने) अनेक विकारियों को एक छिन में पवित्र कर दिया, (गुरु मनुष्य के अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (का) अंधकार दूर कर देता है।3।

करण कारण समरथु सुआमी नानक तिसु सरणाई ॥४॥

पद्अर्थ: करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सभ ताकतों का मालिक।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मालिक-प्रभु सारे जगत का मूल है और सभ ताकतों का मालिक है (गुरु के द्वारा ही) उसकी शरण पड़ा जा सकता है।4।

बंधन तोड़ि चरन कमल द्रिड़ाए एक सबदि लिव लाई ॥५॥

पद्अर्थ: तोड़ि = तोड़ के। चरन कमल = परमात्मा के सुंदर चरण। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्के टिका देता है। सबदि = शब्द से। लिव = लगन।5।

अर्थ: (हे भाई! गुरु मनुष्य के माया के) बंधन तोड़ के (उसके अंदर) प्रभु के सुंदर चरणों को पक्की तरह से टिका देता है, (गुरु की कृपा से वह मनुष्य) गुरु-शब्द के द्वारा एक प्रभु में ही तवज्जो जोड़े रखता है।5।

अंध कूप बिखिआ ते काढिओ साच सबदि बणि आई ॥६॥

पद्अर्थ: कूप = कूँआ। बिखिआ = माया। ते = से, में से। साच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। बणि आई = मन को भा जाता है।6।

अर्थ: (हे भाई! गुरु जिस मनुष्य को) माया (के मोह) के अंधे कूएं में से निकाल लेता है, सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में उसकी प्रीति बन जाती है।6।

जनम मरण का सहसा चूका बाहुड़ि कतहु न धाई ॥७॥

पद्अर्थ: सहसा = सहम। चूका = समाप्त हो जाता है। बाहुड़ि = दोबारा, फिर। कतहु = किसी और तरफ से। धाई = दौड़ता, भटकता।7।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से उस मनुष्य का) जनम-मरण के चक्कर का सहम समाप्त हो जाता है, वह फिर और कहीं (किसी जून में) नहीं भटकता फिरता।7।

नाम रसाइणि इहु मनु राता अम्रितु पी त्रिपताई ॥८॥

पद्अर्थ: रसाइणि = (रस+आसन = रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस) सबसे श्रेष्ठ रस में। राता = रंगा जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी के। त्रिपताई = अघा जाता है।8।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की मेहर से जिस मनुष्य का) ये मन सब रसों से श्रेष्ठ नाम-रस में रंगा जाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी के (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है।8।

संतसंगि मिलि कीरतनु गाइआ निहचल वसिआ जाई ॥९॥

अर्थ: (हे भाई!) गुरु-संत की संगत में मिल के जिस मनुष्य ने परमात्मा की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए, वह कभी ना डोलने वाले आत्मिक ठिकाने में टिक जाता है।9।

पूरै गुरि पूरी मति दीनी हरि बिनु आन न भाई ॥१०॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। आन = अन्य, कोई और। भाई = भाता है, अच्छा लगता।10।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने (आत्मिक जीवन के बारे में) पूरी समझ बख्श दी, उसको परमात्मा के नाम के बिना कोई और (दुनियावी वस्तु) प्यारी नहीं लगती।10।

नामु निधानु पाइआ वडभागी नानक नरकि न जाई ॥११॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। वडभागी = बहुत भाग्यों से। नरकि = नर्क में। न जाई = नहीं जाता।11।

अर्थ: हे नानक! जिस भाग्यशाली ने (गुरु की शरण पड़ कर) नाम-खजाना पा लिया, वह (दुनियां के दुखों के) नर्क में नहीं पड़ता।11।

घाल सिआणप उकति न मेरी पूरै गुरू कमाई ॥१२॥

पद्अर्थ: घाल = तप आदि की मेहनत। उकति = दलील, युक्ति, शास्त्रार्थ। पूरै गुरू = पूरे गुरु की। कमाई = बख्शिश, खजाना।12।

अर्थ: हे भाई! तप आदिक की किसी मेहनत, विद्या आदि की किसी चतुराई, किसी शास्त्रार्थ की मुझे टेक-ओट नहीं है। यह तो पूरे गुरु की बख्शिश है (कि उसने मुझे परमात्मा के नाम की दाति बख्शी है)।12।

जप तप संजम सुचि है सोई आपे करे कराई ॥१३॥

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को काबू में रखने के प्रयत्न। सुचि = (शरीर आदि की बाहरी) पवित्रता। सोई = वह गुरु ही, गुरु की शरण पड़े रहना ही। आपे = (गुरु) स्वयं ही। कराई = करता है।13।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ना ही मेरे लिए जप-तप-संजम और शारीरिक पवित्रता का साधन है। (पूरा गुरु) स्वयं ही (मेरे ऊपर मेहर) करता है (और मुझसे प्रभु की सेवा-भक्ति) करवाता है।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh