श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 916 पुत्र कलत्र महा बिखिआ महि गुरि साचै लाइ तराई ॥१४॥ पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। बिखिआ = माया। गुरि = गुरु ने। साचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के नाम) में। लाइ = लाय, लगा के। तराई = तैराता है, पार लंघाता है।14। अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ा) उसको पुत्र-स्त्री और बलवान माया के मोह में से गुरु ने सदा-स्थिर प्रभु (के नाम) में जोड़ के पार लंघा लिया।14। अपणे जीअ तै आपि सम्हाले आपि लीए लड़ि लाई ॥१५॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। तै = (हे प्रभु!) तू। सम्हाले = संभालता है। लड़ि = पल्ले से।15। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे प्रभु! (हम तेरे पैदा किए हुए जीव हैं) अपने पैदा किए हुए जीवों की तूने स्वयं खुद ही संभाल की है, तू खुद ही इनको अपने पल्ले से लगाता है।15। साच धरम का बेड़ा बांधिआ भवजलु पारि पवाई ॥१६॥ पद्अर्थ: साच धरम = सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण रूप धरम। बांधिआ = तैयार किया। भवजलु = संसार समुंदर।16। अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से ही जिन्होंने) तेरे सदा-स्थिर-नाम के स्मरण का जहाज तैयार कर लिया, तूने उनको संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।16। बेसुमार बेअंत सुआमी नानक बलि बलि जाई ॥१७॥ पद्अर्थ: बेसुमार = जिसके गुणों की गिनती ना हो सके (शुमार = गिनती)। जाई = मैं जाता हूँ। बलि जाई = मैं बलिहार जाता हूँ।17। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) वह मालिक-प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है बेअंत है। मैं उससे सदके जाता हूँ, सदा बलिहार जाता हूँ।17। अकाल मूरति अजूनी स्मभउ कलि अंधकार दीपाई ॥१८॥ पद्अर्थ: अकाल = (अ+काल। स्त्रीलिंग) मोह से रहित। मूरति = सरूप, हस्ती। अकाल मूरति = वह प्रभु जिसकी हस्ती मौत रहित है। संभउ = (स्वयंभु) अपने आप से प्रकट होने वाला। कलि = कलियुग, दुनिया, जगत। अंधकार = अंधेरा। दीपाई = (दीप = दीया) प्रकाश करता है।18। अर्थ: (हे भाई! जो) परमात्मा मौत-रहत अस्तित्व वाला है, जो जूनियों में नहीं आता, जो अपने आप से प्रकट होता है, वह प्रभु (गुरु के) द्वारा जगत के (माया के मोह के) अंधेरे को (दूर करके) आत्मिक जीवन की रौशनी करता है।18। अंतरजामी जीअन का दाता देखत त्रिपति अघाई ॥१९॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। देखत = देखते ही। त्रिपति अघाई = पूरी तौर पर तृप्त हो जाता है।19। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबके दिलों की जानने वाला है, सब जीवों को दातें देने वाला है, (गुरु की शरण पड़ के उस के) दर्शन करने से (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो जाया जाता है।19। एकंकारु निरंजनु निरभउ सभ जलि थलि रहिआ समाई ॥२०॥ पद्अर्थ: एकंकारु = सर्व व्यापक प्रभु। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में।20। अर्थ: (हे भाई! गुरु के द्वारा ही ये बात समझ आती है कि) सर्व-व्यापक परमात्मा माया के प्रभाव से परे रहने वाला परमात्मा, किसी से भी ना डरने वाला परमात्मा, जल में थल में हर जगह मौजूद है।20। भगति दानु भगता कउ दीना हरि नानकु जाचै माई ॥२१॥१॥६॥ पद्अर्थ: कउ = को। नानकु जाचै = नानक मांगता है। माई = हे माँ!।21। अर्थ: हे माँ! (गुरु के माध्यम से ही परमात्मा ने अपनी) भक्ति का दान (अपने) भक्तों को (सदा) दिया है। (दास) नानक भी (गुरु के माध्यम से ही) उस परमात्मा से (ये ख़ैर) माँगता है।21।1।6। रामकली महला ५ ॥ सलोकु ॥ सिखहु सबदु पिआरिहो जनम मरन की टेक ॥ मुखु ऊजलु सदा सुखी नानक सिमरत एक ॥१॥ पद्अर्थ: सबदु = गुरु का शब्द, गुरु की उचारी हुई प्रभु के महिमा की वाणी, परमात्मा की महिमा। सिखहु = आदत डालो, स्वभाव बनाओ। पिआरिहो = हे प्यारे सज्जनो! टेक = आसरा। ऊजल = उज्जवल, बेदाग।1। अर्थ: हे प्यारे मित्रो! परमात्मा की महिमा करने की आदत बनाओ, ये महिमा ही (मनुष्य के लिए) सारी उम्र का सहारा है। हे नानक! (कह: हे मित्रो!) एक परमात्मा का नाम स्मरण करने से (लोक-परलोक में) मुख उज्जवल रहता है और सदा ही सुखी रहता है।1। मनु तनु राता राम पिआरे हरि प्रेम भगति बणि आई संतहु ॥१॥ पद्अर्थ: राता = रंगा गया। बणि आई = परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन गई।1। अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य का तन और मन प्यारे प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, प्रभु की प्रेमा-भक्ति के कारण प्रभु से उसकी गहरी सांझ बन जाती है।1। सतिगुरि खेप निबाही संतहु ॥ हरि नामु लाहा दास कउ दीआ सगली त्रिसन उलाही संतहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। खेप = (क्षेप) व्यापार का माल, आपस में किया हुआ इकरार, सांझ। निबाही = निबाह दी। संतहु = हे संत जनो! लाहा = लाभ, कमाई। कउ = को। सगली = सारी। उलाही = उतार दी, दूर कर दी।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य की प्रभु से सांझ गुरु ने बनवा दी, उस सेवक को गुरु ने परमात्मा के नाम का लाभ बख्श दिया, और, इस तरह उसकी सारी मायावी तृष्णा समाप्त कर दी।1। रहाउ। खोजत खोजत लालु इकु पाइआ हरि कीमति कहणु न जाई संतहु ॥२॥ पद्अर्थ: खोजत खोजत = खोज करते करते। लालु = बड़ा ही कीमती पदार्थ।2। अर्थ: हे संत जनो! (गुरु की शरण पड़ कर खोजने वाले ने) खोज करते-करते परमात्मा का नाम-हीरा पा लिया। उस लाल का मूल्य नहीं पाया जा सकता।2। चरन कमल सिउ लागो धिआना साचै दरसि समाई संतहु ॥३॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। चरन कमल सिउ = सुंदर चरणों से। साचै दरसि = सदा स्थिर प्रभु के दर्शन में। समाई = लीन हो गई।3। अर्थ: हे संत जनो! (गुरु की कृपा से जिस मनुष्य की) तवज्जो प्रभु के सुंदर चरणों में जुड़ गई, सदा-स्थिर प्रभु के दर्शन में उसकी सदा के लिए लीनता हो गई।3। गुण गावत गावत भए निहाला हरि सिमरत त्रिपति अघाई संतहु ॥४॥ पद्अर्थ: निहाला = प्रसन्न चिक्त। त्रिपति अघाई = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।4। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की महिमा के गीत गाते-गाते (हम) तन से मन से खिल उठते हैं, परमात्मा का स्मरण करते हुए (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त हो जाते हैं।4। आतम रामु रविआ सभ अंतरि कत आवै कत जाई संतहु ॥५॥ पद्अर्थ: आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा। कत = कहाँ?।5। अर्थ: हे संत जनो! (गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य को) सर्व-व्यापक परमात्मा सब जीवों के अंदर बसता दिखाई दे जाता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।5। आदि जुगादी है भी होसी सभ जीआ का सुखदाई संतहु ॥६॥ पद्अर्थ: आदि = शुरू से ही। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। होसी = सदा के लिए कायम रहेगा।6। अर्थ: हे संत जनो! (गुरु ने जिस मनुष्य की खेप सिरे चढ़ा दी, उसको ये दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा सबका आदि है, परमात्मा जुगों के आरम्भ से है, परमात्मा इस वक्त भी मौजूद है, परमात्मा सदा के लिए कायम रहेगा। वह परमात्मा सब जीवों को सुख देने वाला है।6। आपि बेअंतु अंतु नही पाईऐ पूरि रहिआ सभ ठाई संतहु ॥७॥ पद्अर्थ: नही पाईऐ = नहीं पाया जा सकता। पूरि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है।7। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा बेअंत है, उसके गुणों का अंतिम छोर पाया नहीं जा सकता। वह प्रभु सब जगह व्यापक है।7। मीत साजन मालु जोबनु सुत हरि नानक बापु मेरी माई संतहु ॥८॥२॥७॥ पद्अर्थ: मीत = मित्र। मालु = धन पदार्थ। जोबनु = जवानी। सुत = पुत्र। माई = माँ।8। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे संत जनो! वह परमात्मा ही मेरा मित्र है, मेरा सज्जन है, मेरा धन-माल है, मेरा जोबन है, मेरा पुत्र है, मेरा पिता है, मेरी माँ है (इन सब जगहों पर मुझे परमात्मा का ही सहारा है)।8।2।7। रामकली महला ५ ॥ मन बच क्रमि राम नामु चितारी ॥ घूमन घेरि महा अति बिखड़ी गुरमुखि नानक पारि उतारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन बच क्रमि = मन से, बोलों से और कर्मों से। चितारी = याद करता रह। घूमनघेरि = (विकारों की लहरों का) चक्कर, बवंडर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पारि उतारी = (अपनी जीवन = बेड़ी को) पार लंघा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपने मन से, अपने हरेक बोल से, अपने हरेक काम से परमात्मा का नाम याद रखा कर। हे नानक! (कह: हे भाई! जगत में विकारों की लहरों का) बड़ा भयानक बवण्डर है। गुरु की शरण पड़ कर (इसमें से अपनी जिंदगी की बेड़ी को) पार लंघा।1। रहाउ। अंतरि सूखा बाहरि सूखा हरि जपि मलन भए दुसटारी ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। सूखा = सुख। बाहरि = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए। जपि = जप के। मलन भए = मले जाते हैं (शब्द ‘मलन’ व ‘मलिन’ में फर्क है। मलिन का अर्थ है ‘मलीन’)। दुसटारी = (दुष्ट+अरी) बुरे (कामादिक) वैरी।1। नोट: ‘जिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप-जप के (कामादिक) दुष्ट वैरी पराजित कर दिए जाते हैं, (तब) हृदय में सदा सुख बना रहता है, दुनिया के साथ व्यवहार करते हुए भी सुख ही टिका रहता है।1। जिस ते लागे तिनहि निवारे प्रभ जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥ पद्अर्थ: लागे = चिपके। तिनहि = तिनि ही, उस (प्रभु) ने ही। धारी = धार के, कर के।2। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु की रजा के अनुसार (ये दुष्ट वैरी) चिपकते हैं, वही प्रभु जी अपनी कृपा करके इनको दूर करता है।2। उधरे संत परे हरि सरनी पचि बिनसे महा अहंकारी ॥३॥ पद्अर्थ: उधरे = (बवंडर में से) बच गए। परे = पड़े। पचि = जल के।3। अर्थ: हे भाई! संत जन तो परमात्मा की शरण पड़ जाते हैं वह तो (इन वैरियों की मार से) बच जाते हैं, पर बड़े अहंकारी मनुष्य (इनमें) जल के आत्मिक मौत मर जाते हैं।3। साधू संगति इहु फलु पाइआ इकु केवल नामु अधारी ॥४॥ पद्अर्थ: साधू = गुरु। अधारी = आसरा।4। अर्थ: हे भाई! (संत जनों ने) गुरु की संगति में र हके परमात्मा का नाम-फल पा लिया, केवल हरि-नाम को ही उन्होंने अपनी जिंदगी का आसरा बना लिया है।4। न कोई सूरु न कोई हीणा सभ प्रगटी जोति तुम्हारी ॥५॥ पद्अर्थ: सूरु = सूरमा। हीणा = कमजोर। सभ = हर जगह।5। अर्थ: पर, हे प्रभु! (अपने आप में) ना कोई जीव शक्तिशाली है ना ही कोई कमजोर। हरेक जीव में तेरी ही ज्योति प्रकट हो रही है।5। तुम्ह समरथ अकथ अगोचर रविआ एकु मुरारी ॥६॥ पद्अर्थ: समरथ = सब ताकतों का मालिक। अकथ = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। अगोचर = (अ+गो+चर, गो = ज्ञान-इंद्रिय। चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। रविआ = व्यापक। मुरारी = मुर+अरि, परमात्मा।6। अर्थ: हे प्रभु! तू सब ताकतों का मालिक है, तेरी ताकतें बयान से परे हैं, ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती। हे प्रभु! तू स्वयं सब जीवों में व्यापक है।6। कीमति कउणु करे तेरी करते प्रभ अंतु न पारावारी ॥७॥ पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! पारावारी = पार+अवार, इस पार उस पार का किनारा।7। अर्थ: हे कर्तार! हे प्रभु! कोई जीव तेरी कीमत नहीं पा सकता। तेरा अंत तेरा इस पार उस पार को नहीं समझ सकता।7। नाम दानु नानक वडिआई तेरिआ संत जना रेणारी ॥८॥३॥८॥२२॥ पद्अर्थ: रेणारी = चरण धूल।8। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे संत-जनों की चरण-धूल लेने से तेरे नाम की दाति मिलती है, (लोक-परलोक में) सम्मान मिलता है।8।3।8।22।
असटपदीयां महला १----------------9
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |