श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जैसी अगनि उदर महि तैसी बाहरि माइआ ॥ माइआ अगनि सभ इको जेही करतै खेलु रचाइआ ॥ जा तिसु भाणा ता जमिआ परवारि भला भाइआ ॥ लिव छुड़की लगी त्रिसना माइआ अमरु वरताइआ ॥ एह माइआ जितु हरि विसरै मोहु उपजै भाउ दूजा लाइआ ॥ कहै नानकु गुर परसादी जिना लिव लागी तिनी विचे माइआ पाइआ ॥२९॥

पद्अर्थ: उदर = माँ के पेट। बाहरि = संसार में। करतै = कर्तार ने। जा तिसु भाणा = जब उस प्रभु को अच्छा लगा। परवारि = परिवार में। भला भाइआ = प्यारा लगने लग पड़ा। छुड़की = खत्म हो गई, टूट गई। अमरु = हुक्म। अमरु वरताइआ = हुक्म चला दिया, जोर डाल लिया। जितु = जिसके द्वारा। भाउ दूजा = प्रभु के बिना और का प्यार।

अर्थ: जैसे माँ के पेट में आग है वैसे ही बाहर जगत में माया (दुखदाई) है। माया और आग एक जैसी ही हैं, कर्तार ने ऐसी ही खेल रच दी है।

जब परमात्मा की रजा होती है जीव पैदा होता है परिवार में प्यारा लगता है (परिवार के जीव उस नव-जन्मे बच्चे को प्यार करते हैं, इस प्यार में फंस के उसकी प्रभु-चरणों से) प्रीति की तार टूट जाती है, माया की तृष्णा आ चिपकती है, माया (उस पर) अपना जोर डाल लेती है।

माया है ही ऐसी कि इसके कारण ईश्वर भूल जाता है, (दुनिया का) मोह पैदा हो जाता है, (ईश्वर के बिना) और किस्म के प्यार उपज पड़ते हैं (फिर ऐसी हालत में आत्मिक आनंद कहाँ मिले?)

नानक कहता है: गुरु की कृपा से जिस लोगों की प्रीत की डोर प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है, उनको माया में रहते हुए ही (आत्मिक आनंद) मिल जाता है।

भाव: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों की तवज्जो दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए ही प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है, उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है। जगत का हाल ये है कि जीव को पैदा होते को ही माता-पिता आदि के प्यार द्वारा माया प्रभु-चरणों से विछोड़ लेती है।

हरि आपि अमुलकु है मुलि न पाइआ जाइ ॥ मुलि न पाइआ जाइ किसै विटहु रहे लोक विललाइ ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै तिस नो सिरु सउपीऐ विचहु आपु जाइ ॥ जिस दा जीउ तिसु मिलि रहै हरि वसै मनि आइ ॥ हरि आपि अमुलकु है भाग तिना के नानका जिन हरि पलै पाइ ॥३०॥

पद्अर्थ: अमुलकु = जो किसी कीमत से ना मिल सके। मुलि = कीमत से, कीमत दे के। किसै विटहु = किसी भी सख्श से। विललाइ = खप खप के। रहे = रह गए, थक गए, हार गए। आपु = स्वै भाव। जिस दा = जिस परमात्मा का पैदा किया हुआ। जीउ = जीव। मनि = मन में। पलै पाइ = (गुरु के) साथ लगा देता है।

अर्थ: (जब तक परमात्मा का मिलाप ना हो तब तक आनंद नहीं पाया जा सकता, पर) प्रभु का मूल्य नहीं पड़ सकता, परमात्मा (धन आदिक) किसी कीमत से नहीं मिल सकता। जीव खप-खप के हार गए, किसी को (धन आदि) कीमत दे के परमात्मा नहीं मिला।

(हाँ,) अगर ऐसा गुरु मिल जाए (जिसके मिलने से मनुष्य के) अंदर से स्वै भाव निकल जाए (और जिस गुरु के मिलने से) जीव उस हरि के चरणों में जुड़ा रहे वह हरि उसके मन में बस जाए जिसका ये पैदा किया हुआ है, तो उस गुरु के आगे अपना सिर भेट कर देना चाहिए (अपना आप अर्पण कर देना चाहिए)।

हे नानक! परमात्मा का मूल्य नहीं आँका जा सकता (किसी कीमत पर नहीं मिलता, पर) पर परमात्मा जिनको (गुरु के) लड़ लगा देता है उनके भाग्य जाग उठते हैं (वे आत्मिक आनंद पाते हैं)।30।

भाव: किसी दुनियावी पदार्थ के बदले परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता। और, जिस हृदय में प्रभु के साथ प्यार नहीं, वहाँ आत्मिक आनंद कहाँ? हां, जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु के पल्ले से लगा देता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं।

हरि रासि मेरी मनु वणजारा ॥ हरि रासि मेरी मनु वणजारा सतिगुर ते रासि जाणी ॥ हरि हरि नित जपिहु जीअहु लाहा खटिहु दिहाड़ी ॥ एहु धनु तिना मिलिआ जिन हरि आपे भाणा ॥ कहै नानकु हरि रासि मेरी मनु होआ वणजारा ॥३१॥

पद्अर्थ: रासि = वाणज्य व्यापार करने के लिए धन की पूंजी। वणजारा = वणज करने वाला। सतिगुर ते जाणी = गुरु से पहचान प्राप्त की। जीअहु = दिल से, पूरे प्रेम से। दिहाड़ी = हर रोज। भाणा = अच्छा लगा।

अर्थ: अपने गुरु से मुझे समझ आई है कि (आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए) परमात्मा का नाम ही मेरी राशि-पूंजी (हो सकती है), मेरा मन (इस वणज का) व्यापारी बन गया है। परमात्मा का नाम मेरी राशि-पूंजी है और मेरा मन व्यापारी हो गया है।

(हे भाई!) तुम भी प्रेम से सदा हरि का नाम जपा करो, और हर रोज (आत्मिक आनंद का) लाभ कमाओ। (हरि-नाम का आत्मिक आनंद का) ये धन उनको ही मिलता है, जिन्हें देना प्रभु को खुद अच्छा लगता है। नानक कहता है: परमात्मा का नाम मेरी पूंजी बन गई है (अब गुरु की कृपा से मैं आत्मिक आनंद की कमाई कमाता हूँ)।31।

भाव: गुरु से ये समझ आती है कि आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही मनुष्य की राशि-पूंजी बननी चाहिए। ये संपत्ति उनको ही मिलती है जिस पर प्रभु स्वयं मेहर करे।

ए रसना तू अन रसि राचि रही तेरी पिआस न जाइ ॥ पिआस न जाइ होरतु कितै जिचरु हरि रसु पलै न पाइ ॥ हरि रसु पाइ पलै पीऐ हरि रसु बहुड़ि न त्रिसना लागै आइ ॥ एहु हरि रसु करमी पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ ॥ कहै नानकु होरि अन रस सभि वीसरे जा हरि वसै मनि आइ ॥३२॥

पद्अर्थ: ए रसना = हे (मेरी) जीभ! अन रसि = और ही रसों में। राचि रही = मस्त हो रही है। पिआस = स्वादों का चस्का। होरतु कितै = किसी और जगह से। पलै न पाइ = नहीं मिलता। पीऐ = पीता है। बहुड़ि = दोबारा, फिर। करमी = प्रभु की मेहर से। होरि अन रस = और दूसरे सारे स्वाद। सभि = सारे। मन = मन में।

अर्थ: हे (मेरी) जीभ! तू और ही स्वादों में मस्त हो रही है, (इस तरह) तेरे स्वादों का चस्का दूर नहीं हो सकता।

जब तक परमात्मा के स्मरण का आनंद प्राप्त ना हो, (तब तक) किसी और जगह से स्वादों का चस्का मिट नहीं सकता।

जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का आनंद मिल जाए, जो मनुष्य हरि-स्मरण का स्वाद लेने लग पड़े, उसको माया की तृष्णा छू नहीं सकती। पर, यह हरि-नाम का आनंद प्रभु की मेहर से मिलता है (उसको मिलता है) जिसको गुरु मिले।

नानक कहता है: जब हरि-स्मरण का आनंद मन में बस जाए, तब और सारे चस्के भूल जाते हैं।32।

भाव: कई तरह के खाने खाने से भी जीभ का चस्का खत्म नहीं होता। बड़ा दुखी होता है मनुष्य इस चस्के के कारण। पर जब मनुष्य को हरि-नाम-स्मरण का आनंद आने लग जाता है, जीभ का चस्का खत्म हो जाता है। परमात्मा की मेहर से जिसको गुरु मिल जाए, उसको हरि नाम का आनंद प्राप्त होता है।

ए सरीरा मेरिआ हरि तुम महि जोति रखी ता तू जग महि आइआ ॥ हरि जोति रखी तुधु विचि ता तू जग महि आइआ ॥ हरि आपे माता आपे पिता जिनि जीउ उपाइ जगतु दिखाइआ ॥ गुर परसादी बुझिआ ता चलतु होआ चलतु नदरी आइआ ॥ कहै नानकु स्रिसटि का मूलु रचिआ जोति राखी ता तू जग महि आइआ ॥३३॥

पद्अर्थ: जीउ = जीव। उपाइ = पैदा करके। जगतु दिखाइआ = जीव को जगत में भेजता है। चलतु = खेल, तमाशा। मूलु रचिआ = नींव रखी। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।

अर्थ: मेरे शरीर! (तू दुनिया के पदार्थों में से आनंद ढूँढता है पर आनंद का श्रोत तो परमात्मा है जो तेरे अंदर बसता है) तू जगत में आया ही तब, जब हरि ने अपनी ज्योति तेरे अंदर रख दी। (ये यकीन जान कि) जब परमात्मा ने तेरे अंदर अपनी ज्योति रखी, तब तू जगत में पैदा हुआ।

जो परमात्मा जीव पैदा करके उसको जगत में भेजता है वह खुद ही इसकी माँ है खुद ही इसका पिता है (प्रभु स्वयं ही माता-पिता की तरह जीव को हर तरह का सुख देता है, सुख-आनंद का दाता है ही प्रभु खुद। पर जीव जगत में से मायावी पदार्थों में से आनंद तलाशता है)। जब गुरु की मेहर से जीव को ज्ञान होता है तब इसको समझ आती है कि ये जगत तो एक खेल ही है, फिर जीव को ये जगत (मदारी का) एक तमाशा ही नजर आने लगता है (सदा-स्थिर रहने वाला आत्मिक आनंद इसमें नहीं हो सकता)।

नानक कहता है: हे मेरे शरीर! जब प्रभु ने जगत रचना की नींव रखी, तेरे अंदर अपनी ज्योति डाली, तब तू जगत में पैदा हुआ।33।

भाव: सुख-आनंद का दाता है ही परमात्मा स्वयं। पर मनुष्य जगत में मायावी पदार्थों में आनंद तलाशता फिरता है। गुरु की मेहर से ये समझ आ जाती है कि ये जगत तो मदारी का तमाशा ही है, इसमें से सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता।

मनि चाउ भइआ प्रभ आगमु सुणिआ ॥ हरि मंगलु गाउ सखी ग्रिहु मंदरु बणिआ ॥ हरि गाउ मंगलु नित सखीए सोगु दूखु न विआपए ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे आपणा पिरु जापए ॥ अनहत बाणी गुर सबदि जाणी हरि नामु हरि रसु भोगो ॥ कहै नानकु प्रभु आपि मिलिआ करण कारण जोगो ॥३४॥

पद्अर्थ: चाउ = आनंद। प्रभ आगमु = प्रभु का आना। सखी = हे सखी! हे जिंदे! मंगलु = खुशी के गीत, प्रभु के महिमा के गीत। ग्रिहु = हृदय घर। मंदरु = प्रभु का निवास स्थान। न विआपए = नहीं व्यापता, अपना दबाव नहीं डालता। सभागे = भाग्यशाली। जापए = दिख पड़ा है। अनहत = एक रस। अनहत बाणी = एक रस महिमा की लहर। सबदि = शब्द के द्वारा। जोगो = समर्थ।

अर्थ: अपनी हृदय-सेज पर प्रभु-पति का आना मैंने सुन लिया है (मैंने अनुभव कर लिया है कि प्रभु मेरे हृदय में आ के बसा है अब) मेरे मन में आनंद बन गया है। हे मेरी जिंदे! मेरा ये हृदय-घर प्रभु-पति का निवास-स्थान बन गया है, अब तू प्रभु की महिमा के गीत गा। हे जीवात्मा! सदा प्रभु की बड़ाई का गीत गाता रह, (इस तरह) कोई फिक्र कोई दुख (अपना) जोर नहीं डाल सकता।

वह दिन भाग्यशाली होते हैं जब (माथा) गुरु के चरणों पर टिके, प्यारा पति-प्रभु (हृदय में) दिखाई दे जाता है। गुरु के शब्द द्वारा एक-रस महिमा की लहर के साथ सांझ बन जाती है, प्रभु का नाम प्राप्त हो जाता है, प्रभु-मिलाप का आनंद भोगते हैं।

नानक कहता है: (हे जिंदे! खुशी के गीत गा) सब कुछ कर सकने के समर्थ प्रभु खुद आ के मुझे मिल गया है।34।

भाव: मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद तभी बनता है जब उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है। तब मनुष्य का हृदय विकारों से पवित्र हो जाता है, कोई चिन्ता कोई दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। पर ये प्रकाश गुरु के द्वारा ही होता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh