श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 922 ए सरीरा मेरिआ इसु जग महि आइ कै किआ तुधु करम कमाइआ ॥ कि करम कमाइआ तुधु सरीरा जा तू जग महि आइआ ॥ जिनि हरि तेरा रचनु रचिआ सो हरि मनि न वसाइआ ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसिआ पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ कहै नानकु एहु सरीरु परवाणु होआ जिनि सतिगुर सिउ चितु लाइआ ॥३५॥ पद्अर्थ: किआ करम = कौन से काम? और ही काम। जिनि हरि = जिस हरि ने। तेरा रचनु रचिआ = तुझे पैदा किया। मनि = मन में। मंनि = मन में। जिनि = जिस मनुष्य ने। परवाणु = स्वीकार, सफल। अर्थ: हे मेरे शरीर! इस जगत में जनम ले के तू और ही काम करता रहा। जबका तू संसार में आया है, तू (प्रभु-स्मरण के बिना) और-और ही काम करता रहा। जिस हरि ने तुझे पैदा किया है, उसको तूने अपने मन में नहीं बसाया (उसकी याद में कभी नहीं जुड़ा)। (पर, हे शरीर! तेरे भी क्या वश?) जिस मनुष्य के पूर्बले किए कर्मों के संस्कार उघड़ते हैं, गुरु की कृपा से उसके मन में परमात्मा बसता है (वही हरि स्मरण में जुड़ता है)। नानक कहता है: जिस मनुष्य ने गुरु चरणों में चिक्त जोड़ लिया, (उसका) ये शरीर सफल हो जाता है (वह मनुष्य वह उद्देश्य पूरा कर लेता है जिस वास्ते ये बनाया गया)।35। भाव: पिछले किए कर्मों के संस्कारों का प्रेरा हुआ मनुष्य बार-बार वैसे काम ही करता रहता है। परमात्मा का नाम स्मरण करने की तरफ अपने आप नहीं परत सकता। फिर आत्मिक आनंद कैसे मिले? अच्छे भाग्यों से जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब इसकी जिंदगी कामयाब होती है। ए नेत्रहु मेरिहो हरि तुम महि जोति धरी हरि बिनु अवरु न देखहु कोई ॥ हरि बिनु अवरु न देखहु कोई नदरी हरि निहालिआ ॥ एहु विसु संसारु तुम देखदे एहु हरि का रूपु है हरि रूपु नदरी आइआ ॥ गुर परसादी बुझिआ जा वेखा हरि इकु है हरि बिनु अवरु न कोई ॥ कहै नानकु एहि नेत्र अंध से सतिगुरि मिलिऐ दिब द्रिसटि होई ॥३६॥ पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। जोति = रौशनी। निहालिआ = निहालो, देखो। नदरी = नजर से, आँखों से। विसु = विश्व, सारा। नदरी आइआ = दिखता हैं अंध = अंधे। से = थे। दिब = (दिव्य) चमकीली, रौशन। द्रिसटि = नजर। अर्थ: हे मेरी आँखों! परमात्मा ने तुम्हारे अंदर (अपनी) ज्योति टिकाई है (तभी तुम देखने के लायक हो) जिधर देखो, परमात्मा का ही दीदार करो, परमात्मा के बिना और कोई ग़ैर ना दिखे, निगाहों से हरि को देखो। (हे आँखों!) ये सारा संसार जो तुम देख रही हो, ये प्रभु का ही रूप है, प्रभु का ही रूप दिख रहा है। गुरु की कृपा से मुझे समझ पड़ी है, अब मैं जब (चुफेरे) देखता हूँ, हर जगह एक परमात्मा ही दिखता है, उसके बिना और कुछ नहीं। नानक कहता है: (गुरु को मिलने से पहले) ये आँखें (असल में) अंधी थीं, जब गुरु मिला, इनमें रौशनी आई (इन्हें हर जगह परमात्मा दिखने लगा। यही दीदार आनंद का मूल है)।26। भाव: जब तक मनुष्य जगत में किसी को वैर भाव से देखता है किसी को मित्रता के भाव से, तब तक इसके अंदर मेर-तेर है। जहाँ मेर-तेर है, वहाँ आत्मिक आनंद नहीं हो सकता। गुरु को मिल के मनुष्य की आँखें खुलती हैं, फिर इसको हर जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखाई देता है। यही दीदार है आनंद का मूल। ए स्रवणहु मेरिहो साचै सुनणै नो पठाए ॥ साचै सुनणै नो पठाए सरीरि लाए सुणहु सति बाणी ॥ जितु सुणी मनु तनु हरिआ होआ रसना रसि समाणी ॥ सचु अलख विडाणी ता की गति कही न जाए ॥ कहै नानकु अम्रित नामु सुणहु पवित्र होवहु साचै सुनणै नो पठाए ॥३७॥ पद्अर्थ: स्रवण = कान। पठाए = भेजे। साचै = सदा स्थिर प्रभु ने। सरीरि = शरीर में। सति बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली वाणी। जितु = जिससे। जितु सुणी = जिसके सुनने से। रसि = आनंद में। हरिआ = खिला हुआ, आनंद से भरपूर। रसना = जीभ। विडाणी = आश्चर्य। गति = हालत। अंम्रित = आत्मिक आनंद देने वाला। अर्थ: हे मेरे कानो! परमात्मा की महिमा की वाणी सुना करो, सदा स्थिर कर्तार ने तुम्हें यही सुनने के लिए बनाया है, इस शरीर में स्थापित किया है। इस महिमा की वाणी सुनने से तन तन आनंद-भरपूर हो जाता है, जीभ आनंद में मस्त हो जाती है। सदा स्थिर परमात्मा तो आश्चर्य रूप है, उसका कोई चिन्ह-चक्र बताया नहीं जा सकता, ये नहीं कहा जा सकता है कि वह कैसा है (उसके गुण कहने-सुनने से सिर्फ यही लाभ होता है कि मनुष्य को आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, तभी तो) नानक कहता है: आत्मिक आनंद देने वाला नाम सुना करो, तुम पवित्र हो जाओगे, परमात्मा ने तुम्हें यही सुनने के लिए भेजा (बनाया) है। भाव: जिस मनुष्य के कानों को अभी निंदा-चुगली सुनने का चस्का है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद पैदा नहीं हुआ। आत्मिक आनंद की प्राप्ति उसी मनुष्य को है जिसके कान जिसकी जीभ जिसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ परमात्मा की महिमा में मगन रहती हैं। वही ज्ञान-इन्द्रियाँ पवित्र हैं। हरि जीउ गुफा अंदरि रखि कै वाजा पवणु वजाइआ ॥ वजाइआ वाजा पउण नउ दुआरे परगटु कीए दसवा गुपतु रखाइआ ॥ गुरदुआरै लाइ भावनी इकना दसवा दुआरु दिखाइआ ॥ तह अनेक रूप नाउ नव निधि तिस दा अंतु न जाई पाइआ ॥ कहै नानकु हरि पिआरै जीउ गुफा अंदरि रखि कै वाजा पवणु वजाइआ ॥३८॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद, जीवात्मा। गुफा = शरीर। पवणु वाजा वजाइआ = श्वास रूप बाजा बजाया, बोलने की शक्ति दी। नउ दुआरे = नौ द्वार = 1मुँह, 2कान, 2 आँखें, 2 नासिकाएं, 1 गुदा, 1 लिंग। दसवा दुआर = (भाव) दिमाग (जिसके द्वारा मनुष्य विचार कर सकता है)। भावनी = श्रद्धा, प्रेम। तह = उस अवस्था में। अनेक रूप नाउ = अनेक रूप वाले प्रभु का नाम। निधि = खजाना। अर्थ: परमात्मा ने जीवात्मा को शरीर गुफा में टिका के जीव को बोलने की शक्ति दी। शरीर को बोलने की शक्ति दी, नाक-कान आदि नौ कर्म-इंद्रिय प्रत्यक्ष रूप से बनाई, दसवें द्वार (दिमाग़) को छुपा के रखा। प्रभु ने जिनको गुरु दर पर पहुँचा के अपने नाम की श्रद्धा बख्शी, उनको दसवाँ दर भी दिखा दिया (उनको नाम-जपने की विचार-सत्ता भी दे दी जो आत्मिक आनंद का मूल है)। उस अवस्था में मनुष्य को अनेक रूपों-रंगों में व्यापक प्रभु का वह नाम-रूपी नौ खजानों का भण्डार भी प्राप्त हो जाता है जिसका अंत नहीं पड़ सकता (जो कभी खत्म नहीं होता)। नानक कहता है: प्यारे प्रभु ने जिंद को शरीर-गुफा में टिका के जीव को बोलने की शक्ति भी दी।38। भाव: माया के प्रभाव के कारण ज्ञान-इंद्रिय मनुष्य को मायावी पदार्थां की तरफ ही भगाए फिरती हैं। ये रास्ता ठीक है अथवा गलत - ये विचार करने वाली शक्ति दबी ही रहती है। जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु के दर पर पहुँचाता है, उसकी विचार-शक्ति जाग उठती है। वह मनुष्य प्रभु के नाम में जुड़ता है और आत्मिक आनंद पाता है। एहु साचा सोहिला साचै घरि गावहु ॥ गावहु त सोहिला घरि साचै जिथै सदा सचु धिआवहे ॥ सचो धिआवहि जा तुधु भावहि गुरमुखि जिना बुझावहे ॥ इहु सचु सभना का खसमु है जिसु बखसे सो जनु पावहे ॥ कहै नानकु सचु सोहिला सचै घरि गावहे ॥३९॥ पद्अर्थ: सोहिला = खुशी का गीत, आत्मिक आनंद पैदा करने वाला गीत, प्रभु की महिमा की वाणी। साचै घरि = सदा स्थिर रहने वाले घर में, साधु-संगत में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। गावहु = गावहि, (सत्संगी) गाते हैं। भावहि = अगर तुझे अच्छे लगें (हे प्रभु!)। बुझावहे = तू सूझ बख्शे। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। पावहे = प्राप्त करते हैं, पाए। गावहे = गाते हैं, गाए। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के महिमा की यह वाणी साधु-संगत में (बैठ के) गाया करो। उस सत्संग में आत्मिक आनंद देने वाली वाणी गाया करो, जहाँ (गुरसिख-जन) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को सदा गाते हैं। हे प्रभु! तुझ सदा-स्थिर को तब ही जीव स्मरण करते हैं जब तुझे अच्छे लगें, जिन्हें तू गुरु के द्वारा ये सूझ बख्शे। (हे भाई!) सदा-स्थिर प्रभु सब जीवों का मालिक है, जिस-जिस पर वह मेहर करता है वह वह जीव उसे प्राप्त कर लेते हैं। और, नानक कहता है, वह सत्संग में (बैठ के) प्रभु की महिमा की वाणी गाते हैं।39। भाव: जिस मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर होती है, वे गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा की वाणी गाते हैं और आत्मिक आनंद पाते हैं। अनदु सुणहु वडभागीहो सगल मनोरथ पूरे ॥ पारब्रहमु प्रभु पाइआ उतरे सगल विसूरे ॥ दूख रोग संताप उतरे सुणी सची बाणी ॥ संत साजन भए सरसे पूरे गुर ते जाणी ॥ सुणते पुनीत कहते पवितु सतिगुरु रहिआ भरपूरे ॥ बिनवंति नानकु गुर चरण लागे वाजे अनहद तूरे ॥४०॥१॥ पद्अर्थ: विसूरे = चिन्ता फिक्र। संताप = कष्ट। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सरसे = स+रस, रहे, आनंद भरपूर। गुर ते = गुरु से। सतिगुरू रहिआ भरपूरे = गुरु (अपनी वाणी मैं) भरपूर है, वाणी गुरु रूप है। अनहद = एक रस। तूरे = बाजे। मनोरथ = मन की दौड़ें। अर्थ: हे बड़े भाग्यों वालो! सुनो, आनंद यह है कि (उस अवस्था में) मन की सारी दौड़ें समाप्त हो जाती हैं (सारे संकल्प सफल हो जाते हैं), परम आत्मा प्रभु मिल जाता है, सारे चिन्ता-फिक्र मन से उतर जाते हैं। अकाल-पुरख की महिमा की वाणी सुनने से सारे दुख-रोग-कष्ट मिट जाते हैं। जो संत-गुरसिख पूरे गुरु से महिमा की वाणी से सांझ डालनी सीख लेते हैं उनके हृदय खिल उठते हैं। इस वाणी को सुनने वाले उचारने वाले सब पवित्र आत्मा वाले हो जाते हैं, इस वाणी में उनको सतिगुरु ही दिखाई देता है। नानक विनती करता है: जो लोग गुरु के चरणों में लगते हैं, उनके अंदर एक-रस (खुशी के) बाजे बज उठते हैं (उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है)।40। भाव: आत्मिक आनंद के लक्षण: जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, उसकी भटकना दूर हो जाती है, उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं, कोई दुख-रोग कोई कष्ट उस पर जोर नहीं डाल सकते। आनंद की यह अवस्था सतिगुरु की वाणी से ही प्राप्त होती है। इस वाणी को गाने वालों सुनने वालों के जीवन ऊँचे हो जाते हैं। इस वाणी में उन्हें सतिगुरु ही प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |