श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 923 रामकली सदु॥ ੴ सतिगुर प्रसादि॥ (पन्ना ९२३) इस वाणी का पहला टीका संन् 1935 में सिख ऐजुकेश्नल कान्फ्रैंस का समागम गुजरांवाले हुआ। उसी कान्फ्रैंस के पण्डाल में मुझे गुरबाणी व्याकरण के बारे में अपने विचार प्रकट करने का मौका मिला। अखबारों के प्रतिनिघि भी मौजूद थे। मैंने व्याकरण की व्याख्या के समय ‘सद’ की पाँचवीं पौड़ी का हवाला भी दिया। मासिक पत्रिका ‘अमृत’ के ऐडीटर स. गंगा सिंह जी ने मुझे समागम के बाद में कहा कि मैं उस सारी वाणी की व्याख्या व्याकरण के अनुसार लिख के किताब की शकल में पेश करूँ। ‘अमृत’ की अपनी प्रेस थी। उन्होंने मेरा ट्रैक्ट ‘रब्बी सद्दा’ छाप दिया। वह ट्रैक्ट ‘रब्बी सद्दा’ कई सालों से खत्म हो चुका था। पर और-और टीकों, लेखों और पुस्तकों की व्यस्तता के कारण मैं उसका दूसरा संस्करण जल्दी ना छपवा सका। दूसरी बार ये टीका ‘सद सटीक’ के नाम तहत दिसंबर 1953 में छपा। इसकी अंदरूनी शकल बहुत कुछ बदला के इसको मौजूद रूप दे दिया गया। हाँ, मूल के टीके में कोई फर्क डालने की आवश्यक्ता नहीं थी पड़ी। तब मैं खालसा कालेज अमृतसर से रिटायर हो चुका था, और, मुझे शहीद सिख मिशनरी कालेज अमृतसर में रिहायश लायक जगह मिली हुई थी। –साहिब सिंह रामकली सदु॥ ੴ सतिगुर प्रसादि॥ हिन्दू मत के अनुसार अंतिम संस्कार जब किसी हिन्दू घर में कोई प्राणी मरने लगता है, तो उसके पुत्र–स्त्री आदि वारिस शास्त्रों में बताई मर्यादा के अनुसार उसको चारपाई से नीचे उतार लेते हैं। जमीन पर कपड़ा आदि बिछाने की मर्यादा है। उसके हाथ की तली पर आटे की दीया रख के जला देते हैं, और दीए में ब्राहमण की भेटा के लिए सामर्थ्य अनुसार अठन्नी रुपया आदि चांदी-सोने का सिक्का डाल देते हैं। इस मर्यादा का भाव वे यह समझते हैं कि मरने वाले प्राणी की आत्मा ने आगे बड़े अंधकार भरे रास्तों में से गुजरना है, जहाँ रास्ता देखने के लिए उसको प्रकाश की आवश्यक्ता पड़ती है। मरने के वक्त उसकी तली पर रखा हुआ दीया उसको परलोक के रास्तों में रौशनी देता है। जब आदमी मर जाता है, तब उसके शरीर का संस्कार करने से पहले जौ के आटे के पेड़े पत्तलों पर रख के मणसे जाते हैं। ब्राहमण पुराण आदि के मंत्र पढ़ता है। सूर्य की ओर मुँह करके पानी की चुल्लियाँ भी भेटा की जाती हैं। ये उस विछुड़ी रूह के लिए ख़ुराक भेजी जाती है। घर से चल के शमशान से पहले आधे रास्ते पर मृतक का फट्टा नीचे रख दिया जाता है। घर से चलने के वक्त मिट्टी का एक कोरा बर्तन साथ ले लेते हैं। उस अर्धमार्ग पे वह बर्तन तोड़ देते हैं, और मरे हुए प्राणी का पुत्र आदि बहुत ऊँची डरावनी आवाज में ढाहें मारता है। इस रस्म के तहत ख्याल ये है कि मृतक की आत्मा शारीरिक मोह के कारण अभी उस मुर्दे के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगा रही है। इस भयानक आवाज से उसे डराते हैं कि चली जाए। संस्कार करने के वक्त ब्राहमण फिर कुछ मंत्र पढ़ता है। संस्कार के बाद बच रही हड्डियों (अस्थियों) को हरिद्वार गंगा नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। हिन्दू-विचार के अनुसार जिस की अस्थियां गंगा में डाली जाएं उसकी गति नहीं होती। मरने के बाद 13 दिन तक हरेक प्राणी की आत्मा प्रेत बनी रहती है, और अपने छोड़े हुए घरों के इर्द-गिर्द ही भटकती फिरती है। जिनका कोई मरता है, उनके घर के शरीके बिरादरी के घरों में से औरतें-मर्द रात को आ के सोते हैं। सवेरे पहर रात रहते मरे हुए प्राणी का पुत्र आदि उठ के ढाहें मारता है। 13 दिन हर सुबह यही कुछ होता है। यह भी मृतक की आत्मा को डराने के लिए किया जाता है। (नोट: जैसे जैसे लोग विद्या के प्रकाश के कारण समझदार होते जा रहे हैं, ये ढाहें मारने वाली रस्म हटती जा रही है)। तेरहवें दिन मृतक की किरिया की जाती है आचार्य आ के ये रस्म करवाता है। ये रस्म विछुड़ी आत्मा को प्रेत जून में से निकाल के पितृ लोक तक पहुँचाने के लिए की जाती है। शास्त्रों के अनुसार ख्याल ये बना हुआ है कि पितृ लोक पहुँचने के लिए 360 दिन लगते हैं। रास्ता है अनदेखा और अंधकार भरा। इसलिए किरिया करने के वक्त 360 दीए बक्तियाँ और आवश्क्ता अनुसार तेल ला के रख देते हैं। जब वेद-मंत्र आदि पढ़ने की सारी रस्म पूरी जाती है, तब वह बक्तियाँ इकट्ठी करके तेल में भिगो के जला दी जाती हैं, और इस तरह मरे हुए प्राणी को पितृ लोक के लंबे रास्ते में 360 दिन रौशनी मिलती रहती है। इन एक साथ जलाए हुए दीयों के अलावा भी शनि देवते के मन्दिर में साल भर हर रोज दीया जलाने के लिए भी तेल भेजा जाता है। किरिया वाले दिन भी विछुड़ी हुई रूह के लिए खुराक के लिए पिंड भराए जाते हैं। किरिया वाले दिन से ले के एक साल हर रोज ब्राहमण को भोजन करवाया जाता है। नोट: संस्कार करने के बाद से किरिया वाले दिन तक गरुड़ पुराण की कथा भी कराई जाती है। आम तौर पर ब्राहमण को विनती की जाती है कि अपने घर बैठ के ही गरुड़ का पाठ करता रहे। साल के बाद मरने की तिथि पर ही वरीण (बरसी) किया जाता है। खुराक के इलावा विछुड़े हुए प्राणी के लिए बर्तन-वस्त्र आदि भी भेजे जाते हैं। सारा सामान आचार्य को दान किया जाता है। इसके बाद हर साल श्राद्धों के दिनों में उस तिथि पर ब्राहमणों को भोजन करवाया जाता है। ये भी विछड़े हुए संबंधी को पहुँचाने के लिए ही होता है। यदि कोई प्राणी बहुत ज्यादा उम्र का हो के मरे, पौत्र-परपौत्र वाला हो जाए तो उसका संस्कार करने के वक्त ‘वडा’ करते हैं। जिस फट्टे पर मुर्दा उठा के ले जाया जाता है, उस फट्टे को सुंदर कपड़ों व फूलों से सजाते हैं। मुर्दा ले जाने के वक्त उसके ऊपर से उसके पौत्र-परपौत्र आदि छुहारे-मखाने पैसे आदि फेंकते हैं। इस रस्म को ‘बबाण’ निकालना कहा जाता है। पुराण पुराण - व्यास ऋषि अथवा उनके नाम पर विद्वानों द्वारा लिखे हुए इतिहास से मिले हुए धर्म-ग्रंथ। इनकी गिनती 18 है। इनमें चार लाख शलोक हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पुराण के लक्षण ये हैं: जगत की उत्पक्ति और पर्लय, देवताओं और पितरों की बंसावली, मनु के राज का समय और उसका हाल, सुर्य और चंद्रवंश की कथा –जिसमें ये पाँच प्रसंग हों वह पुराण है। गरुड़ पुराण हिन्दू मानते हैं कि हरेक देवते का कोई विशेष वाहन (सवारी) होता है। जैसे गणेश की सवारी चूहा, ब्रहमा की सवारी हंस, शिव की सवारी बैल। इसी तरह गरुड़ विष्णु की सवारी माना जाता है। गरुड़ पुराण में विष्णु आपने वाहन गरुड़ को जम-मार्ग का हाल सुनाता है, और कहता है: मरने के बाद जीव प्रेत जूनि प्राप्त करता है, और इसका शरीर अंगूठे जितना हो जाता है। मरे हुए प्राणी के लिए पिंड भराने आवश्यक हैं। इनकी सहायता से प्रेत का शरीर दस दिनों में हाथ जितना हो जाता है। जब प्राणी मरने लगे तो उसको स्नान और सालिगराम की पूजा करनी चाहिए। सालिगराम सारे पापों का नाश करता है। अगर मरने के वक्त प्राणी के मुँह में सालिगराम का चरणामृत पड़े, तो उसके सारे पाप दूर हो जाते हैं। जैसे रुई के ढेर आग की एक चिंगारी से जल के राख हो जाते हैं, वैसे ही मरने के वक्त प्राणी शब्द गंगा कहने से मुक्त हो जाता है। प्रेत-कर्म करवाने के लिए मरे प्राणी के संस्कार से पहले उसका पुत्र व अन्य नजदीकी संबंधी मुण्डन करें। ये अत्यंत आवश्यक है। प्रेत की खातिर मंत्र के साथ तिल व घी की आहुति देनी चाहिए, और बहुत रोना चाहिए। ऐसा करने से मरे हुए प्राणी को सुख मिलता है। ग्यारह दिन-रात हर वक्त दीया जलते रहना चाहिए। इस दीए से जम-मार्ग में प्रकाश होता है। प्रेत-कर्म करने से प्राणी दस-दिनों में ही सारे पापों से छुटकारा पा लेता है। गरुड़ पुराण को सुनने और सुनाने वाले पापों से मुक्त हो जाते हैं। इस पुराण को वाचने वाले पण्डित को कपड़े, गहने, गऊ, अन्न, सोना, जमीन आदि सब कुछ दान करना चाहिए, नहीं तो फल की प्राप्ति नहीं होती। कथा सुनाने वाला अगर प्रसन्न हो जाए, तो हे गरुड़! दान करने वाले पर मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। गुरु अमरदास जी के बारे में किरिया का भुलेखा ‘सद’ की पाँचवीं पउड़ी को पढ़ कर सिख जनता आम तौर पर धोखा खा जाती है, और अनेक सज्जन ये समझने लग जाते हैं कि इस पउड़ी में गुरु अमरदास जी द्वारा किरिया करने की हिदायत का वर्णन है। मेरा ‘गुरबाणी व्याकरण’ संन 1938 में छपा था। अब तो पढ़े-लिखे सज्जनों को कोई शक नहीं रह गया होगा कि गुरु साहिब जी के वक्त की पंजाबी और अब की पंजाबी के व्याकरण में बहुत ज्यादा फर्क है। गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को सही ढंग से समझने के लिए ये अत्यंत जरूरी है कि उस वक्त की पंजाबी के व्याकर्णिक नियमों की थोड़ी बहुत समझ हो। पाठकों की सहूलत के लिए पाँचवीं पउड़ी के अर्थों में शब्द– पंडित, पढ़हि और पावऐ – की व्याकर्णिक वाकफियत देने की खातिर बहुत विस्तार से काम लिया गया है, ता कि किसी शक की गुंजायश ना रह सके। भूमिका में सरसरी सी जान-पहचान करने के लिए सिर्फ यही बताना काफी है कि शब्द ‘पण्डित’ बहुवचन है, शब्द ‘पढ़हि’ भी बहुवचन है। हिन्दू सज्जन मरे हुए प्राणी के बाद किरिया करवाते हैं। किरिया करने वाले ब्राहमण को आचार्य कहा जाता है। ये आचार्य खानदानी ही चले आ रहे हैं। हरेक घर का एक ही आचार्य होता है। अगर गुरु अमरदास जी द्वारा किरिया की हिदायत होती तो शब्द ‘पण्डित’ यहाँ एकवचन में होता, अक्षर ‘त’ के अंत में ‘ु’ की मात्रा लगी होती। शब्द ‘गोपाल’ संबंध कारक में है। ‘केसो गोपाल पंडित’ का अर्थ है ‘केसो–गोपाल के पण्डित’। केशव और गोपाल परमात्मा के नाम हैं, जैसे; ‘कबीर केसो केसो कूकीअै’, और ‘गोपाल तेरा आरता’। सतिगुरु जी द्वारा हिदायत ये है कि हमारे पीछे परमात्मा के पण्डितों को बुलाना, भाव सत्संगियों को बुलाना जो आ के गरुड़ पुराण की जगह ‘हरि हरि कथा’ पढ़ें। इसी हिदायत की प्रौढ़ता अगली दो तुकों में की गई है; “हरि कथा पढ़ीऐ, हरि नामु सुणीऐ॥ ” शब्द ‘पावऐ’ वर्तमान काल है, अन्नपुरख, एक वचन। इसका अर्थ है; ‘पाता है’। किसी भी हालत में ये शब्द हुकमी भविष्यत काल (imperative mood) में नहीं है। तीसरी तुक की जिक्र है कि “बेबाणु हरि रंगु भावऐ” (गुरु को हरि का प्यार-रूपी बेबाण अच्छा लगता है)। चौथी तुक के शब्द ‘पावऐ’ का कर्ता शब्द ‘गुरु’ है (गुरु पिंड पतलि किरिआ दीवा फूल – ये सब कुछ ‘हरिसर’ (हरि के सरोवर) में डालता है, भाव, इस सारी रस्म को गुरु सत्संग से सदके करता है)। किरिआ आदिक बारे गुरु नानक देव जी की हिदायत ये बात नि: संदेह साबित हो चुकी है कि गुरु नानक देव जी अपनी सारी वाणी स्वयं लिख के अपने साथ रखते रहे थे। अपने हाथों से उन्होंने ये सारी ही गुरु अंगद देव जी के हवाले कर दी थी। गुरु अंगद देव जी ने अपनी वाणी समेत ये सारा संग्रह गुरु अमरदास जी को दे दिया था। इस तरह सिलसिलेवार पहले चार गुरु-व्यक्तियों की सारी वाणी गुरु रामदास जी द्वारा गुरु अरजन साहिब को मिल गई थी। (पढें मेरे लेख इसी ग्रंथ के तीसरे भाग में) गुरु नानक देव और गुरु अमरदास जी की वाणी को आमने-सामने रख के ये भी पूरी तरह साबित किया जा चुका है कि गुरु अमरदास जी गुरु नानक देव जी की सारी वाणी को बड़े ध्यान से पढ़ते रहते थे। इस वाणी के बारे में उनका अभ्यास कमाल दर्जे का था। हिंदू प्राणी के अंतिम संस्कार का दीया, पिंड, पतल, किरिआ आदि – के बारे में गुरु नानक देव जी ने पहली ‘उदासी’ के दौरान गया तीर्थ पर पहुँच कर जो अपने विचार प्रगट किए थे, और सारी वाणी के संग्रह में आकर गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे, वो ये थे: आसा महला १॥ दीवा मेरा एकु नामु, दुखु विचि पाइआ तेलु॥ उनि चानणि ओहु सोखिआ, चूका जम सिउ मेलु॥१॥ लोका मत को फकड़ि पाइ॥ लख मड़िआ करि एकठे, एक रती ले भाहि॥१॥ रहाउ॥ पिंडु पतलि मेरी केसउ, किरिआ सचु नामु करतारु॥ ऐथै ओथै आगै पाछै, एहु मेरा आधारु॥२॥ गंग बनारसि सिफति तुमारी, नावै आतम राउ॥ सचा नावणु तां थीऐ, जां अहिनिसि लागै भाउ॥३॥ इक लोकी होरु छमिछरी, ब्राहमणु वटि पिंडु खाइ॥ नानक पिंडु बखसीस का, कबहूँ निखूटसि नाहि॥४॥ (पन्ना ३५८) दीया–बाती, पिंड भराने, किरिया करवानी, फूल हरिद्वार ले जाने– इस सारी ही मर्यादा के बारे में सिख-धर्म के बानी गुरु नानक देव जी ने अपने नाम-लेवा सिखों के लिए हिदायत संन 1509 की वेसाखी के समय स्पष्ट कर दी थी। अपनी सांसारिक जीवन के बाकी 30 साल इस हिदायत का प्रचार करते रहे, और अपने सिखों को इस पर चलाते रहे। ये कोई छोटी सी बात नहीं थी। सारी हिंदू जनता किरिया आदि मर्यादा संबंधी सदियों से ब्राहमणों की मुथाज चली आ रही है। गुरु नानक देव जी ने अपने सिखों को इन बंधनो से स्वतंत्र कर दिया। जहाँ तक रोज का संबंध था, ब्राहमणों को गुरु नानक देव जी और उनके गद्दी-नशीन गुरु-व्यक्तियों से भारी खतरा दिखाई दिया। गुरु इतिहास को ध्यान से पढ़ने वाले सज्जन जानते हैं कि ब्राहमण ने गुरु नानक देव जी के समय से ही सिख धर्म की विरोधता करनी आरम्भ कर दी थी। ये सवाल ही पैदा नहीं होता कि तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी ब्राहमणों वाली उसी गुलामी में दोबारा खुद पड़ कर अपने सिखों के लिए भी वही अधीनता नए सिरे से कायम कर जाते। हिंदू सज्जन की किरिया होती है कि उसको प्रेत जून में से निकाल के पित्र लोक में पहुँचाया जाए। गुरु अमरदास जी के बारे में ऐसा कोई रंचक मात्र विचार भी लाना एक सिख के लिए अति दर्जे की मानसिक गिरावट है। गुरु अमरदास जी और तीर्थ यात्रा जिस लोगों की दीया-बाती पिंड-पत्तल आदि में श्रद्धा है, उनके लिए ये भी जरूरी है कि अपने मरें प्राणी की अस्थियाँ (फूल) हरिद्वार ले जा के गंगा में जल-प्रवाह करें। दूसरे शब्दों में यूँ कह लो कि किरिया आदि के श्रद्धालु के हरिद्वार तीर्थ और गंगा का स्नान अति जरूरी है। पर इस बारे में भी गुरु नानक देव जी ने उसी शब्द में साफ लिख दिया हैकि परमात्मा की सिफतासालाह ही हमारे वास्ते गंगा का स्नान है। सिख इतिहास लिखता है कि गुरु अंगद साहिब के पास संन 1541 में आने से पहले गुरु अमरदास जी 19 साल हरिद्वार जाते रहे। ये उनका हर साल का नियम थां पर सतिगुरु जी की शरण आ के उन्होंने हिंदू मत वाला तीर्थ-स्नान का नियम ग़ैर-जरूरी समझ लिया। संन् 1541 के बाद अपने 34 साल के शारीरिक जीवन में वे सिर्फ एक बार हरिद्वार गए संन् 1558 में, जब उन्हें गुरु-गद्दी पर बैठे 6 साल हो चुके थे। वह भी एक बार क्यों गए थे? जैसे गुरु नानक देव जी ‘चढ़िया सोधण धरति लुकाई।’ गुरु अमरदास जी के हरिद्वार जाने के बारे में गुरु रामदास जी ने (चौथे गुरु साहिब ने) तुखारी राग में लिखा है; “तीरथ उदमु सतिगुरू कीआ, सभ लोक उधरण अरथा॥ ” गुरु की शरण आना, गुरु के शब्द में जुड़ना -सिर्फ यही था सच्चा तीर्थ गुरु अमरदास जी की नजरों में। सूही राग की अष्टपदियों में आप ने लिखा है; ‘सचा तीरथु जितु सतसरि नावणु गुरमुखि आपि बुझाए॥ सो, जहाँ प्राणी के अंतिम संस्कार के बारे में सिख-धर्म का दृष्टिकोण हिंदू धर्म से बदल चुका था, वहीं तीर्थ स्नान के बारे में भी अलग हो गया था। ‘सद’ का बीड़ में शामिल किया जाना गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को उस वक्त के व्याकरण के अनुसार समझने में सिख पंथ की लापरवाही ने कई शबदों के बारे में भुलेखे खड़े कर दिए। जैसे ‘सद’ की पाँचवीं पउड़ी से ये भुलेखा बना, इसी तरह भक्तों के कई शब्द भी गुरमति के उलट समझे जाने लगे। शबदों की सही समझ ना पड़ सकने के कारण कई तरह की हास्यास्पद कहानियां-साखियां भी चल पड़ीं। इसका नतीजा ये निकला कि कई सज्जनों ने ये मान्यता बना ली कि भक्त-वाणी, सत्ते बलवंड की वार आदि कुछ बाणियां गुरु अरजन साहिब की शहीदी के बाद बाबा पृथी चंद जी ने जहाँगीर के साथ साजिश करके ‘बीड़’ में दर्ज करवा दी थीं। इस प्रस्ताव का उक्तर भी हम इस ग्रंथ के तीसरे संस्करण में दे चुके हैं उसे अब यहाँ दोहराने की जरूरत नहीं है। यहाँ सिर्फ गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल ‘अंकों’ का हवाला दे के बताया जाएगा कि वाणी ‘सदु’ गुरु अरजन साहिब ने स्वयं ही दर्ज कराई थी। 1430 पृष्ठों वाली ‘बीड़’ के अनुसार रामकली राग में बरते अंकों पर विचार की जाएगी। यह राग पन्ना 876 से शुरू होता है। मर्यादा के अनुसार सबसे पहले गुरु नानक देव जी के शब्द हैं। पन्ना 879 पर कुल जोड़ 11 दिया गया है। पन्ना 880– शब्द गुरु अमरदास जी। सिर्फ एक ही शब्द है। इसी ही पन्ने पर गुरु रामदास जी के शब्द शुरू होते हैं। पन्ना 882 पर इन शब्दों का जोड़ 6 दिया गया है। यहीं तीनों गुरु-व्यक्तियों के शबदों का जोड़ 18 भी लिखा मिलता है: 11+1+6=18. पन्ना 882 से गुरु अरजन देव जी के शब्द शुरू हुए हैं। पन्ना886 पर ‘घरु १’ के 11 शब्द खत्म होते हैं। आगे ‘घरु २’ के शब्द हैं। अंक दोहरा कर दिया गया है। पन्ना 901 पर ये कड़ी खत्म होती है। दोहरा जोड़ है।45।56।, भाव 45 शब्द ‘घर २’ के हैं, और 11 ‘घरु १’ के। पर ये तकरीबन सारे शब्द चउपदे हैं। पन्ना 901 पर ‘घरु २’ के ही दो शब्द दुपदे अलग दे के सारा जोड़ 58 दिया गया है। आगे ‘पड़ताल घरु ३’ के दो शब्द हैं। और, आखिर पर गुरु अरजन साहिब के सारे शबदों का जोड़ 60 दिया गया है। असटपदीया: पन्ना 902 पर गुरु नानक देव जी की। पन्ना 908 पर समाप्त। जोड़ 9 पन्ना 908 से गुरु अमरदास जी की। पन्ना 912 पर समाप्त। जोड़ 5। दोनों का जोड़ 14 भी दिया गया है। पन्ना 912 से गुरु अरजन साहिब की। पन्ना 916 पर समाप्त। जोड़ 8। तीनों गुरु-व्यक्तियों की असटपदीयों का जोड़ 22। पन्ना 917 से महला ३ की वाणी अनंदु। 40 पउड़ियों की पूरी वाणी पन्ना 922 पर समाप्त होती है आखिरी अंक 1, भाव ये एक वाणी समझी जाए। पन्ना 923 से ‘सदु’। 6 पउड़ीओं की एक वाणी। 924 पर आखिरी अंक।6।1। पन्ना 924 से ‘छंत महला ५’ के। पन्ना 927 के 4 छंत समाप्त होते हैं, पर पाँचवें छंत की सिर्फ 2 तुकें हैं। इससे आगे ‘महला ५’ कर ‘रुती सलोक’ है। ये एक लंबा छंद है शलोकों समेत। इसके 8 बंद हैं, हरेक के साथ एक-एक शलोक है। सारे छंद को एक (१) समझना है। इस वास्ते पन्ना 929 पर इसके आखिर में अंक है।8।1। पर इस अंक के साथ ही अंक हैं।6।8। इन्हें जरा समझने की जरूरत है। असटपदीयों के समाप्त होने पर
अनंदु----------------1 वाणी असटपदीयों के बाद पहले महला ३ की वाणी ‘अनंदु’ है, आखिर में महला ५ का ‘रुती सलोक’ है। और ‘सदु’ समेत जोड़ 8 दिया हुआ है। अगर गुरु अरजन साहिब की शहादत के बाद ‘सदु’ की वाणी दर्ज हुई होती, तो पहले अंक 7 होता, जिसको शुद्ध करके अंक 8 बनाया जाता। बाबा सुंदर जी वाणी ‘सदु’ के करता बाबा सुंदर जी गुरु अमरदास जी के परपौत्र थे। गुरु अमरदास जी। बाबा मोहरी जी। बाबा अनंद जी। बाबा सुंदर जी। रामकली सदु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जगि दाता सोइ भगति वछलु तिहु लोइ जीउ ॥ गुर सबदि समावए अवरु न जाणै कोइ जीउ ॥ अवरो न जाणहि सबदि गुर कै एकु नामु धिआवहे ॥ परसादि नानक गुरू अंगद परम पदवी पावहे ॥ आइआ हकारा चलणवारा हरि राम नामि समाइआ ॥ जगि अमरु अटलु अतोलु ठाकुरु भगति ते हरि पाइआ ॥१॥ सदु-शब्द पंजाबी बोली में आम प्रयोग किया जाता है, इसका अर्थ है ‘आवाज’। ये शब्द संस्कृत के शब्द ‘शब्द’ का प्राक्रित रूप है ‘सद्द’, जो पंजाबी में भी ‘सद’ है। संस्कृत के तालव्य ‘श’ की जगह प्राक्रित में दंतवी ‘स’ ही रह गया और दो अक्षरो ‘ब्द’ की जगह ‘द’ की ही दोहरी आवाज रह गई। रामकली राग में लिखी गई इस वाणी का नाम ‘सदु’ है, यहाँ इसका भाव है ‘ईश्वर की ओर से गुरु अमरदास जी को आई हुई सदाअ’। पद्अर्थ: सदु = आवाज। जगि = जग में। भगति वछलु दाता = भक्ति को प्यार करने वाला दाता। तिहु लोइ = तीनों लोकों में। गुर सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। समावए = (उस अकाल-पुरख में) (गुरु अमरदास) समाता है, लीन होता है। न जाणहि = नहीं जानते हैं, (गुरु अमरदास जी) नहीं जानते हैं। नोट: दूसरी तुक में शब्द ‘जाणै’ आया है और तीसरी में ‘जाणहि’ है। व्याकरण के अनुसार शब्द ‘जाणै’ वर्तमान काल (Present Tense) अन्य-पुरुष (Third person) एक वचन (singular number) है। इस सारी पौड़ी में ‘गुरु अमरदास जी’ की तरफ इशारा है। सो शब्द ‘गुरु अमरदास’ इस क्रिया का ‘करता’ (subject) है। इसका अर्थ है: (गुरु अमरदास) जानता है। तीसरी तुक में शब्द ‘जाणहि’ है, ये ‘जाणै’ का बहुवचन (Plural Number) है, जैसे ‘गावै’ से ‘गावहि’ है। जैसे ‘आदर’ प्रकट करने के लिए ‘सुखमनी साहिब’ में शब्द ‘प्रभ’ के साथ ‘जी’ बरत के इसके साथ क्रिया बहुवचन (Plural Number) में बरती गई है; “प्रभ जी बसहि साध की रसना॥ ” वैसे ही यहाँ भी ‘आदर’ के लिए क्रिया ‘जाणहि’ बहुवचन में है, इसका अर्थ है – ‘(गुरु अमरदास जी) जानते हैं’। सबदि गुर के = गुरु के शब्द द्वारा। धिआवहे–कविता में छंद का ख्याल रख के शब्द ‘धिआवहि’ की आखिरी ‘ि’ को बदल के ‘े’ लगा दी गई है। इसी तरह ‘पावहे’ शब्द ‘पावहि’ से बना है। जैसे ‘आदर’ के लिए ऊपर शब्द ‘जाणहि’ आया है, वैसे ही ये शब्द ‘धआवहे’ और ‘पावहे’ हें; इनका अर्थ है: (गुरु अमरदास जी) ध्याते हैं, (गुरु अमरदास जी) प्राप्त करते हैं। पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। परसादि नानक = (गुरु) नानक की कृपा से। परसादि नानक गुरू अंगद = गुरु नानक और गुरु अंगद की कृपा से। हकारा = हाक, आवाज। चलणवारा हकारा = चलने का सदा। अर्थ: जो अकाल-पुरख जगत में (जीवों को) दातें बख्शने वाला है, जो तीनों लोकों में भक्ति करने वालों को प्यार करता है, (उस अकाल-पुरख में गुरु अमरदास) सतिगुरु के शब्द के द्वारा लीन (रहा) है, (और उस के बिना) किसी और को (उस जैसा) नहीं जानता। (गुरु अमरदास जी) सतिगुरु के शब्द की इनायत से (अकाल-पुरख के बिना) किसी और को (उस जैसा) नहीं जानते (रहे) हैं, केवल एक ‘नाम’ को ध्याते (रहे) हैं; गुरु नानक और गुरु अंगद देव जी की कृपा से वह ऊँचे दर्जे को प्राप्त कर चुके हैं। (जो गुरु अमरदास) अकाल-पुरख के नाम में लीन था, (धुर से) उनके चलने की आवाज आ गई; (गुरु अमरदास जी ने) जगत में (रहते हुए) अमर, अटल, अतोल ठाकुर को भक्ति के द्वारा प्राप्त कर लिया हुआ था।1। हरि भाणा गुर भाइआ गुरु जावै हरि प्रभ पासि जीउ ॥ सतिगुरु करे हरि पहि बेनती मेरी पैज रखहु अरदासि जीउ ॥ पैज राखहु हरि जनह केरी हरि देहु नामु निरंजनो ॥ अंति चलदिआ होइ बेली जमदूत कालु निखंजनो ॥ सतिगुरू की बेनती पाई हरि प्रभि सुणी अरदासि जीउ ॥ हरि धारि किरपा सतिगुरु मिलाइआ धनु धनु कहै साबासि जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: हरि भाणा = अकाल-पुरख की रजा। गुर भाइआ = गुरु (अमरदास) को मीठा लगा। गुरु जावै = गुरु (अमरदास) जाता है, भाव, जाने को तैयार हो गया। सतिगुरु = गुरु अमरदास। हरि पहि = हरि के पास। हरि जनह केरी = हरि के दासों की। हरि = हे हरि! अंति = अंत के समय, आखिर वक्त पर। निखंजनो = नाश करने वाला। पाई = की हुई। सतिगुरु की बेनती पाई = गुरु अमरदास जी की की हुई विनती। हरि प्रभि = हरि प्रभु ने। धारि किरपा = कृपा करके। सतिगुरु मिलाइआ = गुरु (अमरदास जी) को (अपने में) मिला लिया। कहै = (अकाल-पुरख) कहता है। नोट: यहाँ ‘वर्तमान काल’ भूत काल के भाव में प्रयोग किया गया है। अर्थ: अकाल-पुरख की रजा गुरु (अमरदास जी) को प्यारी लगी, और सतिगुरु (जी) अकाल-पुरख के पास जाने को तैयार हो गए। गुरु अमरदास जी ने अकाल-पुरख के आगे ये विनती की- ‘(हे हरि!) मेरी अरदास है कि मेरी इज्जत रख। हे हरि! अपने सेवकों की इज्जत रख, और माया से निर्मोह करने वाला अपना नाम बख्श, जमदूतों और काल को नाश करने वाला नाम देह, जो आखिर में (यहाँ से) चलने के वक्त साथी बने। सतिगुरु की की हुई यह विनती, यह अरदास, अकाल-पुरख प्रभु ने सुन ली, और मेहर करके उसने गुरु अमरदास जी को (अपने चरणों में) जोड़ लिया, और कहने लगे- शाबाश! तू धन्य है, तू धन्य है।2। मेरे सिख सुणहु पुत भाईहो मेरै हरि भाणा आउ मै पासि जीउ ॥ हरि भाणा गुर भाइआ मेरा हरि प्रभु करे साबासि जीउ ॥ भगतु सतिगुरु पुरखु सोई जिसु हरि प्रभ भाणा भावए ॥ आनंद अनहद वजहि वाजे हरि आपि गलि मेलावए ॥ तुसी पुत भाई परवारु मेरा मनि वेखहु करि निरजासि जीउ ॥ धुरि लिखिआ परवाणा फिरै नाही गुरु जाइ हरि प्रभ पासि जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: मेरे सिख पुत भाईहो = हे मेरे सिखो! हे मेरे पुत्रो! हे मेरे भाईयो! भाणा = भाया है, अच्छा लगा है। मेरै हरि भाणा = मेरे अकाल पुरख को अच्छा लगा है। मै पासि = मेरे पास। हरि भाणा = अकाल-पुरख की रजा। गुर भाइआ = गुरु को मीठा लगा। करे साबासि = शाबाश कह रहा है। जिसु भावए = जिसको मीठा लगता है। प्रभ भाणा = प्रभु का भाणा। आनंद वाजे = आनंद के बाजे। अनहद = एक रस, लगातार। गलि = गले में। मनि = मन में। करि निरजासि = निर्णय करके। धुरि = धुर से, ईश्वर की ओर से। परवाणा = हुक्म। फिरै नाही = मोड़ा नहीं जा सकता। अर्थ: हे मेरे सिखो! हे मेरे पुत्रो! हे मेरे भाईयो! सुनो - “मेरे अकाल-पुरख को (ये) अच्छा लगा है (और उसने मुझे हुक्म किया है:) ‘मेरे पास आओ’। “अकाल-पुरख की रजा गुरु को मीठी लगी है, मेरा प्रभु (मुझे) शाबाश दे रहा है। वह (मनुष्य) भक्त है और पूरा गुरु है जिसको ईश्वर की मर्जी अच्छी लगती है; (उसके अंदर) आनंद के बाजे एक रस बजते हैं, अकाल-पुरख उसको खुद अपने गले से लगाता है “तुम मेरे पुत्र हो, मेरे भाई हो मेरा परिवार हो; मन में किआस कर के देखो, कि धुर से लिखा हुआ हुक्म (कभी) टल नहीं सकता; (सो, इस वास्ते अब) गुरु, अकाल-पुरख के पास जा रहा है”।3। सतिगुरि भाणै आपणै बहि परवारु सदाइआ ॥ मत मै पिछै कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ ॥ मितु पैझै मितु बिगसै जिसु मित की पैज भावए ॥ तुसी वीचारि देखहु पुत भाई हरि सतिगुरू पैनावए ॥ सतिगुरू परतखि होदै बहि राजु आपि टिकाइआ ॥ सभि सिख बंधप पुत भाई रामदास पैरी पाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। भाणै आपणै = अपने भाणे में, अपनी मर्जी से। बहि = बैठ के। मै पिछै = मेरे पीछे से। पैझै = आदर पाता है। बिगसै = खुश होता है। जिसु = जिस (मनुष्य) को। पैज = सत्कार, इज्जत, वडिआई। भावए = भाती है, अच्छी लगती है। वीचारि = विचार के। पुत भाई = हे मेरे पुत्रो और भाईयो! सतिगुरू = गुरु को। पैनावए = सिरोपा दे रहा है, आदर दे रहा है। परतखि होए = इस शरीर में होते हुए, जीते जी। राजु = गुरिआई का राज, गुरु गद्दी। टिकाइआ = स्थापित कर दिया। बंधप = साक संबंधी। रामदास पैरी = गुरु रामदास जी के पैरों पर। अर्थ: गुरु (अमरदास जी) ने बैठ के अपनी मर्जी से (सारे) परिवार को बुला लिया; (और कहा-) ‘मेरे पीछे कोई रोए नहीं, मुझे वह (रोने वाला) बिल्कुल ही अच्छा नहीं लगना। जिस मनुष्य को अपने मित्र की महिमा (होती) अच्छी लगती है, वह खुश होता है (जब) उसके मित्र को आदर मिलता है। तुम भी, हे मेरे पुत्रो और भाईयो! (अब) विचार के देख लो कि अकाल-पुरख गुरु को आदर दे रहा है (इसलिए तुम भी खुश होवो)।’ (ये उपदेश दे के, फिर) गुरु (अमरदास जी) ने शारीरिक जामें में रहते हुए ही बैठ के खुद गुरु गद्दी (भी) स्थापित कर दी, (और) सारे सिखों को, साक-संबंधियों को, पुत्रों को और भाईयों को (गुरु) रामदास जी के चरणों से लगा दिया।4। अंते सतिगुरु बोलिआ मै पिछै कीरतनु करिअहु निरबाणु जीउ ॥ केसो गोपाल पंडित सदिअहु हरि हरि कथा पड़हि पुराणु जीउ ॥ हरि कथा पड़ीऐ हरि नामु सुणीऐ बेबाणु हरि रंगु गुर भावए ॥ पिंडु पतलि किरिआ दीवा फुल हरि सरि पावए ॥ हरि भाइआ सतिगुरु बोलिआ हरि मिलिआ पुरखु सुजाणु जीउ ॥ रामदास सोढी तिलकु दीआ गुर सबदु सचु नीसाणु जीउ ॥५॥ पद्अर्थ: अंते = आखिरी समय में, ज्योति से ज्योति समाने के वक्त। निरबाणु कीरतनु = निरा कीर्तन, सिर्फ कीर्तन। करिअहु = तुम करना। हरि रंगु = अकाल पुरख का प्यार। गुर भावए = गुरु को अच्छा लगता है। हरि सरि = हरि के सर में, अकाल-पुरख के सरोवर में। पावए = (गुरु) पाता है। अर्थ: ज्योती-ज्योति समाने के वक्त गुरु अमरदास जी ने कहा- (हे भाई!) ‘मेरे पीछे असली कीर्तन करना, केशव गोपाल (अकाल-पुरख) के पंडितों को बुलाना, जो (आ कर) अकाल-पुरख की कथा वार्ता-रूप पुराण पढ़ें। (याद रखना, मेरे पीछे) अकाल-पुरख की कथा (ही) पढ़नी चाहिए, अकाल-पुरख का नाम ही सुनना चाहिए, बेबाण भी गुरु को (केवल) अकाल-पुरख का प्यार ही अच्छा लगता है। गुरु (तो) पिंड पतल, किरिया, दीया और फूल - इन सबको सत्त्संग पर से सदके करता है’। अकाल-पुरख को प्यारे लगे हुए गुरु ने (उस समय) ऐसा कहा। सतिगुरु को सुजान अकाल-पुरख मिल गया। गुरु अमरदास जी ने सोढी (गुरु) रामदास जी को (गुरिआई का) तिलक (और) गुरु की शब्द रूपी सच्ची राहदारी बख्शी।5। नोट: इस पौड़ी अर्थ संबंधी कई तरह के ख्याल प्रकट किए जा रहे हैं, पर हम जैसे पिछली चार पौड़ियों को शब्दों की बनावट और उनके परस्पर व्याकर्णिक संबंध के अनुसार विचार आए हैं, उसी तरह यहाँ भी केवल दो धुरों को रख कर विचार करेंगे। इस बात का ख्याल नहीं किया जाएगा कि यह अर्थ किसी सज्जन व सज्जनों की मिथी हुई ‘गुरमति’ के अनुसार है या उसके उलट। इस पउड़ी में विशेष विचार-योग्य निम्न-लिखित चार शब्द है; 1. पंडित; 2. पढ़हि; 3. हरिसरि; 4. पावऐ। सो, आओ एक-एक करके इन पर विचार करें। 1. पण्डित: जो व्याकरण श्री गुरु ग्रंथ साहिब में प्रयोग हुआ प्रत्यक्ष मिलता है, उसके आधार पर शब्द ‘पंडित’ 1. कर्ताकारक बहुवचन है, 2. कहीं ‘संबोधन’ हो जाता है। और शब्द ‘पंडितु’ 1. कर्ताकारक, एकवचन है, 2. कर्म कारक, एक वचन भी। इस नियम को परखने के लिए गुरबाणी में बरते गए शब्द ‘पंडित’ को पड़तालें– अ. कर्ताकारक, एकवचन के रूप में; 1. पढ़ि पढ़ि ‘पंडितु’ बादु वखाणै॥ भीतरि होदी वसतु न जाणै॥३॥४॥ (गउड़ी म: १, पंना 152) 2. ‘पंडितु’ सासत सिम्रिति पढ़िआ॥ जोगी गोरखु गोरखु करिआ॥१॥१॥३९॥ (गउड़ी गुआरेरी म: ४ पंना 163) 3. हउ ‘पंडितु’ हउ चतुरु सिआणा॥ करणैहारु न बूझै बिगाना॥३॥९॥७८॥ (गउड़ी गुआरेरी म: ५ पंना 178) 4. नह ‘पंडितु’ नह चतुरु सिआना॥ नह भूलो नह भरमि भुलाना॥८॥१॥ (गउड़ी म: १) असटपदीआ, पंना 221 5. माइआ का मुहताजु ‘पंडितु’ कहावै॥४॥४॥ (गउड़ी म: ३, असटपदीआ) 6. सो ‘पंडितु’ जो मन परबोधै॥ ...सो ‘पंडितु’ फिरि जोनि न आवै॥४॥९॥ (सुखमनी म: ५) 7. ना को पढ़िआ ‘पंडितु’ बीना ना को मूरखु मंदा॥४॥२॥३६॥ (आसा म: १, पंना259) 8. ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पढ़िआ ‘पंडितु’ सोई॥४॥ आसा म: १, पटी लिखी, पंना 832 9. सो पढ़िआ सो ‘पंडितु’ बीना गुर सबदि करे वीचारु॥ ...अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु॥२॥२१॥ (सोरठि की वार, पंना 650) 10. ‘पंडितु’ होइ कै बेदु बखानै॥ मूरखु नामदेउ रामहि जानै॥२॥१॥ (टोडी नामदेउ जी, पंना 718) 11. सची पटी सचु मनि पढ़ीऐ सबदु सु सारु॥ ....नानक सो पढ़िआ सो ‘पंडितु’ बीना जिसु राम नामु गलि हारु॥५४॥१॥ (ओअंकारु म: १ पंना 938) 12. सो ‘पंडितु’ गुर सबदु कमाइ॥ त्रैगुण की ओसु उतरी माइ॥४॥६॥१७॥ (रामकली म: ५, पंना 888) 13. ‘पंडिुत’ आखाए बहुती राही करोड़ मोठ जिनेहा॥ ....अंदरि मोहु नित भरमि विआपिआ तिसटसि नाही देहा॥२॥७॥ (रामकली की वार म: ५, पंना 960) 14. ‘पंडितु’ पढ़ि न पहुचई बहु आल जंजाला॥ पाप पुंन दुइ संगमे खुधिआ जमकाला॥४॥६॥ (मारू म: १, असटपदीआ, पंना 1012) 15. पढ़ि ‘पंडितु’ अवरा समझाए॥ घर जलते की खबरि न पाए॥ ....बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ पढ़ि थाके सांति न आई हे॥५॥३॥ (मारू म: ३ सोलहे) 16. होवा ‘पंडितु’ जोतकी वेद पढ़ा मुखि चारि॥ .....नव खंड मधे पूजीआ अपणै चजि वीचारि॥१॥११॥ (मारू की वात म: ३) 17. जे तूं पढ़िआ ‘पंडितु’ बीना दुइ अखर दुइ नावा॥ .... प्रणवति नानकु एकु लंघाए जे करि सचि समावां॥३॥२॥१०॥ (बसंत हिंडोल म: १) 18. पवणै पाणी जाणै जाति॥ काइआं अगनि करे निभरांति॥ .... जंमहि जीअ जाणै जे थाउ॥ सुरता ‘पंडितु’ ता का नाउ॥१॥१॥६॥ (मलार महला १ घरु २) 19. भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी॥ .... खल मूरख ते ‘पंडितु’ करिबो पंडित ते मुगधारी॥३॥२॥ (सारंग म: ५) 20. सोई चतुरु सिआणा ‘पंडितु’ सो सूरा सो दाना॥ ....साध संगि जिनि हरि हरि जपिओ नानक सो परवाना॥२॥६७॥९०॥ (सारंग म: ५) 21. होवा ‘पंडितु’ जोतकी वेद पढ़ा मुखि चारि॥ ....नवा खंडा विचि जाणीआ अपने चज वीचार॥३॥ (सलोक म: ३, वारां ते वधीक) 22. नाउ फकीरै पातिसाहु मूरख ‘पंडितु’ नाउ॥ अंधे का नाउ पारखू एवै करे गुआउ॥१॥२२॥ (महला १ मलार की वार) 23. सो पढ़िआ सो ‘पंडितु’ बीना जिनी कमाणा नाउ॥२॥२२॥ (महला १ मलार की वार) 24. सो ‘पंडितु’ जो तिहां गुणा की पंड उतारै॥ अनदिनु एको नामु वखाणै॥ .... सदा अलगु रहै निरबाणु॥ सो ‘पंडितु’ दरगह परवाणु॥३॥१॥१०॥ (मलार म: ३ घरु २) आ– करता कारक, बहुवचन के रूप में 1. गावनि ‘पंडित’ पढ़नि रखीसर जुग जुग वेदा नाले॥२७॥ (जपु म: १) 2. गावनि तुधनो ‘पंडित’ पढ़नि रखीसुर जुग जुग वेदा नाले॥ (सो दरु आसा म: १) 3. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ जोतकी वाद करहि बीचारु॥३॥३॥३६॥ (सिरी रागु म: ३) 4. ‘पंडितु’ वाचहि पोथीआ ना बूझहि वीचारु॥६॥ 5. केते ‘पंडित’ जोतकी बेदा करहि बीचारु॥७॥५॥ (सिरी रागु म: १ असटपदीआ) 6. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मोनी थके दूजै भाइ पति खोई॥७॥१७॥८॥२५॥ (सिरी रागु म: ५ असटपदीआ) 7. ‘पंडित’ पढ़हि सादु न पावहि॥२॥१२॥१३॥ (माझ महला ३) 8. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मोनी थके चउथे पद की सार न पावणिआ॥५॥१२॥१३॥ (माझ महला ३) 9. मनमुख पढ़हि ‘पंडित’ कहावहि॥१॥३०॥३१॥ (माझ महला ३) 10. ‘पंडित’ पढ़हि वखाणहि वेदु॥४॥२१॥ (आसा महला १) 11. ‘पंडित’ पाधे जोइसी नित पढ़हि पुराणा॥४॥१४॥ (आसा महला ३, असटपदीआ) 12. ‘पंडित’ पढ़दे जोतकी तिन बूझ न पाइ॥२॥५॥२७॥ (आसा महला ३, असटपदीआ) 13. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मोनी थाके भेखी मुकति न पाई॥३॥१॥६॥ (आसा महला १, छंत, घरु १) 14. मूरख ‘पंडित’ हिकमति हुजति संजै करहि पिआरु॥२॥११॥ (आसा दी वार) 15. ‘पंडित’ भुलि भुलि माइआ वेखहि, दिखा किनै किहु आणि चढ़ाइआ॥२॥१२॥ (गुजरी की वार महला ३) 16. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ वादु वखाणहि बिनु बूझै सुखु न होई॥२॥४॥ (वडहंसु महला ३ छंत) 17. ‘पंडित’ जोतकी सभि पढ़ि पढ़ि कूकदे किसु पहि करहि पुकारा राम॥३॥५॥ (वडहंसु महला ३ छंत) 18. घरि घरि पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ थके सिध समाधि लगाइ॥२॥६॥ (सोरठि की वार) 19. ‘पंडित मैलु’ न चुकई जे वेद पढ़हि जुग चारि॥ (पंडित मैलु– पंडित की मैल) .....‘पंडित’ भूले दूजै लागे माइआ कै वापारि॥१॥१३॥ (सोरठि की वार) 20. बेद पढ़े पढ़ि ‘पंडित’ मूए रूपु देखि देखि नारी॥३॥१॥ (सोरठि कबीर जी) 21. काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि ‘पंडित’ पै चले निरासा॥१॥३॥ (सोरठि कबीर जी) 22. ‘पंडित’ पाधे आणि पती बहि वाचाईआ बलिराम जीउ॥४॥१॥ (सूही म: ४ छंत, घरु १) 23. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ करहि बीचार॥१॥१७॥ (म: १, सूही की वार) 24. ‘पंडित’ पढ़ि पढ़ि मोनी भुले दूजै भाइ चितु लाइआ॥१॥८॥ (म: ३, बिलावल की वार महला ४) 25. ‘पंडित’ रोवहि गिआनु गवाइ॥१॥१४॥ (म: १, रामकली की वार म: ३) 26. ‘पंडित’ पढ़दे जोतकी ना बूझहि बीचारा॥४॥ (रामकली की वार म: ३) 27. ‘पंडित’ पढ़हि पढ़ि वादु वखाणहि तिंना बूझ न पाई॥१८॥ (रामकली म: ३ असटपदीआ) 28. इकि पाधे ‘पंडित’ मिसर कहावहि॥७॥४॥ (रामकली म: १ असटपदीआ) 29. पोथी ‘पंडित’ रहे पुराण॥७॥१॥ (रामकली महला १ असटपदीआ) 30. हम बड कबि कुलीन हम ‘पंडित’ हम जोगी संनिआसी॥२॥१॥ (रामकली रविदास जी) 31. बाहरहु ‘पंडित’ सदाइदे मनहु मूरख गावार॥१॥१६॥ (मारू की वारर महला ३) 32. जोगी ग्रिही ‘पंडित’ भेखधारी॥१॥२॥ वादु पवखाणदे माइआ मोह सुआइ॥१॥३१॥ (म: ३, सारंग की वार) 33. ‘पंडित’ जन माते पढ़ि पुरान॥१॥२॥ (बसंतु कबीर जी) 34. ‘पंडित’ मोनी पढ़ि पढ़ि थके भेख थके तनु धोइ॥२॥३३॥ (महला ३, सारंग की वार) 35. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मुोनी थके माइआ मोह सुआइ॥१॥३१॥ (म: ३ सारंग की वार) 36. पढ़ि पढ़ि ‘पंडित वादु वखाणदे देसंतरु भवि थके भेखधारी॥४॥२॥ (म: ३ सारंग की वार) 37. ‘पंडित’ पढ़ि पढ़ि मोनी सभि थाके भ्रमि भेख थके भेखधारी॥४॥२॥ (सारंग म: ३) 38. संनिआसी तपसीअह मुखहु ए ‘पंडित’ मिठे॥२॥२०॥ (सवईऐ महले तीजे के ‘भिखा’) आईए, अब देखें, ये नियम मन-घड़ंत ही है, या बोली के इतिहास से इसका कोई गहरा संबंध है। संस्कृत धातु ‘य’ का अर्थ होता है ‘जाना’। वाक्य ‘राम जाता है’ को संस्कृत में हम लिखेंगे: रामो याति। संस्कृत में कर्ताकारक एकवचन का चिन्ह ‘स्’ (:) है, जो कई जगहों पर ‘उ’ (ु) बन जाता है। जिस अक्षर को पंजाबी में हम मुक्ता-अंत कहते हैं, संस्कृत में उसके अंत में ‘अ’ समझा जाता है; ‘राम’ (रामो) शब्द के अंत के ‘म’ में ‘अ’ भी शामिल है। ‘रामो याति’ असल में पहले यूँ है ‘राम: याति’ राम: का आखिरी चिन्ह ‘: ’ ‘उ (ु) बन के शब्द ‘राम’ के आखिर में ‘अ’ के साथ मिल के ‘ओ’ बन जाता है, और सारा वाक्य ‘रामो याति’ हो गया है। पर, प्राक्रित’ में अक्षरों के आखीरी ‘अ’ की अलग हस्ती नहीं मानी गई। सो सो, ‘: ’ के ‘उ’ ‘ु’ बनने पर यह ‘ु’ पहले शब्द के साथ सीधा ही प्रयोग किया गया। संस्कृत का शब्द ‘रामो’ प्राक्रित में ‘रामु’ हो गया। संस्कृत के कई शब्दों का आरम्भ वाला ‘य’ प्राक्रित व पंजाबी में ‘ज’ बन गया क्योंकि ‘ज’ और ‘य’ का उच्चारण-स्थान एक ही है (जीभ को तालू के साथ लगाना); जैसे; यव = जउं। यमुना = जमुना। यज्ञ = जग। यति = जती। इस तरह वाक्य ‘रामो याति’ के ‘याति’ का ‘य’ ‘ज’ बन के सारा वाक्य प्राक्रित में यूँ हो गया: रामु जादि; यह वाक्य पुरानी पंजाबी में ‘रामु जांदा’ बन गया। उपरोक्त सारी विचार चर्चा से ये हमने देख लिया है कि यह ‘ु’ बोली के इतिहास में विशेष मूल्य रखता है; और इस तरह गुरबाणी के और व्याकर्णिक नियम मन-घडंत बातें नहीं हैं। इ– संबोधन 1. ‘पंडित’, हरि पढ़ु तजहु विकारा॥१॥ रहाउ॥२॥ (गउड़ी म: ३, असटपदीआ) पंडित = हे पण्डित! 2. कहु रे ‘पंडित’, बामन कब के होए॥१॥ रहाउ॥७॥ (गउड़ी कबीर जी) 3. कहु रे ‘पंडित’, अंबरु का सिउ लागा॥१॥ रहाउ॥२९॥ (गउड़ी कबीर जी) 4. तुधु सिरि लिखिआ सो पढ़ु ‘पंडित’, अवरा नो न सिखालि बिखिआ॥५॥ (आसा म: ३, पटी) 5. एको नामु निधानु ‘पंडित’, सुणि सिख सचु सोई॥१॥७॥९॥ (गुजरी महला ३ तीजा) 6. सुणि ‘पंडित’ करमाकारी॥२॥ (सोरठि म: १, असटपदीआ) 7. ‘पंडित’, दही विलोईऐ भाई विचहु निकलै तथु॥५॥ (सोरठि म: १, असटपदीआ) 8. ‘पंडित’, तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ॥ ....‘पंडित’, दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ॥२॥१२॥ (सोरठि की वार) 9. राम नाम गुण गाइ, ‘पंडित’॥ ... करम कांड अहंकारु न कीजै कुसल सेती घरि जाहि, ‘पंडित’॥१॥ रहाउ॥१७॥२८॥ (रामकली महला ५) 10. ‘पंडित’, बेदु बीचारि, ‘पंडित’॥ मन का क्रोध्र निवारि, ‘पंडित’॥१॥ रहाउ॥६॥१७॥ (रामकली महला ५) 11. कहु ‘पंडित’, सूचा कवनु ठाउ॥१॥ रहाउ॥१॥७॥ (बसंत हिंडोल कबीर जी) 12. दुइ माई दुइ बापा पढ़ीअहि, ‘पंडित’, करहु बीचारो॥१॥३॥११॥ (बसंत हिंडोल महला १) 13. ‘पंडित’, इसु मन का करहु बीचारु॥१॥ रहाउ॥१॥१०॥ (मलार महला ३ घरु २) (2) पढ़हि: यह क्रिया ‘बहुवचन’ है, इसका एकवचन ‘पढ़ै’ है; जैसे– गावै– एक वचन। गावहि– बहुवचन। करै– एक वचन। करहि– बहुवचन। प्रमाण– 1. पंडित ‘पढ़हि’ सादु न पावहि॥२॥१२॥१३॥ (माझ महला ३) 2. मनमुख ‘पढ़हि’ पंडित कहावहि॥१॥३०॥३१॥ (माझ महला ३) 3. पंडित ‘पढ़हि’ वखाणहि वेदु॥४॥२१॥ (आसा महला १) यहाँ शब्द ‘पढ़हि’ बहुवचन है। 4. दूजै भाइ ‘पढ़हि’ नित बिखिआ नावहु दयि खुआइआ॥२॥१२॥ (गुजरी की वार म: ३) 5. वेद ‘पढ़हि’ तै वाद वखाणहि बिनु हरि पति गवाई॥७॥१॥ (सोरठि म: ३ असटपदीआ) 6. धोती ऊजल तिलकु गलि माला॥ अंतरि क्रोधि ‘पढ़हि’ नटसाला॥४॥२॥ (बिलावल म: १, असटपदीआ, घरु १०) 7. बेद ‘पढ़हि’ हरि नामु न बूझहि माइआ कारणि पढ़ि पढ़ि लूझहि॥१४॥६॥ (मारू म: ३ सोलहे) 8. मूरख ‘पढ़हि’ सबदु न बूझहि गुरमुखि विरले जाता हे॥१५॥९॥ (मारू म: ३ सोलहे) 9. बेदु ‘पढ़हि’ पढ़ि बादु वखाणहि॥११॥५॥१४॥ (मारू म: ३ सोलहे) 10. बेदु ‘पढ़हि’ संपूरना ततु सार न पेखं॥१३॥ (मारू वार म: ५ डखणे) 11. सिंम्रिति सासत्र ‘पढ़हि’ मुनि केते बिनु सबदै सुरति न पाई॥२॥१॥११॥ (भैरउ म: ३ घरु २) 12. अंदरि कपटु उदरु भरण कै ताई पाठ ‘पढ़हि’ गावारी॥१॥२४॥ (महला ३ सारंग की वार) शब्द ‘पंडित’, ‘पंडितु’ और ‘पढ़हि’ संबंधी गुरबाणी में से कई प्रमाण पढ़ के हम समझ चुके हैं कि इस पउड़ी की तुक में प्रयोग किया हुआ शब्द ‘पंडित’ बहुवचन है; भाव, यहाँ किसी एक पंडित की ओर इशारा नहीं है, ‘कई पंडितों को’ बुलाने का हुक्म है, जो आ के ‘हरि कथा’ और ‘हरि नाम’ –रूपी पुराण पढ़ें। अगर ‘किरिया कर्म’ की चल रही रीति का हुक्म देते तो ‘केवल एक आचार्य’ को बुलाने का संदेश होता, कभी किसी के घर ‘किरिया’ के लिए बहुत सारे आचार्यों की जरूरत नहीं पड़ती। हिंदू सज्जनों में हरेक घर का ‘एक ही’ आचार्य होता है। इस में कोई शक नहीं कि हिंदू बिरादरी में घर का एक परोहित भी होता है, पर पुरोहित किरिया का धान नहीं खाते, इसको केवल आचार्य ही प्रयोग करते और लेते हैं। सो, इस तुक में ना किसी आचार्य की ओर ना ही किसी परोहित की ओर इशारा है। (3) हरिसरि – (हरि के सरोवर में) अ– हिंदू धर्म के गंगा के किनारे वाले तीर्थ का आम प्रसिद्ध नाम ‘हरिद्वार’ है, कभी किसी हिंदू सज्जन के मुँह से इसका नाम ‘हरिसर’ सुनने में नहीं आया। कोश में भी नाम ‘हरिद्वार’ है, ‘हरिसर’ नहीं। आ– शब्द ‘हरिदुआर’ गुरबाणी में कई जगह आया है, पर उसका इशारा इस हिन्दू तीर्थ की ओर कहीं भी नहीं है, उसका अर्थ है ‘अकाल-पुरख का दर’; जैसे– 1. सतिबचन वरतहि ‘हरिदुआरे’॥७॥१॥२९॥ (गौंड असटपदीआ म: ५) 2. नानक भगत सोहहि ‘हरिदुआर’॥४॥१॥३४॥ (रामकली म: ५) 3. जिन पूरा सतिगुरु सेविआ से असथिरु ‘हरिदुआरि’॥४॥१॥३१॥ (बिलावलु म: ५) 4. सरनि परिओ नानक ‘हरिदुआरे’॥४॥४॥ (वडहंस म: ५) 5. नानक नामि मिलै वडिआई ‘हरि दरि’ सोहनि आगै॥२॥११॥ (वडहंस की वार म: ४) 6. ‘हरि दरि’ तिन की ऊतम बात है संतहु हरि कथा जिन जनहु जानी॥ रहाउ॥५॥११॥ (धनासरी म: ४) 7. जिन जपिआ हरि, ते मुकत प्राणी तिन के ऊजल मुख ‘हरिदुआरि’॥२॥३॥ (तुखारी म: ४ छंत) इ– अब आईये, देखें, शब्द ‘हरिसर’ गुरबाणी में किस अर्थ में मिलता है: 1. हउमै मैलु सभ उतरी मेरी जिंदुड़ीए हरि अंम्रित ‘हरिसरि’ नाते राम॥४॥३॥ (बिहागड़ा म: ४) 2. ‘हरि चरण सरोवर’ तह करहु निवासु मना॥ ....करि मजनु ‘हरिसरे’ सभि किलबिख नासु मना॥१॥२॥५॥ (बिहागड़ा म: ५) 3. जिनि हरि रसु चाखिआ सबदि सुभाखिआ ‘हरिसरि’ रही भरपूरे॥२॥५॥ (वडहंसु म: ३ छंतु) 4. तुम ‘हरिसरवर’ अति अगाह हम लहि न सकहि अंतु माती॥२॥५॥ (धनासरी म: ४) 5. हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै॥ ‘सरवर’ महि हंसु प्रानपति पावै॥१॥१॥ (धनासरी म: १ असटपदीआ) 6. गुरु ‘सरवरु’ मानसरोवरु है वडभागी पुरख लहंनि्॥२॥४॥९॥ (सूही म: ३ असटपदीआ) 7. ‘हरिसरि’ निरमलि नाए॥२॥१॥३॥ (सूही छंत म: ४) 8. ‘हरि जन अंम्रित कुंट सर’ नीके वडभागी तितु नावाईऐ॥१॥४॥ (रामकली म: ४) 9. दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अंम्रिति ‘हरिसरि’ नाता॥१॥२॥ (माली गउड़ा म: ४) 10. ‘हरिसरु’ सागरु सदा जलु निरमलु नावै सहजि सुभाई॥५॥१॥ (सारग म: ३, असटपदीया) 11. ‘हरिसरि तीरथि’ जाणि मनूआ नाइआ॥१८॥ (मलार की वार म: १) इन तुकों में हरि के चरणों को, हरि को, गुरु को और सतसंग को ‘हरिसर’ कहा गया है। (ई) – ‘हरिसर’ शब्द के अलावा ‘अंम्रितसर’, ‘सतसर’ आदि शब्द भी इसी भाव में प्रयोग किए गए हैं, जैसे; 1. सचा तीरथु जितु ‘सतसरि’ नावणु गुरमुखि आपि बुझाए॥५॥१॥ (सूही म: ३, असटपदीआ) 2. गुरि ‘अंम्रितसरि’ नवलाइआ सभि लाथे किलबिख पंङु॥३॥३॥ (सूही म: ४) 3. तिन मिलिआ मलु सभ जाए ‘सचै सरि’ न्हाए सचै सहजि सुभाए॥४॥४॥ (वडहंस म: ३ छंत) 4. मैल गई मनु निरमलु होआ ‘अंम्रितसरि’ तीरथि नाइ॥२॥४॥ (वडहंस की वार) 5. मनु संपटु जितु ‘सतसरि’ नावणु भावन पाती त्रिपति करे॥३॥१॥ (सूही म: १) 6. जिन कउ तुम् हरि मेलहु सुआमी ते नाए ‘संतोख गुर सरा’॥४॥३॥ (बिलावलु म: ४ घरु ३) 7. गुरु सागरु ‘अंम्रितसरु’ जो इछे सो फलु पाए॥७॥५॥ (मारू म: १) 8. तितु ‘सत सरि’ मनूआ गुरमुखि नावै फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा॥४॥५॥१७॥ (मारू म: १, सोलहे) 9. बिखिआ मलु जाइ ‘अंम्रितसरि’ नावहु गुर सर संतोखु पाइआ॥८॥५॥२२॥ (मारू म: ३, सोलहे) 10. काइआ अंदरि ‘अंम्रितसरु’ साचा मनु पीवै भाइ सुभाई हे॥४॥३॥ (मारू म: 3 सोलहे) 11. गुरमुखि मनु निरमलु ‘सतसरि’ नावै॥ मैलु न लागै सचि समावै॥४॥१॥१५॥ (मारू म: ३ सोलहे) (उ) – गुरमुखों के चरणों को ‘गंगा’ आदि करोड़ो तीर्थों के बराबर समझते हैं: ...जन पारब्रहम की निरमल महिमा जन के चरन तीरथ कोटि गंगा॥ ...जन की धूरि कीओ मजनु नानक जनम जनम के हरे कलंगा॥२॥४॥१२०॥ (बिलावल म: ५) (5) पावऐ ‘रामकली सदु’ में इसी शब्द जैसे मिलते-जुलते और शब्द भी आए है; समावऐ– पउड़ी 1। भावऐ– पउड़ी 3। मेलावऐ– पउड़ी 3। भावऐ– पउड़ी 4। पैनावऐ– पउड़ी 4। भावऐ– पउड़ी 5। इस उपरोक्त सारे शब्द ‘वर्तमान काल’ ‘अन्य-पुरुष, एकवचन’ में हैं। ‘पावहे’, ‘धिआवहे’ बहुवचन हैं। आओ, अब इनके अर्थों को पुनः विचारें: (1) गुरसबदि समावऐ – ‘गुरु के शब्द द्वारा समाता है’। प्रश्न: कौन? उक्तर: गुरु अमरदास। (2) जिसु हरि प्रभ भाणा भावऐ – ‘जिसको हरि प्रभु की मर्जी भाती है। (3) हरि आपि गलि मेलावऐ– अकाल-पुरख स्वयं गले से लगा लेता है। (4) जिसु मित की पैज भावऐ– जिस मनुष्य को अपने मित्र की उपमा (होती) अच्छी लगती है। (5) हरि, सतिगुरु पैनावऐ– अकाल-पुरख गुरु को सम्मान दे रहा है। (6) हरि रंगु गुर भावऐ– अकाल-पुरख का प्यार गुरु को भाता है। क्रिया के इस रूप के लिए और प्रमाण– (अ) घरि त तेरै सभ किछु है जिसु देहि सु ‘पावए’॥ ... सदा सिफति सालाह तेरी नामु मनि ‘वसावए’॥3॥ (रामकली म: ३ अनंद) ...पावऐ = पाता है। वसावऐ = बसाता है। (आ) गुर परसादी मनु भइआ निरमलु, जिना भाणा ‘भावए’॥ कहै नानकु जिस देहि पिआरे, सोई जनु ‘पावए’॥८॥ (रामकली म: ३ अनंद) भावऐ = भाता है। पावऐ = पाता है। (इ) मनहु किउ विसारीऐ एवडु दाता जि अगनि महि अहारु ‘पहुचावए’॥ ओस नो किहु पोहि न सकी जिस नउ आपणी लिव ‘लावए’॥२८॥ (रामकली म: ३ अनंद) पहुचावऐ = पहुँचाता है। लावऐ = लगाता है। (ई) हरि गाउ मंगलु नित सखीए सोगु दूखु न ‘विआपए’॥ गुर चरन लागे दिन सभागे आपणा पिरु ‘जापए’॥३४॥ (रामकली म: ३ अनंद) विआपऐ = व्यापता है। जापऐ = प्रतीत होता है, दिखता है। (उ) भगति करहु तुम सहै केरी, जो सह पिआरे ‘भावए’॥ आपणा भाणा तुम करहु, ता फिरि सह खुसी न ‘आवए’॥ भगति भाव इहु मारगु बिखड़ा, गुर दुआरै को ‘पावए’॥ कहै नानकु जिसु करे किरपा, सो हरि भगती चितु ‘लावए’॥१॥ .... करि बैरागु तूं छोडि पाखंडु, सो सहु सभ किछु ‘जाणए’॥ जलि थलि महीअलि एको सोई, गुरमुखि हुकमु ‘पछाणए’॥ जिनि हुकमु पछाता हरी केरा सोई सरब सुखु ‘पावए’॥ इव कहै नानकु सो बैरागी अनदिनु हरि लिव ‘लावए’॥२।२॥७।५॥२॥७॥ (आसा म: ३ छंत घरु ३) भावऐ = भाता है। आवऐ = आता है। पावऐ = डालता है। लावऐ = लाता है। जाणऐ = जानता है। पछाणऐ = पहचानता है। इसी तरह: (7) हरि सरि ‘पावऐ’,– (गुरु अमरदास) हरि के सरोवर में, भाव, साधु संगति में ‘डालता’ है। प्रश्न: क्या? उक्तर: पिंड, पत्तल, किरिया, दीया, फूल – ये सब कुछ। नोट: यहाँ पाठक सज्जनों के स्मरण के लिए ये सूचना आवश्यक है कि ‘हरिद्वार’ में फूल डालने वाले सज्जन पिंड, पत्तल, दीया हरिद्वार नहीं ले के जाते, ‘केवल फूल’ (अस्थियां-राख) ही ले के जाते हैं। एक और मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है। किरिया किसी चीज का नाम नहीं, जो हरिद्वार में प्रवाहित की जा सके (डाली जा सके)। पर सतिगुरु अमरदास जी इन सबको ‘साधसंगति’ में डालते हैं, भाव, इन सबको ‘सत्संगति’ के सदके करते हैं, हर चीज से ज्यादा श्रेष्ठ हे ‘सत्संग’ करना। नोट: शब्द ‘पंडित’ संबंधी एक और बात याद रखने वाली है। हिन्दू मति के अनुसार हरेक हिन्दू को ‘पंडित’ की आवश्यक्ता सारी जिंदगी में सिर्फ दो बार पड़ती है; विवाह के वक्त, और मरने के बाद ‘किरिया’ आदि के वक्त। कई अमीर लोग बालक के जन्म पर भी ‘पंडित’ से जनम-पत्री आदि बनवाते हैं, पर इसके बिना भी काम चल सकता है, पर विवाह और मरना ‘पंडित’ के बिना नहीं हो सकता। हिन्दू मत को लेकर सतिगुरु जी ने भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में ‘अपने अकाल-पुरख के पंडितों’ (भाव, ‘गुरमुख’ सत्संगियों) का बिचौलापन बताया है। मरने के वक्त का वर्णन तो उक्त ‘सदु’ में आ गया है। ‘आत्मिक विवाह’ का वर्णन भी इसी तरह यूँ मिलता है: आइआ लगनु गणाइ हिरदै धन ओमाहीआ बलिराम जीउ॥ ‘पंडित पाधे’ आणि पती बहि वाचाईआ बलिराम जीउ॥ पती वाचाई मनि वजी वधाई जब साजन सुणे घरि आए॥ गुणी गिआनी बहि मता पकाइआ फेरे ततु दिवाए॥ वरु पाइआ पुरखु अगंमु अगोचरु सद नवतनु बाल सखाई॥ नानक किरपा करि कै मेले विछुड़ि कदे न जाई॥४॥१॥ (सूही म: ४ छंत घरु१) यहाँ प्रत्यक्ष तौर पर ‘पंडित’ से भाव ‘गुरमुखि जन’ है। बस! सारी वाणी में केवल इन्हीं दो जगहों पर ‘रूहानी पंडितों’ का वर्णन आता है। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |