श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 924 सतिगुरु पुरखु जि बोलिआ गुरसिखा मंनि लई रजाइ जीउ ॥ मोहरी पुतु सनमुखु होइआ रामदासै पैरी पाइ जीउ ॥ सभ पवै पैरी सतिगुरू केरी जिथै गुरू आपु रखिआ ॥ कोई करि बखीली निवै नाही फिरि सतिगुरू आणि निवाइआ ॥ हरि गुरहि भाणा दीई वडिआई धुरि लिखिआ लेखु रजाइ जीउ ॥ कहै सुंदरु सुणहु संतहु सभु जगतु पैरी पाइ जीउ ॥६॥१॥ पद्अर्थ: सतिगुरु पुरखु = पूरा गुरु, गुरु अमरदास। रजाइ = (गुरु का) हुक्म। रामदासै पैरी = गुरु रामदास जी के चरणों पर। पाइ = पड़ कर। सनमुख होइआ = (गुरु अमरदास जी के) सामने आजाद हो के खड़ा हुआ। सभ = सारी दुनिया। केरी = की। सतिगुरू केरी = गुरु रामदास जी की। जिथै = क्योंकि वहाँ, क्यों गुरु रामदास जी में। आपु = (गुरु अमरदास जी ने) अपने आप को, अपनी आत्मा। बखीली = निंदा। आणि = ला कर। गुरहि भाणा = गुरु (अमरदास जी को) अच्छा लगा। दीई = दी (गुरु रामदास जी को)। लेखु रजाइ = अकाल-पुरख का हुक्म। पैरी पाइ = (गुरु रामदास जी के) पैरों पर पड़ा।6।1। अर्थ: जब गुरु अमरदास जी ने वचन किया (कि सारे गुरु रामदास जी के चरणों में लगें, तो) गुरसिखों ने (गुरु अमरदास जी का) हुक्म मान लिया। (सबसे पहले) (गुरु अमरदास जी के) पुत्र (बाबा) मोहरी जी गुरु रामदास जी के पैरों पर पड़ कर (पिता के) सामने सुर्ख रू होकर आ खड़े हुए। गुरु रामदास जी में गुरु (अमरदास जी) ने अपनी आत्मा टिका दी, (इस वास्ते) सारी लोकाई गुरु (रामदास जी) के पैरों पर आ पड़ी। जो कोई निंदा करके (पहले) नहीं भी झुका, उसको गुरु अमरदास जी ने लाकर पैरों पर रख दिया। सुंदर कहता है: हे संतहु! सुनो, अकाल-पुरख और गुरु अमरदास जी को (यही) ठीक लगा, (उन्होंने गुरु रामदास जी को) बड़ाई बख्शी; धुर से अकाल-पुरख का यही हुक्म लिख के आया था; (इसलिए) सारा जगत (गुरु रामदास जी के) पैरों पर पड़ा।6।1। रामकली महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ साजनड़ा मेरा साजनड़ा निकटि खलोइअड़ा मेरा साजनड़ा ॥ जानीअड़ा हरि जानीअड़ा नैण अलोइअड़ा हरि जानीअड़ा ॥ नैण अलोइआ घटि घटि सोइआ अति अम्रित प्रिअ गूड़ा ॥ नालि होवंदा लहि न सकंदा सुआउ न जाणै मूड़ा ॥ माइआ मदि माता होछी बाता मिलणु न जाई भरम धड़ा ॥ कहु नानक गुर बिनु नाही सूझै हरि साजनु सभ कै निकटि खड़ा ॥१॥ पद्अर्थ: साजनड़ा = प्यारा सज्जन। निकटि = नजदीक। खलोइड़ा = खड़ा है। जानी = जिंद का मालिक, जान से प्यारा। जानीअड़ा = जान से भी बहुत प्यारा। नैण = आँखों से। अलोइअड़ा = देख लिया है। घटि = हृदय में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। सोइआ = सोया हुआ, गुप्त बस रहा है। अति = बहुत। अंम्रित = अमर जीवन वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। प्रिअ = प्यारा। गूढ़ा = बहुत। प्रिअ गूढ़ा = बहुत प्यारा, गूढ़ा मित्र। होवंदा = होता, बसता। लहि = ढूँढ। सुआउ = स्वाद, आनंद। मूढ़ = मूर्ख। मदि = मद में, नशे में। माता = मस्त। होछी बाता = तुच्छ बातें। धड़ा = पक्ष, प्रभाव। भरम = भटकना। भरम धड़ा = भ्रम का प्रभाव (होने के कारण)। नानक = हे नानक! सूझै = सूझता है, दिखता। सभ कै निकटि = सब जीवों के पास। खड़ा = खड़ा हुआ।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेरा प्यारा सज्जन है, मेरा प्यारा मित्र है; वह मेरा प्यारा सज्जन (हर वक्त) मेरे पास खड़ा हुआ है। हे भाई! परमात्मा मुझे जान से भी प्यारा है, मुझे जिंद से भी प्यारा है, उस प्यारे जानी प्रभु को मैंने (अपनी) आँखों से देख लिया है। हे भाई! मैंने आँखों से देख लिया है कि वह अत्यंत मीठा और प्यारा मित्र प्रभु हरेक शरीर में गुप्त रूप से बस रहा है। पर, हे भाई! मूर्ख जीव (उसके मिलाप का) स्वाद नहीं जानता, (क्योंकि) उस हर वक्त साथ बसते मित्र को (मूर्ख मनुष्य) पा नहीं सकता। हे भाई! मूर्ख जीव माया के नशे में मस्त रहता है और तुच्छ बातें ही करता रहता है। हे भाई! भटकना का प्रभाव होने के कारण (उस प्यारे मित्र को) मिला नहीं जा सकता। हे नानक! कह: सज्जन परमात्मा (चाहे) सब जीवों के नजदीक ही खड़ा हुआ है, पर गुरु के बिना वह दिखाई नहीं देता।1। गोबिंदा मेरे गोबिंदा प्राण अधारा मेरे गोबिंदा ॥ किरपाला मेरे किरपाला दान दातारा मेरे किरपाला ॥ दान दातारा अपर अपारा घट घट अंतरि सोहनिआ ॥ इक दासी धारी सबल पसारी जीअ जंत लै मोहनिआ ॥ जिस नो राखै सो सचु भाखै गुर का सबदु बीचारा ॥ कहु नानक जो प्रभ कउ भाणा तिस ही कउ प्रभु पिआरा ॥२॥ पद्अर्थ: गोबिंदा = हे गोबिंद! प्राण अधारा = हे मेरी जिंदगी के आसरे! किरपाला = हे दया के घर! अपर अपारा = हे बेअंत! घट घट अंतरि = हरेक घट में। दासी = सेविका, माया। धारी = बनाई। सबल = बलवान। पसारी = खिलारा डाला। लै = लेकर, वश में करके। मोहनिआ = मोह लिए। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। कउ = को। भाणा = अच्छा लगा।2। नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे गोबिंद! हे मेरे गोबिंद! हे मेरी जिंदगी के आसरे गोबिंद! हे दया के घर! हे मेरे कृपालु! हे सब दातें देने वाले मेरे कृपालु! हे सब दातें देने वाले! हे बेअंत! हे हरेक शरीर में बस रहे प्रभु! तूने माया दासी पैदा की, उसने बड़ा बलवान पसारा फैलाया है और सब जीवों को अपने वश में करके मोह रखा है। हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा (इस दासी माया से) बचाए रखता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करता रहता है, गुरु के शब्द को अपनी तवज्जो में टिकाए रखता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को अच्छा लगता है उसी को ही परमात्मा प्यारा लगता है।2। माणो प्रभ माणो मेरे प्रभ का माणो ॥ जाणो प्रभु जाणो सुआमी सुघड़ु सुजाणो ॥ सुघड़ सुजाना सद परधाना अम्रितु हरि का नामा ॥ चाखि अघाणे सारिगपाणे जिन कै भाग मथाना ॥ तिन ही पाइआ तिनहि धिआइआ सगल तिसै का माणो ॥ कहु नानक थिरु तखति निवासी सचु तिसै दीबाणो ॥३॥ पद्अर्थ: माणो = मान, फखर। जाणो = सुजान। सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला, समझदार। सद = सदा। परधाना = जाना माना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। अघाणे = तृप्त हो जाते हैं। सारिगपाणे = (सारिग = धनुष। पाणि = हाथ। जिस हाथ में धनुष है, धर्नुधारी) परमात्मा। जिन कै मथाना = जिनके माथे पर। सगल = सब जीवों को। थिरु = सदा कायम रहने वाला। तखति = तख्त पर। तिसै = उस का ही। दीबाणो = दीवान, दरबार, कचहरी।3। अर्थ: (हे भाई! सब जीवों को) प्रभु (के आसरे) का ही गर्व-फ़ख़र हो सकता है, प्रभु ही (सबके दिलों की) की जानने वाला मालिक है, समझदार है, सुजान है। हे भाई! परमात्मा समझदार है सुजान है सदा ही जाना-माना है; उसका नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जिस (लोगों) के माथे के भाग्य जागते हैं वह उस धर्नुधारी परमात्मा का नाम-अमृत चख के (माया की भूख से) तृप्त हो जाते हैं। उन लोगों ने ही उस प्रभु को पा लिया है, उन्होंने ही उसका नाम स्मरण किया है। हे भाई! सब जीवों को प्रभु के आसरे का ही माण-फ़ख़र है (गर्व है)। हे नानक! कह: प्रभु सदा कायम रहने वाला है, (सदा अपने) तख़्त पर टिका रहने वाला है। (सिर्फ) उसका दरबार ही सदा कायम रहने वाला है।3। मंगला हरि मंगला मेरे प्रभ कै सुणीऐ मंगला ॥ सोहिलड़ा प्रभ सोहिलड़ा अनहद धुनीऐ सोहिलड़ा ॥ अनहद वाजे सबद अगाजे नित नित जिसहि वधाई ॥ सो प्रभु धिआईऐ सभु किछु पाईऐ मरै न आवै जाई ॥ चूकी पिआसा पूरन आसा गुरमुखि मिलु निरगुनीऐ ॥ कहु नानक घरि प्रभ मेरे कै नित नित मंगलु सुनीऐ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: मंगला = खुशी। मेरे प्रभ कै = मेरे प्रभु के घर में। सुणीऐ = सुना जाता है, संत जन कहते हैं कि। सोहिलड़ा = मीठा सोहिला, महिमा के मीठे गीत, खुशी के मीठे गीत। अनहद = अनहत्, बिना बजाए बजने वाले, एक रस बाजे। अगाजै = गूंज रहे हैं, जोर से बज रहे हैं। जिसहि = जिस परमात्मा की। वधाई = बधाई, चढ़दीकला। न आवै जाई = ना आए ना जाई, ना पैदा होता है न मरता है। सभु किछु = हरेक चीज। चूकी = समाप्त हो गई। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। मिलु = मेल कर। निरगुनीऐ = माया के तीन गुणों के प्रभाव से परे रहने वाले को।4। अर्थ: हे भाई! संतजन कहते हैं कि मेरे प्रभु के घर में खुशी सदा खुशी ही रहती है। उस प्रभु के घर में एक-रस सुरीला महिमा का मीठा गीत सदा होता रहता है। हे भाई! जिस प्रभु की सदा ही चढ़दीकला रहती है, उसके घर में उसकी महिमा के एक-रस बाजे बजते रहते हैं। हे भाई! वह परमात्मा (कभी) मरता नहीं, वह ना पैदा होता है ना मरता है। उस प्रभु को सदा स्मरणा चाहिए (यदि उसका स्मरण करते रहें, तो उसके दर से) हरेक (मुँह मांगी) चीज हासिल कर ली जाती है। (हे भाई! जो मनुष्य उसका स्मरण करता है उसकी माया की) तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसकी (हरेक) आशा पूरी हो जाती है। (हे भाई! तू भी) गुरु की शरण पड़ कर उस माया-रहित (निर्लिप) परमात्मा का मिलाप हासिल कर। हे नानक! कह: (ये बात गुरमुखों के मुँह से) सुनी जा रही है कि मेरे प्रभु के घर में सदा ही खुशी रहती है।4।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |