श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ हरि हरि धिआइ मना खिनु न विसारीऐ ॥ राम रामा राम रमा कंठि उर धारीऐ ॥ उर धारि हरि हरि पुरखु पूरनु पारब्रहमु निरंजनो ॥ भै दूरि करता पाप हरता दुसह दुख भव खंडनो ॥ जगदीस ईस गुोपाल माधो गुण गोविंद वीचारीऐ ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साधू दिनसु रैणि चितारीऐ ॥१॥

पद्अर्थ: मना = हे मन! न विसारीऐ = भुलाना नहीं चाहिए। रमा = सुंदर। कंठि = गले में। उर = हृदय। पुरखु = सर्व व्यापक। पूरनु = सब गुणों के मालिक। निरंजनो = निर+अंजन, (माया के मोह की) कालख से रहत, निर्लिप। भै = सारे डर। करता = करने वाला। हरता = नाश करने वाला। दुसह = मुश्किल से सहे जा सकने वाला। भव खंडनो = जन्मों के चक्कर नाश करने वाला। जगदीस = जगत के मालिक के। ईस = मालिक के। माधो = (मा+धव) माया का पति। वीचारीऐ = विचार करना चाहिए, चिक्त में बसाना चाहिए। बिनवंति = विनती करता है। मिलि = मिल के। संगि साधू = गुरु की संगति में। रैणि = रात।1।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

नोट: शब्द ‘मिलि’ और ‘मिलु’ में फर्क है।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए, रक्ती भर समय के लिए भी उसको भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! उस सुंदर राम को हमेशा ही गले से हृदय में परो के रखना चाहिए। हे भाई! सब गुणों के मालिक पारब्रहम निर्लिप रही सर्व-व्यापक हरि को सदा अपने हृदय में परोए रख। वह हरि सारे डरों को दूर करने वाला है, सारे पाप नाश करने वाला है, जनम-मरण के चक्करों को खत्म करने वाला है, उन दुखों को नाश करने वाला है जो बहुत मुश्किल से बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

नानक विनती करता है: (हे भाई!) जगत के मालिक, सबके मालिक, सृष्टि के पालनहार, माया के पति प्रभु के गुणों को सदा चिक्त में बसाए रखना चाहिए; गुरु की संगति में मिल के दिन-रात उसको याद करते रहना चाहिए।1।

चरन कमल आधारु जन का आसरा ॥ मालु मिलख भंडार नामु अनंत धरा ॥ नामु नरहर निधानु जिन कै रस भोग एक नराइणा ॥ रस रूप रंग अनंत बीठल सासि सासि धिआइणा ॥ किलविख हरणा नाम पुनहचरणा नामु जम की त्रास हरा ॥ बिनवंति नानक रासि जन की चरन कमलह आसरा ॥२॥

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। आधारु = आसरा, सहारा। जन का = भक्त जनों के लिए। मिलख = भूमि की मल्कियत। भंडार = खजाने। नामु अनंत = बेअंत प्रभु का नाम। धरा = हृदय का टिकाव।

नरहर नामु = परमात्मा का नाम। निधानु = खजाना। जिन कै = जिस के हृदय में। अनंत बीठल = बेअंत और निर्लिप (प्रभु) का (नाम)। बीठल = वि+स्थल, माया के प्रभाव से परे टिका रहने वाला। (ये शब्द गुरु अरजन देव जी ने बरता है। भक्त नामदेव किसी मूर्ति के पुजारी नहीं थे)। सासि सासि = हरेक सांस के साथ।

किलविख = पाप। हरणा = दूर करने वाला। पुनह चरणा = किसी कार्य की सिद्धि के लिए दुखों-कष्टों-रोगों को दूर करने के लिए किसी देवते के सन्मुख हो के किसी मंत्र का जाप करना, प्रायश्चित कर्म। त्रास = डर। हरा = दूर करने वाला। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। जन की = भक्त जन वास्ते।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण ही भक्त-जनों के वास्ते जीवन का सहारा हैं आसरा हैं। बेअंत प्रभु का नाम हृदय में टिकाना ही भक्त-जनों के लिए धन-पदार्थ है जमीन की मल्कियत है, खजाना है।

हे भाई! जिनके हृदय में परमात्मा का नाम-खजाना बस रहा है, उनके लिए नारायण का नाम जपना ही दुनियां के रसों-भोगों का आनंद है। हे भाई! बेअंत और निर्लिप प्रभु का नाम हरेक सांस के साथ जपते रहना ही उनके लिए दुनिया के रूप-रस और रंग-तमाशे हैं।

हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप दूर करने वाला है, प्रभु का नाम ही भक्त-जनों के लिए प्रायश्चित कर्म है, नाम ही मौत का डर दूर करने वाला है। नानक विनती करता है: (हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरणों का आसरा ही भक्त-जनों के लिए (जिंदगी की) संपत्ति है।2।

गुण बेअंत सुआमी तेरे कोइ न जानई ॥ देखि चलत दइआल सुणि भगत वखानई ॥ जीअ जंत सभि तुझु धिआवहि पुरखपति परमेसरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता करुणा मै जगदीसरा ॥ साधू संतु सुजाणु सोई जिसहि प्रभ जी मानई ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा सोइ तुझहि पछानई ॥३॥

पद्अर्थ: सुआमी = हे मालिक प्रभु! जानई = (जानाति) जानै, जानता। देखि = देख के। चलत = चलित्र, चोज तमाशे। सुणि = सुन के। सुणि भगत = भक्तों से सुन के। वखानई = बखाने, बयान करता है (एकवचन)।

सभि = सारे। तुझे = तुझे। धिआवहि = (बहुवचन) ध्याते हैं। पुरखपति = हे पुरखों के पति! हे जीवों के मालिक! सरब = सारे। जाचिक = भिखारी (बहुवचन)। एकु = (एकवचन) तू एक। करुणामै = करुणा+मय, हे तरस स्वरूप! जगदीसरा = हे जगत के मालिक!

सुजाणु = समझदार। सोई = वही। जिसहि = जिसको। मानई = माने, आदर मान देता है। करहु = तुम करते हो। पछानई = पहचानता है।3।

नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे मेरे स्वामी! तेरे गुण बेअंत हैं, कोई भी जीव (तेरे गुणों का अंत) नहीं जानता। (जो भी कोई मनुष्य तेरे कुछ गुणों का बयान करता है, वह) तुझ दयालु के करिश्में देख के (अथवा) भक्त-जनों से सुन के (ही) बयान करता है।

हे जीवों के मालिक! हे परमेश्वर! सारे जीव-जंतु तुझे ध्याते हैं। हे तरस-रूप प्रभु! हे जगत के ईश्वर! तू अकेला ही दाता है, सारे जीव (तेरे दर से) मांगते हैं।

हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं आदर बख्शता है वही साधु है वही सुजान संत है। नानक विनती करता है - हे प्रभु! जिस जीव पर तू कृपा करता है, वही तुझे पहचानता है (तेरे साथ गहरी सांझ डालता है)।3।

मोहि निरगुण अनाथु सरणी आइआ ॥ बलि बलि बलि गुरदेव जिनि नामु द्रिड़ाइआ ॥ गुरि नामु दीआ कुसलु थीआ सरब इछा पुंनीआ ॥ जलने बुझाई सांति आई मिले चिरी विछुंनिआ ॥ आनंद हरख सहज साचे महा मंगल गुण गाइआ ॥ बिनवंति नानक नामु प्रभ का गुर पूरे ते पाइआ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: मोहि = मैं। निरगुण = गुण हीन। अनाथु = निआसरा। बलि = बलिहार, सदके, कुर्बान। जिनि = जिस (गुरदेव) ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया है। गुरि = गुरु ने। कुसलु = आनंद। सरब = सारी। इछा = मुरादें। जलने = जलन, ईष्या। चिरी = बहुत समय से, चिरों से। विछुंनिआ = बिछुड़े हुए। हरख = खुशी। ते = से।4।

अर्थ: हे भाई! मैं गुण-हीन था, मैं निआसरा था (गुरु की कृपा से मैं प्रभु की) शरण आ पड़ा हूँ। (उस) गुरु से सदके जाता हूँ, लिहार जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ, जिसने (मेरे हृदय में प्रभु का) नाम पक्का कर दिया है।

गुरु ने (जिस किसी को भी परमात्मा का) नाम दिया (उसके अंदर) आत्मिक आनंद बन गया, (उसकी) सारी मुरादें पूरी हो गई; (गुरु ने उसके अंदर से) ईष्या खत्म कर दी, (उसके अंदर) ठंड पड़ गई, वह (प्रभु से) चिरों से विछुड़ा हुआ (दोबारा) मिल गया।

(हे भाई! जिसने भी गुरु की शरण पड़ कर) बड़ा आनंद पैदा करने वाले हरि-गुण गाने आरम्भ किए, उसके अंदर अटल आत्मिक अडोलता की खुशियां और आनंद बन गए। नानक विनती करता है: हे भाई! परमात्मा का (ऐसा) नाम पूरे गुरु से (ही) मिलता है।4।2।

रामकली महला ५ ॥ रुण झुणो सबदु अनाहदु नित उठि गाईऐ संतन कै ॥ किलविख सभि दोख बिनासनु हरि नामु जपीऐ गुर मंतन कै ॥ हरि नामु लीजै अमिउ पीजै रैणि दिनसु अराधीऐ ॥ जोग दान अनेक किरिआ लगि चरण कमलह साधीऐ ॥ भाउ भगति दइआल मोहन दूख सगले परहरै ॥ बिनवंति नानक तरै सागरु धिआइ सुआमी नरहरै ॥१॥

पद्अर्थ: रुणझुणो = रुण झुण, (रुण = बारीक गाने की आवाज। झुण = झांझर की झनकार की आवाज) मीठी मीठी सुर। रुणझुणो सबदु = मीठी मीठी सुर वाला शब्द। अनाहदु = बिना बजाए बजने वाला, एक रस, लगातार। उठि = उठ के। गाईऐ = गाया जाना चाहिए। संतन कै = संतन कै घरि, साधु-संगत में। किलविख = पाप। सभि = सारे। जपीऐ = जपना चाहिए। गुर मंतन कै = गुरु की वाणी के द्वारा।

लीजै = लिआ जाना चाहिए। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीजै = पीना चाहिए। रैणि = रात। जोग = जोग के साधन। दान = दान पुण्य। लगि = लग के। साधीऐ = साधन किया जाता है।

भाउ = प्रेम। परहरै = दूर कर देता है। तरै = पार लांघ जाता है। सागरु = (संसार-) समुंदर। परहरै = परमात्मा को।1।

अर्थ: हे भाई! नित्य उठ के (उद्यम करके) साधु-संगत में जा के परमात्मा की महिमा की मीठी-मीठी सुर वाली वाणी एक-रस गानी चाहिए। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पापों और ऐबों का नाश करने वाला है, यह हरि-नाम गुरु की शिक्षा पर चल कर जपना चाहिए।

हे भाई! परमात्मा का नाम जपना चाहिए, आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल पीना चाहिए, दिन-रात परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। प्रभु के सुंदर-चरणों में जुड़ के (मानो) अनेक योग-साधनों का, अनेक दान-पुन्यों का, अनेक ऐसी और क्रियाओं का साधन हो जाता है।

हे भाई! दया के श्रोत मोहन-प्रभु का प्यार प्रभु की भक्ति सारे दुख दूर कर देती है। नानक कहता है: हे भाई! मालिक प्रभु को स्मरण करके मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1।

सुख सागर गोबिंद सिमरणु भगत गावहि गुण तेरे राम ॥ अनद मंगल गुर चरणी लागे पाए सूख घनेरे राम ॥ सुख निधानु मिलिआ दूख हरिआ क्रिपा करि प्रभि राखिआ ॥ हरि चरण लागा भ्रमु भउ भागा हरि नामु रसना भाखिआ ॥ हरि एकु चितवै प्रभु एकु गावै हरि एकु द्रिसटी आइआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि करी किरपा पूरा सतिगुरु पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! गवहि = गाते हैं (बहुवचन)। अनद मंगल = अनेक सुख और खुशियां। लागे = लग के। घनेरे = अनेक, बहुत। सुख निधानु = सुखों के खजाने। हरिआ = दूर हो जाता है। प्रभि = प्रभु ने। भ्रमु = वहम, भटकना। रसना = जीभ (से)। भाखिआ = उचारा, जपा। चितवै = याद रखता है। द्रिसटी = नजरों में।2।

अर्थ: हे सुखों के समुंदर गोबिंद! (तेरे) भक्त (तेरा) स्मरण (करते हैं), तेरे गुण गाते हैं; गुरु के चरणों में लग के उनको अनेक आनंद खुशियां और सुख प्राप्त हो जाते हैं।

(हे भाई! जिसको गुरु मिल जाता है उसको) सुखों का खजाना हरि-नाम मिल जाता है। प्रभु ने कृपा करके जिस मनुष्य की (दुख आदि से) रक्षा की, उसके सारे दुख निर्वित हो गए। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में जुड़ गया, जिसने परमात्मा का नाम अपनी जीभ से उचारना शुरू कर दिया, उसका हरेक किस्म का भ्रम-वहम और डर दूर हो गया।

नानक विनती करता है: हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु ने कृपा की, उसको पूरा गुरु मिल गया, वह मनुष्य (फिर) एक परमात्मा को ही याद करता रहता है एक परमात्मा (के गुणों) को ही गाता रहता है, एक परमात्मा ही उसको हर जगह बसता नजर आता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh