श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मिलि रहीऐ प्रभ साध जना मिलि हरि कीरतनु सुनीऐ राम ॥ दइआल प्रभू दामोदर माधो अंतु न पाईऐ गुनीऐ राम ॥ दइआल दुख हर सरणि दाता सगल दोख निवारणो ॥ मोह सोग विकार बिखड़े जपत नाम उधारणो ॥ सभि जीअ तेरे प्रभू मेरे करि किरपा सभ रेण थीवा ॥ बिनवंति नानक प्रभ मइआ कीजै नामु तेरा जपि जीवा ॥३॥

पद्अर्थ: मिलि रहीऐ = मिले रहना चाहिए। मिलि = मिल के। सुनीऐ = सुनना चाहिए। दामोदर = (दाम = रससी। उदर = पेट। तगाड़ी) परमात्मा। माधो = (मा+धव। माया का पति) परमात्मा। गुनीअे = गुणों का।

दइआल = दया का घर। दुख हर = दुखों का नाश करने वाला। सगल = सारे। दोख = पाप। निवारणो = दूर करने वाला। सोग = गम। बिखड़े = मुश्किल। उधारणो = बचाने वाला।

सभि = सारे। जीअ = जीव। रेण = चरण धूल। थीवा = मैं हो जाऊँ। प्रभ = हे प्रभु! मइआ = दया। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करूँ।3।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! प्रभु के भगतों की संगति में मिल के रहना चाहिए, भक्त-जनों को मिल के परमात्मा का कीर्तन सुनना चाहिए। हे भाई! दया के श्रोत दामोदर माया के पति प्रभु के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता।

हे भाई! प्रभु दया का श्रोत है, दुखों का नाश करने वाला है, शरण-योग है, सबको दातें देने वाला है, सारे पापों का नाश करने वाला है। हे भाई! नाम जपने वालों को वह प्रभु मोह-सोग और मुश्किल विकारों से बचाने वाला है।

हे मेरे प्रभु! सारे जीव तेरे (पैदा किए हुए हैं), मेहर कर, मैं सबके चरणों की धूल बना रहूँ। नानक विनती करता है: हे प्रभु! दया कर, मैं तेरा नाम जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।3।

राखि लीए प्रभि भगत जना अपणी चरणी लाए राम ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरह एको नामु धिआए राम ॥ धिआइ सो प्रभु तरे भवजल रहे आवण जाणा ॥ सदा सुखु कलिआण कीरतनु प्रभ लगा मीठा भाणा ॥ सभ इछ पुंनी आस पूरी मिले सतिगुर पूरिआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेले फिरि नाही दूख विसूरिआ ॥४॥३॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। लाए = लगा के। सिमरह = आओ, हम स्मरण करें। धिआए = ध्यान धर के।

नोट: ‘सिमरह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।

पद्अर्थ: तरे = पार लांघ गए। भवजल = संसार समुंदर। रहे = समाप्त हो गए। आवण जाणा = पैदा होना मरना। कलिआण = सुख आनंद। प्रभ भाणा = प्रभु की रजा।

सभ इछ = हरेक मुराद। पुंनी = पूरी हो गई। मिले सतिगुर = जो मनुष्य गुरु को मिल गए। प्रभ = प्रभु ने। विसूरिआ = विसूरे, झोरे, चिन्ता फिक्र।4।

अर्थ: (हे भाई! सदा से ही) प्रभु ने अपने चरणों में जोड़ के अपने भक्तों की रक्षा की है। सो, हे भाई! एक हरि नाम का ध्यान धर के, आओ, हम भी आठों पहर अपने प्रभु का स्मरण करते रहें।

(हे भाई! अनेक जीव) उस प्रभु का ध्यान धर के संसार-समुंदर से पार लांघ गए, (उनके) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त हो गए। हे भाई! प्रभु की महिमा करते हुए उनके अंदर सदा सुख-आनंद बना रहा, उनको प्रभु की रजा की रजा मीठी लगने लगी।

नानक विनती करता है: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को मिल गए, उनकी हरेक मुराद पूरी हो गई, उनकी हरेक आस पूरी हो गई। जिनको प्रभु ने स्वयं (अपने चरणों से) मिला लिया, उनको कोई दुख कोई चिन्ता-फिक्र फिर नहीं व्यापते।4।3।

रामकली महला ५ छंत ॥ सलोकु ॥ चरन कमल सरणागती अनद मंगल गुण गाम ॥ नानक प्रभु आराधीऐ बिपति निवारण राम ॥१॥

पद्अर्थ: सलोकु। चरन कमल = (गुरु के) सुंदर चरण। सरणागती = शरण+आगती, शरण आ के। मंगल = खुशी। गुण गाम = गुण गाने। आराधीऐ = आराधना चाहिए। बिपति = विपदा। निवारण = दूर करने वाला।1।

अर्थ: सलोकु। (हे भाई! जो मनुष्य गुरु के) सुंदर चरणों की शरण आ के (परमात्मा के) गुण गाते हैं, (उनके हृदय में सदा) आनंद-सुख बने रहते हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की आराधना करनी चाहिए, परमात्मा हरेक विपदा दूर करने वाला है।1।

छंतु ॥ प्रभ बिपति निवारणो तिसु बिनु अवरु न कोइ जीउ ॥ सदा सदा हरि सिमरीऐ जलि थलि महीअलि सोइ जीउ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे सरब गुण जगदीसरै ॥ करि सेव सेवक दिनसु रैणी तिसु भावै सो होइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सुखह दाते परगासु मनि तनि होइ जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: छंतु। सिमरीऐ = स्मरणा चाहिए। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। पूरि रहिआ = व्यापक है। निमख = आँख झपकने जितना समय। मनहु = मन से। सभागे = भाग्ययशाली। जगदीसरै = जगत के ईश्वर के, जगत के मालिक के। सरब गुण = सारे गुण, सारी बड़ाई, सारी मेहर। सेव सेवक = सेवकों के लिए सेवा। रैणी = रात। तिसु = उस (प्रभु) को। भावै = अच्छा लगता है। बलि जाइ = सदके जाता है। सुखह दाते = सुख देने वाले से। परगासु = (सही आत्मिक जीवन की) रौशनी। मनि = मन में। तनि = तन में।1।

अर्थ: छंत। (हे भाई!) परमात्मा ही (जीवों की हरेक) विपदा दूर करने वाला है, उसके बिना और कोई (ऐसी सामर्थ्य वाला) नहीं है। (हे भाई!) सदा ही सदा ही परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, जल में, धरती में, आकाश में (हर जगह) वह परमात्मा ही मौजूद है।

हे भाई! वह परमात्मा जल में धरती में अंतरिक्ष में (हर जगह) व्यापक है आँख झपकने जितने समय के लिए भी वह प्रभु हमारे मन से भूलना नहीं चाहिए। वह दिन भाग्यशाली (समझो, जब हमारा मन) गुरु के चरणों में जुड़ा रहे, (पर, ये हमारे अपने वश की बात नहीं, ये तब ही होता है जब) उस जगत के मालिक प्रभु की मेहर (हो)।

हे भाई! दिन-रात सेवकों की तरह उस प्रभु की सेवा-भक्ति किया कर; जो कुछ उसको भाता है वही (जगत में) हो रहा है। नानक तो उस सुख-दाते प्रभु से सदके जाता है (उसकी मेहर से ही हमारे) मन में तन में (सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो सकता है।1।

सलोकु ॥ हरि सिमरत मनु तनु सुखी बिनसी दुतीआ सोच ॥ नानक टेक गुोपाल की गोविंद संकट मोच ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। बिनसी = खत्म हो गई। दुतीआ = दूसरी, अन्य। सोच = चिन्ता फिक्र। टेक = आसरा। संकट = दुख-कष्ट। मोच = नाश करने वाला।1।

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने सारे संकट दूर करने वाले गोबिंद गोपाल का आसरा लिया, परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए उसका मन सुखी हो गया उसका तन सुखी हो गया (क्योंकि प्रभु की याद के कारण उसके) अन्य सारे चिन्ता-फिक्र दूर हो गए।1।

छंतु ॥ भै संकट काटे नाराइण दइआल जीउ ॥ हरि गुण आनंद गाए प्रभ दीना नाथ प्रतिपाल जीउ ॥ प्रतिपाल अचुत पुरखु एको तिसहि सिउ रंगु लागा ॥ कर चरन मसतकु मेलि लीने सदा अनदिनु जागा ॥ जीउ पिंडु ग्रिहु थानु तिस का तनु जोबनु धनु मालु जीउ ॥ सद सदा बलि जाइ नानकु सरब जीआ प्रतिपाल जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: छंतु। भै = भय, डर। दीनानाथ = कमजोरों का रक्षक। प्रतिपाल = पालनहार। अचुत = (अचुत। च्यु = जव सिंस, गिर जाना) कभी ना गिरने वाला, अविनाशी। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम। कर = हाथ (बहुवचन)। मसतक = माथा। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जीउ = जिंद, जीवात्मा, प्राण। पिंडु = शरीर। ग्रिहु = घर। बलि जाइ = सदके जाता है।2।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: छंत। हे भाई! जिस मनुष्य ने दीनों के नाथ पालनहार हरि प्रभु के गुण गाने आरम्भ किए, दया के श्रोत नारायण ने उसके सारे डर और दुख-कष्ट काट दिए।

हे भाई! सबको पालने वाला अविनाशी सिर्फ अकाल-पुरख ही है, जिस मनुष्य का प्यार उसके साथ बन गया, जिसने अपने हाथों से अपना माथा उसके चरणों में रख दिया, प्रभु ने उसको अपने साथ जोड़ लिया, (माया के हमलों की तरफ से वह) सदा हर वक्त सचेत रहने लग पड़ा।

हे भाई! (हमारी यह) जीवात्मा (हमारा ये) शरीर, घर, जगह, तन, जोबन और धन-माल सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। वह प्रभु सारे जीवों को पालने वाला है। नानक उससे सदा ही सदके जाता है।2।

सलोकु ॥ रसना उचरै हरि हरे गुण गोविंद वखिआन ॥ नानक पकड़ी टेक एक परमेसरु रखै निदान ॥१॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। उचरै = उचारता है। टेक = आसरा। रखै = रक्षा करता है। निदान = अंत को।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम उचारता रहता है, गोबिंद के गुण बयान करता रहता है, सदा एक परमेश्वर का आसरा लिए रखता है, परमात्मा आखिर उसकी रक्षा करता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh