श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 928 सलोक ॥ साधसंगति बिनु भ्रमि मुई करती करम अनेक ॥ कोमल बंधन बाधीआ नानक करमहि लेख ॥१॥ पद्अर्थ: भ्रमि = भटक भटक के। मुई = आत्मिक मौत मर गई। कोमल बंधन = मोह की नाजुक जंजीरें। करमहि लेख = किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार।1। अर्थ: हे नानक! गुरु की संगत से वंचित रह के और ही कर्म करती हुई जीव-स्त्री (माया के मोह में) भटक-भटक के आत्मिक मौत सहेड़ लेती है। अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार वह जीव-स्त्री माया के मोह की कोमल जंजीरों में बँधी रहती है।1। जो भाणे से मेलिआ विछोड़े भी आपि ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परतापु ॥२॥ पद्अर्थ: भाणे = भा गए, अच्छे लगे। से उह = (बहुवचन)। सरणागती = शरण पड़े रहो। जा का = जिस (प्रभु) का।2। अर्थ: हे नानक! जो जीव प्रभु को अच्छे लगने लग जाते हैं, उनको वह अपने चरणों में जोड़ लेता है, (अपने चरणों से) बिछोड़ा भी खुद ही करवाता है। (इसलिए, हे भाई!) उस प्रभु की शरण पड़े रहना चाहिए जिसका बहुत बड़ा तेज-प्रताप है।2। छंतु ॥ ग्रीखम रुति अति गाखड़ी जेठ अखाड़ै घाम जीउ ॥ प्रेम बिछोहु दुहागणी द्रिसटि न करी राम जीउ ॥ नह द्रिसटि आवै मरत हावै महा गारबि मुठीआ ॥ जल बाझु मछुली तड़फड़ावै संगि माइआ रुठीआ ॥ करि पाप जोनी भै भीत होई देइ सासन जाम जीउ ॥ बिनवंति नानक ओट तेरी राखु पूरन काम जीउ ॥३॥ छंतु। ग्रीखम = गरमी। गाखड़ी = मुश्किल। अखाड़ै = आसाढ के महीने में। घाम = गर्मी, धूप। बिछोहु = विछोड़ा। प्रेम बिछोहु = प्रेम का ना होना, प्रेम का विछोड़ा। दुहागणी = दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री को। न करी = नहीं करता। द्रिसटी = निगाह। हावै = हाहुके हो के। गारबि = अहंकार में। मुठीआ = लूटी जाती है। संगि = साथ। रुठीआ = प्रभु पति से रूठी हुई। करि = कर के। जोनी = जूनियों में। भै भीत होई = डरी हुई, घबराई हुई। देइ = देता है (एकवचन)। जाम = जम। पूरन काम = हे कामना पूरी करने वाले! 3। अर्थ: छंत। (हे सहेलिए! जैसे) गर्मी की ऋतु बहुत ही करड़ी होती है, जेठ-हाड़ में बड़ी धूप पड़ती है (इस ऋतु में जीव-जंतु बहुत तंग होते हैं, उसी तरह जिस) दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री की ओर प्रभु-पति निगाह नहीं करते उसे प्रेम की अनुभूति की अनुपस्थिति जलाती है। जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति नहीं दिखता, वह हाहुके ले ले के मरती रहती है, (माया के) अहंकार में वह अपना आत्मिक जीवन लुटा बैठती है। माया के मोह में फसी हुई वह प्रभु-पति से रूठी रहती है (और ऐसे तड़पती रहती है, जैसे) पानी के बिना मछली तड़पती है। (हे सहेली! जो जीव-स्त्री) पाप कर-कर के घबराई रहती है, उसको जमराज सदा सजा देता है। नानक विनती करता है: हे सब की मनो कामना पूरी करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे अपने चरणों में जोड़े रख)।3। सलोक ॥ सरधा लागी संगि प्रीतमै इकु तिलु रहणु न जाइ ॥ मन तन अंतरि रवि रहे नानक सहजि सुभाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सरधा = श्रद्धा, प्रेम, प्यार। संगि = साथ। इकु तिलु = रक्ती जितना समय भी। अंतरि = अंदर। रवि रहे = बसा रहता है। सहजि सुभाइ = सोए हुए ही, बिना किसी प्रयास के, मेहनत-कमाई करते हुए भी।1। अर्थ: हे नानक! (जिस जीव-स्त्री के हृदय में अपने) प्रीतम-प्रभु के साथ प्यार बनता है, वह उस (प्रीतम के बिना) रक्ती जितने समय के लिए भी नहीं रह सकती। बिना किसी विशेष प्रयास के ही उसके मन में वह प्रीतम हर वक्त टिका रहता है।1। करु गहि लीनी साजनहि जनम जनम के मीत ॥ चरनह दासी करि लई नानक प्रभ हित चीत ॥२॥ पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। लीनी = अपनी बना ली। साजनहि = सज्जन प्रभु ने। चरनह = चरणों की। हित = प्यार। चीत = चिक्त, ध्यान।2। अर्थ: हे नानक! अनेक जन्मों से चले आ रहे मित्र सज्जन-प्रभु ने (जिस जीव-स्त्री का) हाथ पकड़ के (उसको अपना) बना लिया, उसको अपना हार्दिक प्यार दे के उसको अपने चरणों की दासी बना लिया।2। छंतु ॥ रुति बरसु सुहेलीआ सावण भादवे आनंद जीउ ॥ घण उनवि वुठे जल थल पूरिआ मकरंद जीउ ॥ प्रभु पूरि रहिआ सरब ठाई हरि नाम नव निधि ग्रिह भरे ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी कुल समूहा सभि तरे ॥ प्रिअ रंगि जागे नह छिद्र लागे क्रिपालु सद बखसिंदु जीउ ॥ बिनवंति नानक हरि कंतु पाइआ सदा मनि भावंदु जीउ ॥४॥ छंतु। रुति = ऋतु, मौसम। बरसु = बरखा (का मौसम)। सुहेलीआ = सुखदाई। घण = बादल। उनवि = झुक के। वुठे = बरसने लगे। मकरंद = सुगंधि भरा जल। पूरिआ = भर गया। सरब ठाई = सब जगह। नव निधि = नौ खजाने। ग्रिह = घर। सिमरि = स्मरण करके। समूहा = ढेर। सभि = सारे। प्रिअ रंगि = प्यारे के रंग में। जागे = सचेत हो गए। छिद्र = ऐब, दाग़, छेद। सद = सदा। बखसिंदु = दयावान। कंतु = कसम। मनि = मन में। भावंदु = प्यारा लगने वाला।4। अर्थ: छंतु। (हे सहेलिए! जैसे) बरखा ऋतु बड़ी सुखदाई होती है, सावन-भादरों के महीनों में (बरखा के कारण) बड़ी मौजें बनी रहती हैं, बादल झुक-झुक के बरसते हैं, तालाबों-छप्पड़ों में, धरती के गड्ढों में हर जगह सुगंधि भरा पानी ही भर जाता है, (वैसे ही जिनके हृदय-) घर परमात्मा के नाम के नौ खजानों से नाको-नाक भर जाते हैं, उनको परमात्मा सब जगह दिखाई देने लग जाता है। सबके दिल की जानने वाले परमात्मा का नाम स्मरण करके उनकी सारी ही कुलें पार लांघ जाती हैं। हे सहेलिए! जो वडभागी प्यारे प्रभु के प्रेम-रंग में (टिक के माया के मोह के हमलों की ओर से) सचेत हो जाते हैं, उन्हें विकारों के कोई दाग़ नहीं लगते, दया का घर प्रभु सदा ही उन पर प्रसन्न रहता है। नानक विनती करता है: हे सहेलिए! उन्हें मन में सदा प्यारा लगने वाला पति-प्रभु मिल जाता है।4। सलोक ॥ आस पिआसी मै फिरउ कब पेखउ गोपाल ॥ है कोई साजनु संत जनु नानक प्रभ मेलणहार ॥१॥ पद्अर्थ: फिरउ = मैं फिरती हूँ। पेखउ = मैं देखूँ। मेलणहार = मिलाप कराने लायक।1। अर्थ: हे नानक! (कह: प्रभु के दर्शनों की) आस (रख के) दर्शनों की तमन्ना से मैं (तलाश करती) फिरती हूँ कि कब मैं गोपाल प्रभु के दर्शन कर सकूँ। (मैं तलाशती हूं कि) कोई सज्जन संत जन मुझे मिल जाए जो मुझे प्रभु से मिलाने की समर्थता रखता हो।1। बिनु मिलबे सांति न ऊपजै तिलु पलु रहणु न जाइ ॥ हरि साधह सरणागती नानक आस पुजाइ ॥२॥ पद्अर्थ: बिनु मिलबे = मिले बिना। साधह सरणागती = संत जनों की शरण पड़ने से। पुजाइ = पूरी कर देता है।2। अर्थ: हे नानक! (कह: परमात्मा को) मिले बिना (हृदय में) ठंड नहीं पड़ती, रक्ती भर समय के लिए भी (शांति से) रहा नहीं जा सकता। प्रभु के संत-जनों की शरण पड़ने से (कोई ना कोई गुरमुख दर्शनों की) आस पूरी कर (ही) देता है।2। छंतु ॥ रुति सरद अड्मबरो असू कतके हरि पिआस जीउ ॥ खोजंती दरसनु फिरत कब मिलीऐ गुणतास जीउ ॥ बिनु कंत पिआरे नह सूख सारे हार कंङण ध्रिगु बना ॥ सुंदरि सुजाणि चतुरि बेती सास बिनु जैसे तना ॥ ईत उत दह दिस अलोकन मनि मिलन की प्रभ पिआस जीउ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा मेलहु प्रभ गुणतास जीउ ॥५॥ छंतु। अडंबरो = आडंबर, आरंभ। कतके = कार्तिक में। गुण तास = गुणों का खजाना प्रभु। सूख सारे = सुखों की सार। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य, फिटकार, व्यर्थं। सुंदरि = सुंदरी, सोहणी। चतुरि = (‘चतुर’ का स्त्रीलिंग)। बेती = विद्यावती। तना = शरीर। नोट: ‘बेती’ शब्द ‘बेता’ व ‘वेक्ता’ का स्त्रीलिंग। ईत उत = इधर उधर। दह दिस = दसों दिशाओं में। अलोकन = देख भाल। मनि = मन में। धारि किरपा = कृपा करके। गुणतास प्रभ = हे गुणों के खजाने प्रभु!।5। अर्थ: छंतु। (हे सहेलिए! जब) असू-कार्तिक में मीठी-मीठी ऋतु का आरम्भ होता है, (तब हृदय में) प्रभु (के मिलाप) की चाहत उपजती है। (जिस जीव-स्त्री के भीतर ये बिरह की अवस्था पैदा होती है, वह) दीदार करने के लिए तलाश करती-फिरती है कि गुणों के खजाने प्रभु के साथ कब मेल हो। नानक विनती करता है: (हे सहेलिए!) प्यारे पति (के मिलाप) के बिना (उसके मिलाप के) सुख की समझ नहीं पड़ सकती, हार-कंगन (आदि श्रृंगार बल्कि) दुखदाई लगते हैं। स्त्री सुंदर हो, समझदार हो, चतुर हो, विद्यावती हो (पति के मिलाप के बिना ऐसे ही है, जैसे) सांस आए बिना शरीर। (यही हाल होता है जीव-स्त्री का, जो प्रभु-मिलाप से वंचित रहे) इधर-उधर, दसों दिशाओं में देख-भाल करती है, उसके मन में प्रभु को मिलने की तमन्ना बनी रहती है। (वह संत जनों के आगे विनती करती रहती है: हे संत जनो!) कृपा करके मुझे गुणों के खजाने प्रभु से मिला दो।5। सलोक ॥ जलणि बुझी सीतल भए मनि तनि उपजी सांति ॥ नानक प्रभ पूरन मिले दुतीआ बिनसी भ्रांति ॥१॥ पद्अर्थ: जलणि = जलन, तृष्णा की आग। मनि = मन में। तनि = तन में। सांति = ठंड। दुतीआ भ्रांति = (प्रभु को भुला के) और तरफ की भटकना, माया की खातिर भटकना।1। अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्यों को) पूर्ण प्रभु जी मिल गए (उनके अंदर से) और (किसी तथाकथित शक्तियों की) तरफ की भटकना दूर हो गई; (उनके अंदर से) तृष्णा की आग बुझ गई, (उनके हृदय) ठंडे-ठार हो गए, (उनके) मन में (उनके) तन में शांति पैदा हो गई।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |