श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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साध पठाए आपि हरि हम तुम ते नाही दूरि ॥ नानक भ्रम भै मिटि गए रमण राम भरपूरि ॥२॥

पद्अर्थ: साध = गुरु, संत जन। पठाए = भेजे। ते = से। हम तुम ते = हम जीवों से। भ्रम = भ्रम, भटकना। भै = भय, डर। रमण = स्मरण। भरपूरि = सर्व व्यापक।2।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे नानक! प्रभु ने खुद (ही) गुरु को (जगत में) भेजा। (गुरु ने आ के बताया कि) परमात्मा हम जीवों से दूर नहीं है, (गुरु ने बताया कि) सर्व-व्यापक परमात्मा का स्मरण करने वालों के मन की भटकना और सारे डर दूर हो जाते हैं।2।

छंतु ॥ रुति सिसीअर सीतल हरि प्रगटे मंघर पोहि जीउ ॥ जलनि बुझी दरसु पाइआ बिनसे माइआ ध्रोह जीउ ॥ सभि काम पूरे मिलि हजूरे हरि चरण सेवकि सेविआ ॥ हार डोर सीगार सभि रस गुण गाउ अलख अभेविआ ॥ भाउ भगति गोविंद बांछत जमु न साकै जोहि जीउ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेली तह न प्रेम बिछोह जीउ ॥६॥

छंतु। सिसीअर = सर्दी, ठंडक। पोहि = पोह (के महीने) में। जलनि = तपश, तृष्णा की आग। ध्रोह = ठगी। सभि = सारे। मिलि = मिल के। सेवकि = सेवक ने। डोर = धागा। अभेविआ = अभेव के। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।

भाउ = प्यार। बांछत = मांगते हुए। जोहि न साकै = देख नहीं सकता। प्रभि = प्रभु ने। तह = वहाँ, उसके हृदय में। प्रेम विछोह = प्रभु प्रेम से विछोड़ा।6।

अर्थ: छंत। हे भाई! मघर-पोह के महीने में सर्दी की ऋतु (आ के) ठंडक कर देती है, (इसी तरह जिस जीव के हृदय में) परमात्मा का प्रकाश होता है, जो मनुष्य परमात्मा के दर्शन कर लेता है, उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है, उसके अंदर से माया के वल-छल समाप्त हो जाते हैं।

हे भाई! प्रभु की हजूरी में टिक के प्रभु के जिस चरण-सेवक ने प्रभु की सेवा-भक्ति की, उसकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। (जैसे पति-मिलाप से स्त्री के) सारे किए हुए हार-श्रृंगार (सफल हो जाते हैं, इसी तरह प्रभु-पति के मिलाप में ही जीव-स्त्री के लिए) सारे आनंद हैं (इसलिए, हे भाई!) अलख-अभेव प्रभु के गुण गाते रहा करो।

हे भाई! गोबिंद का प्रेम माँगते हुए गोबिंद की भक्ति (की दाति) माँगते हुए मौत का सहम कभी छू नहीं सकता। नानक विनती करता है: जिस जीव-स्त्री को प्रभु ने खुद अपने चरणों में जोड़ लिया, उसके हृदय में प्रभु-प्यार की कमी (प्रभु-प्यार का खालीपन) नहीं होता।6।

सलोक ॥ हरि धनु पाइआ सोहागणी डोलत नाही चीत ॥ संत संजोगी नानका ग्रिहि प्रगटे प्रभ मीत ॥१॥

पद्अर्थ: सोहागणी = (सौभागिनी) भाग्यशाली जीव-स्त्री ने। संत संजोगी = संतो के संजोग से, संतों की संगति की इनायत से। ग्रिहि = हृदय घर में।1।

अर्थ: हे नानक! संतों की संगति की इनायत से जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में मित्र प्रभु जी प्रकट हो गए, जिस भाग्यशाली जीव-स्त्री ने प्रभु का नाम-धन हासिल कर लिया, उसका चिक्त (कभी माया की तरफ) नहीं डोलता।1।

नाद बिनोद अनंद कोड प्रिअ प्रीतम संगि बने ॥ मन बांछत फल पाइआ हरि नानक नाम भने ॥२॥

पद्अर्थ: नाद = रागों के गाने। बिनोद = तमाशे। कोड = करिश्मे। संगि = साथ, संगति में। भने = उचार के। मन बांछत = मन मांगी।2।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा का नाम उचारते हुए मन-मांगी मुरादें मिल जाती हैं, प्यारे प्रीतम-प्रभु के चरणों में जुड़ने से (मानो, अनेक) रागों-तमाशों के करिश्मों के आनंद (पा लेते हैं)।2।

छंतु ॥ हिमकर रुति मनि भावती माघु फगणु गुणवंत जीउ ॥ सखी सहेली गाउ मंगलो ग्रिहि आए हरि कंत जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए मनि धिआए सेज सुंदरि सोहीआ ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण भए हरिआ देखि दरसन मोहीआ ॥ मिले सुआमी इछ पुंनी मनि जपिआ निरमल मंत जीउ ॥ बिनवंति नानक नित करहु रलीआ हरि मिले स्रीधर कंत जीउ ॥७॥

छंतु। हिम = बर्फ। हिमकर = बरफानी, बरफ पैदा करने वाली। मनि = मन में। गुणवंत = गुणों वाले, खूबियों वाले। सखी सहेली = हे सखी सहेली! मंगलो = खुशी के गीत, मंगल, महिमा का गीत। सेज = हृदय सेज। सोहीआ = मस्त हो गई। पुंनी = पूरी हुई। निरमल = पवित्र। मंत = नाम मंत्र। रलीआ = खुशियां। स्री धर = श्री धर, लक्ष्मी का पति, लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा।7।

नोट: ‘सुंदरि’ है ‘सुंदर’ का स्त्रीलिंग।

अर्थ: छंत। (हे सहेलियो!) माघ (का महीना) फागुन (का महीना, ये दोनों ही बड़ी) खूबियों वाले हैं, (इन महीनों की) बर्फानी ऋतुएं मनों की भाती हैं, (इस तरह जिस हृदय में ठंडक का पुँज प्रभु आ बसता है, वहॉ। भी विकारों की तपस समाप्त हो जाती है)। हे सहेलियो! तुम (शांति के श्रोत परमात्मा की) महिमा के गीत गाया करो। (जो जीव-स्त्री ये उद्यम करती है, उसके) हृदय-घर में प्रभु-पति आ प्रकट होता है।

हे सहेलियो! (जिस जीव-स्त्री के हृदय-गृह में) प्रीतम-प्रभु जी आ बसते हैं, (जो जीव-स्त्री अपने) मन में प्रभु-पति का प्यार बनाए रखती है, (उसके हृदय की) सेज सुंदर हो जाती है। वह जीव-स्त्री (उस सर्व-व्यापक का) दर्शन करके मस्त रहती है, उसको जंगल, घास-बूटिआं व सारी ही त्रिभवण हरा-भरा दिखता है।

हे सहेलियो! जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति मिल जाता है, जो जीव-स्त्री अपने मन में उस पवित्र का नाम-मंत्र जपती है, उसकी हरेक मनो-कामना पूरी हो जाती है। नानक विनती करता है: हे सहेलियो! तुम भी माया के आसरे प्रभु पति को मिल के सदा आत्मिक आनंद लिया करो।7।

सलोक ॥ संत सहाई जीअ के भवजल तारणहार ॥ सभ ते ऊचे जाणीअहि नानक नाम पिआर ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ के = जिंद के। सहाई = मददगार। भवजल = संसार समुंदर। तारणहार = पार लंघाने की सामर्थ्य वाले। ते = से। जाणीअहि = पहचाने जाते हैं।1।

नोट: ‘जाणीअहि’ है वर्तमान काल, कर्म वाच, अन्न पुरख, बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! संत जन (जीवों की) जिंद के मददगार (बनते हैं), (जीवों को) संसार-समुंदर से पार लंघाने की समर्थता रखते हैं। हे नानक! परमात्मा के नाम से प्यार करने वाले (गुरमुख जगत में और) सब प्राणियों से श्रेष्ठ माने जाते हैं।1।

जिन जानिआ सेई तरे से सूरे से बीर ॥ नानक तिन बलिहारणै हरि जपि उतरे तीर ॥२॥

पद्अर्थ: जानिआ = सांझ डाली, जाना, जान पहचान बनाई। सेई = वही लोग। तरे = पार लांघ गए। सूरे = सूरमे। बीर = बहादर। जपि = जप के। तीर = (परले) किनारे।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए, वही (असल) सूरमे हैं, वह (असल) बहादर हैं। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य परमात्मा का नाम जप के (संसार-समुंदर से) परले किनारे पर पहुँच गए, मैं उनसे बलिहार जाता हूँ।2।

छंतु ॥ चरण बिराजित सभ ऊपरे मिटिआ सगल कलेसु जीउ ॥ आवण जावण दुख हरे हरि भगति कीआ परवेसु जीउ ॥ हरि रंगि राते सहजि माते तिलु न मन ते बीसरै ॥ तजि आपु सरणी परे चरनी सरब गुण जगदीसरै ॥ गोविंद गुण निधि स्रीरंग सुआमी आदि कउ आदेसु जीउ ॥ बिनवंति नानक मइआ धारहु जुगु जुगो इक वेसु जीउ ॥८॥१॥६॥८॥

छंतु। बिराजित = बस रहे हैं। सभ ऊपरै = और सब ख्यालों से ऊपर। कलेसु = दुख। हरे = दूर हो गए। रंगि = प्यार रंग में। रातै = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। ते = तो। तिलु = रक्ती भर समय भी। तजि = छोड़ के। आपु = स्वै भाव, अहंकार। सरब गुण = सारे गुणों के मालिक। जगदीसर = जगत का ईश्वर। गुण निधि = गुणों का खजाना। स्री रंग = माया का पति। आदेसु = नमस्कार। मइआ = दया। जुगु जुगो = जुग जुग, हरेक युग में। इक वेस = एक तरह का।8।

अर्थ: छंतु। (हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में सदा प्रभु के) चरण टिके रहते हैं, व और मायावी संकल्प प्रभु की याद से नीचे बने रहते हैं (अर्थात प्रभु के प्रति प्रेम सर्वोपरि रहता है, उनके अंदर से हरेक किस्म का) सारा दुख मिट जाता है। जिनके अंदर परमात्मा की भक्ति आ बसती है, उनके जनम-मरण के दुख-कष्ट खत्म हो जाते हैं। वे मनुष्य प्रभु के प्रेम-रंग में (सदा) रंगे रहते हैं, वे आत्मिक अडोलता में (सदा) मस्त रहते हैं, परमात्मा का नाम उनके मन से रक्ती भर पल के लिए भी नहीं बिसरता। वे मनुष्य अहंकार त्याग के सब गुणों के मालिक परमात्मा के चरणों की शरण पड़े रहते हैं।

नानक विनती करता है: हे भाई! गुणों के खजाने, माया के पति, सारी सृष्टि के आदि मूल स्वामी गोबिंद को सदा नमस्कार किया कर, (और अरदास करा कर- हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर (मैं भी तेरा नाम जपता रहूँ), तू हरेक युग में एक ही अटल स्वरूप वाला रहता है।8।1।6।8।

नोट: अंक 8 इस छंद के ‘बंदों’ का नंबर है।

अंक 1 बताता है कि ये आठ ‘बंदों’ वाला एक ही साबत छंद है।

अंक 6 का भाव है कि महला ५ के सारे छंदों की गिनती 6 है। ‘रण झुंझनड़ा’ वाली दो तुकों को भी संपूर्ण छंद गिना गया है।

अंक 8 अनंद-----1
सद----------------1
छंत---------------6
कुल जोड़---------8

नोट: आखिरी अंक 6 और 8 श्री करतारपुर वाली ‘आदि बीड़’ में नहीं हैं। छपी हुई बीड़ में ही मिलते हैं।

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रामकली महला १ दखणी ओअंकारु

वाणी ‘ओअंकार’ का भाव:

पौड़ी-वार

ओअंकार वह सर्व व्यापक परमात्मा है जिससे ये सारी सृष्टि और समय का विभाजन बना, जिससे ब्रहमा आदि देवते और वेद आदिक धर्म-पुस्तकें बने। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के ‘ओअं’ को सिर झुकाते हैं वे संसार के विकारों से बच निकलते हैं।

सतिगुरु की वाणी बार-बार पढ़ के ये भेद खुलता है कि परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है और वही सदा-स्थिर रहने वाला है, जगत नाशवान है।

सतिगुरु ही कर्तार की बड़ाई की कद्र जानता है। यदि मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है, वह सत्संग में परमात्मा का नाम स्मरण करके नकारे सड़े हुए लोहे से सोना बन जाता है।

परमात्मा की मेहर सदका जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसको परमात्मा प्यारा लगने लगता है। पर गुरु से टूटा हुआ मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ता है।

हरेक मनुष्य कहने भर को ये कह देता है कि परमात्मा हर जगह मौजूद है। पर इस सच्चाई की असल सूझ तब ही पड़ती है जब मनुष्य अपने अंदर से अहम्-अहंकार दूर करता है।

हलांकि परमात्मा हरेक के हृदय में बसता है, जब तक अंदर अहम्-अहंकार है, ये सूझ नहीं आ सकती। अहंकार दूर करके उसको याद करने से उसके साथ जान-पहचान और उसकी महानता की कद्र पड़ती है।

सारी सृष्टि परमात्मा का दिखता-रूप है, पर ये समझ उसी मनुष्य को होती है, जो सतिगुरु के द्वारा अहम्-अहंकार दूर करके परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है।

गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में अपनी महिमा बसाता है, उसको ये समझ आ जाती है कि परमात्मा स्वयं ही इस जगत को बनाने वाला है और स्वयं ही इसको जीवन-राह सिखाने वाला है।

गुरु-शब्द के द्वारा नाम में रंगा हुआ मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है, उसको हरेक जीव में बोलता सुनता कार्य करता परमात्मा ही दिखता है।

गुरु-शब्द का आसरा ले के आनंद-स्वरूप सर्व-व्यापक सदा-स्थिर परमात्मा के साथ स्मरण के द्वारा पक्की जान-पहचान डालने से मनुष्य के अंदर कामादिक विकारों का मुकाबला करने की हिम्मत पैदा हो जाती है।

मनुष्य दुनिया के धन-माल की खातिर परमात्मा को बिसार बैठता है और जीने के लिए और ही चीजों के पीछे भागता फिरता है। पर, सतिगुरु, स्मरण के द्वारा ईश्वरीय-लगन सिखाता है और दुनिया की प्रभुता के बेअर्थ राह से हटाता है।

सतिगुरु के बताए जीवन-राह पर चल कर प्रभु का नाम स्मरण करने से मन बेफिक्र और खिला हुआ (आनंदित) रहता है, और लोक-दिखावे का दबाव हट जाता है।

अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लब-लोभ-अहंकार आदि का नौकर बन के जीवन-खेल हार के जाता है, क्योंकि वह परमात्मा के नाम की असल पूंजी गवा बैठता है।

परमात्मा के स्मरण से टूट के मनुष्य माया के पीछे पागल हो जाता है, माया की तृष्णा में फस के आत्मिक मौत के राह पकड़ लेता है, क्योंकि बुरे लोगों की भी सिर्फ इसलिए खुशामद करने लग जाता है क्योंकि वे माया-धारी होते हैं।

चाहे ये जगत निर्वेर-अजोनी-निर्लिप परमात्मा का अपना बनाया हुआ है और अपना स्वरूप है, पर मनुष्य उसकी याद भुला के माया की भटकना में पड़ जाता है। इस भटकना से खलासी तब ही हो सकती है सुख तब ही मिल सकता है जब प्रभु के स्मरण में जुड़ें।

परमात्मा की याद भुलाने के कारण मनुष्य के आँख-कान-जीभ आदि इन्द्रियाँ पर-तन, पराई निंदा आदि में पड़ कर आत्मिक जीवन को गिरा देते हैं। मनुष्य यहाँ कोई आत्मिक कमाई नहीं कमाता। जो भी मेहनत-कमाई ये करता है, वह खोटी होने के कारण इसको ऊँचे जीवन से और परे और परे ले जाती है।

जो मनुष्य गुरु की बताई हुई मति पर चल कर परमात्मा के गुणों में चिक्त जोड़ता है, परमात्मा के साथ उसकी गहरी जान-पहचान बन जाती है, और प्रभु की बख्शिशों की उसको कद्र पड़ जाती है

परमात्मा की रची मर्यादा के अनुसार अहंकार मनुष्य के आत्मिक जीवन का नाश कर देता है और मनुष्य काम-क्रोध आदि का शिकार हो जाता है। पर, काम-क्रोध में आत्मिक मौत मरा मनुष्य भी प्रभु की मेहर से जब गुरु के बताए हुए राह की मेहनत-कमाई करता है और शिक्षा पर पूरा उतरता है, तो वह सुंदर आचार वाला बन के परमात्मा की नजर में स्वीकार होता है।

निरे दुनियावी भोग आत्मिक मौत लाते हैं। सतिगुरु का शब्द काम-क्रोध आदि की ओर से अडोल कर देता है, स्वार्थ-खुदगर्जी हटाने की ओर प्रेरित करता है, और परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ पैदा करता है। जिसने गुरु-शब्द में मन जोड़ा है वह स्वच्छ और श्रेष्ठ बन जाता है।

सतिगुरु की मति ही मनुष्य-जीवन के लिए श्रेष्ठ रास्ता है। सतिगुरु के राह पर चल कर यदि मनुष्य परमात्मा की राह में अपनी तवज्जो जोड़े तो इसका मन माया में डोलने से बच जाता है।

गुरु की मति वाला राह पकड़े बिना भटकना के कारण जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ता है। गुरु के राह पर चलने से परमात्मा ही जिंद को आसरा-सहारा दिखता है और अंदर हृदय में मिल जाता है।

जो मनुष्य गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलता है, वह अपने मन को परमात्मा की महिमा में जोड़ता है, और जगत के बुरे कर्मों के बंधन नहीं सहेड़ता, स्वच्छ आचरण ही उसके लिए तीर्थ-स्नान है। गुरु-शब्द का आसरा ले के वह विकारों की लहरों से बच निकलता है।

प्रभु की याद से टूट के चंचल मन बार-बार मायावी भोगों की तरफ दौड़ता है और दुख गले पड़वा लेता है। नाम की इनायत से मायावी भोगों से खलासी होती है और मन में सुख-आनंद पैदा होता है।

नित्य मौत के निमंत्रण आते देख के भी जगत होछी माया के मोह में फसा रहता है, जवानी गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर आई खड़ी प्रतीत होती है, फिर भी माया का मोह खत्म नहीं होता।

सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल कर अगर परमात्मा से उसकी महिमा की दाति माँगते रहें, तो इस तरह माया के हमलों की ओर सचेत रहा जा सकता है।

माया की खातिर जगत से झगड़े मोल लेने से स्वच्छ आत्मिक जीवन की आस नहीं की जा सकती। पर, प्रभु के नाम की इनायत से धरती की सारी दौलत की परवाह नहीं रहती।

गुरु की बताई हुई कार से परे ना जाना, गुरु के बताए हुए उपदेश को हृदय में बसाना - यही तरीका है स्वच्छ पवित्र जीवन बनाने का, यही ढंग है परमात्मा में जुड़ने का। गुरु परमात्मा के गुणों का अथाह समुंदर है।

अहंकार, डोलती श्रद्धा, गिले-गुजारिशें और दुर्मति के कारण परमात्मा से टूटते जाने की गाँठ बँधती जाती है। यह गाँठ तभी खुलती है जब मनुष्य सतिगुरु के शब्द की सहायता से मन के विकारों को शुद्ध कर ले।

माया की खातिर जीव भिड़-भिड़ के मरते और दुखी होते हैं। माया के पीछे दौड़ते चंचल मन को सतिगुरु के शब्द के द्वारा ही रोका जा सकता है।

माया की तृष्णा दुखों का मूल है। जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरु के शब्द को हृदय में बसाता है, उसकी ये प्यास मिट जाती है।

तृष्णा के भार से लदे हुए जीव कई तरह के विकारों में गिरते हैं। जो मनुष्य अपना मन गुरु के हवाले करता है वह सत्संग में नाम स्मरण करके विकारों की लहरों में डूबने से बच जाता है।

माया को जीवन-साथी समझना और बनान, दोनों से दुखी ही हुआ जाता है। असल साथी परमात्मा है। जो जीव प्रभु से विछुड़ा हुआ है उसके अंदर जीवन-राग नहीं हो सकता। सो, प्रभु के गुण गाओ। पर, इसका ये मतलब नहीं कि कोई जीव प्रभु के गुणों का अंत पा सकता है। हमने उसके गुण गाने हैं अपनी विछुड़ी हुई रूह को उससे मिलाने के लिए।

जो जीव ज्यादा से ज्यादा माया के पीछे दौड़ता फिरता है वह माया के जाल में फस जाता है, प्रभु की याद की ओर उसकी सूझ ऊँची नहीं हो सकती। जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करे, वह गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के गुण गाता है, और इस तरह माया की तृष्णा के जाल से बच जाता है।

परमात्मा का आसरा छोड़ने से जिंद सहमी रहती है। जो मनुष्य गुरु की वाणी में जुड़ के सोचता है उसको ये यकीन बनता है कि परमात्मा ऐसा दाता है जो ना माँगने पर भी हरेक जीव को रिजक देता है। प्रभु की बँदगी ही जीवन का असल काज है।

हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है। गुरु के बताए हुए राह पर चल कर मनुष्य नाम-जपने की इनायत से प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ता है और प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान डालता है।

अगर परमात्मा के नाम-धन की खातिर दुनियावी धन अपना मन और अपनी जीवत्मा भी देने पड़ जाएं, तो भी ये सौदा सस्ता है, क्योंकि प्रभु का नाम हृदय में बसाने से माया की तृष्णा मिट जाती है। परमात्मा का नाम मिलता अपने अंदर से ही है, पर मिलता है गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के।

परमात्मा ने अहंकार की दूरी बना के खुद ही जीवों को अपने से विछोड़ा हुआ है। कोई करम-धरम जीव की इस दूरी (इस विछोड़े) को मिटा नहीं सकता। प्रभु स्वयं कृपा करके गुरु मिलाता है, और गुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण करने से ये दूरी मिट जाती है।

विकारों में ग्रसे हुए जीव के आत्मिक जीवन को विकार तबाह करते जाते हैं, इसलिए विकार ही उसको मीठे लगते हैं, विकारों के जंजाल में वह घिरा और सदा दुखी रहता है। इस जंजाल में से सिर्फ परमात्मा का नाम ही निकाल सकता है।

विकारों में फसा हुआ जीव दुखी भी होता है, पछताता भी है, पर बेबस हो के बार-बार विकारों की चोग चुगता रहता है। आत्मिक मौत लाने वाले इस जाल में से इसको सतिगुरु ही परमात्मा के नाम का प्यार दे के निकालता है।

ये जानते हुए भी कि शरीर और जीवात्मा का मेल सिर्फ चार दिनों का है, जीव दुनियाँ के पदार्थों में मस्त रहता है। किसी विरले भाग्यशाली को गुरु के दर पर पड़ कर प्रभु के महिमा की सूझ पड़ती है। वह सौभाग्यशाली जीव गुरु की वाणी के द्वारा शारीरिक मोह और विकारों की ओर से पलट के सदा प्रभु में टिका रहता है।

संसार एक समुंदर की तरह है जिसमें आशा तृष्णा की लहरें उठ रही हैं। माया के पीछे भटकते जीवों के लिए इसमें से पार गुजरना बहुत ही मुश्किल खेल है। जिस पर मेहर हो, वे सतिगुरु की मति ले कर महिमा में जुड़ते हैं, और जगत के कार्य-व्यवहार करते हुए ही विकारों से बचे रहते हैं।

सारी उम्र सिर्फ माया के पीछे भटकते हुए जीवन व्यर्थ चला जाता है। मौत आने से माया से तो साथ खत्म हो जाता है, पर इसकी खातिर किए हुए अवगुण जीव के साथ चल पड़ते हैं, और माया छोड़ने के वक्त मन छटपटाता भी बहुत है। यदि महिमा की राशि-पूंजी पल्ले हो, तो ये मुश्किल नहीं होती, मन स्वार्थ की ओर पलटने से बचा रहता है।

ममता बँधे जीव पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़े रहते हैं और दुखी होते हैं। फिर भी माया के उस चक्र में से निकलने को जी नहीं करता। जिस मनुष्य के मन को गुरु-शब्द की ठोकर बजती है, उसके अंदर से स्वार्थ मिटता है। महिमा की इनायत से वह माया की बजाए प्रभु से प्यार बनाता है।

कोई अमीर हो चाहे गरीब, एक तो किसी ने भी सदा यहाँ टिक नहीं सकना, दूसरा, हरेक को जीवन-यात्रा की उन मुश्किलों में से गुजरना पड़ता है जहाँ अनेक अवगुण मनुष्य को आ घेरते हैं, और उसके गुण, अवगुणों के नीचे दब के रह जाते हैं। गुणों की समझ तब ही पड़ती है जब गुरु-शब्द की विचार में मन जुड़ता है।

जगत एक रण-भूमि है जहाँ विकारों से मुकाबला करना पड़ता हैं मालिक-प्रभु की रजा में चलने से इन विकारों से मार नहीं खानी पड़ती। पर ये खेल आसान नहीं, जीवन-संग्राम में मनुष्य कई बार सही पैंतरे से टूट के रजा से सिर फेर देता है। जिस सौभाग्यवान पर दाते की मेहर होती है, वह ही रजा में रहके महिमा में जुड़ता है।

जंगल-बियाबान में तलाशने से परमात्मा नहीं मिलता। प्रभु की महिमा का खजाना सतिगुरु के हाथ में है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है, वह परमात्मा के प्यार में जुड़ के जीवन की कमाई कमा लेता है।

मनुष्य का मन सतिगुरु के शब्द के द्वारा ही विकारों से रुक सकता है, और जब मन बस में आ जाए तब ही इसमें परमात्मा का प्रकाश होता है। ये बात पक्की समझ लो कि सतिगुरु के पास ही प्रभु के नाम की राशि-पूंजी है, ये पूंजी तब ही मिलती है, जब गुरु के बताए हुए राह पर चल कर स्वैभाव दूर हो जाए और अहंकार का रोग काटा जाए।

जीव जगत में प्रभु का नाम-धन का व्यापार करने के लिए बन्जारा बन के आया है, पर गलत रास्ते पर पड़ कर दुनियाँ का धन-दौलत ही एकत्र करता रहता है और मेर-तेर में फस के दुखी रहता है। समझदार व्यापारी वह है जो नाम-धन जोड़ता है, उसी को ही प्रभु का प्यार व आदर नसीब होता है। माया को जिंदगी का उद्देश्य बनाने के बजाए माया को पैदा करने वाले प्रभु को हृदय में बसाओ।

ज्यों-ज्यों मनुष्य माया की मंजिलें सर करता है, त्यों-त्यों यह तुच्छ दर्शी और तंग-दिल होता जाता है। इसके अंदर, साथी लोगों के लिए दया-प्यार नहीं रह जाता। भेद-भाव का एक शोला भड़क उठता है जिसमें मंजिलें सर करने वाला भी जलता है और जीव भी दुखी होते हैं। पर जो मनुष्य प्रभु को याद रखता है वह धैर्य और जिगरे वाला होता है, तंग-दिली उसके नजदीक नहीं फटकती।

धन-पदार्थ की खातिर मनुष्य कई तरीके अपनाता रहता है, परमात्मा के आगे तरले करता है, दूसरों की चाकरी करता है, ठगी-ठोरी भी कर लेता है पर मौत आने पर ये धन यहीं का यहीं ही रह जाता है, और मनुष्य अपने मालिक प्रभु की नजरों में भी हल्का पड़ जाता है। परमात्मा की बँदगी ही मनुष्य को धन और मोह से बचा सकती है।

धन-सम्पक्ति इकट्ठी करने से सिर्फ अहंकार में ही वृद्धि होती है जो मनुष्य को तुच्छ दर्शी व तंग दिल बना के दुख ही पैदा करती है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। अगर सुख ढूँढना है तो सतिगुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ सांझ बनाओ, परमात्मा के साथ प्रीति जोड़े। स्मरण के बिना और कोई कर्मकांड ना अहंकार मिटा सकता है और ना ही सुख दे सकता है।

पर जब तक जीव परमात्मा से विछुड़ा हुआ है, तब तक अपनी अलग ‘मैं’ में फसा रहता है, कोई समझदारी-चतुराई इसको ‘मैं’ की तंग-दिली और दुख में से निकाल नहीं सकती। प्रभु की मेहर हो, सतिगुरु के शब्द द्वारा अपनी महिमा की दाति बख्शे, तो प्रभु से विछोड़ा दूर हो के ‘मैं’ समाप्त हो जाती है और जीवन सुखी हो जाता है।

उस अध्यापक (पांधे) को विद्वान जानो जो विद्या की सहायता से ठंडे स्वभाव वाला बनता है, और परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के जीवन का लाभ कमाता है। पर जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलनें की जगह अपने मन के पीछे चलता है, उसको अनपढ़ ही समझो, वह निरी आजीविका की खातिर ही विद्या बेच रहा है, उसमें से कोई आत्मिक गुण ग्रहण नहीं कर रहा।

वही पढ़ा लिखा पण्डित विद्वान व अध्यापक है पंडित है समझदार है जो सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल कर खुद भी परमात्मा का नाम स्मरण करता है, और अपने चेलों, विद्यार्थियों को भी प्रभु का नाम जपने की प्रेरणा करता है। वही पढ़ा लिखा पण्डित इस जीवन से कोई कमाई कमाता है।

लड़ी-वार भाव:

(पउड़ी नंबर 1 से 12 तक)

इस बेअंत सृष्टि को बनाने वाला परमात्मा हर जगह व्यापक है और सदा कायम रहने वाला है। उसको किसी मूर्ति के द्वारा किसी मंदिर में स्थापित नहीं किया जा सकता।

जब तक मनुष्य अपनी तुच्छ सी ‘मैं’ के साथ घिरा हुआ है, तब तक निरा जबानी-जबानी परमात्मा को सर्व-व्यापक कह देने से मनुष्य को उसकी सर्व-व्यापकता की सूझ नहीं पड़ती। परमात्मा की महिमा की असल कद्र सतिगुरु जानता है। मनुष्य ने गुरु के बताए हुए राह पर चल कर, गुरु के शब्द में जुड़ कर अपने संकुचित स्वार्थी जीवन की सीमा में से निकलना है बस! फिर इस को हरेक जीव में बोलता-सुनता कार्य करता परमात्मा ही दिखेगा।

पर जब तक गुरु से टूटा हुआ है, तब तक संकुचित है, स्वार्थी है, इसको हर वक्त अपनी ही ‘मैं’ दिखती-सूझती है, तब तक ये आत्मिक मौत मरा हुआ है।

सतिगुरु परमात्मा के स्मरण के द्वारा मनुष्य की परमात्मा के साथ पक्की जान-पहचान बना देता है, फिर ये आत्म-बली बन के विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है, और-और तरह के जीने की इच्छाएं रखनी छोड़ देता है, और लोक-दिखावे की भावना भी नहीं रहती।

(पउड़ी नंबर 13 से 16 तक)

गुरु का रास्ता छोड़ के अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लब लोभ अहंकार आदि का नौकर बन जाता है, माया के पीछे पागल हो जाता है बुरे शातिर लोगों की भी खुशामद करता फिरता है। उसकी आँख कान जीभ आदि सारी ज्ञान-इंद्रिय उसको पराए रूप पराई निंदा आदि की तरफ धकेल के आत्मिक जीवन से गिरा देती हैं। फिर इसके जीवन को जीवन नहीं कह सकते, ये असल में आत्मिक मौत है।

(पउड़ी नंबर 17 से 22 तक)

काम-क्रोध आदि में आत्मिक मौत मरा मनुष्य भी जब प्रभु की मेहर से गुरु के बताए हुए राह की मेहनत-कमाई करता है परमात्मा की महिमा में जुड़ता है, तो प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान हो जाने के कारण प्रभु की बख्शिशों की उसको कद्र पड़ती है, स्वार्थ-खुदगर्जी से वह संकोच करता है और माया की जगह परमात्मा ही उसको अपनी जीवात्मा का आसरा-सहारा दिखने लग जाता है।

(पउड़ी नंबर 23 से 26 तक)

प्रभु की याद से टूट के मनुष्य का चंचल मन बार-बार मायावी भोगों की तरफ दौड़ता है, नित्य मौत के निमंत्रण आते देख के भी मनुष्य माया के मोह में फसा रहता है, और माया की खातिर जगत से झगड़े सहेड़ता रहता है, जवानी गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर आ खड़ी होती प्रतीत होती है फिर भी माया का मोह नहीं खत्म होता। पर जब मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल कर नाम स्मरण करता है तो धरती की सारी दौलत की भी परवाह नहीं रह जाती।

(पउड़ी नंबर 27 से 31 तक)

माया की खातिर जीव भिड़-भिड़ के मरते और दुखी होते हैं, तृष्णा के भार से लदे हुए कई विकारों में गिरते हैं; अहंकार, रजा से इनकार गिले-शिकवे आदि के कारण प्रभु से विछोड़े की गाँठ बँधती जाती है और जीवन गँदा होता है। इसका एक मात्र इलाज है: गुरु के बताए हुए राह पर चल कर सत्संग में नाम स्मरणा।

(पउड़ी नंबर 32 से 34 तक)

माया को जीवन-साथी समझने और बनाने से दुखी ही हुआ जाता है, खूब सारी माया जोड़ने की लालच करके इसके जाल में फसते जाना है। गुरु की वाणी का अभ्यास पक्का करो, इस तरह ये यकीन बन जाएगा कि प्रभु ऐसा दाता है जो ना माँगने पर भी हरेक जीव को रिजक देता है।

(पउड़ी नंबर 35 से 37 तक)

कोई भी करम-धरम मनुष्य को तृष्णा के इस जाल में से नहीं निकाल सकता; प्रभु की याद का धन ही तृष्णा को मिटाता है। इस नाम-धन की खातिर हरेक तरह की कुर्बानी कर देनी चाहिए। यह धन मिलता है उस प्रभु की मेहर से और मिलता है गुरु से।

(पउड़ी नंबर 38 से 47 तक)

संसार-समुंदर की आशा-तृष्णाओं की लहरों में फस के जीव बेबसा हो के विकारों से प्यार डाल लेता है, दुख भोगते हुए भी विकारों की चोग चुगे जाता है, चार दिनों के जीवन के बाद माया के त्याग के समय बड़ा छटपटाता है, इसके कारण किए हुए अवगुणों का भार उठाना पड़ जाता है। कोई अमीर हो चाहे गरीब, इस जगत-रणभूमि में हरेक जीव का विकारों से सामना होता है, सही पैंतरे से टूट के जीव आत्मिक मौत खरीद लेता है। दाते प्रभु की मेहर हो, गुरु-शब्द में मन जुड़े, तो महिमा की इनायत से गुणों की सूझ पड़ती है और माया के जंजाल में से खलासी हो जाती है। मेहनत-कमाई छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती, जंगल-बियाबान में तलाशने से ईश्वर नहीं मिलता। एक बात पक्की जानो कि प्रभु के नाम की राशि-पूंजी सतिगुरु के पास ही है।

(पउड़ी नंबर 48 से 52 तक)

परमात्मा की याद को भुला के जीव-बनजारा अपनी अलग ‘मैं’ में फस जाता है; दुनियाँ के मैदान सर करने के आहर लग के संकुचित और तंग-दिल होता जाता है, साथियों से भी कई तरह की ठगीयां करता रहता है, भेदभाव की आग में खुद भी जलता है व और लोगों को भी दुखी करता है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। कोई कर्मकांड कोई चतुराई-समझदारी इस ‘मैं’ में से निकालने में समर्थ नहीं है। प्रभु की मेहर हो, गुरु के शब्द के द्वारा अपनी महिमा की दाति बख्शे, तब ही यह ‘मैं’ खत्म होती है और जीवन सुखी होता है।

(पउड़ी नंबर 53 से 54 तक)

कितना ही पढ़ा लिखा पण्डित व अध्यापक हो, पर अगर जीवन सफर में अपने मन के पीछे चल रहा है तो उसका अनपढ़ ही जानो, वह अपनी विद्या सिर्फ आजीविका के लिए ही इस्तेमाल करता है, उसने कोई आत्मिक गुण नहीं कमाया, पढ़ा-लिखा उसको ही समझो जो गुरु के बताए हुए राह पर चल के खुद भी प्रभु का नाम स्मरण करता है और अपने चेलों को भी प्रेरता है।

समूचा भाव:

(पउड़ी नंबर 1 से 16 तक)

जो मनुष्य जबानी-जबानी तो यह कहता रहे कि परमात्मा हरेक जीव में व्यापक है, पर उसकी रोजाना की करतूत ये हो कि हर वक्त अपनी ही ‘मैं’ सामने रख के संकुचित, स्वार्थी, और लालच, अहंकार आदि का नौकर बना रहे, माया की खातिर बुरे-शातिर लोगों की खुशामद करने से ना झिझके, उसको जीवित ना समझो, वह आत्मिक मौत मरा हुआ है।

(पउड़ी नंबर 17 से 37 तक)

पर ये आत्मिक मौत ला-इलाज नहीं है। परमात्मा की याद से टूट के ही मनुष्य माया का चाकर बनता है और बढ़ते लालच के कारण दूसरों से छीना-झपटी के तारीके ढूँढता रहता है। जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर हो, वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की याद में जुड़ता है। ज्यों-ज्यों प्रभु के साथ जान-पहचान बढ़ती है, स्वार्थ खुदगर्जी से संकोच होता जाता है। बस! यही एक ही इलाज है। और कोई करम-धरम मनुष्य को तृष्णा के जाल में से नहीं निकाल सकता।

(पउड़ी नंबर 38 से 54 तक)

अगर मनुष्य एक बार धन-संपक्ति जोड़ने की राह पकड़ ले, तो ये चस्का इतना बलवान है कि मनुष्य अपने-आप इसमें से नहीं निकल सकता। संकुचित-पना और भेदभाव वृक्ति बढ़ती ही जाती है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। खुद भी दुखी होता है और लोगों को भी दुखी करता है। कोई कर्मकांड कोई चतुराई इस तृष्णा की आग में से निकालने में सक्षम नहीं। गुरु-शब्द के द्वारा महिमा ही इसमें से निकालती है। काम-काज छोड़ के जंगल-बियाबान तलाशने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। पढ़ा-लिखा पण्डित उसी को जानो जो गुरु के बताए हुए राह पर चलके खुद भक्ति करता है और-और लोगों को भी प्रेरता है।

मुख्य भाव: सिर्फ माया की खातिर पढ़ी और इस्तेमाल विद्या मनुष्य को बल्कि माया-जंजाल में फसा के संकुचित व स्वार्थी बना देती है। काम-काज करते हुए ही गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की याद में जुड़ो।

रामकली महला १ दखणी ओअंकारु    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

ओअंकारि ब्रहमा उतपति ॥ ओअंकारु कीआ जिनि चिति ॥ ओअंकारि सैल जुग भए ॥ ओअंकारि बेद निरमए ॥ ओअंकारि सबदि उधरे ॥ ओअंकारि गुरमुखि तरे ॥ ओनम अखर सुणहु बीचारु ॥ ओनम अखरु त्रिभवण सारु ॥१॥

पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार से।

नोट: 'ओअंकारु', ‘कार’ संस्कृत का एक ‘पिछेतर’ है, इसका अर्थ है ‘एक रस, लगातार, व्यापक’ जैसे शब्द ‘धुनि’ का अर्थ है ‘ध्यनि’ ‘आवाज’ और, शब्द ‘धुनिकार’ का अर्थ है ‘एक रस आवाज’) ओअं+कार, एक रस ओअं, सर्व व्यापक ओअं, सर्व व्यापक परमात्मा।

उतपति = उत्पक्ति, पैदायश, जनम। ब्रहमा उत्पक्ति = ब्रहमा की उत्पक्ति। जिनि = जिस ने, जिस ब्रहमा ने। चिति = चिक्त में। ओअंकारु...चिति = जिनि ओअंकारु चिति कीआ, जिस ब्रहमा ने सर्व व्यापक परमात्मा को (अपने) चिक्त में (बसाया)। सैल = (बेअंत) पहाड़, (भाव,) सृष्टि। जुग = समय का बटवारा। बेद = वेद आदि धर्म पुस्तकें। निरमए = बने, प्रकट हुए। ओअंकारि = ओअंकार से, सर्व प्यापक परमात्मा से। सबदि = शब्द से, शब्द में जुडत्र के। उधरे = (जीव डूबने से) बच गए। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य, वह मनुष्य जिनका मुँह गुरु की ओर होता है। ओनम अखर बीचारु = ओनम अक्षर का विचार। ओअं नम: = ओं को नमस्कार। ओनत अखर = वह हस्ती जिसके लिए शब्द ‘ओनम’ का प्रयोग किया गया है। ओनम अखर बीचारु = उस हस्ती का विचार जिस के लिए शब्द ‘ओनम’ का प्रयोग कर रहे हो। त्रिभवण सारु = तीन भवनों का तत्व, तीन भवनों का मूल, सारी सृष्टि का कर्ता।

अर्थ: (हे पांडे! तुम मन्दिर में स्थापित की हुई मूर्ति को ‘ओंकार’ मिथ रहे हो, और कहते हो सृष्टि को ब्रहमा ने पैदा किया था। ‘ओअंकार’ वह सर्व-व्यापक परमात्मा है जिस) सर्व-व्यापक परमात्मा से ब्रहमा का (भी) जन्म हुआ, उस ब्रह्मा ने भी उस सर्व-व्यापक प्रभु को अपने मन में बसाया। यह सारी सृष्टि और समय के बँटवारे उस सर्व-व्यापक परमात्मा से ही हुए हैं, वेद भी ओअंकार से ही बने। जीव गुरु के शब्द में जुड़ के उस सर्व-व्यापक परमात्मा की सहायता से ही संसार के विकारों से बचते हैं, और गुरु के बताए हुए राह पर चल के संसार-समुंदर से पार लांघते हैं।

(हे पांडे! तुम अपने विद्यार्थियों की पट्टियों पर ‘ओं नमह्’ लिखते हो, पर इस मूर्ति को ही ‘ओअं’ समझ रहे हो) उस महान हस्ती की बाबत भी बात सुनो जिसके लिए तुम शब्द ‘ओं नम: ’ लिखते हो। यह शब्द ‘ओं नम: ’ उस (अकाल-पुरख) के लिए है जो सारी सृष्टि का कर्ता है।1।

नोट: ‘रहाउ’ की तुक में सतिगुरु जी किसी ‘पांडे’ को संबोधन करते हैं। इस पहली पउड़ी में भी उस ‘पांडे’ को कहते हैं, ‘हे पांडे! ओनम अखर बीचारु सुणहु’।

नोट: इस वाणी का नाम ‘ओअंकारु’ है, ‘दखणी ओअंकारु’ नहीं है। शब्द ‘दखणी’ का संबंध ‘रामकली’ राग से है। ‘रामकली दखणी’ रागिनी ‘रामकली की एक किस्म है। इस विचार की प्रोढ़ता में श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कई और प्रमाण मिलते हैं; जैसे:

(पन्ना १०३३) मारू महला १ दखणी, भाव मारू दखणी म: १।

(पन्ना ८४३) बिलावल म: १ छंत दखणी, भाव बिलावल दखणी म: १।

(पन्ना १५२) गउड़ी महला १ दखणी, भाव, गउड़ी दखणी म: १।

(पन्ना ५८०) वडहंसु महला १ दखणी, भाव वडहंस दखणी म: १।

(पन्ना १३४३) प्रभाती महला १ दखणी, भाव, प्रभाती दखणी म: १।

(नोट: इस तुक के शब्द ‘अखर’ और अगली तुक के शब्द ‘अखरु’ का फर्क स्मरणीय है। ‘अखर बीचारु’ में शब्द ‘अखर’ संबंध कारक में है भाव ‘अक्षर का विचार’। अगली तुक में शब्द ‘अखरु’ कर्ता कारक एक वचन है, भाव, ‘ओनम-अखरु त्रिभवण-सारु है’)।

ओनम: (पाठशाला में अध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाने के समय उनकी पट्टी व तख़्ती व स्लेट पर शब्द ‘ओं नम: ’ लिख देते हैं, जिसका अर्थ है ‘ओअं को नमस्कार है, परमात्मा को नमस्कार है’। पहली उदासी में गुरु नानक देव जी जब सिंगलाद्वीप से वापिस सोमनाथ द्वारिका होते हुए नर्बदा नदी के किनारे-किनारे उस जगह पहुँचे जहाँ ओअंकार का मन्दिर है, उन्होंने देखा कि लोग मन्दिर में स्थापित शिव मूर्ति को ‘ओअंकार मिथ के पूजा करते हैं मन्दिर की पाठशाला में विद्यार्थी पट्टियों पर ‘ओं नम: ’ लिखते -लिखाते हैं, पर वे भी उस ‘शिव मूर्ति’ को ही ‘ओअं’ समझ रहे हैं। इस पहली पौड़ी में ये दोनों भुलेखे समझाए गए हैं)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh