श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 932 कामु क्रोधु काइआ कउ गालै ॥ जिउ कंचन सोहागा ढालै ॥ कसि कसवटी सहै सु ताउ ॥ नदरि सराफ वंनी सचड़ाउ ॥ जगतु पसू अहं कालु कसाई ॥ करि करतै करणी करि पाई ॥ जिनि कीती तिनि कीमति पाई ॥ होर किआ कहीऐ किछु कहणु न जाई ॥१८॥ नोट: यहाँ से पट्टी के व्यंञन अक्षर आरम्भ होते हैं। पद्अर्थ: गालै = निर्बल कर देता है। कउ = को। कंचन ढालै = सोने को नर्म करता है। कसि कसवटी = कसवटी का घिसना। सु = वह सोना। ताउ = सेक। वंन = रंग। वंनी = सुनहरे रंग वाला। सराफ = सोने चाँदी का व्यापारी। अहं = अहंकार। कसाई = मारने वाला। कालु = मौत। करि = पैदा करके। करतै = कर्तार ने। करि = कर में, हाथ में, (भाव, जीवों के पल्ले)। करणी = करतूत। करते...पाई = कर्तार ने जीवों के पल्ले अपना अपना कर्म डाला है (भाव, जैसा कर्म कोई जीव करता है वैसा ही उसको फल मिलता है)। जिनि = जिस (कर्तार) ने। कीती = यह (करणी वाली मर्यादा) बनाई है। तिनि = उस (कर्तार) ने। कीमति पाई = (ये मर्यादा की) कद्र जानी है। होर किआ कहीऐ = इस मर्यादा के बारे में और कुछ कहा नहीं जा सकता, (भाव, इस मर्यादा में कोई कमी नहीं पाई जा सकती)। नोट: पहली तुक में ‘काइआ’ और ‘कंचन’ की तुलना की गई है। सो, दूसरी तुक में शब्द ‘कसि कसवटी’, ‘ताउ’ और ‘सराफ’ को ‘काइआ’ के लिए प्रयोग करते हुए ‘कसि कसवटी’ का अर्थ है ‘गुरमति’, ये ख्याल पिछली पौड़ी की आखिरी तुक में से लेना है। पद्अर्थ: ताउ = गुरु के बताए हुए राह पर चलने की मेहनत-मुशक्कत। सराफ = परमात्मा। अर्थ: जैसे सोहागा (कुठाली में डाले हुए) सोने को नर्म कर देता है, (वैसे ही) काम और क्रोध (मनुष्य के) शरीर को निर्बल कर देता है। वह (ढला हुआ) सोना (कुठाली में) सेक सहता है, फिर कसवटी का कस सहता है (भाव, कसवटी पर घिसा के परखा जाता है), और, सुनहरे रंग वाला वह सोना सराफ़ की नजर में स्वीकार होता है। (काम-क्रोध से निर्बल हुआ जीव भी प्रभु की मेहर से जब गुरु के बताए हुए राह की मेहनत-मुशक्कत करता है, और गुरु की बताई हुई शिक्षा पर पूरा उतरता है तो वह सुंदर आत्मा वाला प्राणी अकाल-पुरख की नजर में स्वीकार होता है)। जगत (स्वार्थ में) पशु बना हुआ है, अहंकार रूपी मौत इसके आत्मिक जीवन का सत्यानाश करती है। कर्तार ने सृष्टि रच के यह मर्यादा ही बना दी है कि जैसी करतूत कोई जीव करता है वैसा ही उसको फल मिलता है। पर जिस कर्तार ने यह मर्यादा बनाई है इसकी कद्र वह खुद ही जानता है। इस मर्यादा में कोई कमी नहीं कही जा सकती।18। खोजत खोजत अम्रितु पीआ ॥ खिमा गही मनु सतगुरि दीआ ॥ खरा खरा आखै सभु कोइ ॥ खरा रतनु जुग चारे होइ ॥ खात पीअंत मूए नही जानिआ ॥ खिन महि मूए जा सबदु पछानिआ ॥ असथिरु चीतु मरनि मनु मानिआ ॥ गुर किरपा ते नामु पछानिआ ॥१९॥ पद्अर्थ: खोजत खोजत = (गुरु की मति की सहायता से) बार बार खोज के। पीआ = (जिस मनुष्य ने) पीया। खिमा = किसी की ज्यादती सहने का स्वभाव। गही = ग्रहण की, पका ली। सतिगुरि दीआ = सतिगुरु में लीन कर दिया। सभु कोइ = हरेक जीव। जुग चारे = सदा के लिए। खात पीअंत = दुनिया के पदार्थ खाते पीते, दुनिया के भोग भोगते। मूए = जो आत्मिक जीवन की ओर से मर गए। नही जानिआ = (अमृत की) सूझ नहीं पाई। खिन महि मूए = पल में ही स्वै भाव की ओर से मर गए। जा = जब। सबदु पछानिआ = शब्द को पहचान लिया, गुरु के शब्द के साथ गहरी सांझ डाल ली। असथिरु = अडोल। मरनि = मरने में, सवै भाव खत्म करने में, अहंम दूर करने में। मानिआ = पतीज जाता है, शोक प्रकट करता है। अर्थ: नोट: शब्द ‘पीआ, दीआ, जानिआ’ आदि भूतकाल में हैं। अर्थ वर्तमान काल में करना है। अर्थ: (सतिगुरु की मति की सहायता से) जो मनुष्य बार-बार (अपना आप) खोज के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, वह दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव पक्का कर लेता है, और, अपना मन अपने सतिगुरु में लीन कर देता है। हरेक जीव उसके खरे (स्वच्छ और सच्चे) जीवन की प्रसंशा करता है, वह सदा के लिए सच्चा-श्रेष्ठ बन जाता है। पर जो जीव दुनिया के भोग भोगते रहते हैं वह आत्मिक जीवन की ओर से मर जाते हैं, उनको (नाम-अमृत की) सूझ नहीं पड़ती। (वही लोग) जब सतिगुरु के शब्द से गहरी सांझ डालते हैं, तब वे एक पल में अहंकार को खत्म कर देते हैं। उनका मन (काम-क्रोध आदि की ओर से) अडोल हो जाता है, और स्वै भाव की ओर से मरने पर प्रसन्न होता है। सतिगुरु की मेहर से परमात्मा के नाम के साथ उनकी गहरी सांझ पड़ जाती है।19। गगन ग्मभीरु गगनंतरि वासु ॥ गुण गावै सुख सहजि निवासु ॥ गइआ न आवै आइ न जाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥ गगनु अगमु अनाथु अजोनी ॥ असथिरु चीतु समाधि सगोनी ॥ हरि नामु चेति फिरि पवहि न जूनी ॥ गुरमति सारु होर नाम बिहूनी ॥२०॥ पद्अर्थ: गगन = आकाश जैसा सर्व व्यापक परमात्मा। गंभीरु = धैर्यवान, जिगरे वाला, जीवों के अवगुण देख के गुस्से में ना आने वाला। गगनंतरि = गगन+अंतरि, सर्व व्यापक गोपाल में। सहजि = सहज में, अडोलता में। गइआ न आवै = न जाए ना आए, पैदा होने मरने में नहीं आता। अगंमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अनाथु = जिसके ऊपर कोई नाथ नहीं, जिसको किसी की अधीनता नहीं। असथिरु = स्थिर, टिका हुआ, अडोल। चीतु = चिक्त। समाधि = परमात्मा में लीनता। सगोनी = स+गुणी, गुण पैदा करने वाली। चेति = (हे पांडे!) स्मरण कर, याद कर। पवहि न = (हे पांडे!) तू नहीं पाएगा। सारु = तत्व, श्रेष्ठ। होर = और मति। नाम बिहूनी = नाम से वंचित रखने वाली। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम अपने मन की तख्ती पर लिख, वह गोपाल) सर्व-व्यापक है और जीवों के अवगुण देख के क्रोधित नहीं होता। जिस मनुष्य का मन उस सर्व व्यापक गोपाल में टिकता है, जो मनुष्य उसके गुण गाता है, वह शांति और अडोलता में टिक जाता है; वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, सतिगुरु की कृपा से वह (सर्व-व्यापक गोपाल में) तवज्जो जोड़े रखता है। वह सर्व-व्यापक गोपाल अगम्य (पहुँच से परे) है (भाव, उसके गुणों का अंत नहीं पड़ सकता), उसके सिर पर कोई अंकुश नहीं है, वह जनम-मरण से रहित है। उसमें जोड़ी हुई तवज्जो मनुष्य के अंदर गुण पैदा करती है, और मन को माया में डोलने से बचा लेती है। (हे पांडे!) तू (भी) उस हरि गोपाल का नाम स्मरण कर, (नाम-जपने की इनायत से) फिर जनम-मरण में नहीं पड़ेगा। (हे पांडे!) सतिगुरु की मति ही (जीवन के लिए) श्रेष्ठ रास्ता है, और मति उसके नाम से तोड़ती हैं।20। घर दर फिरि थाकी बहुतेरे ॥ जाति असंख अंत नही मेरे ॥ केते मात पिता सुत धीआ ॥ केते गुर चेले फुनि हूआ ॥ काचे गुर ते मुकति न हूआ ॥ केती नारि वरु एकु समालि ॥ गुरमुखि मरणु जीवणु प्रभ नालि ॥ दह दिस ढूढि घरै महि पाइआ ॥ मेलु भइआ सतिगुरू मिलाइआ ॥२१॥ पद्अर्थ: घर दर बहुतेरे = बहुत सारे घरों के दरवाजे, कई जूनें। फिरि थाकी = (जीव-स्त्री) भटक भटक के खप ली। असंख = अ+संख, जिस की संख्या ना हो सके, अनगिनत। अंत नही मेरे = मुझसे अंत नहीं पाया जा सकता, मैं गिन नहीं सकता। मेरे = मेरे पास से। केते = कई। सुत = पुत्र। फुनि = फिर, भी। मुकति = जूनों से मुक्ति। काचे गुर ते = कच्चे गुरु से, उस गुरु से जिसका मन कच्चा है, जिसका मन माया के साँचे में ढल जाने वाला है (जैसे कच्ची मिट्टी कुम्हार के चक्के पे रखने पर कई शक्लों के बर्तनों में बदली जा सकती है)। एकु वरु = एक पति प्रभु। समालि = संभाल करता है। केती नारि = कई जीव स्त्रीयां। गुरमुखि मरणु जीवणु = गुरमुख का मरना जीना। मरणु जीवणु = आसरा सहारा, जिसके होने से जीया जा सके और जिसके विछुड़ने से मौत आती हुई लगे। दहदिस = दसों दिशाएं, हर तरफ। घरै महि = घर ही, हृदय घर में ही। अर्थ: (हे पांडे! गुरु की मति वाला रास्ता पकड़े बिना) जीवात्मा कई जूनियों में भटक-भटक के हार-थक जाती है, इतनी अनगिनत जातियों में से गुजरती है जिनका अंत नहीं पाया जा सकता। (इन बेअंत जूनियों में भटकती जीवात्मा के) कई माता-पिता-पुत्र और बेटियाँ बनती हैं, कई गुरु बनते हैं, और कई चेले भी बनते हैं। इस जूनियों से तब तक खलासी नहीं होती जब तक किसी कच्चे गुरु की शरण ली हुई है। (हे पांडे! सतिगुरु से विछुड़ी हुई ऐसी) कई जीव-सि्त्रयाँ हैं, पति-प्रभु सबकी संभाल करता है। जो जीवात्मा गुरु के सन्मुख रहती है, उसका आसरा-सहारा गोपाल प्रभु हो जाता है। (हे पांडे! सिर्फ उस जीवात्मा का प्रभु से) मिलाप होता है जिसको सतिगुरु मिलाता है, और हर तरफ ढूँढ-ढूँढ के (गुरु की कृपा से) हृदय-घर में ही गोपाल-प्रभु मिल जाता है।21। नोट: अक्षर ‘घ’ के बाद ‘ङ’ आता है। इसकी जगह अगली पौड़ी में अक्षर ‘ग’ का प्रयोग हुआ है। गुरमुखि गावै गुरमुखि बोलै ॥ गुरमुखि तोलि तुोलावै तोलै ॥ गुरमुखि आवै जाइ निसंगु ॥ परहरि मैलु जलाइ कलंकु ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि मजनु चजु अचारु ॥ गुरमुखि सबदु अम्रितु है सारु ॥ नानक गुरमुखि पावै पारु ॥२२॥ पद्अर्थ: तुोलावै = तौलने के लिए और लोगों को प्रेरित करता है। (नोट: अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हैं। असल शब्द है ‘तोलावै’ यहाँ पढ़ना है ‘तुलावै’)। पद्अर्थ: निसंगु = बंधन रहित। परहरि = दूर करके। कलंकु = ऐब, विकार। बीचारु = परमात्मा की विचार। मजनु = स्नान, डुबकी। चजु अचारु = ऊँचा आचरण। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य। सारु = श्रेष्ठ। अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम गुरु के सन्मुख होने से ही मन की पट्टी पर लिखा जा सकता है) गुरमुखि ही (प्रभु के) गुण गाता है, और (प्रभु की महिमा) उचारता है। गुरमुख ही (प्रभु के नाम को अपने मन में) तोलता है (व और लोगों को) तोलने के लिए प्रेरित करता है। गुरमुख ही (जगत में) बंधन-रहित आता है और बंधन-रहित ही यहाँ से जाता है (भाव, ना ही किसी किस्म का फल भोगने आता है ना ही यहाँ से कोई बुरे कर्म का बंधन ले के जाता है), (क्योंकि गुरमुख मनुष्य मन की) मैल को दूर करके विकारों को (अपने अंदर से) खत्म कर चुका होता है। (प्रभु के गुणों की) विचार गुरमुख के लिए राग और वेद है, ऊँचा आचरण (बनाना) गुरमुख का (तीर्थ-) स्नान है। (सतिगुरु का) शब्द गुरमुख के लिए उत्तम अमृत है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (संसार-समुंदर का) दूसरा छोर पा लेता है (भाव, विकारों की लहरों में से बच निकलता है)।22। चंचलु चीतु न रहई ठाइ ॥ चोरी मिरगु अंगूरी खाइ ॥ चरन कमल उर धारे चीत ॥ चिरु जीवनु चेतनु नित नीत ॥ चिंतत ही दीसै सभु कोइ ॥ चेतहि एकु तही सुखु होइ ॥ चिति वसै राचै हरि नाइ ॥ मुकति भइआ पति सिउ घरि जाइ ॥२३॥ पद्अर्थ: ठाइ = जगह पर, ठिकाने पर। चोरी = छुप छुप के। मिरगु = मन रूप हिरन। अंगूरी = नर्म पक्तियाँ, नए नए भोग। उरधारे = (जो) टिका रखता है। चिरु जीवनु = चिरंजीवी, अमर, जनम मरन से बचा हुआ। चेतनु = सचेत। चिंतत = चिंतातुर। सभ कोइ = हरेक जीव। चेतहि = जो स्मरण करते हैं। तही = वहाँ, उनके हृदय में। चिति = चिक्त में। राचै = (जो) मस्त होता है। नाइ = नाम में। पति सिउ = इज्जत से। घरि = घर में। अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम मन की तख्ती पर लिखे बिना मनुष्य का) चंचल मन टिक के नहीं बैठता, यह (मन) हिरन छुप-छुप के नए-नए भोग भोगता है। (पर) जो मनुष्य (प्रभु के) कमल फूल (जैसे सुंदर) चरण (अपने) चिक्त में बसाता है, वह सदा के लिए अमर और सचेत हो जाता है (भाव, ना विकारों की जंजीरों में फंस जाता है और ना ही जन्मों के चक्कर में पड़ता है)। (जिधर देखो चंचलता के कारण) हरेक जीव चिंतातुर दिखता है (पर जो मनुष्य) एक (परमात्मा) को स्मरण करते हैं, उनके हृदय में सुख होता है। (जिस जीव के) चिक्त में प्रभु आ बसता है जो मनुष्य प्रभु के नाम में लीन होता है वह (मायावी भोगों से) मुक्ति पा लेता है (और यहाँ से) इज्जत से (अपने असली) धर में जाता है।23। छीजै देह खुलै इक गंढि ॥ छेआ नित देखहु जगि हंढि ॥ धूप छाव जे सम करि जाणै ॥ बंधन काटि मुकति घरि आणै ॥ छाइआ छूछी जगतु भुलाना ॥ लिखिआ किरतु धुरे परवाना ॥ छीजै जोबनु जरूआ सिरि कालु ॥ काइआ छीजै भई सिबालु ॥२४॥ पद्अर्थ: छीजै = नाश हो जाता है। गंढि = (प्राणों की) गाँठ। छेआ = (क्षय) नाश। जगि = जगत में। हंढि = फिर के, भटक के। धूप छाव = दुख सुख। सम = बराबर। मुकति = माया के प्रभाव से मुक्ति। घरि = घर में, मन में। आणै = लाता है। छूछी = थोथी, अंदर से कोरी। छाइआ = माया, छाया। धुरे = धुर से, शुरू से। किरतु = किए हुए कर्मों का समूह। जरूआ = बुढ़ापा। सिरि = सिर पर। सिबालु = पानी का जाला। अर्थ: (हे पांडे!) सारे जगत में फिर-फिर के देख लो, जब प्राणी (के प्राणों) की गाँठ खुल जाती है तो शरीर नाश हो जाता है। मौत (का यह करिश्मा) नित्य घटित हो रहा है। (हे पांडे!) अगर मनुष्य (इस जीवन में घटित होते) दुखों-सुखों को एक जैसा करके समझ ले तो (माया के) बंधनो को काट के (मायावी भोगों से) आजादी को अपने अंदर ले आता है। (हे पांडे! गोपाल को विसार के) जगत इस थोथी (भाव, जो अंत तक साथ नहीं निभाती) माया (के प्यार) में गलत राह पर पड़ रहा है, (जीवों के माथे पर यही) कर्म-रूपी लेख आरम्भ से लिखा हुआ है (भाव, शुरू से ही जीवों के अंदर माया के मोह के संस्कार-रूप लेख होने के कारण अब भी ये माया के मोह में फसे हुए हैं)। (हे पांडे!) जवानी खत्म होती जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर (खड़ी प्रतीत होती है), शरीर कमजोर हो जाता है (और मनुष्य की चमड़ी पानी के) जाले की तरह ढीली हो जाती है (फिर भी इस का माया का प्यार समाप्त नहीं होता)।24। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |