श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 933 जापै आपि प्रभू तिहु लोइ ॥ जुगि जुगि दाता अवरु न कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखहि राखु ॥ जसु जाचउ देवै पति साखु ॥ जागतु जागि रहा तुधु भावा ॥ जा तू मेलहि ता तुझै समावा ॥ जै जै कारु जपउ जगदीस ॥ गुरमति मिलीऐ बीस इकीस ॥२५॥ पद्अर्थ: जापै = प्रतीत होता है, लगता है, प्रकट है। तिहु लोइ = तीन लोकों में, सारे जगत में। जुगि जुगि = हरेक युग में। जाचउ = मैं माँगता हूँ। देवे = (तेरा ‘जसु’ मुझे) देता है। पति साखु = इज्जत से मशहूरी। तुधु = तुझे। जगदीस जै जैकारु = जगत के मालिक की जैकार। जै = जय, विजय। जैकारु = सदा ही जीत। बीस = बीस बिसवे, अवश्य। इकीस = एक ईश को, एक मालिक को। अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम मन की पट्टी के ऊपर लिख, जो) खुद सारे जगत में प्रकट है, जो सदा (जीवों का) दाता है (जिसके बिना) और कोई (दाता) नहीं। (हे पांडे! गोपाल ओंकार के आगे अरदास कर और कह: हे प्रभु!) जैसे तू (मुझे) रखना चाहता है वैसे रख; (पर) मैं तेरी महिमा (की दाति) माँगता हूँ, तेरी उपमा ही मुझे आदर और नाम देती है। (हे प्रभु!) अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ तो मैं सदा जागता रहूँ (माया के हमलों से सचेत रहूँ), अगर तू (खुद) मुझे (अपने में) जोड़ के रखे, तो मैं तेरे (चरणों) में लीन रहूँ। मैं जगत के मालिक (प्रभु) की सदा जै-जैकार कहता हूँ। (हे पांडे! इस तरह) सतिगुरु की मति ले के बीस-बिसवे एक परमात्मा को मिल सकते हैं।25। झखि बोलणु किआ जग सिउ वादु ॥ झूरि मरै देखै परमादु ॥ जनमि मूए नही जीवण आसा ॥ आइ चले भए आस निरासा ॥ झुरि झुरि झखि माटी रलि जाइ ॥ कालु न चांपै हरि गुण गाइ ॥ पाई नव निधि हरि कै नाइ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥२६॥ पद्अर्थ: झखि बोलणु = झखें मारना, बुरा रास्ता। किआ = क्या? (भाव, व्यर्थ)। सिउ = साथ। वादु = चर्चा, बहस। झूरि मरै = झुर झुर मरता है, दुखी रहता है। परमादु = अहंकार। देखै परमादु = अहंकार देखता है, (उस मनुष्य की) आँखों के सामने अहंकार टिका रहता है। जीवन आसा = सच्चे आत्मिक जीवन की आस। आस निरासा = आशा से निराश हो के, कोई कमाई के बिना ही। माटी रलि जाइ = मिट्टी में मिल जाता है, जीवन व्यर्थ गवा जाता है। चांपै = दबाव डालता है। नव निधि = (धरती के) नौ खजाने, धरती का सारा धन। नाइ = नाम (स्मरण) से। सहजि सुभाइ = अपनी मर्जी के अनुसार। अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम मन की तख्ती पर लिखने की बजाए माया की खातिर) जगत से झगड़ा सहेड़ना व्यर्थ है, ये तो झख मारने वाली बात है; (जो मनुष्य गोपाल का स्मरण छोड़ के झगड़े वाली राह पर पड़ता है) वह झुर-झुर के मरता है (भाव, अंदर-अंदर से अशांत ही रहता है, क्योंकि) उसकी आँखों के सामने (माया का) अहंकार फिरा रहता है। ऐसे लोग जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, सच्चे आत्मिक जीवन की (उनसे) आस नहीं की जा सकती, वे दुनिया से किसी कमाई के बिना ही चले जाते हैं। (नाम बिसार के दुनिया के झमेलों में परचने वाला मनुष्य इसी) पचड़े में खप-खप के जीवन व्यर्थ गवा जाता है। पर जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसको मौत का भी डर सता नहीं सकता। प्रभु के नाम की इनायत से वह, सारी धरती का धन प्राप्त कर लेता है। यह दाति प्रभु खुद ही अपनी रजा के अनुसार देता है।29। ञिआनो बोलै आपे बूझै ॥ आपे समझै आपे सूझै ॥ गुर का कहिआ अंकि समावै ॥ निरमल सूचे साचो भावै ॥ गुरु सागरु रतनी नही तोट ॥ लाल पदारथ साचु अखोट ॥ गुरि कहिआ सा कार कमावहु ॥ गुर की करणी काहे धावहु ॥ नानक गुरमति साचि समावहु ॥२७॥ पद्अर्थ: ञिआनो = गिआनो, ज्ञान। आपे = (गुरु में प्रभु) खुद ही। सूझै = देखता है। अंकि = (जिस मनुष्यों के) हृदय में। भावै = प्यारा लगता है। रतनी = रत्नों की। तोट = कमी, घाटा। अखोट = अखुट, ना खत्म होने वाले। गुरि = गुरु ने। काहे धावहु = क्यों दौड़ते हो? साचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में। अर्थ: (सतिगुरु रूप हो के) प्रभु स्वयं ही ज्ञान उचारता है, स्वयं ही इस ज्ञान को सुनता है समझता है और विचारता है। (जिस मनुष्यों के) हृदय में सतिगुरु का बताया हुआ (ज्ञान) आ बसता है, वह मनुष्य पवित्र स्वच्छ सच्चे हो जाते हैं, उन्हें सच्चा प्रभु प्यारा लगता है। सतिगुरु समुंदर है, उसमें (गोपाल के गुणों के) रत्नों की कमी नहीं, वह सच्चे प्रभु का रूप है, लालों का ना खत्म होने वाला (खजाना) है (भाव, सतिगुरु में बेअंत ईश्वरीय गुण हैं)। (हे पांडे!) वह काम करो जो सतिगुरु ने बताया है, सतिगुरु की बताई हुई करणी से परे ना दौड़ो। हे नानक! सतिगुरु की शिक्षा ले के प्रभु में लीन हो जाओगे।27। टूटै नेहु कि बोलहि सही ॥ टूटै बाह दुहू दिस गही ॥ टूटि परीति गई बुर बोलि ॥ दुरमति परहरि छाडी ढोलि ॥ टूटै गंठि पड़ै वीचारि ॥ गुर सबदी घरि कारजु सारि ॥ लाहा साचु न आवै तोटा ॥ त्रिभवण ठाकुरु प्रीतमु मोटा ॥२८॥ पद्अर्थ: नेहु = प्यार। कि = अगर। सही = सामने। कि बोलह = अगर हम मुँह पर सच्ची बात कहें। दिस = पासा, तरफ। गही = पकड़ी हुई। बुर बोलि = कुबोलों से। परहरि छाडी = त्याग दी। ढोलि = ढोले ने, पति ने। टूटे गंठि = गाँठ खुल जाती है, मुश्किल हल हो जाती है। पड़ै वीचारि = अगर मन में अच्छी सोच पड़ जाए, अगर अच्छी विचार आ जाए। घरि = घर में, मन में। सारि = संभाल। मोटा = बड़ा। अर्थ: किसी को सामने (लगा के) बात कहने से प्यार टूट जाता है; दोनों तरफ से पकड़ने से (खींचने से) बाँह टूट जाती है, कुबोल बोलने से प्रीति टूट जाती है, बुरी स्त्री को पति छोड़ देता है। (नोट: इस तुक में ‘टूटि गई’ और ‘परहरि छाडि’ भूत काल Past tense में हैं, पर अर्थ पहली तुक के साथ मिलाने के लिए ‘वर्तमान काल’ Present tense में ही किया गया है। क्योंकि भाव यूँ ही है) अर्थ: यदि अच्छी तरह विचार आ जाएं तो (समस्या) मुश्किल हल हो जाती है। (हे पांडे!) तू भी गुरु के शब्द के द्वारा अपने मन में (गोपाल का नाम-स्मरण का) काम संभाल (इस तरह गोपाल के प्रति पड़ी हुई गाँठ खुल जाती है; फिर इस तरफ की ओर कभी) घाटा नहीं पड़ता (गोपाल-प्रभु के नाम का) सदा टिका रहने वाला नफा नित्य बना रहता है, और सारे जगत का बड़ा मालिक प्रीतम-प्रभु (सिर पर सहायक) दिखता है।28। ठाकहु मनूआ राखहु ठाइ ॥ ठहकि मुई अवगुणि पछुताइ ॥ ठाकुरु एकु सबाई नारि ॥ बहुते वेस करे कूड़िआरि ॥ पर घरि जाती ठाकि रहाई ॥ महलि बुलाई ठाक न पाई ॥ सबदि सवारी साचि पिआरी ॥ साई सुोहागणि ठाकुरि धारी ॥२९॥ पद्अर्थ: मनूआ = (‘मन’ से ‘मनूआ’ अल्पार्थक संज्ञा) चंचल सा मन जो माया के पीछे भटक रहा है। ठाइ = जगह पर। ठहकि मुई = भिड़ के मरी है (सृष्टि)। अवगुणि = अवगुण के कारण, माया के पीछे भटकने की भूल के कारण। सबाई = सारी। कूड़िआरि = झूठ में फसी हुई,माया ग्रसित। घरि = घर में। महलि = प्रभु के महल में। ठाकि = रोक। ठाकुरि = ठाकुर ने। पछुताइ = हाथ मलती है, दुखी होती है। ठाकि रहाई = रोक के रखी (‘ठाकि’ और ‘ठाक’ में फर्क है)। सुोहागणि = (यहाँ ‘सुहागणि’ पढ़ना है)। अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम मन की पट्टी पर लिख के, माया की ओर दौड़ते) इस चंचल मन को रोके रख, और जगह पर (भाव, अंतरात्मे) टिका के रख। (सृष्टि माया की तृष्णा के) अवगुण में (फंस के आपस में) भिड़-भिड़ के आत्मिक मौत सहेड़ रही है और दुखी हो रही है। (हे पांडे!) प्रभु- पालनहार एक है, और सारे जीव उसकी नारियाँ हैं, (पर) माया-ग्रसित (जीव-स्त्री पति को नहीं पहचानती, और बाहर) कई भेस करती है (और कई आसरे देखती है)। (जिस जीव-स्त्री को प्रभु ने) पराए घर को जाती को (और आसरे देखती को) रोक लिया है, उसको (उसने अपने महल में बुला लिया है, उसके जीवन-राह में तृष्णा की) कोई रोक नहीं पड़ती। (गुरु के) शब्द द्वारा (उसको प्रभु ने) सँवार लिया है, (वह जीव-स्त्री) सदा-स्थिर प्रभु की प्यारी हो जाती है, वही सोहाग-भाग वाली हो जाती है (क्योंकि) प्रभु ने उसको अपनी बना लिया है।29। डोलत डोलत हे सखी फाटे चीर सीगार ॥ डाहपणि तनि सुखु नही बिनु डर बिणठी डार ॥ डरपि मुई घरि आपणै डीठी कंति सुजाणि ॥ डरु राखिआ गुरि आपणै निरभउ नामु वखाणि ॥ डूगरि वासु तिखा घणी जब देखा नही दूरि ॥ तिखा निवारी सबदु मंनि अम्रितु पीआ भरपूरि ॥ देहि देहि आखै सभु कोई जै भावै तै देइ ॥ गुरू दुआरै देवसी तिखा निवारै सोइ ॥३०॥ पद्अर्थ: डोलत डोलत = डोलते हुए, और ही आसरे देखते हुए। चीर = कपड़े। चीर सीगार = (भाव,) सारे धार्मिक उद्यक के भेस। डाह = दाह, जलन। डाहपणि = जलन में, तृष्णा की आग में जलते हुए। तनि = शरीर में, (भाव,) हृदय में। बिणठी = नाश हो गई। डार = बेअंत जीव। मुई = सवै भाव से मर गई, तृष्णा की ओर से मर गई। कंति = कंत ने। कंति सुजाणि = समझदार कंत ने। गुरि = गुरु ने, गुरु से। डरु = भय, अदब। वखाणि = स्मरण करके। डूगरि = पर्वत पर। घणी = बहुत। भरपूरि = नाको नाक। सभु कोई = हरेक जीव। जै भावै = जो उसको भाता है। तै = उस जीव को। सोइ = वही जीव। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अर्थ: हे सखी! भटक-भटक के सारे वस्त्र और श्रृंगार फट गए हैं (भाव, तृष्णा की आग के कारण और-और आसरे देखने से सारे धार्मिक उद्यम व्यर्थ जाते हैं); तृष्णा में जलते हुए हृदय में सुख नहीं हो सकता; (तृष्णा के कारण प्रभु का) डर (हृदय में से) गवाने से बेअंत जीव खप रहे हैं। (जो जीव-स्त्री प्रभु के) डर से अपने हृदय में (तृष्णा की ओर से) मर गई है (भाव, जिसने तृष्णा की आग बुझा ली है) उसको सुजान कंत (प्रभु) ने (प्यार से) देखा है; अपने गुरु के द्वारा उसने निर्भय प्रभु का नाम स्मरण करके (प्रभु का) डर (हृदय में) बना रखा है। (हे सखी! जब तक मेरा) बसेरा पर्बत पर रहा, (अर्थात, अहंकार के कारण सिर ऊँचा उठा रहा) माया की बहुत प्यास थी, जब से मैंने प्रभु के दीदार कर लिए, तब इस प्यास को मिटाने वाला अमृत पास ही दिखाई दे गया। मैंने गुरु के शब्द को मान के (माया की) प्यास दूर कर ली और (नाम-) अमृत पेट भर के पी लिया। हरेक जीव कहता है: (हे प्रभु! मुझे ये अमृत) दे; (मुझे ये अमृत) दे; पर प्रभु उस जीव को देता है जो उसको भाता है। प्रभु जिसको सतिगुरु के माध्यम से (ये अमृत) देगा, वही जीव (माया वाली) प्यास मिटा सकेगा।30। ढंढोलत ढूढत हउ फिरी ढहि ढहि पवनि करारि ॥ भारे ढहते ढहि पए हउले निकसे पारि ॥ अमर अजाची हरि मिले तिन कै हउ बलि जाउ ॥ तिन की धूड़ि अघुलीऐ संगति मेलि मिलाउ ॥ मनु दीआ गुरि आपणै पाइआ निरमल नाउ ॥ जिनि नामु दीआ तिसु सेवसा तिसु बलिहारै जाउ ॥ जो उसारे सो ढाहसी तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुर परसादी तिसु सम्हला ता तनि दूखु न होइ ॥३१॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। करारि = इस पार ही। ढहि पवनि = गिर रहे हैं। ढहि ढहि पवनि = अनेक गिर रहे हैं। अमर = अविनाशी। अजाची = अतोल, बड़ा, जो जाचा ना जा सके। तिन कै = उन लोगों से। अघुलीऐ = छूटते हैं, तैर जाते हैं। गुरि = गुरु से। जिनि = जिस गुरु ने। तनि = शरीर में, तन में। अर्थ: मैं बहुत ढूँढती फिरी हूँ (हर जगह यही देखा है कि तृष्णा के भाव से) भारी हुए अनेक लोग (संसार-समुंदर के) इस छोर पर ही गिरते जा रहे है; (पर जिनके सिर पर माया की पोटली का भार नहीं, वे) हल्के (होने के कारण) पार लांघ जाते हैं। मैं (पार लांघने वाले) उन लोगों से सदके हूँ, उनको अविनाशी और बड़ा प्रभु मिल गया है, उनकी चरण-धूल लेने से (माया की तृष्णा से) छूटा जाता है, (प्रभु मेहर करे) मैं भी उनकी संगति में उनके साथ रहूँ। जिस मनुष्य ने अपने सतिगुरु के द्वारा (अपना) मन (प्रभु को) दिया है, उसको (प्रभु का) पवित्र नाम मिल गया है। मैं उस (गुरु) से सदके हूँ, मैं उसकी सेवा करूँगी जिसने (मुझे) ‘नाम’ दिया है। जो (प्रभु जगत को) रचने वाला है वही नाश करने वाला है, उसके बिना (ऐसी समर्थ वाला) और कोई नहीं है; अगर मैं सतिगुरु की मेहर से उसको सिमरती रहूँ, तो शरीर में कोई दुख पैदा नहीं होता (भाव, कोई विकार नहीं उठता)।31। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |