श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 956 मः १ ॥ सच की काती सचु सभु सारु ॥ घाड़त तिस की अपर अपार ॥ सबदे साण रखाई लाइ ॥ गुण की थेकै विचि समाइ ॥ तिस दा कुठा होवै सेखु ॥ लोहू लबु निकथा वेखु ॥ होइ हलालु लगै हकि जाइ ॥ नानक दरि दीदारि समाइ ॥२॥ पद्अर्थ: काती = (सं: कर्तरी) कैंची, चाकू, छूरी। सारु = लोहा। थेक = म्यान। कुठा = कोह के निर्दयता से मारा हुआ, हलाल। निकथा = निकला। हकि = हक में, सदा कायम रहने वाले ईश्वर में। दरि = प्रभु के दर पर। दीदारि = दीदार में। अर्थ: अगर प्रभु के नाम की छुरी हो, प्रभु का नाम ही (उस छुरी का) सारा लोहा हो, उस छुरी की संरचना बहुत सुंदर होती है; ये छुरी सतिगुरु के शब्द की सान पर रख कर तेज (धार) की जाती है, और ये प्रभु के गुणों की म्यान में टिकी रहती है। अगर शेख इस छुरी का कुठा हुआ हो (भाव, अगर ‘शेख’ का जीवन प्रभु के नाम, सतिगुरु के शब्द और प्रभु की महिमा में घड़ा हुआ हो) तो उसके अंदर से लालच रूपी लहू अवश्य निकल जाता है, इस तरह हलाल हो के (कुठा जा के) वह प्रभु में जुड़ता है, और, हे नानक! प्रभु के दर पर (पहुँच के) उसके दर्शन में लीन हो जाता है।2। मः १ ॥ कमरि कटारा बंकुड़ा बंके का असवारु ॥ गरबु न कीजै नानका मतु सिरि आवै भारु ॥३॥ पद्अर्थ: कमरि = कमर पर। बंकुड़ा = बाँका सा, सुंदर सा। कटारा = खंजर। बंके का = सुंदर घोड़े का। गरबु = अहंकारु। मतु = कहीं ऐसा ना हो। सिरि = सिर पर। आवै भारु = (सारा) बोझ सिर पर आ जाए, भाव, सिर के भार गिर जाए। अर्थ: कमर पर सुंदर सी कटार हो और सुंदर घोड़े पर सवार हो, (फिर भी) हे नानक! गुमान ना करें, (क्या पता है) मत कहीं सिर के बल ही गिर ही ना पड़े।3। पउड़ी ॥ सो सतसंगति सबदि मिलै जो गुरमुखि चलै ॥ सचु धिआइनि से सचे जिन हरि खरचु धनु पलै ॥ भगत सोहनि गुण गावदे गुरमति अचलै ॥ रतन बीचारु मनि वसिआ गुर कै सबदि भलै ॥ आपे मेलि मिलाइदा आपे देइ वडिआई ॥१९॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख, गुरु के हुक्म में। सो = वह मनुष्य। सबदि = गुरु के शब्द में। धिआइनि = ध्याते हैं। जिन पलै = जिस के पल्ले में, जिस के पास। सोहनि = शोभा देते हैं। अचलै = अडोल (हो जाते हैं)। रतन बीचारु = प्रभु के नाम रतन की विचार, प्रभु के श्रेष्ठ नाम की विचार। सबदि भलै = सुंदर शब्द से। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह साधु-संगत में आ के गुरु के शब्द में जुड़ता है। जिस मनुष्यों के पल्ले प्रभु का नाम-रूपी धन है (जिंदगी के सफर के लिए) खर्च है वह सदा कायम रहने वाले प्रभु को स्मरण करते हैं और उसी का रूप हो जाते हैं। बँदगी करने वाले लोग प्रभु के गुण गाते हैं और सुंदर लगते हैं, सतिगुरु की मति को ले के वे अडोल हो जाते हैं, सतिगुरु के सोहाने शब्द के द्वारा उनके मन में प्रभु के श्रेष्ठ नाम की विचार आ बसती है। (भक्त जनों को) प्रभु खुद ही अपने में मिलाता है, स्वयं ही उनको शोभा देता है।19। सलोक मः ३ ॥ आसा अंदरि सभु को कोइ निरासा होइ ॥ नानक जो मरि जीविआ सहिला आइआ सोइ ॥१॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कोइ = कोई विरला। निरासा = आशाओं से बचा हुआ। मरि = मर के, आशाओं से हट के। सहिला = सफल। अर्थ: हरेक जीव आशाओं में (फसा हुआ) है (भाव, नित्य-नई आशाएं तमन्नाएं बनाता रहता है), कोई विरला मनुष्य है जो आशाओं से बचा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य आशाओं से हट के (प्रभु के स्मरण में) जीवन गुजारता है उसका आना सफल है।1। मः ३ ॥ ना किछु आसा हथि है केउ निरासा होइ ॥ किआ करे एह बपुड़ी जां भुोलाए सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: आसा हथि = आशा के हाथ में, आशा के वश में। केउ = कैसे, किस तरह? एह = ये आशा। बपुड़ी = बेचारी। सोइ = वह प्रभु खुद। नोट: ‘भुोलाऐ’ में से अक्षर ‘भ’ की ‘ो’ मात्रा यहाँ पढ़नी है अर्थात यहाँ ‘भोलाए’ पढ़ना है जबकि असल शब्द है ‘भुलाए’। अर्थ: ‘आसा’ के हाथ में कोई ताकत नहीं (कि जीवों को फसा सके; सो, अपने उद्यम से भी) मनुष्य ‘आशा’ से नहीं बच सकता। ये बेचारी ‘आसा’ क्या कर सकती है? भुलाता तो वह प्रभु खुद है।2। पउड़ी ॥ ध्रिगु जीवणु संसार सचे नाम बिनु ॥ प्रभु दाता दातार निहचलु एहु धनु ॥ सासि सासि आराधे निरमलु सोइ जनु ॥ अंतरजामी अगमु रसना एकु भनु ॥ रवि रहिआ सरबति नानकु बलि जाई ॥२०॥ पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। संसार जीवणु = दुनिया का जीना। निहचलु = ना नाश होने वाला। एहु = ये नाम। सासि सासि = हरेक सांस में। सोइ = सो ही, वही। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। अगमु = अ+गमु, जिस तक पहुँच ना हो सके। रसना = जीभ। भनु = उचार, जप। रवि रहिआ = व्यापक है। सरबति = सभी में। अर्थ: सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम स्मरण के बिना जगत में जीना धिक्कारयोग्य है। प्रभु ही (सबका) दाता है सब दातें देने वाला है; सो, उसका ये (नाम-) धन ही (ऐसा है जो) कभी नाश होने वाला नहीं। वही मनुष्य पवित्र (जीवन वाला) है जो (प्रभु को) हरेक सांस के साथ याद करता है। (हे भाई!) जीभ से उस एक प्रभु को याद कर जो सबके दिल की जानता है और जो (जीवों की) पहुँच से परे है। नानक उस प्रभु से सदके है जो सभी में व्यापक है।20। सलोकु मः १ ॥ सरवर हंस धुरे ही मेला खसमै एवै भाणा ॥ सरवर अंदरि हीरा मोती सो हंसा का खाणा ॥ बगुला कागु न रहई सरवरि जे होवै अति सिआणा ॥ ओना रिजकु न पइओ ओथै ओन्हा होरो खाणा ॥ सचि कमाणै सचो पाईऐ कूड़ै कूड़ा माणा ॥ नानक तिन कौ सतिगुरु मिलिआ जिना धुरे पैया परवाणा ॥१॥ पद्अर्थ: धुरे ही = धुर से ही, आदि से ही। मेला = मेल। खसमै = पति को। खाणा = खुराक। कागु = कौआ। सरवरि = सरवर में। जे = हलांकि। ओना = उन कौए और बगुलों का। सचि कमाणै = यदि प्रभु का स्मरण रूप कमाई की जाए। कूड़ै = झूठ की कमाई का। परवाणा = परवाना, हुक्म। अर्थ: (गुरु-) सरोवर और (गुरमुख-) हंस का मेल धुर से चला आ रहा है, पति-प्रभु को ये बात अच्छी लगती है, हंसों (गुरमुखों) की ख़ुराक (प्रभु की महिमा रूपी) हीरे मोती है जो (गुरु-) सरोवर में मिलते हैं। कौए और बगुला (मनमुख) भले ही कितना ही समझदार (चतुर) हो वहाँ (गुरु की संगति में) नहीं रह सकता, (क्योंकि) उन (कौए बगुले मनमुखों) की ख़ुराक वहाँ नहीं है, उनकी खुराक अलग ही होती है। अगर सदा कायम रहने वाले प्रभु की बँदगी-रूपी कमाई करें तो सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मिलता है, (पर) झूठ की कमाई का गुमान भी झूठा ही है। (पर, इन मनमुखों के भी क्या वश?) हे नानक! जिनको धुर से प्रभु की आज्ञा मिली है उनको ही सतिगुरु (-सरोवर) मिलता है।1। मः १ ॥ साहिबु मेरा उजला जे को चिति करेइ ॥ नानक सोई सेवीऐ सदा सदा जो देइ ॥ नानक सोई सेवीऐ जितु सेविऐ दुखु जाइ ॥ अवगुण वंञनि गुण रवहि मनि सुखु वसै आइ ॥२॥ नोट: इस शलोक के साथ किसी ‘महले’ की जिकर नहीं; यहाँ भी पहले शलोक का ‘महला १’ ही समझना। पद्अर्थ: उजला = पवित्र। चिति करेइ = चिक्त में बसाता है। देइ = देता है। जितु सेविऐ = जिसका स्मरण करने से। (नोट: शब्द ‘सेवीअै’ और ‘सेविअै’ के ‘उच्चारण’ और ‘अर्थ’ का फर्क याद रखने योग्य है)। वंञनि = वंजनि, दूर हो जाते हैं। रवहि = आ बसते हैं। मनि = मन में। अर्थ: मेरा मालिक (-प्रभु) पवित्र है जो कोई भी उसको अपने हृदय में बसाता है (वह भी पवित्र हो जाता है)। हे नानक! जो प्रभु सदा ही (जीवों को दातें) देता है उसको स्मरणा चाहिए। हे नानक! उस प्रभु को ही स्मरणा चाहिए जिसका स्मरण करने से दुख दूर हो जाता है, अवगुण दूर हो जाते हैं, गुण (हृदय में) बस जाते हैं और सुख मन में आ बसता है।2। पउड़ी ॥ आपे आपि वरतदा आपि ताड़ी लाईअनु ॥ आपे ही उपदेसदा गुरमुखि पतीआईअनु ॥ इकि आपे उझड़ि पाइअनु इकि भगती लाइअनु ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी आपे नाइ लाईअनु ॥ नानक नामु धिआईऐ सची वडिआई ॥२१॥१॥ >सुधु ॥ पद्अर्थ: लाइअनु = लगाई है उसने। गुरमुखि = गुरु से। पतीआईनु = (सृष्टि) पतिआई है उसने। इकि = कई जीव। उझड़ि = कुराहे, गलत राह पर। लाइअनु = लगाए हैं उसने। नाइ = नाम में। लाईअनु = (दृष्टि) लगाई है उसने। अर्थ: (सृष्टि में) प्रभु स्वयं ही (हर जगह) मौजूद है उसने स्वयं ही ताड़ी (समाधि) लगाई हुई है (भाव, खुद ही गुप्त रूप में व्याप्त है)। (गुरु-रूप हो के) स्वयं ही (जीवों को) उपदेश दे रहा है, गुरु के माध्यम से स्वयं ही उसने सृष्टि को पतियाया हुआ है। कई जीव उसने खुद ही गलत राह पर डाले हुए हैं और कई जीव उसने बँदगी में लगाए हुए हैं। प्रभु स्वयं जिस जीव को समझ देता है वह ही (सही रास्ते को) समझता है, उसने स्वयं ही (सृष्टि) अपने नाम में लगाई हुई है। हे नानक! प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए, ये ही सदा कायम रहने वाली बड़ाई है।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |