श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली की वार महला ५

पउड़ी-वार भाव:

ये सारी जगत रचना परमात्मा ने स्वयं रची है, और इसमें हर जगह वह स्वयं ही व्यापक है। इतनी बेअंत कुदरत रचने वाला वह स्वयं ही है। इस काम में कोई उसका सलाहकार नहीं है।

जगत में बेअंत जीव-जंतु पैदा करके सबको रिजक भी वह परमात्मा स्वयं ही पहुँचाता है। सबका आसरा-परना भी वह स्वयं ही है। जीवों की पालना ऐसे करता है जैसे माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं। किसी को किसी पर आश्रित नहीं रखता।

परमात्मा सब जीवों के अंग-संग बसता है। कोई जीव कोई काम उससे छुपा के नहीं कर सकता। जगत में कामादिक अनेक विकार भी हैं। परमात्मा जिस मनुष्य को आत्मिक ताकत बख्शता है वह इन विकारों में दुखी होने से बच जाता है।

जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु की शरण में रख के अपनी महिमा की दाति देता है उसका मन परमात्मा के प्यार-रंग में इतना रंगा जाता है कि कामादिक विकार उस पर जोर नहीं डाल सकते। ऐसे मनुष्य की संगति में और भी अनेक लोग परमात्मा की महिमा को अपनी जिंदगी का आसरा बना लेते हैं।

परमात्मा की महिमा करने वाले लोगों की संगति में रह के वह मन भी पवित्र हो जाता है जो विकारों से मैला हो के विकार-रूप ही हो चुका होता है। ऐसे गुरमुखों की संगति परमात्मा की मेहर से ही मिलती है। जिसके माथे के भाग्य जाग उठें, उसको गुरु के चरणों की धूल प्राप्त होती है।

जिस मनुष्य के मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है परमात्मा की महिमा प्यारी लगती है उसके अंदर से तंग-दिली दूर हो जाती है उसको सारा संसार ही एक बड़ा परिवार दिखने लगता है। कोई चिन्ता उसे छू नहीं सकती।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है वह मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है उसका स्वै-भाव (अहम्) मिट जाता है, वह माया के हमलों के मुकाबले के सन्मुख अडोल हो जाता है तृष्णा की आग उसको छू नहीं सकती। ये सदाचारी जीवन उसको गुरु से हासिल होता है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है वह मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है कोई विकार उसके आत्मिक जीवन को बिगाड़ नहीं सकता उसका जीवन पवित्र हो जाता है और उसको किसी की अधीनगी नहीं रह जाती।

परमात्मा हर जगह हरेक जीव की संभाल करता है। जिस पर उसकी मेहर की नजर होती है वह गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की महिमा करता है और संसार-समुंदर के विकारों की लहरों में से आत्मिक जीवन की बेड़ी को सही सलामत पार लंघा लेता है।

परमात्मा उन लोगों से प्यार करता है जो परमात्मा की भक्ति करते हैं और परमात्मा को ही अपना आसरा-परना बनाए रखते हैं। दिखावे के तरले, धर्म-पुस्तकों के पठन-पाठन, तीर्थ स्नान, धरती का रटन, चतुराई-समझदारी - ऐसे किसी भी साधन से परमात्मा का प्यार नहीं जीता जा सकता।

जिस मनुष्य को परमात्मा की महिमा की लगन लग जाती है, वह विकारों की गिरफत में आ के मनुष्य-जनम की बाजी नहीं हारता। परमात्मा की महिमा वह मनुष्य की आत्मिक खुराक बन जाती है। इस खुराक के बिना वह रह नहीं सकता।

परमात्मा की महिमा सुन के मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मनुष्य के अंदर से पशु-स्वभाव नीच स्वभाव दूर हो जाता है। नाम की इनायत से माया की भूख-प्यास मिट जाती है, कोई दुख कोई विकार मनुष्य के मन पर अपना जोर नहीं डाल सकता। पर, ये नाम-हीरा गुरु के शब्द में जुड़ने से ही प्राप्त होता है।

गुरु के द्वारा जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है वह जीवन की बाजी हार के नहीं जाता। गुरु उसको अवश्य विकारों की लहरों में डूबने से बचा लेता है, मायावी भटकना उसके अंदर से समाप्त हो जाती है। वह मनुष्य सबकी धूल बना रहता है।

परमात्मा की याद से टूटे हुए मनुष्य को सारे दुख-कष्ट आ दबाते हैं, किसी भी उपाय से इनसे खलासी नहीं होती। आत्मिक गुणों से वह मनुष्य कंगाल ही रहता है, अनेक विकारों में गलतान रहता है, सारी उम्र वह ‘मैं, मैं’ करने में ही गुजारता है, और खिझा हुआ ही रहता है।

साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा की इनायत से मनुष्य की सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ वश में आ जाती हैं उसके अंदर से माया की खातिर भटकना माया की झाक समाप्त हो जाती है, उसको हरेक के अंदर परमात्मा ही बसता दिखाई देता है, उसकी तवज्जो हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है।

महिमा की इनायत से मनुष्य को परमात्मा की रजा प्यारी लगने लग जाती है। परमात्मा के साथ सदा सांझ डाले रखने वाले लोगों पर कोई विकार जोर नहीं डाल सकता।

परमात्मा की मेहर की निगाह से जो मनुष्य उसकी सेवा-भक्ति में लगता है वह विकारों के हमलों की ओर से सदा सचेत रहता है, वह अपने मन को अपने काबू में रखता है वह विकारों का मुकाबला करने के लायक हो जाता है।

महिमा करने वाले मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि परमात्मा सब जीवों में मौजूद है, और सब ताकतों का मालिक है, इतने जगत-पसारे का मालिक होते हुए भी उसे कोई परेशानी नहीं होती।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु उसको परमात्मा की महिमा की दाति देता है जिसकी इनायत से उसका जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है।

परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को गुरु के माध्यम से हरि-नाम की दाति मिलती है उसको समझ आ जाती है कि इस जगत-पसारे का रचनहार परमात्मा स्वयं ही है, इसमें हर जगह व्यापक होते हुए वह इससे निर्लिप भी रहता है। हरि-नाम की इनायत से उस मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है।

परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को नाम की दाति मिलती है, उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है। इस संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से परमात्मा उसकी जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघा देता है, उसको माया के मोह के घुप अंधेरे कूएँ में से बाहर निकाल लेता है।

स्मरण महिमा करने वाले मनुष्य को दृढ़ विश्वास हो जाता है कि परमात्मा ने खुद ही ये जगत रचा है और खुद ही इसमें हर जगह मौजूद है, सर्व-व्यापक होता हुआ भी वह निर्लिप भी है।

मुख्य भाव:

इस सारे जगत को पैदा करने वाला और इसमें हर जगह व्यापक परमात्मा स्वयं ही है। जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है, गुरु की शरण में डाल के उसको अपनी महिमा बख्शता है।

महिमा की इनायत से मनुष्य का आत्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है, कोई विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।

‘वार’ की संरचना:

इस ‘वार’ में 22 पौड़ियाँ हैं, हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुकें हैं। किसी भी पौड़ी में गिनती की उलंघना नहीं है।

इस ‘वार’ के साथ जो शलोक दर्ज हैं वह भी ‘वार’ की ही तरह सारे गुरु अरजन देव जी के ही हैं। पर कई शलोक बहुत बड़े हैं और कई शलोक सिर्फ दो-दो तुकों के हैं। पउड़ी नं: 20 के साथ दर्ज शलोक हैं तो गुरु अरजन साहिब के पर हैं ये कबीर जी के एक शलोक के संदर्भ में। पउड़ी नं: 21 के साथ दर्ज शलोक भी हैं तो गुरु अरजन साहिब के, पर हैं बाबा फरीद जी के शलोकों के प्रथाय। इस विचार से नतीजा ये निकलता है कि पौड़ियाँ और शलोक एक ही समय में उचारे हुए नहीं हैं। ये ‘वार’ पहले सिर्फ पौड़ियों का ही संग्रह था।

इसके मुकाबले में देखिए गुरु अरजन साहिब की जैतसरी राग की ‘वार’। वहाँ पौड़ियों की एकसारता की तरह शलोक भी एकसार ही हैं। शलोक और पौड़ियों के शब्द भी मिलते-जुलते हैं। स्पष्ट है वह ‘वार’ शलोकों समेत एक समय पर ही लिखी गई है।


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोक मः ५ ॥ जैसा सतिगुरु सुणीदा तैसो ही मै डीठु ॥ विछुड़िआ मेले प्रभू हरि दरगह का बसीठु ॥ हरि नामो मंत्रु द्रिड़ाइदा कटे हउमै रोगु ॥ नानक सतिगुरु तिना मिलाइआ जिना धुरे पइआ संजोगु ॥१॥

पद्अर्थ: बसीठु = बिचौला, वकील। मंत्रु = उपदेश। धुरे = धुर से, आदि से। संजोगु = मेल, मिलाप।

अर्थ: सतिगुरु (के बारे में) जिस प्रकार का सुनते थे, वैसा ही मैंने (आँखों से) देख लिया है, गुरु प्रभु की हजूरी का बिचौला है, प्रभु से विछुड़ों को (दोबारा) प्रभु से मिला देता है, प्रभु के नाम स्मरण का उपदेश (जीव के हृदय में) दृढ़ कर देता है (और इस तरह उसका) अहंकार का रोग दूर कर देता है।

पर, हे नानक! प्रभु उनको ही गुरु से मिलाता है जिनके भाग्यों में धुर से ही ये मेल लिखा होता है।1।

मः ५ ॥ इकु सजणु सभि सजणा इकु वैरी सभि वादि ॥ गुरि पूरै देखालिआ विणु नावै सभ बादि ॥ साकत दुरजन भरमिआ जो लगे दूजै सादि ॥ जन नानकि हरि प्रभु बुझिआ गुर सतिगुर कै परसादि ॥२॥

पद्अर्थ: वादि = झगड़ा करने वाले, वैरी। बादि = व्यर्थ। साकत = ईश्वर से टूटे हुए। सादि = स्वाद में। नानकि = नानक ने। परसादि = मेहर से। बुझिआ = ज्ञान हासिल कर लिया है, सांझ डाल ली है।

अर्थ: अगर एक प्रभु मित्र बन जाए तो सारे जीव मित्र बन जाते हैं; पर अगर एक अकाल-पुरख वैरी हो जाए तो सारे जीव वैरी बन जाते हैं (भाव, एक प्रभु को मित्र बनाने से सारे जीव प्यारे लगते हैं, और प्रभु से विछुड़ने पर जगत के सारे जीवों से दूरी बन जाती है)। ये बात पूरे गुरु ने दिखा दी है कि नाम-स्मरण के बिना (प्रभु को सज्जन बनाए बिना) और हरेक कार्य व्यर्थ है, (क्योंकि) ईश्वर से टूटे हुए विकारी व्यक्ति जो माया के स्वाद में मस्त रहते हैं वे भटकते फिरते हैं।

दास नानक ने सतिगुरु की मेहर का सदका परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली है।2।

पउड़ी ॥ थटणहारै थाटु आपे ही थटिआ ॥ आपे पूरा साहु आपे ही खटिआ ॥ आपे करि पासारु आपे रंग रटिआ ॥ कुदरति कीम न पाइ अलख ब्रहमटिआ ॥ अगम अथाह बेअंत परै परटिआ ॥ आपे वड पातिसाहु आपि वजीरटिआ ॥ कोइ न जाणै कीम केवडु मटिआ ॥ सचा साहिबु आपि गुरमुखि परगटिआ ॥१॥

पद्अर्थ: थटणहारै = बनाने वाले (प्रभु) ने। थाटु = बनावट। आपे = खुद ही। थटिआ = बनाया। खटिआ = (हरि नाम के व्यापार की) कमाई की। पसारु = जग रचना का पसारा। रटिआ = रति हुआ। कीम = कीमत। अलख = जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। परै परटिआ = परे से परे। वजीरटिआ = वजीर, सलाह देने वाला। मटिआ = मट, ठिकाना। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु के सन्मुख होने से, गुरु के बताए हुए राह पर चलने से।

अर्थ: बनाने वाले (प्रभु) ने खुद ही ये (जगत-) रचना बनाई है। (इस जगत-हाट में) वह खुद ही पूरा शाह है, और खुद ही (अपने नाम की) कमाई कमा रहा है। प्रभु खुद ही (जगत-) पसारा पसार के खुद ही (इस पसारे के) रंगों में मिला हुआ है। उस अलख परमात्मा की रची हुई कुरदति का मूल्य नहीं डाला जा सकता। प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, (वह एक ऐसा समुंदर है जिसकी) गहराई मापी नहीं जा सकती, उसका अंत नहीं पाया जा सकता, वह परे से परे है।

प्रभु स्वयं ही बहुत बड़ा पातशाह है, स्वयं ही अपना सलाहकार है। कोई जीव प्रभु की प्रतिभा का मूल्य नहीं डाल सकता, कोई नहीं जानता उसका कितना बड़ा (ऊँचा) ठिकाना है। प्रभु स्वयं ही सदा स्थिर रहने वाला मालिक है। गुरु के द्वारा ही उसके बारे में समझ पड़ती है।1।

सलोकु मः ५ ॥ सुणि सजण प्रीतम मेरिआ मै सतिगुरु देहु दिखालि ॥ हउ तिसु देवा मनु आपणा नित हिरदै रखा समालि ॥ इकसु सतिगुर बाहरा ध्रिगु जीवणु संसारि ॥ जन नानक सतिगुरु तिना मिलाइओनु जिन सद ही वरतै नालि ॥१॥

पद्अर्थ: मै = मुझे। हउ = मैं। तिसु = उस (गुरु) को। बाहरा = बगैर। संसारि = जगत में। मिलाइअनु = मिलाया है उस (प्रभु) ने। वरतै = रहता है। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।

अर्थ: हे मेरे प्यारे सज्जन प्रभु! (मेरी विनती) सुन, मुझे गुरु के दीदार करा दे; मैं गुरु को अपना मन दे दूँगा और उसको सदा अपने हृदय में संभाल के रखूँगा, (क्योंकि) एक गुरु के बिना जगत में जीना धिक्कारयोग्य है (गुरु के बताए हुए राह पर चले बिना जगत में धिक्कारना ही मिलती हैं)। हे दास नानक! उस (प्रभु) ने उन (भाग्यशालियों) को गुरु मिलाया है, जिनके साथ प्रभु स्वयं बसता है।1।

मः ५ ॥ मेरै अंतरि लोचा मिलण की किउ पावा प्रभ तोहि ॥ कोई ऐसा सजणु लोड़ि लहु जो मेले प्रीतमु मोहि ॥ गुरि पूरै मेलाइआ जत देखा तत सोइ ॥ जन नानक सो प्रभु सेविआ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥२॥

पद्अर्थ: लोचा = तमन्ना, चाहत। पावा = पाऊँ, मिलूँ। प्रभ = हे प्रभु! तोहि = तुझे। लोड़ि लहु = ढूँढ दो। मोहि = मुझे। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। जत = जिधर। तत = उधर। सेविआ = स्मरण किया है। जेवडु = जितना, बराबर का।

अर्थ: हे प्रभु! मेरे हृदय में तुझे मिलने की तमन्ना है, तुझे कैसे मिलूँ? (हे भाई!) मुझे कोई ऐसा मित्र ढूँढ दो जो मुझे प्यारे प्रभु से मिला दे। (मेरी आरजू सुन के) पूरे गुरु ने मुझे प्रभु से मिला दिया है, (अब) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही प्रभु दिखाई देता है। हे दास नानक! (कह:) मैं अब उस प्रभु को स्मरण करता हूँ, उस प्रभु के बराबर का कोई और नहीं है।2।

पउड़ी ॥ देवणहारु दातारु कितु मुखि सालाहीऐ ॥ जिसु रखै किरपा धारि रिजकु समाहीऐ ॥ कोइ न किस ही वसि सभना इक धर ॥ पाले बालक वागि दे कै आपि कर ॥ करदा अनद बिनोद किछू न जाणीऐ ॥ सरब धार समरथ हउ तिसु कुरबाणीऐ ॥ गाईऐ राति दिनंतु गावण जोगिआ ॥ जो गुर की पैरी पाहि तिनी हरि रसु भोगिआ ॥२॥

पद्अर्थ: कितु मुखि = कौन से मुँह से? धारि = धार के, कर के। समाहीऐ = पकड़ाता है। वसि = वश में, आसरे। इक धर = एक (प्रभु ही) आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। बिनोद = खेल तमाशे। सरब धार = सबको आसरा देने वाला। हउ = मैं। जो पाहि = जो (लोग) पड़ते हैं। तिनी = उन्होंने ही। रसु = आनंद। भोगिआ = आनंद लिया।

अर्थ: (सब जीवों को रिजक) देने वाले प्रभु को किसी मुँह से भी सराहा नहीं जा सकता (कोई भी जीव उसकी महिमा पूरी तरह नहीं कर सकता)। प्रभु मेहर करके जिस जीव की रक्षा करता है उसको रिजक पहुँचाता है। (दरअसल) कोई जीव किसी (और जीव) के आसरे नहीं है, सब जीवों का आसरा एक परमात्मा ही है। वह स्वयं ही (अपना) हाथ दे के बालक की तरह पालता है।

प्रभु स्वयं ही चोज-तमाशे कर रहा है, (उसके इन चोज-तमाशों की) कोई समझ नहीं पड़ सकती। मैं सदके हूँ उस प्रभु से जो सब जीवों का आसरा है और सब कुछ करने की ताकत रखता है।

रात-दिन प्रभु की स्तुति करनी चाहिए। परमात्मा ही एक ऐसी हस्ती है जिसके गुण गाने चाहिए। (पर) उन लोगों ने प्रभु (के गुण गाने) का आनंद पाया है जो सतिगुरु के चरणों में पड़ते हैं।2।

सलोक मः ५ ॥ भीड़हु मोकलाई कीतीअनु सभ रखे कुट्मबै नालि ॥ कारज आपि सवारिअनु सो प्रभ सदा सभालि ॥ प्रभु मात पिता कंठि लाइदा लहुड़े बालक पालि ॥ दइआल होए सभ जीअ जंत्र हरि नानक नदरि निहाल ॥१॥

पद्अर्थ: भीड़हु = भीड़ से, मुसीबत से। मोकलाई = खलासी, निजात, छुट्टी। कीतीअनु = की है उस (प्रभु) ने। कुटंबै नालि = परिवार समेत। सवारिअनु = सवारे हैं उसने। सभालि = याद रख, याद कर। कंठि = गले से। लहुड़े = छोटे, अंजान। पालि = पाल के। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाल = देखता है।

अर्थ: (हे मन!) उस प्रभु को सदा याद कर जो तेरे सारे काम आप सवाँरता है, जो तुझे दुखों से खलासी देता है और तेरे सारे परिवार समेत तेरी रक्षा करता है। माता-पिता की तरह अंजाने बालकों को पाल के प्रभु (जीवों को) गले से लगाता है। हे नानक! जिस मनुष्य की ओर प्रभु मेहर की निगाह से देखता है, उस पर सब जीव दयालु हो जाते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh