श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ५ ॥ विणु तुधु होरु जि मंगणा सिरि दुखा कै दुख ॥ देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख ॥ गुरि वणु तिणु हरिआ कीतिआ नानक किआ मनुख ॥२॥

पद्अर्थ: जि = जो कुछ। दुखा कै सिरि दुख = दुखों के सिर दुख, बहुत सारे भारी दुख। संतोखीआ = मुझे संतोष आ जाए। भुख = तृष्णा। गुरि = गुरु ने। वणु = बन, जंगल। तिणु = तीला, घास का तीला।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे नाम के बिना (तुझसे) कुछ और माँगना भारी दुख सहने के तुल्य है; (हे प्रभु!) मुझे अपना नाम दे ता कि मुझे संतोख आ जाए और मेरे मन की तृष्णा समाप्त हो जाए।

हे नानक! जिस गुरु ने जंगल और (जंगल की सूखी) घास हरि कर दी, मनुष्य को हरा करना उसके लिए कौन सी बड़ी बात है?।2।

पउड़ी ॥ सो ऐसा दातारु मनहु न वीसरै ॥ घड़ी न मुहतु चसा तिसु बिनु ना सरै ॥ अंतरि बाहरि संगि किआ को लुकि करै ॥ जिसु पति रखै आपि सो भवजलु तरै ॥ भगतु गिआनी तपा जिसु किरपा करै ॥ सो पूरा परधानु जिस नो बलु धरै ॥ जिसहि जराए आपि सोई अजरु जरै ॥ तिस ही मिलिआ सचु मंत्रु गुर मनि धरै ॥३॥

पद्अर्थ: मनहु = मन से। मुहतु = 48 मिनटों जितना समय। चसा = पल का तीसवाँ हिस्सा। ना सरै = नहीं निभता। लुकि = छुप के। भवजलु = संसार समुंदर। परधानु = श्रेष्ठ मनुष्य। बलु धरै = आत्मिक ताकत दे। अजरु = मानसिक ताकत की वह अवस्था जिसको बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल है। जरै = जरता है, सहता है, संभालता है। मंत्रु गुर = गुरु का उपदेश। मनि = मन में। पूरा = सफल कमाई वाला। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा।

नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘स’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: ऐसी दातें देने वाला प्रभु मन से भूलना नहीं चाहिए, (क्योंकि) उसके बिना (उसको भुला के, जिंदगी की) घड़ी दो घड़ियाँ पल आदि (थोड़ा भी समय) आसान नहीं गुजरता। प्रभु जीव के (सदा) अंदर (बसता है,) उसके बाहर (चौगिर्दे भी) मौजूद है, कोई जीव कोई काम उससे लुका-छिपा के नहीं कर सकता।

वही मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघता है (संसार के विकारों से बचता है) जिसकी इज्जत की रक्षा प्रभु स्वयं करता है। वही भक्त है, वही ज्ञानवान है, वही तपस्वी है, जिस पर प्रभु मेहर करता है। जिसको (विकारों का मुकाबला करने के लिए) प्रभु (आत्मिक) ताकत बख्शता है, उसकी कमाई सफल हो जाती है, वह आदर पाता है। (वैसे मानसिक ताकत भी एक ऐसी अवस्था है जिसकी प्राप्ति पर संभलने की बहुत आवश्यक्ता होती है, आम तौर पर मनुष्य रिद्धियों-सिद्धियों की ओर पलट जाता है) इस डाँवाडोल करने वाली अवस्था में वही मनुष्य संभलता है, जिसको प्रभु स्वयं संभलने की सहायता दे।

जो मनुष्य गुरु का उपदेश हृदय में टिकाता है, उसको सदा-स्थिर प्रभु मिलता है।3।

सलोकु मः ५ ॥ धंनु सु राग सुरंगड़े आलापत सभ तिख जाइ ॥ धंनु सु जंत सुहावड़े जो गुरमुखि जपदे नाउ ॥ जिनी इक मनि इकु अराधिआ तिन सद बलिहारै जाउ ॥ तिन की धूड़ि हम बाछदे करमी पलै पाइ ॥ जो रते रंगि गोविद कै हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ आखा बिरथा जीअ की हरि सजणु मेलहु राइ ॥ गुरि पूरै मेलाइआ जनम मरण दुखु जाइ ॥ जन नानक पाइआ अगम रूपु अनत न काहू जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: सुरंगड़े = सुंदर। आलापत = अलापते हुए, उचारते हुए। तिख = तृष्णा, प्यास। बाछदे = चाहते हैं। करमी = (प्रभु की) मेहर से। पलै पाइ = पलै पाय, मिलती है। रंगि = प्यार में। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। गुरि = गुरु ने। जनम मरण दुखु = सारी उम्र का दुख। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगम रूपु = वह प्रभु जिसके स्वरूप की सही समझ नहीं पड़ सकती। अनत = किसी और जगह, अन्यत्र। राइ = राय, पातशाह।

अर्थ: वह सुंदर राग मुबारक हैं जिनके गाने से (मन की) तृष्णा नाश हो जाए, वे सुंदर जीव भाग्यशाली हैं जो गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम जपते हैं।

मैं उन लोगों से सदा सदके हूँ जो एक-मन हो के प्रभु को स्मरण करते हैं, हम (मैं) उनके चरणों की धूल चाहते हैं (चाहता हूँ), पर ये धूल प्रभु की मेहर से मिलती है।

जो मनुष्य परमात्मा के प्यार में रंगे हुए हैं, मैं उनसे कुर्बान हूँ मैं उनके आगे दिल का दुख बताता हूँ (और कहता हूँ कि) मुझे प्यारा प्रभु पातशाह मिलाओ।

जिस मनुष्य को पूरे सतिगुरु ने प्रभु मिला दिया उसका सारी उम्र का दुख-कष्ट मिट जाता है, और, हे नानक! उस मनुष्य को अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु मिल जाता है और वह किसी और तरफ नहीं भटकता।1।

मः ५ ॥ धंनु सु वेला घड़ी धंनु धनु मूरतु पलु सारु ॥ धंनु सु दिनसु संजोगड़ा जितु डिठा गुर दरसारु ॥ मन कीआ इछा पूरीआ हरि पाइआ अगम अपारु ॥ हउमै तुटा मोहड़ा इकु सचु नामु आधारु ॥ जनु नानकु लगा सेव हरि उधरिआ सगल संसारु ॥२॥

पद्अर्थ: मूरतु = महूरत। सारु = श्रेष्ठ। संजोगड़ा = सुंदर संजोग। जितु = जिस में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारु = बेअंत, जिसका परला छोर ना मिल सके। मोहड़ा = चंदरा मोह। आधारु = आसरा। सेव हरि = हरि की सेवा में। उधरिआ = (विकारों से) बच जाता है। सगल = सारा। सचु = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: वह वक्त वह घड़ी भाग्यशाली हैं, वह महूरत मुबारक है, वह पल सोहाना है, वह दिन और वह संजोग मुबारक हैं जब सतिगुरु के दर्शन होते हैं। (सतिगुरु के दीदार की इनायत से) मन की सारी तमन्नाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, मन वासना-रहित हो जाता है) और अगम-बेअंत प्रभु मिल जाता है, अहंम् नाश हो जाता है, मोह समाप्त हो जाता है और प्रभु का सदा कायम रहने वाला नाम ही (जीवन का) आसरा बन जाता है।

दास नानक भी (गुरु के दीदार की इनायत से ही) प्रभु के सिमरान में लगा है (जिस स्मरण के सदका) सारा जगत (विकार आदि से) बच जाता है।2।

पउड़ी ॥ सिफति सलाहणु भगति विरले दितीअनु ॥ सउपे जिसु भंडार फिरि पुछ न लीतीअनु ॥ जिस नो लगा रंगु से रंगि रतिआ ॥ ओना इको नामु अधारु इका उन भतिआ ॥ ओना पिछै जगु भुंचै भोगई ॥ ओना पिआरा रबु ओनाहा जोगई ॥ जिसु मिलिआ गुरु आइ तिनि प्रभु जाणिआ ॥ हउ बलिहारी तिन जि खसमै भाणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: दितीअनु = उस (प्रभु) ने दी है। भंडार = महिमा के खजाने। पुछ = किए कर्मों का लेखा। लीतीअनु = उस (प्रभु) ने ली। रंगि = (प्यार के) रंग में। अधारु = आसरा। भतिआ = भक्ता, खुराक (आत्मिक)। भुंचै = (महिमा की खुराक) खाता है। ओनाहा जोगई = उन (महिमा करने वालों) के वश में हो जाता है। आइ = आ के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। खसमै = पति प्रभु को।

अर्थ: महिमा और भक्ति (की दाति) उस (प्रभु) ने किसी विरले (भाग्यशाली) को दी है। जिस (मनुष्य) को उसने (महिमा के) खजाने सौंपे हैं; उससे फिर किए कर्मों का लेखा नहीं मांगा, क्योंकि जिस-जिस मनुष्य को (महिमा से) इश्क-मुहब्बत हो गई, वह उसी रंग में (सदा के लिए) रंगे गए, प्रभु की याद ही उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है यही एक नाम उनकी (आत्मिक) खुराक हो जाता है।

ऐसे लोगों के पद्चिन्हों पर चल के (सारा) जगत (महिमा की) खुराक खाता है भोगता है। उन्हें ईश्वर (इतना) प्यारा लगता है कि ईश्वर उनके प्यार के वश में हो जाता है।

पर प्रभु से (सिर्फ) उस मनुष्य ने जान-पहचान बनाई है जिसे गुरु आ के मिल गया है।

मैं सदके हूँ उन (सौभाग्यशाली) लोगों पर से जो पति-प्रभु को भा गए हैं।4।

सलोक मः ५ ॥ हरि इकसै नालि मै दोसती हरि इकसै नालि मै रंगु ॥ हरि इको मेरा सजणो हरि इकसै नालि मै संगु ॥ हरि इकसै नालि मै गोसटे मुहु मैला करै न भंगु ॥ जाणै बिरथा जीअ की कदे न मोड़ै रंगु ॥ हरि इको मेरा मसलती भंनण घड़न समरथु ॥ हरि इको मेरा दातारु है सिरि दातिआ जग हथु ॥ हरि इकसै दी मै टेक है जो सिरि सभना समरथु ॥ सतिगुरि संतु मिलाइआ मसतकि धरि कै हथु ॥ वडा साहिबु गुरू मिलाइआ जिनि तारिआ सगल जगतु ॥ मन कीआ इछा पूरीआ पाइआ धुरि संजोग ॥ नानक पाइआ सचु नामु सद ही भोगे भोग ॥१॥

पद्अर्थ: रंगु = प्यार। संगु = साथ। मै = मेरा। गोसटि = उठना बैठना, मेल जोल। भंगु = (माथे की) त्योड़ी, टूटना। बिरथा = पीड़ा। मसलति = सलाहकार। सिरि = सिर पर। सतिगुरि = गुरु ने। संतु = शांति का श्रोत परमात्मा। मसतकि = माथे पर। जिनि = जिस (हरि) ने। धुरि = धुर से।

अर्थ: मेरी एक प्रभु के साथ ही मित्रता है, सिर्फ प्रभु से ही मेरा प्यार है, केवल प्रभु ही मेरा सच्चा मित्र है एक प्रभु से ही मेरा सच्चा साथ है, और केवल प्रभु से ही मेरा मेल-जोल है, (क्योंकि) वह प्रभु कभी मुँह मोटा नहीं करता, कभी माथे पर त्योड़ी नहीं डालता, मेरे दिल की वेदना को समझता है, वह कभी मेरे प्यार को धक्का नहीं देता।

(सब जीवों को) पैदा करने वाला और मारने की ताकत रखने वाला एक परमात्मा ही मेरा सलाहकार है; जगत के सब दानियों के सिर पर जिस प्रभु का हाथ है केवल वही मुझे दातें देने वाला है।

जो परमात्मा सब जीवों के सिर पर बली है मुझे केवल उसी का आसरा है, वह शांति का श्रोत परमात्मा सतिगुरु ने मेरे माथे पर हाथ रख के मुझे मिलाया है, वह बड़ा मालिक जिसने सारे संसार का उद्धार किया है (भाव, जो सारे संसार के उद्धार में समर्थ है) मुझे गुरु ने मिलाया है।

हे नानक! जिसको धुर से ये भाग्य बनता है उसको प्रभु का सदा-स्थिर रहने वाला नाम मिलता है, उसके मन की सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, वह वासना-रहित हो जाता है) और वह सदा ही आनंद पाता है (सदा ही खिला रहता है)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh