श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ ॥ खरचे दिति खसम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ॥

पद्अर्थ: गुर सबदि = सतिगुरु के शब्द से। आवी = आती। हरि तोटि...खटीऐ = हरि खटीऐ तोटि न आवी, हरि नाम की कमाई में घाटा नहीं पड़ता; भाव, बाबा लहणा जी के दर पर सतिगुरु जी के शब्द द्वारा नाम का भण्डारा बाँट रहा है, (इतना बँटने पर भी) बाबा लहणा जी की नाम की कमाई में कोई घाटा नहीं पड़ता। खरचे = खर्च रहा है, बाँट रहा है। दिति खसंम दी = पति (अकाल-पुरख) की (बख्शी हुई) दाति। आप खहदी = (नाम की दाति) आप बरती। खैरि = खैर में, दान में। दबटीऐ = दबा दब बाँटी, दिल खोल के बाँटी।

अर्थ: (बाबा लहिणा जी) अकाल-पुरख की दी हुई नाम-दाति बाँट रहे हैं, खुद भी इस्तेमाल करते हैं और (और लोगों को भी) दिल खोल के दान कर रहे हैं, (गुरु नानक की दुकान में) गुरु के शब्द के द्वारा (नाम का) लंगर चल रहा है, (पर बाबा लहणा जी की) नाम-कमाई में कोई घाटा नहीं पड़ता।

होवै सिफति खसम दी नूरु अरसहु कुरसहु झटीऐ ॥ तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ॥

पद्अर्थ: नूरु = प्रकाश। अरस = अर्श, आसमान, आकाश। कुरस = सूरज चाँद की टिक्की। अरसहु कुरसहु = आत्मिक मण्डल से, रुहानी देश से। झटीऐ = झटा जा रहा है, झड़ रहा है, दबा दबा सींचा जा रहा है। सचे पातसाह = हे सच्चे सतिगुरु अंगद देव जी! जनम जनम दी = कई जन्मों की।

अर्थ: (गुरु अंगद साहिब जी के दरबार में) मालिक अकाल-पुरख की महिमा हो रही है, रूहानी देशों से (उसके दर पर) नूर झड़ रहा है। हे सच्चे सतिगुरु (अंगद देव जी)! तेरा दीदार करने से कई जन्मों की (विकारों की) मैल काटी जा रही है।

सचु जि गुरि फुरमाइआ किउ एदू बोलहु हटीऐ ॥ पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्ह मुरटीऐ ॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु (नानक) ने। एदू = इससे। एदू बोलहु = इस बोल से, सतिगुरु नानक के फरमाए हुए बोल से। किउ हटीऐ = कैसे हटा जा सके? भाव, हे गुरु अंगद साहिब जी! आपने गुरु नानक के फरमाए हुए हुक्म के मानने से ना नहीं की। पुत्री = पुत्रों ने। कउलु = वचन, हुक्म। न पालिओ = नहीं माना। कंन्ह = कंधे। करि कंन्ह = कंधा करके, मुँह मोड़ के, पीठ करके। पीरहु = पीर से, सतिगुरु द्वारा। मुरटीऐ = मोड़ते रहे।

अर्थ: (हे गुरु अंगद साहिब जी!) गुरु (नानक साहिब) ने जो भी हुक्म किया, आप ने सत्य (करके माना, और आप ने) उसे मानने से ना नहीं की; (सतिगुरु जी के) पुत्रों ने वचन नहीं माना, वे गुरु की ओर पीठ दे के ही (हुक्म) मोड़ते रहे।

दिलि खोटै आकी फिरन्हि बंन्हि भारु उचाइन्हि छटीऐ ॥ जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ॥ कउणु हारे किनि उवटीऐ ॥२॥

पद्अर्थ: दिलि खोटै = खोटा दिल होने के कारण। आकी फिरन्हि = (जो) आकी फिरते हैं। बंन्हि = बाँध के। उचाइन्हि = उठाते हैं, सहते हैं। भारु छटीऐ = थैली का भार।

नोट: शब्द ‘फिरनि्’, बंनि् और ‘उचाइनि्’ के अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है।

जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। आखी = (हुक्म मानने की शिक्षा) बताई। सोई = (वह गुरु) खुद ही। करे = (हुक्म में चलने की कार) कर रहा है। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। कीती = (ये रजा में चलने वाली खेल) रचाई। तिनै = उसने खुद ही। थटीऐ = (बाबा लहिणा जी को) थापा, स्थापित किया, हुक्म मानने के समर्थ बनाया। कउणु हारे = (हुक्म में चलने की बाजी) कौन हारा? किनि = किस ने? उवटीऐ = कमाया, बाजी जीती, लाभ कमाया। कउणु हारे किनि उवटीऐ = कौन (इस हुक्म-खेल) में हारा, और किस ने (लाभ) कमाया? भाव, (अपनी समर्थता से, इस हूकम = खेल में) ना कोई हारने वाला है ना ही कोई जीतने योग्य है।

अर्थ: जो लोग खोटा दिल होने के कारण (गुरु से) आकी हुए फिरते हैं, वे लोग (दुनिया के धंधों की) थैली का भार बाँध के उठाए फिरते हैं। (पर, जीवों के क्या वश है? अपनी सार्मथ्य के सहारे, इस हुक्म-खेल में) ना कोई हारने वाला है और ना ही कोई जीतने-योग्य है। जिस गुरु नानक ने ये रजा-मानने का हुक्म फरमाया, वह खुद ही कार करने वाला था, जिसने यह (हुक्म-खेल) रची, उसने खुद ही बाबा लहिणा जी को (हुक्म मानने के) समर्थ बनाया।2।

जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ॥ धरम राइ है देवता लै गला करे दलाली ॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु अंगद देव जी) ने। कीती = (गुरु का हुक्म मानने की मेहनत) की। मंनणा = मानने योग्य, आदर योग्य। को = कौन, और कौन? सालु = सार, श्रेष्ठ, अच्छा। जिवाहे = जिवाहां (जिवांह बेट के इलाके में वहाँ उगती है जहाँ नदी की बाढ़ से मलबा इकट्ठा हो के जगह ऊँची हो जाती है। बरखा ऋतु में सड़ जाती है। पोहली की तरह जिवांह में काँटे होते हैं)। साली = शाली, मूँजी जो नीची जगह ही उगती है और पल सकती है। लै गला = बातें सुन के, आर्जूएं सुन के। दलाली = विचोला पन।

अर्थ: जिस (गुरु अंगद देव जी) ने (विनम्रता में रह के सतिगुरु का हुक्म मानने की मेहनत कमाई) की, वह मानने योग्य (पूज्य) हो गया। (दोनों में से) श्रेष्ठ कौन है; जिवांह कि मूंजी? (मूंजी ही अच्छी है, जो नीची जगह पलती है। इसी तरह जो विनम्रता से हुक्म मानता है वह आदर पा लेता है)। गुरु अंगद साहिब धरम का राजा हो गया है, धरम का देवता हो गया है, जीवों की आरजूएं सुन के परमात्मा के साथ जोड़ने वाला बिचौला-पन कर रहा है।

सतिगुरु आखै सचा करे सा बात होवै दरहाली ॥ गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ॥

पद्अर्थ: सचा = अकाल पुरख। करे = इस्तेमाल में लाता है। सा = वही। दरहाली = तुरंत, उसी वक्त। दोही फिरी = महिमा की धूम पड़ गई। करतै = कर्तार ने। बंधि = बाँध के, पक्की करके। बहाली = टिका दिया, कायम कर दी।

अर्थ: (अब) सतिगुरु (अंगद देव) जो वचन बोलते हैं अकाल-पुरख वही करता है, वही बात तुरंत हो जाती है। गुरु अंगद देव (जी की) महिमा की धूम पड़ गई है, सच्चे कर्तार ने पक्की करके कायम कर दी है।

नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ॥ दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होइ जंगाली ॥ दरि दरवेसु खसम दै नाइ सचै बाणी लाली ॥

पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। पलटु करि = बदल के। मलि तखतु = गद्दी संभाल के। सै डाली = सैकड़ों डालियों वाला, सैकड़ों सिखों वाला। उमति = संगति। खड़ी = खड़ी हुई, सावधान हो के, प्रेम से।

दरु सेवे = दरवाजे पर सेवा करती है, दर पर बैठी है। मसकलै = मसकले से। होइ जंगाली = जंग वाली धात (साफ) हो जाती है। दरि = (गुरु नानक के) दर पर। दरवेसु = नाम की दाति का सवाली। खसंम दै नाइ सचै = मालिक के सच्चे नाम के द्वारा, मालिक का सच्चा नाम जपने की इनायत से। बाणी = बनी हुई है।

अर्थ: सैकड़ों सेवकों वाला गुरु नानक शरीर बदल के (भाव, गुरु अंगद देव जी के स्वरूप में) गद्दी संभाल के बैठा हुआ है (गुरु अंगद देव जी के अंदर गुरु नानक साहिब वाली ही ज्योति है, केवल शरीर बदला है)। संगति (गुरु अंगद देव जी के) दर (पर आ कर) प्रेम से सेवा कर रही है (और अपनी आत्मा को पवित्र कर रही है, जैसे) जंग लगी हुई धातु (लोहा) मसकले से (साफ) हो जाती है। (गुरु नानक के) दर पर (गुरु अंगद) नाम की दाति का सवाली है। अकाल-पुरख का सच्चा नाम जपने की इनायत से (गुरु अंगद साहिब के मुँह पर) लाली बनी हुई है।

बलवंड खीवी नेक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ॥ लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अम्रितु खीरि घिआली ॥ गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ॥

पद्अर्थ: बलवंड = हे बलवंड! खीवी = गुरु अंगद जी की पत्नी (माता) खीवी। जिसु = जिस (माता खीवी जी) की। पत्राली = पत्रों वाली, सघन। लंगरि = लंगर में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। घिआली = घी वाली। पराली = मुंजी का अथवा धान का पौधा जिससे दाने झाड़े जा चुके होते हैं, पौधे का रंग पीला हो गया होता है; पीले मुँह वाले, शर्मिंदे।

अर्थ: हे बलवंड! (गुरु अंगद देव जी की पत्नी) (माता) खीवी जी (भी अपने पति की तरह) बड़े भले हैं, माता खीवी जी की छाया बहुत पुत्रों वाली (सघन) है (भाव, माता खीवी जी के पास बैठने से भी हृदय में शांति पैदा होती है)। (जैसे गुरु अंगद देव जी के सत्संग-रूप) लंगर में (नाम की) दौलत बाँटी जा रही है, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बाँटा जा रहा है (वैसे ही माता खीवी जी की सेवा सदका लंगर में सबको) घी वाली खीर बाँटी जा रही है।

(गुरु अंगद देव जी के दर पर आकर) गुरसिखों के माथे खिले हुए हैं, पर गुरु की ओर से बेमुखों के मुँह (ईष्या के कारण) पीले पड़ते हैं।

नोट: इस ‘वार’ के आरम्भ में लिखा है कि ये ‘वार’ ‘राय बलवंड’ और ‘सते डूंम’ ने उचारी थी। इस पउड़ी नं: 3 में शब्द ‘बलवंड’ से ये साबित होता है कि ये पहली 3 पौड़ियाँ ‘बलवंड’ की उचारी हुई हैं।

पए कबूलु खसम नालि जां घाल मरदी घाली ॥ माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ॥३॥

पद्अर्थ: पए कबूलु = (गुरु अंगद देव जी) स्वीकार हुए। खसंम नालि = अपने सतिगुरु (गुरु नानक देव जी) से। मरदी धाल = मर्दों वाली मेहनत। सहु = पति। सोइ = सोय, वह। जिनि = जिस ने। गोइ = गोय, धरती।

अर्थ: माता खीवी जी का वह पति (गुरु अंगद देव ऐसा था) जिस ने (सारी) धरती (का भार) उठाया हुआ था। जब (गुरु अंगद देव जी ने) मर्दों वाली मेहनत कमाई की तो वह अपने सतिगुरु (गुरु नानक) के दर पर स्वीकार हुए।3।

होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ॥ नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ॥

पद्अर्थ: होरिंओ = होर+पासियों, और तरफ से। वहाईऐ = वहाई है, चलाई है। दुनिआई = लोकाई, दुनिया के लोग। कि = क्या? किओनु = कीआ+उनि, किया है उसने। ईसरि = ईश्वर ने, मालिक ने, गुरु ने। जगनाथि = जगन्नाथ ने, जगत के नाथ ने। उचहदी = हद से ऊँचा। वैणु = वयण, बयन, वचन। विरिकिओनु = विरकिआ है उसने, बोला है उसने।

अर्थ: दुनिया कहती है जगत के नाथ गुरु नानक ने हद से ऊँचा वचन बोला है उसने और ही तरफ से गंगा चला दी है। ये उसने क्या किया है?

माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ॥ चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलकिओनु ॥

पद्अर्थ: परबतु = सुमेर पर्वत (भाव, ऊँची सोच, ध्यान। पौराणिक कथा अनुसार जैसे देवताओं ने क्षीर समुंदर को मथने के लिए सुमेर पर्वत को मथानी बनाया, वैसे ही गुरु नानक देव जी ने ऊँची सूझ को मधाणी बनाया)। बासकु = संस्कृत (बासुकि) साँपों का राजा। नेत्रि = नेत्रे में, मथने वाला रस्सा। करि नेत्रि बासकु = बासक नाग को नेत्रे में करके (भाव, मन-रूप साँप का नेत्रा बना के, मन को काबू करके)। निकालिअनु = निकाले उस (गुरु नानक) ने। आवागउणु = संसार। चिलकिओनु = चिलकाया उसने, चमकाया उसने, सुख रूप बना दिया उस (गुरु नानक) ने।

अर्थ: उस (गुरु नानक) ने ऊँची सूझ को मधाणी बना के, (मन रूप) बासक नाग को नेत्रे में डाल के (भाव, मन को काबू करके) ‘शब्द’ में मथा (भाव, ‘शब्द’ को विचारा; इस तरह) उस (गुरु नानक) ने (इस ‘शब्द’ समुंदर में से ‘रूहानी-गुण’ ईश्वरीय गुणों रूपी) चौदह रतन (जैसे समुंदर में से देवताओं ने चौदह रतन निकाले थे) निकाले और (ये उद्यम करके) संसार को सुंदर बना दिया।

कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ॥ लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ॥

पद्अर्थ: कुदरति = समर्थता, ताकत। अहि = ऐसी। वेखालीअनु = दिखाई उस (नानक) ने। जिणि = जीत के, (बाबा लहिणा जी के मन को जीत के)। ऐवड = इतना बड़ा। पिड = पिंड, शरीर। ऐवड पिड = इतनी ऊँची आत्मा। ठिणकिओनु = ठणकाया उसने, जैसे नया बर्तन लेने के वक्त ठनका के देखते हैं, परखा उस गुरु नानक ने। लहणे सिरि = लहणे के सिर पर। धरिओनु = धरा उसने। असमानि = आसमान तक। किआड़ा = गर्दन। छिकिओनु = खींचा उसने।

अर्थ: उस (गुरु नानक) ने ऐसी समर्थता दिखाई कि (पहले बाबा लहिणा जी का मन) जीत के इतनी उच्च आत्मा को परखा, (फिर) बाबा लहिणा जी के सिर पर (गुरु-गद्दी का) छत्र धरा और (उनकी) शोभा आसमान तक पहुँचाई।

जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ॥ सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जि किओनु ॥ जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ॥४॥

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपै सेती = अपने ‘आपे’ से। मिकिओनु = मिका उस (गुरु नानक) ने, बराबर किया उस (गुरु नानक) ने।

(नोट: कबड्डी आदि खेल खेलने के वक्त एक समान ताकत और कद वाले मड़के पहले ‘मिक के’ आते हैं, दो बराबर के लड़के आते हैं जिनको दोनों तरफ की ओर चुना जाता है)।

घोखि कै = परख के।

(नोट: पुरानी पंजाबी के ‘कै’ की जगह आजकल हम ‘के’ का प्रयोग करते हैं)।

उमति = संगति। जि = जो कुछ। किओनु = किया उस (गुरु नानक) ने। सुधोसु = शोध किया उसको, सुधारा उसको। टिकिओनु = टिकाया उसने, चुना उस (गुरु नानक) ने।

अर्थ: (गुरु नानक साहिब दी) आत्मा (बाबा लहिणा जी की) आत्मा में इस तरह मिल गई कि गुरु नानक ने अपने आप को अपने ‘आपे’ (बाबा लहिणा जी) के साथ साथ एक-मेक कर लिया। हे सारी संगति! देखो, जो उस (गुरु नानक) ने किया, अपने सिखों और पुत्रों को परख के जब उसने सुधाई की तब उसने (अपनी जगह के वास्ते बाबा) लहणा (जी को) चुना।4।

फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥ जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ॥

पद्अर्थ: खाडूरु वसाइआ = नगर खडूर में रौनक बढ़ाई। फेरुआणि सतिगुरि = (बाबा) फेरू के पुत्र सतिगुरु ने। होरु = और संसार। मुचु = बहुत। गरूरु = अहंकार। फेरि = इसके बाद।

अर्थ: फिर (जब बाबा लहिणा जी को गुरुता मिली तब) बाबा फेरू जी के पुत्र सतिगुरु ने खडूर की रौनक बढ़ाई (भाव, करतारपुर से खडूर आ के टिके)। (हे सतिगुरु!) और जगत तो बहुत अहंकार करता है, पर तेरे पास जप-तप-संजम (आदि की इनायत होने के कारण तू पहले की ही तरह गरीबी स्वभाव में ही) रहा।

लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ॥ वर्हिऐ दरगह गुरू की कुदरती नूरु ॥ जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ॥ नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ॥

पद्अर्थ: विणाहे = विनाशे, नाश करता है। वर्हिऐ = बरसने के कारण, बरखा होने के कारण। कुदरती = रूहानी, प्राकृतिक रूप में। जितु = जिस में। हाथ = गहराई का अंत। ठरूरु = ठंडा हुआ जल, शीतल समुंदर। नउनिधि = नौ खजाने। निधानु = खजाना। भरपूरु = नाको नाक भरा हुआ।

अर्थ: जैसे पानी को बूर खराब करता है वैसे ही मनुष्यों को लोभ तबाह करता है, (पर) गुरु (नानक) की दरगाह में (‘नाम’ की) बरखा होने के कारण (हे गुरु अंगद! तेरे ऊपर) ईश्वरीय नूर (छलकें मार रहा) है। तू वह शीतल समुंदर है जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती। जो (जगत के) नौ ही खजाने-रूप प्रभु का नाम-खजाना है, (हे गुरु!) (वह खजाना) तेरे हृदय में नाको-नाक भरा हुआ है।

निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ॥ नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ॥ फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥५॥

पद्अर्थ: वंञै चूरु = चूर हो जाता है। नेड़ै = नजदीक के पदार्थ।

अर्थ: (हे गुरु अंगद!) जो मनुष्य तेरी निंदा करे वह (स्वयं ही) तबाह हो जाता है (वह खुद ही अपनी आत्मिक मौत सहेड़ लेता है); सांसारिक जीवों को तो नजदीक के ही पदार्थ दिखाई देते हैं (वे दुनियां की खातिर निंदा का पाप कर बैठते हैं, इसका नतीजा नहीं जानते, पर हे गुरु!) तूझे आगे घटित होने वाले हाल का भी पता होता है। (हे भाई!) फिर बाबा फेरू जी के पुत्र सतिगुरु (अंगद देव जी) ने खडूर को भाग्य लगाए।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh