श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ॥ जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेही ताणु ॥ जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ॥ चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ॥

पद्अर्थ: टिका = टीका, माथे का नूर। बैहणा = तख्त। दीबाणु = दीवान, दरबार। पियू जेविहा = पिता (गुरु अंगद देव जी) जैसा। दादे जेविहा = दादे (गुरु नानक) जैसा। परवाणु = स्वीकार, मानने योग्य। जिनि = जिस (पौत्र गुरु) ने। नेही = नेहणा। बासकु = टेढ़ा मन रूपी नाग। ताणु = आत्मिक बल। विरोलिआ = मथा, बिलौना। मेरु = सुमेर पर्वत, ऊँची रुचि, ध्यान। कीतोनु = किया उसने।

अर्थ: पौत्र-गुरु (गुरु अमरदास भी) जाना-माना हुआ (गुरु) है (क्योंकि वह भी) गुरु नानक और गुरु अंगद जैसा ही है; (इसके माथे पर भी) वही नूर है, (इसका भी) वही तख़्त है, वही दरबार है (जो गुरु नानक और गुरु अंगद साहिब का था)।

इस गुरु अमरदास जी ने भी आत्मिक बल को नेहणी बना के (मन-रूप) नाग को नेत्रे डाला है, (ऊँची सूझ रूप) सुमेर पर्वत को मथानी बना के (गुरु-शब्द रूप) समुंदर में बिलोया है (मथा है), (उस ‘शब्द-समुंदर’ में से ईश्वरीय-गुण रूप) चौदह रतन निकाले (जिनसे) उसने (जग्रत में आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश पैदा किया।

घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ॥ धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ॥ कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ॥ सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ॥

पद्अर्थ: सहज = अडोल अवस्था। जतु = इन्द्रियों को विकारों की तरफ से रोकने की ताकत। पलाणु = काठी। धणखु = धनुष, कमान। सत = सत्य आचरण, सदाचार। जस हंदा = (परमात्मा की) महिमा का। कलि = कष्ट भरा संसार। धू अंधारु = घुप अंधेरा। रै = (रय) किरणें। भाणु = भानु, सूरज। सतहु = ‘सत्य’ से, सच्चे आचरण के बल से। छावाणु = छाया, रक्षा। सा = था। बाणु = तीर।

अर्थ: (गुरु अमरदास ने) सहज-अवस्था को घोड़ा बनाया, विकारों से इन्द्रियों को रोक के रखने की ताकत को काठी बनाया; सच्चे आचरण की कमान कसी और परमात्मा की महिमा का तीर (पकड़ा, चलाया)।

संसार में (विकारों का) घोर अंधकार था। (गुरु अमरदास, जैसे) किरणों से भरा हुआ सूरज चढ़ आया, जिसने ‘सत’ के बल से ही (उजड़ी हुई) खेती जमाई (हरि भरी कर दी) और ‘सत’ से ही उसकी रक्षा की।

नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ॥ चारे कुंडां सुझीओसु मन महि सबदु परवाणु ॥ आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ॥

पद्अर्थ: खाणु = खण्ड, शक्कर। सुझीओसु = उसे सूझीं। नीसाणु = निशान, परवाना, राहदारी।

अर्थ: (हे गुरु अमरदास!) तेरे लंगर में (भी) नित्य घी, मैदा और खण्ड (आदि उत्तम पदार्थ) प्रयोग हो रहे हैं जिस मनुष्य ने अपने मन में तेरा शब्द टिका लिया है उसको चहु कुंटों (चारों कोनों) की सूझ आ गई है। (हे गुरु!) जिसको तूने मेहर की नजर करके (शब्द रूप) राह-दारी बख्शी है उसके पैदा होने-मरने के चक्कर तूने समाप्त कर दिए हैं।

अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ॥ झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ॥ जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ॥

पद्अर्थ: अउतरिआ = पैदा हुआ है। पुरखु सुजाणु = सुजान अकाल पुसख। झखड़ि = तूफान में, धूल भरी आंधी तूफान। मेराणु = सुमेर। बिरथा जीअ की = दिल की पीड़ा।

अर्थ: वह अकाल पुरख (स्वयं गुरु अमरदास के रूप में) अवतार ले के जगत में आया है। (गुरु अमरदास विकारों के) तूफान में नहीं डोलता, (विकारों की) अंधेरी भी झूल जाए तब भी नहीं डोलता, वह तो (जैसे) सुमेर पर्वत है; जीवों के दिल की पीड़ा जानता है, (दिलों की जानने वाला) जानी-जान है।

किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ॥ दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ॥

पद्अर्थ: सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। सुजाणु = सुजान, सयाना। दानु = बख्शिश। सतिगुर भावसी = गुरु को अच्छी लगे। सो सते दाणु = (मुझे) सते को तेरी वह बख्शिश (अच्छी) है।

अर्थ: हे सदा-स्थिर राज वाले पातशाह! मैं तेरी क्या महिमा करूँ? तू सुंदर आत्मा वाला समझदार है। मुझ सते को तेरी वही बख्शिश अच्छी है जो (तुझे) सतिगुरु को अच्छी लगती है।

नानक हंदा छत्रु सिरि उमति हैराणु ॥ सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोत्रा परवाणु ॥६॥

पद्अर्थ: हंदा = संदा, का। सिरि = सिर पर। उमति = संगीत।

अर्थ: (गुरु अमरदास जी के) सिर पर गुरु नानक देव जी वाला छत्र संगति (देख के) आश्चर्य-चकित हो रही है। पौत्र-गुरु (गुरु अमरदास भी) जाने-माने गुरु हैं (क्योंकि वह भी) गुरु नानक और गुरु अंगद साहिब जैसे ही हैं, (इनके माथे पर भी) वही नूर है, (इनका भी) वही तख्त है, वही दरबार है (जो गुरु नानक और गुरु अंगद साहिब का था)।6।

धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ॥ पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ॥ सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ ॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरिआ = पैदा किया। सिखी = सिखीं, सिखों ने। अतै = और।

अर्थ: गुरु रामदास जी धन्य हैं धन्य हैं! जिस अकाल-पुरख ने (गुरु रामदास को) पैदा किया उसने उन्हें सुंदर भी बनाया। ये एक मुकम्मल करामात हुई है कि विधाता ने स्वयं (अपने आप को उसमें) टिकाया है। सब सिखों ने और संगतों ने उनको अकाल-पुरख का रूप जान के (उनकी) बँदना की है।

अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ॥ जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ॥ लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ॥

पद्अर्थ: अथाहु = जिसकी थाह ना पाई जा सके, बड़ा गंभीर। पारावारिआ = पार+अवार, इस पार उस पार। तू = तूने। भाउ = प्रेम। तुधु = तू। सपरवारिआ = (बाकी विकारों = रूप) परिवार समेत। पैसकारिआ = पेशकारी किसी बड़े आदमी के आने पर जो रौनक उसके स्वागत के लिए की जाती है, संगति रूप पसारा।

अर्थ: (हे गुरु रामदास!) तू सदा कायम रहने वाला है, तू तोला नहीं जा सकता (भाव, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते; तू एक ऐसा समुंदर है जिसकी) थाह नहीं पाई जा सकती, इस पार उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता। जिस लोगों ने प्यार से तेरा हुक्म माना है तूने उनको (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया है। उनके अंदर से तूने लालच, लोभ, काम, क्रोध, मोह व अन्य सारे विकार मार के निकाल दिए हैं।

(हे गुरु रामदास!) मैं सदके हूँ उस जगह पर से, जहाँ तू बसा। तेरी संगति सदा अटल है।

नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ॥ गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ॥७॥

पद्अर्थ: वीचारिआ = मैंने समझा है। साधारिआ = टिकाने आया, ठहराव, सहज में आ गया। तू = तुझे।

अर्थ: (हे गुरु रामदास जी!) तू ही गुरु नानक है, तू ही बाबा लहणा है, मैंने तुझे ही गुरु अमरदास समझा है।

(जिस किसी ने) गुरु (रामदास) का दीदार किया है उसी का मन तब से ठहराव में आ गया है।7।

चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥ आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थम्हि खलोआ ॥ आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ ॥ सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ॥

पद्अर्थ: चारे = चारे (पहले गुरु)। चहु जुगी = अपने चारों जामों में। जागे = प्रकट हुए, रौशन हुए।

पंचाइणु = (पंच अयन, पाँचों का घर, पाँच तत्वों का श्रोत) अकाल पुरख; जैसे:

माणकु मनु महि मनु मारसी, सचि न लागै कतु॥ राजा तखति टिकै गुणी, भै पंचाइण रतु॥१॥ मारू महला १   (पन्ना 992)

भै पंचाइण = पंचायण के डर से, परमात्मा के डर में।

और

तसकर मारि वसी पंचाइणि, अदलु करे वीचारे॥ नानक राम नामि निसतारा गुरमति मिलहि पिआरे॥२॥१॥३॥ सूही छंतु म: १ घरु ३

पंचाइणि = पंचाइण में, परमात्मा में।

आपीनै = आप ही ने, प्रभु ने स्वयं ही। आपु = अपने आप को। साजिओनु = उसने प्रकट किया (सृष्टि के रूप में)। थंम्हि = थंम के, सहारा दे के। लिखणहारा = लिखने वाला, पद्चिन्ह डालने वाला, मार्गदर्शक। उमति = सृष्टि। निरोआ = निर+रोग, रोग रहित।

अर्थ: चारों गुरु (साहिबान) अपने-अपने समय में रौशन हुए हैं, अकाल-पुरख स्वयं ही (उनमें) प्रकट हुआ। अकाल-पुरख ने अपने आप ही अपने आप को (सृष्टि के रूप में) जाहिर किया और खुद ही (गुरु रूप हो के) सृष्टि को सहारा दे रहा है। (जीवों की अगुवाई के लिए, मार्ग दर्शन के लिए) प्रभु स्वयं ही तख्ती (स्लेट) है और खुद ही कलम है और (गुरु रूप हो के) खुद ही मार्ग दशर्न लिखने वाला है। सारी सृष्टि तो जनम-मरण के चक्कर में है, पर प्रभु स्वयं (सच्चा) नया है और निरोया (निरोग) है (भाव, हर नए रंग में है और निर्लिप भी है)।

तखति बैठा अरजन गुरू सतिगुर का खिवै चंदोआ ॥ उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ॥

पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। खिवै = चमकता है (संस्कृत: क्षिभ् चमकता)। तै = और। उगवणहु = सूरज उगने से। आथवणहु = सूरज डूबने से। चहु चकी = चहुँ कुंटों में। कीअनु = किया है उसने। लोआ = लौअ, प्रकाश।

अर्थ: (उस नए-निरोए सतिगुरु के बख्शे) तख्त के ऊपर (जिस पर चारों गुरु अपने-अपने समय में रौशन हुए हैं, अब) गुरु अरजन बैठे हुए हैं, सतिगुरु का चंदोआ चमक रहा है (भाव, सतिगुरु अरजन साहिब का तेज-प्रताप हर तरफ पसर रहा है)। सूरज के उगने से (डूबने तक) और डूबने से (चढ़ने तक) चहुँ कुंटों में इस (गुरु अरजन देव जी) ने रौशनी कर दी है।

जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ॥ दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ॥ चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥८॥१॥

पद्अर्थ: मुोआ = मरी (यहाँ पढ़ना है = ‘मोआ’, असल शब्द है ‘मुआ’)। करामाति = करामात, बड़ाई, प्रतिभा। ढोआ = सौगात, तोहफा। चउणी = चार गुनी।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले जिस लोगों ने गुरु का हुक्म ना माना वे मर गए (भाव, वे आत्मिक मौत मर गए)। गुरु अरजन की (दिन-) दुगनी और रात चौगुनी प्रतिभा बढ़ रही है; (सृष्टि को) गुरु, सच्चे प्रभु की सच्ची सौगात है।

चारों गुरु अपने-अपने समय में प्रकाशमान हुए, अकाल-पुरख (उनमें) प्रकट हुआ।8।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh