श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥ त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥

पद्अर्थ: कलालनि = वह मटकी जिसमें गुड़, सक आदि डाल के शराब निकालने केू लिए खमीर तैयार करते हैं। लाहनि = ख़मीर के लिए सामग्री। रे = हे भाई! कीनु = किया है, (मैंने) बनाया है। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। कसु = सक्के।1।

अर्थ: हे भाई! मैंने बढ़िया शरीर को मटकी बनाया है, और इसमें (नाम-अमृत-रूप शराब तैयार करने के लिए) खमीर (fermentation) की सामग्री एकत्र कर रहा हूँ- सतिगुरु के शब्द को मैंने गुड़ बनाया है, तृष्णा-काम-क्रोध-अहंकार और ईष्या को काट-काट के सक्क (उस गुण में) मिला दिया है।1।

कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥ एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे = हे भाई! सहज अंतरि = अडोल अवस्था में टिका हुआ। दलाल = वह मनुष्य जो दो धिरों में किसी चीज का समझौता करवाता है और उसके बदले दोनों तरफ से अथवा एक तरफ नीयत रकम लेता है, उस रकम को ‘दलाली’ कहते हैं। भरि = के बराबर। जो कलाली = जो साकी, जो शराब पिलाने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! क्या मुझे कोई ऐसा संत मिल जाएगा (भाव, मेरा मन चाहता है कि मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए) जो खुद अडोल अवस्था में टिका हुआ हो, सुख में टिका हो? यदि कोई ऐसा साकी (-संत) मुझे (नाम-अमृत-रूपी) नशा पिलाए, तो मैं उस अमृत की एक बूँद के बदले अपना तन-मन उसके हवाले कर दूँ, मैं (जोगियों और पंडितों के बताए हुए) जप और तप उस संत को बतौर दलाली दे दूँ।1। रहाउ।

भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥ मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥

पद्अर्थ: भवन चतुर दस = चौदह भवनों (का मोह), जगत का मोह। तनि = शरीर में। मुद्रा = ढक्कन, डाट। मदक = शराब व अर्क निकालने वाली नाल। मुद्रा मदक = मदक की मुद्रा, नाल का ढक्कन। धुनि = लगन। सुखमन = मन की सुख वाली अवस्था। पोचनहारी = नाल पर पोचा देने वाली (नाल पर पोचा देते हैं ता कि भाप ठंडी हो हो के अर्क व शराब बन = बन के बर्तन में टपकती रहे)।2।

अर्थ: चौदह भवनों को मैंने भट्ठी बनाया है, अपने शरीर में ईश्वरीय-ज्योति रूपी आग जलाई है (भाव, सारे जगत के मोह को मैंने शरीर के अंदर की ब्रहमाग्नि से जला डाला है)। हे भाई! मेरी तवज्जो (मेरी लगन) अडोल अवस्था में लग गई है, ये मैंने उस नाल का डाट बनाया है (जिसमें से शराब निकलती है)। मेरे मन की सुख अवस्था उस नाल पर पोचा दे रही है (ज्यों-ज्यों मेरा मन अडोल होता है, सुख अवस्था में पहुँचता है, त्यों-त्यों मेरे अंदरनाम-अमृत का प्रवाह चलता है)।2।

तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥ सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥

पद्अर्थ: रवि = सूरज, दाहिनी नासिका की नाड़ी, पिंगला सुर। ससि = चंद्रमा, बाँई नासिका की नाड़ी, ईड़ा सुर। गहनै = गिरवी। पिआल = प्याला। सुधा = अमृत। महा रसु = सबसे श्रेष्ठ अमृत। पेउ = मैं पीता हूँ।3।

अर्थ: हे भाई! प्रभु-चरणों में जुड़ी हुई अपनी तवज्जो को मैंने प्याला बना लिया है और (नाम-) अमृत पी रहा हूँ। ये नाम-अमृत सब रसों से श्रेष्ठ रस है। इस नाम-अमृत के बदले मैंने (पंडितों और जोगियों के बताए हुए) तीर्थ-स्नान, व्रत, नेम, सुच, संजम, प्राणायाम में श्वासों के चढ़ाने व उतारने- ये सब कुछ गिरवी रख दिए हैं।3।

निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥ कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥

पद्अर्थ: निझर = (संस्कृत: निर्झर) चश्मा। मनूआ = सुंदर मन। छूछे = थोथे, फोके। साचो = सदा टिके रहने वाला।4।

अर्थ: (अब मेरे अंदर नाम-अमृत के) चश्मे की बहुत साफ धारा पड़ रही है। मेरा मन, हे भाई! इसके स्वाद में रंगा हुआ है। कबीर कहता है: अन्य सारे नशे फोके हैं, एक यही सबसे श्रेष्ठ रस सदा कायम रहने वाला है।4।1।

नोट: जोगी लोग शराब पीया करते थे, उनका ख्याल था कि शराब पी के समाधि लगाने से तवज्जो बढ़िया जुड़ती है। शराब तैयार करने के लिए गुड़ और सक्क एक मटकी में काफी समय तक डाल के सड़ाया जाता है, और फिर उस सड़े हुए खमीर का अर्क निकाल लेते हैं। एक भट्ठी में आग जला के उस पर मटकी रख देते हैं, मटकी के मुँह पर ‘नाल’ रख के बर्तन के मुँह को आटे आदि से अच्छी तरह बँद कर देते हैं। आग के सेक से मटकी का पानी उबल के भाप बन के ‘नाल’ में आना शुरू हो जाता है। उस ‘नाल’ पर ठँडे पानी का पोचा फेरते जाते हैं, और इस ठ। डक से वही भाप अर्क बन-बन के ‘नाल’ के दूसरे मुँह के आगे रखे हुए बर्तन में पड़ता जाता है।

शब्द का भाव: समाधियों से श्रेष्ठ है परमात्मा की याद और स्मरण, जो सतिगुरु के शब्द के द्वारा ही हो सकता है। सूझ-शब्द की इनायत से तृष्णा, काम आदि विकार काटे जाते हैं, मन में सुख अवस्था बनती जाती है और तवज्जो और ज्यादा ‘नाम’ में जुड़ती है। इस नाम-रस के मुकाबले में जप, समाधियाँ, तीर्थ-स्नान, सुच और प्राणायाम आदि का कौड़ी भी मूल्य नहीं है।

गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥ सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥

पद्अर्थ: गिआनु = ऊँची समझ, ज्ञान। धिआनु = प्रभु चरणों में जुड़ी हुई तवज्जो, ध्यान। महूआ = एक वृक्ष जिसके फूल शराब तैयार करने में प्रयोग होते हैं। भाठी = आग वाली भट्ठी। भउ = प्रभु का डर। नारी = नाड़ी। समानी = लीनता। पीवनहार = पीने के लायक हुआ मन।1।

नोट: जोगी गुड़, महूए के फूल आदि मिला के भट्ठी में शराब निकालते हैं, वह शराब पी के प्राणायाम आदि द्वारा सुखमना नाड़ी में प्राण टिकाते हैं। नाम का रसिया इन की जगह ऊँची मति, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो और प्रभु का भय; इनकी सहायता से सहज अवस्था में पहुँचता है। इस तरह नाम-अमृत पीने का अधिकारी हो जाता है।

अर्थ: (नाम-रस की शराब निकालने के लिए) मैंने आत्मिक-ज्ञान का गुड़, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो को महूए के फूल, और अपने मन में टिकाए हुए प्रभु के भय को भट्ठी बनाया है। (इस ज्ञान-ध्यान और भय से उपजा नाम-रस पी के, मेरा मन) अडोल अवस्था में लीन हो गया है (जैसे जोगी शराब पी के अपने प्राण) सुखमना नाड़ी में टिकाता है। अब मेरा मन नाम-रस को पीने के लायक हो के पी रहा है।1।

अउधू मेरा मनु मतवारा ॥ उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अउधू = हे जोगी! मतवारा = मतवाला, मस्त। उनमद = (तुरीया अवस्था की) मस्ती। मदन = मस्त करने वाला। त्रिभवण = तीन भवनों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे जोगी! मेरा (भी) मन मस्त होया हुआ है, मुझे (ऊँची आत्मिक अवस्था की) मस्ती चढ़ी हुई है। (पर) मैंने मस्त करने वाला (नाम-) रस चखा है, (उसकी इनायत से) सारे ही जगत में मुझे उसी की ही ज्योति जल रही दिखाई देती है।1। रहाउ।

दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥ कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥

पद्अर्थ: दुइ पुर जोरि = दोनों पुड़ जोड़ के, धरती आकाश को इकट्ठा करके, सारे जगत का मोह काबू करके, माया के मोह को वश में करके। रसाइ = चमकाई, मघाई। पीउ = मैं पीता हूँ। जलेता = ईधन। संसारी = संसार में खचित होने वाली रुचि।2।

अर्थ: माया के मोह को वश में करके मैंने (जोगी वाली) भट्ठी तपाई है, अब मैं बड़ा महान नाम-रस पी रहा हूँ। काम और क्रोध दोनों को मैंने ईधन बना दिया है (और, इस भट्ठी में जला डाला है, भाव, मोह को वश में करने से काम-क्रोध भी खत्म हो गए हैं)। इस तरह संसार में फंसने वाली रुचि खत्म हो गई है।2।

प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥ दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥

पद्अर्थ: गंमति = प्रभु तक पहुँचने वाला। सुधि = सूझ। तासु = उसके। मद = नशा। उचकि न जाई = टूटता नहीं, खत्म नहीं होता।3।

अर्थ: (प्रभु तक) पहुँच वाले गुरु के ज्ञान की इनायत से मेरे अंदर (नाम का) प्रकाश हो गया है, गुरु से मुझे (ऊँची) समझ मिली हुई है। प्रभु का दास कबीर उस नशे में मस्त है, उसकी मस्ती कभी समाप्त होने वाली नहीं है।3।2।

नोट: मुसलमान अपनी बोली में अपने लिए शब्द ‘दास’ नहीं प्रयोग करते। यहाँ शब्द ‘दास’ का प्रयोग जाहिर करता है कि कबीर जी हिन्दू थे।

तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥ ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥

पद्अर्थ: मेरु परबतु = सबसे ऊँचा पर्वत, सबसे बड़ा आसरा। ओट = आसरा। गही = पकड़ी है। रखि लीनी = (इज्जत) रख ली है।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू (ही) मेरा सबसे बड़ा आसरा है। मैंने तेरी ही ओट पकड़ी है (किसी तीर्थ पर बसने का तकिया आसरा मैंने नहीं ताका) तू सदा अडोल रहने वाला है (तेरा पल्ला पकड़ के) मैं भी नहीं डोलता, क्योंकि तूने खुद मेरी इज्जत रख ली है।1।

अब तब जब कब तुही तुही ॥ हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अब तब = अब और तब। जब कब = जब कभी। तुअ परसाद = तव प्रसादि, तेरी मेहर से।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! सदा के लिए तू ही तू ही मेरा सहारा है। तेरी मेहर से मैं सदा ही सुखी हूँ।1। रहाउ।

तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥ पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥

पद्अर्थ: मगहर = गोरखपुर के पास एक शहर जिसके बारे में पुराना ख्याल है कि इस जगह को श्राप मिला हुआ है कि जो मनुष्य यहाँ मरता है वह गधे की जूनि में जा पड़ता है।2।

अर्थ: (लोग कहते हैं मगहर श्रापित धरती है, पर) मैं तेरे पर भरोसा करके मगहर जा बसा, (तूने मेहर की और) मेरे शरीर की (विकारों की) तपस (मगहर में ही) बुझा दी। मैंने, हे प्रभु! तेरा दीदार पहले मगहर में ही रहते हुए किया था, और बाद में मैं काशी आ के बसा।2।

नोट: यहाँ ये जाहिर होता है कि कबीर जी दो बार मगहर जा के रहे हैं। दूसरी बार तो शरीर भी वहीं जा के त्यागा।

जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥ हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥

पद्अर्थ: एकै करि = एक समान। मरते फूटि = फूट मरते हैं, अहंकार में दुखी होते हैं।3।

अर्थ: जैसे किसी कंगाल को धन मिल जाए, (वैसे ही) मुझ कंगाल को तेरा धन मिल गया है, (उसकी इनायत से) मैंने मगहर और काशी दोनों को एक जैसा ही समझा है। पर, (जिन्हें काशी तीर्थ पर बसने का गर्व है वह) वे अहंकारी अहंकार में दुखी होते हैं।3।

करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥ अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥

पद्अर्थ: सूला = शूल, काँटें। अजै = अब तक। पचाही = दुखी होते हैं।4।

अर्थ: जो मनुष्य गुमान करता है (गुमान चाहे किसी भी बात का क्यों ना हो) उसको (ऐसे होता है जैसे) शूलें चुभती हैं। कोई उनकी ये शूलें उखाड़ नहीं सकता। सारी उम्र (वह अहंकारी) उसकी चुभन से बिलखते हैं, मानो, घोर नर्क में जल रहे हैं।4।

कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥ हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥

पद्अर्थ: दोऊ = दोनों ही। रादे = रद्द कर दिए हैं। काणि = अधीनता।5।

अर्थ: (ये लोग कहते हैं कि काशी में रहने वाला स्वर्ग भोगता है, पर) नर्क क्या, और बेचारा स्वर्ग क्या? संतों ने दोनों ही रद्द कर दिए हैं; क्योंकि संत अपने गुरु की कृपा से (ना स्वर्ग और ना ही नर्क) किसी के भी मुथाज नहीं हैं।5।

अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥ राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥

पद्अर्थ: सिंघासनि = तख्त पर, दसवाँ द्वार में, उच्च आत्मिक अवस्था में।6।

अर्थ: (अपने गुरु की कृपा से) मैं अब उच्च आत्मिक ठिकाने पर पहुँच गया हूँ, जहाँ मुझे परमात्मा मिल गया है। मैं कबीर और मेरा राम एक-रूप हो गए हैं, कोई भी हमारे बीच में फर्क नहीं बता सकता।6।3।

संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥ दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥

पद्अर्थ: मानउ = मानूँ, मैं आदर देता हूँ, स्वागत करता हूँ। दूत = विकार। डानउ = मैं दण्ड देता हूँ, मार भगाता हूँ। कुटवार = कोतवाल, शहर का रखवाला, (शरीर रूप) शहर का रखवाला। कुटवारी = शरीर रूप शहर की रखवाली का फर्ज। दिवस = दिन। पलोसउ = पलोसना, मैं मलता हूँ, घोटता हूँ। करि = बना के। फेरी = मैं फेरता हूँ।1।

अर्थ: अपने इस शरीर-रूप शहर की रक्षा करने के लिए मेरा फर्ज ये है मैं भले गुणों का स्वागत करूँ और विकारों को मार निकालूँ। दिन-रात, हे प्रभु तेरे चरण परसूँ और अपने केसों का चवर तेरे ऊपर झुलाऊँ।1।

नोट: जिस मनुष्य के अपने सिर पर केस ना हों, वह ये मुहावरा प्रयोग नहीं कर सकता। स्वाभाविक तौर पर मनुष्य की बोली अपने रोजाना जीवन के अनुसार हो जाती है। कबीर जी केसाधारी थे।

हम कूकर तेरे दरबारि ॥ भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दरबारि = दर पर। बचनु = मुंह। पसारि = खोल के, पसार के। हम = हम, मैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे दर पर (बैठा हुआ एक) कुक्ता हूँ, और मुँह आगे कर-करके भौंक रहा हूँ (भाव, तेरे दर पे जो तेरी महिमा कर रहा हूँ), ये अपने शरीर को विकारी-कुक्तों से बचाने के लिए है, जैसे एक कुक्ता किसी पराई गली के कुक्तों से अपने-आप की रक्षा करने के लिए भौंकतास है। यही बात सतिगुरु नानक देव जी ने इस तरह कही है; ऐते कूकर हउ बेगाना भउका इसु तन ताई।1। रहाउ। (बिलावल महला १)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh