श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥ तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥

पद्अर्थ: मिटिआ = हटा। धुनि = आवाज, लगन, लहर। माथै मेरे दगाई = मेरे माथे पर दागी गई है, मेरे माथे पर उकरी गई है, मेरे भाग्यों में आ गई है, मुझे प्राप्त हो गई है।2।

अर्थ: हे प्रभु! मैं तो पहले जन्मों में भी तेरा ही सेवक रहा हूँ, अब भी तेरे दर से हटा नहीं जा सकता। तेरे दर पर रहने से (मनुष्य के अंदर) अडोल अवस्था की लहर (चल पड़ती है, वह लहर) मुझे भी प्राप्त हो गई है।2।

दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥ साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥

पद्अर्थ: दागे होहि = जिस पर निशान होता है। रन = रण, लड़ाई का मैदान। जूझहि = लड़ मरते हैं। लए खजानै पाई = स्वीकार कर लेता है, स्वीकार कर लेता है।3।

अर्थ: जिनके माथे पर मालिक का (ये भक्ति का) निशान होता है, वे रण-भूमि में लड़ मरते हैं। जो इस निशान से वंचित हैं वह (मुकाबला होने पर) भांझ खा जाते हैं, (भाव,) जो मनुष्य प्रभु का भक्त बनता है, वही भक्ति से सांझ डालता है और प्रभु उसको अपने दर पर स्वीकार कर लेता है।3।

कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥ गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥

पद्अर्थ: परम = सबसे अच्छी। कोठरा = छोटा सा कोठा। बीचारि = नाम की विचार से। गुरि = गुरु ने। बसतु = नाम पदार्थ। समारि = संभाल के।4।

अर्थ: (मनुष्य का शरीर, जैसे, एक छोटा सा कोठा है, इस) छोटे से सुंदर कोठे में (दिमाग, बुद्धि एक और) छोटी सी कोठरी है, परमात्मा के नाम के विचार की इनायत सेये छोटी सी कोठरी और भी सुंदर बनती जाती है। मुझ कबीर को मेरे गुरु ने नाम-वस्तु दी (और, कहने लगे) ये वस्तु (एक छोटी सी कोठरी में) संभाल के रख ले।4।

कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥ अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥

पद्अर्थ: दीई = दी है। मसतकि = माथे पर। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। थिरु = सदा टिके रहने वाला। सोहागु = (सं: सौभाग्य = good luck) अच्छी किस्मत।5।

अर्थ: मैं कबीर ने ये नाम-वस्तु जगत के लोगों को (भी बाँट) दी, पर किसी भाग्यशाली ने (ही) हासिल की। जिस किसी ने इस नाम-अमृत का स्वाद चखा है, वह सदा के लिए भाग्यशाली हो गया है।5।4।

शब्द का भाव: प्रभु की महिमा की इनायत से दुनिया के विकार मनुष्य के नजदीक नहीं फटकते। पर यह दाति किसी सौभाग्यशाली को ही गुरु से मिलती है।

जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥ जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥

पद्अर्थ: जिह मुख = जिस परमात्मा के मुँह में से। निकसै = निकलता है। बिसरु करै = बिसारता है। जा कै जाइ = जा कै जाए, जिसके पैर पर, जिसके पैरों के सदके।1।

अर्थ: ब्राह्मण उस प्रभु को क्यों बिसारता है, जिसके मुँह में से वेद और गयात्री (आदि) निकले (ऐसा तू मानता) है? पण्डित उस परमात्मा को क्यों नहीं स्मरण करता, जिसके चरणों पर सारा संसार पड़ता है?।1।

काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥ रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाम्न = हे ब्राहमण! रहाउ।

(नोट: पहली तुक में शब्द ‘ब्रहमन’ कर्ताकारक, एक वचन है, ‘रहाउ’ में शब्द ‘बाम्न अथवा बाह्मन’ संबोधन एक वचन है)।

अर्थ: हे मेरे ब्राह्मण! तू परमात्मा का नाम क्यों नहीं स्मरण करता? हे पंडित! तू राम नहीं बोलता, और दोज़क (नर्क का दुख) सह रहा है।1। रहाउ।

आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥ चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥

पद्अर्थ: उदरु = पेट। रचि रचि = (बनावटी) बना बना के। कर दीपकु = हाथों पर दीया। कूपि = कूँए में।2।

अर्थ: हे ब्राह्मण! तू अपने आप को ऊँची कुल का (समझता है), पर भोजन पाता है (अपने से) नीची कुल वाले घरों में से। तू हठ वाले कर्म करके (और लोगों को दिखा-दिखा के) अपना पेट पालता है। चौदवीं और अमावस्या (आदि तिथियाँ बनावटी) बना-बना के तू (जजमानों से) माँगता है; तू (अपने आप को विद्वान समझता है पर यह विद्या-रूप) दीया हाथों पर रख कर (भी) कूँएं में गिर रहा है।2।

तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥ हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥

पद्अर्थ: कासीक = काशी का। उबरे = (संसार समुंदर से) बच गए।3।

अर्थ: तू (अपने आप को ऊँची कुल का) ब्राहमण (समझता है), मैं (तेरी नजरों में) काशी का (गरीब) जुलाहा हूँ। सो, मेरी तेरी बराबरी कैसे हो सकती है? (भाव, तू मेरी बात अपने गुमान के कारण सुनने को तैयार नहीं हो सकता)। पर हम (जुलाहे तो) परमात्मा का नाम स्मरण करके (संसार-समुंदर से) बच रहे हैं, और तुम, हे पांडे! वेदों के (बताए हुए कर्मकांड के) भरोसे रह के ही डूब के मर रहे हो।3।5।

नोट: कबीर जी के विचार के अनुसार अमावस-संग्रांद आदि बनावटी तिथियाँ बनाने वालों अपनी उदर पूर्ति की खातिर ही बनाई हुई हैं। और, ये शब्द गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है।

तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥ इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥

पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। डार = डाली। साखा = शाखाएं, टहनियाँ। पुहप = पुष्प, फूल। भरीआ = भरी हुई, लदी हुई। बाड़ी = बगीचे। रे = हे भाई! तिनि हरि = उस प्रभु ने। करीआ = बनाई।1।

अर्थ: (गुरु के सन्मुख हुए ऐसे मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि) संसार एक वृक्ष (के समान) है, (जगत के जीव-जंतु, मानो, उस वृक्ष की) बेअंत डालियाँ और टहनियाँ हैं, जो फूलों, पक्तों और रस भरे फलों से लदी हुई हैं। ये संसार अमृत की एक बागीची है, जो उस पूर्ण परमात्मा ने बनाई है।1।

जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥ अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हे = हे भाई! जानी = (‘विरले गुरमुखि’ ने) जानी है। कहानी = किसी बीत चुकी या घटित हो रही घटना का हाल। राजा राम की कहानी = उस घटना का हाल जो प्रकाश रूप प्रभु का स्मरण करने से किसी मनुष्य के मन में घटित होती है, प्रभु मिलाप का हाल। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो जाता है, जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर पूर्ण तौर पर चल पड़ता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य अपने आप को गुरु के हवाले करता है, वह प्रकाश-रूप परमात्मा के मेल की अवस्था को समझ लेता है, उसके अंदर ज्योति जग उठती है, उसके अंदर राम का प्रकाश हो जाता है। पर इस अवस्था से जान-पहचान करने वाला होता कोई विरला ही है।1। रहाउ।

भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥ सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥

पद्अर्थ: भवरु = भौरा। पुहप = फूल। बीधा = भेदा हुआ, मस्त। बारह = फूल की बारह खिली हुई पंखुड़ियाँ, खिला हुआ फूल, पूर्ण खिलाव। सोरह = सोलह (पक्तोकं वाला विशद्धि चक्र, जो गले में जोगी बाँधते हैं)। सोरह मधे = जाप में लग के। सोरह....झकोरिआ = श्वास श्वास नाम जपता है। आकासे = आकाश में, ऊँची अवस्था में, दसवाँ द्वार में। फरु फरिआ = फड़ फड़ाया, उड़ान भरी।2।

अर्थ: (जैसे) एक भौरा फूल के रस में मस्त हो के फूल की खिली हुई पंखुड़ियों में अपने आप को जा बँधाता है, (जैसे कोई पक्षी अपने पंखों से) हवा को हिलौरे दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही वह गुरमुखि नाम-रस में मस्त हो के पूर्ण-खिलाव को हृदय में टिकाता है, और सोच-मण्डल में हिलौरे दे के प्रभु-चरणों में उड़ानें भरता है।2।

सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥ कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥

पद्अर्थ: सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में। बिरवा = कोमल पौधा। धरती = शरीर रूप धरती का। जलहर = जलधर, बादल (तृष्णा)। सोखिआ = सुखा दिया, चूस लिया। जिनि = जिस (गुरमुखि) ने।3।

अर्थ: उस गुरमुखि की उस अडोल और अफुर अवस्था में उसके अंदर (कोमलता-रूप) मानो, एक कोमल पौधा उगता है, जो उसके शरीर की तृष्णा को सुखा देता है। कबीर कहता है: मैं उस गुरमुख का दास हूँ, जिसने (अपने अंदर उगा हुआ) ये कोमल पौधा देखा है।3।6।

नोट: ‘रहाउ’ वाली तुक सारे शब्द का बीज-रूप है। यहाँ बताया गया है कि जो मनुष्य अपने आप को गुरु के हवाले करके नाम स्मरण करता है; प्रभु मिलाप वाली अवस्था से उसकी जान-पहचान हो जाती है। शब्द के तीन बंदों में उस मेल-अवस्था के लक्षण दिए गए हैं: 1. ये जगत उसको प्रभु की बनाई हुई एक बगीची सी प्रतीत होती है, जिसमें ये जीव-जंतु, शाखाएं, फूल, पत्ते आदि हैं; 2. जैसे भौरा फूल के रस में मस्त हो के फूल की पंखुड़ियों में ही अपने आप को कैद करा लेता है, जैसे पक्षी अपने पंखों से हवा को झकोला दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही स्मरण करने वाला नाम-रस में मस्त होता है और प्रभु-चरणों में ऊँची उड़ानें लगाता है; और 3. उसके हृदय में एक ऐसी कोमलता पैदा होती है, जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा मिट जाती है।

मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥ खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥

पद्अर्थ: मोनि = चुप, मन की चुप, मन की शांति। झोली = जिसमें जोगी आटा माँग के डालता है। पत्रका = (पात्र+खप्पर) सुंदर खप्पर। रे = हे जोगी! खिंथा = गोदड़ी। इहु तनु सीअउ = इस शरीर को सीता हूँ, विकारों से बचाए रखता हूँ।1।

अर्थ: हे जोगी! (मन को विकारों की ओर से) शांति (देनी, ये कानों की) मुंद्रा बना, और (प्रभु के गुणों की) विचार को खप्पर बना। (मैं भी तेरी ही तरह एक जोगी हूँ, पर) मैं अपने शरीर को विकारों से बचाता हूँ, ये मैंने गोदड़ी सिली हुई है, जोगी! मैंने प्रभु के नाम को (अपनी जिंद का) आसरा बनाया हुआ है (ये मेरा राख विभूति का बटूआ है)।1।

ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥ जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। भोगी = गृहस्थी।1। रहाउ।

अर्थ: हे जोगी! गृहस्थ में रहते हुए ही सतिगुरु के सन्मुख रहो, गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलना ही जप है, यही तप है, और यही संजम है। बस! यही योगाभ्यास करो।1। रहाउ।

बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥ करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥

पद्अर्थ: बिभूति = राख। सिंगी = छोटा सा सींग जो जोगी बजाते हैं। किंगुरी = छोटी किंग।2।

अर्थ: (हे जोगी!) अपनी बुद्धि को मैं (ऊँचे ठिकाने प्रभु चरणों में) चढ़ाए रखता हूँ, ये मैंने (शरीर पर) राख मली हुई है; मैंने अपने मन की तवज्जो को (प्रभु चरणों में) जोड़ा है, ये मेरी सिंज्ञी है। माया की ओर से वैराग करके मैं भी (साधु बन के) फिरता हूँ, पर मैं अपने ही शरीर रूप नगर में फिरता हूँ (भाव, खोज करता हूँ); मैं अपने मन की ही किंगरी बजाता हूँ (भाव, मन में प्रभु की लगन लगाए रखता हूँ)।2।

पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥

पद्अर्थ: पंच ततु = पाँचों का तत्व, पाँचों का मूल, पाँच तत्वों का मूल कारण प्रभु। निरालम = निरालम्ब, बिना किसी (बाहरी) आसरे के, एक टक। ताड़ी = समाधि। बाड़ी = बगीची।3।

अर्थ: (हे जोगी!) प्रभु को अपने हृदय में परोए रखो, इस तरह की समाधि एक-टक बनी रहती है। कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो, (प्रभु-चरणों में जुड़ के) धर्म और दया की (अपने) मन में सुंदर सी बगीची बनाओ।3।7।

कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥ भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: काज = काम। सिरजे = पैदा हुए। जनमि = पैदा हो के। भवनिधि = संसार समुंदर। तरन = बेड़ी, जहाज। चिंतामनि = मन इच्छित फल देने वाली मणि।1।

अर्थ: कौन से कामों के लिए हम जगत में पैदा हुए? जनम ले के हमने क्या कमाया? हमने एक पल भर के लिए भी (उस प्रभु के चरणों में) चिक्त नहीं जोड़ा जो संसार-समुंदर से तैराने के लिए जहाज़ है, जो, मानो, मन-इच्छित फल देने वाला हीरा है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh