श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 971 गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥ जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हम = हम जीव। जिनि प्रभि = जिस प्रभु ने। जीउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर।1। रहाउ। अर्थ: हे गोबिंद! हम जीव ऐसे विकारी हैं कि जिस तू प्रभु ने ये जीवात्मा और शरीर दिया उसकी बँदगी नहीं की, उससे प्यार नहीं किया।1। रहाउ। पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥ आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥ पद्अर्थ: पर तन = पराया शरीर, पराई स्त्री। परती = पराई। (नोट: इसे ‘पर ती’ पढ़ना और अर्थ ‘पर+त्रिया’ करना गलत है क्योंकि पहले ही ‘पराई स्त्री’ का जिक्र शब्द ‘पर तन’ द्वारा आ चुका है। चार चीजों का यहाँ वर्णन है: धन, तन, निंदा और अपबाद; हरेक के साथ शब्द ‘पर’ बरता गया है। यदि शब्द ‘ती’ अलग किया जाए, तो शब्द ‘निंदा’ के साथ बाकी शब्द धन, तन ती और अपबाद की तरह शब्द ‘पर’ नहीं रह जाता। सो, ‘परती’ एक ही शब्द है। वाणी में और प्रमाण भी ऐसे मिलते हैं, जो साबित करते हैं कि शब्द ‘तन’ स्त्री के लिए है; जैसे: पर धन, पर तन, पर की निंदा, इन सिउ प्रीति न लागै॥२॥१४॥ (धनासरी म: ५) नोट: कबीर जी ने ‘परती निंदा’ लिखा है, सतिगुरु अरजन साहिब ने ‘पर की निंदा’ कहा है पर धन, पर तन परती निंदा, अखाधि ताहि हरकाइआ॥३।३।१२४॥ आसा म: ५) नोट: यहाँ तो हू-ब-हू कबीर जी वाले ही शब्द हैं। पर धन, पर अपवाद, नारि, निंदा, यह मीठी जीअ माहि हितानी॥१॥ (सवैये श्री मुख बाक् महला ५) नोट: यहॉ। चार विचारों का वर्णन है: पराया धन, दूसरों से विरोध, पराई स्त्री और पराई निंदा। इन ही चारों का जिक्र कबीर जी ने किया हुआ है। सो, शब्द ‘परती’ एक ही शब्द है, इसका अर्थ है ‘पराई’। अपबादु = विरोध, झगड़ा। फुनि फुनि = बार बार। परसंगु = झेड़ा, सिलसिला, प्रसंग।2। अर्थ: (हे गोबिंद!) पराए धन (की लालसा), पराई स्त्री (की कामना), पराई चुग़ली, दूसरों से विरोध- ये विकार दूर नहीं होते, बार-बार जनम-मरण का चक्कर (हमें) मिल रहा है; फिर भी पर मन, पर तन आदि का ये लंबा सिलसिला खत्म नहीं होता।2। जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥ ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥ पद्अर्थ: लंपट = विषियों में लिबड़े हुए। दूत = बुरे लोग। मतवारे = शराबी।3। अर्थ: जिस जगहों में प्रभु के भक्त मिल के प्रभु की महिमा करते हैं, वहाँ मैं एक पलक के लिए भी फेरा नहीं मारता। पर विषयी, चोर, बदमाश, शराबी- इनके साथ मेरा साथ रहता है।3। काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥ दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥ पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। संपै = धन, संपक्ति। मो माही = मेरे अंदर। सुपनंतरि = सपने में भी।4। अर्थ: काम, क्रोध, माया का मोह, अहंकार, ईष्या- मेरे पल्ले, बस! यही धन है। दया, धर्म, सतिगुरु की सेवा- मुझे इनका विचार कभी सपने में भी नहीं आया।4। दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥ कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥ पद्अर्थ: भै हारी = डर का नाश करने वाले प्रभु! भीर = मुसीबत, बिपता। करउ = करूँ।5। अर्थ: कबीर कहता है: हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपालु! हे दामोदर! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे भय हरण! मुझ दास को (विकारों की) बिपता में से बचा ले, मैं (नित्य) तेरी ही बँदगी करूँ।5।8। जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥ जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥ निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥ अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरनि = स्मरण करने वाला। दुआरु = द्वार, दरवाजा। होइ = होय, होता है, दिख जाता है। जाहि = तू जाएगा। संसारि = संसार में, संसार समुंदर में। घरि = घर में। तूर = बाजे। अनहद = एक रस। वजहि = (तूर) बजें, बाजे बजते हैं। भरपूर = नाको नाक, किसी कमी के बिना।1। अर्थ: जिस नाम-जपने की इनायत से मुक्ति का दर दिखाई दे जाता है, (उस रास्ते) तू प्रभु के चरणों में जा पहुँचेगा, संसार (-समुंदर) में नहीं (भटकेगा); जिस अवस्था में कोई डर नहीं छूता, उसमें पहुँच के तू (आत्मिक आनंद के, मानो) बाजे बजाएगा, वह बाजे (तेरे अंदर) सदा एक-रस बजेंगे, (उस आनंद में) कोई कमी नहीं आएगी।1। ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥ बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कत = कहीं भी, किसी भी और तरीके से।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! प्रभु का स्मरण किए बिना किसी भी अन्य तरीके से (माया के बंधनो) से निजात नहीं मिलती तू अपने मन में ऐसा (बल रखने वाला) स्मरण कर।1। रहाउ। जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥ मुकति करै उतरै बहु भारु ॥ नमसकारु करि हिरदै माहि ॥ फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥ पद्अर्थ: ननकारु = इन्कार, रोक टोक, विकारों से रुकावट। भारु = विकारों का बोझ।2। अर्थ: जिस स्मरण से (विकार तेरे राह में) रुकावट नहीं डाल सकेगे, वह स्मरण (माया के बंधनो से) आजाद कर देता है, (विकारों का) बोझ (मन से) उतर जाता है। प्रभु को सदा सिर झुका, ता कि बार-बार तुझे (जगत में) आना ना पड़े।2। जिह सिमरनि करहि तू केल ॥ दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥ सो दीपकु अमरकु संसारि ॥ काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥ पद्अर्थ: केल = खुशियाँ, आनंद। बांधि धरिओ = (जलता दीपक) टिका रखा है। अमरकु = अमर करने वाला। संसारि = संसार में। बिखु = जहर।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस स्मरण से तू आनंद ले रहा है (भाव, चिन्ता आदि से बचा रहता है), तेरे अंदर सदा (ज्ञान का) दीपक जलता रहता है, (विकारों के) तेल (वाला दीया) नहीं रहता, वह दीया (जिस मनुष्य के अंदर जग जाए उसको) संसार में अमर कर देता है, काम-क्रोध आदि के जहर को (अंदर से) मार के निकाल देता है।3। जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥ सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥ सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥ गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥ पद्अर्थ: गति = मुक्ति, उच्च आत्मिक अवस्था। नही राखु उतारि = (गले से) उतार के ना रख।4। अर्थ: जिस नाम-जपने की इनायत से तेरी उच्च आत्मिक अवस्था बनती है, तू उस स्मरण (रूपी माला) को परो के सदा गले में डाले रख, (कभी भी गले से) उतार के ना रखना, सदा स्मरण कर, गुरु की मेहर से (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।4। जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥ मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥ सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥ सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥ पद्अर्थ: कानि = काण, अधीनता। मंदरि = घर में, हृदय घर में, स्वै स्वरूप में। पटंबर = पट अंबर, पाट/रेशम के कपड़े। पटंबर तानि = पाट/रेशम के कपड़े तान के, बेफिक्र हो के। सेज = हृदय। बिगसै = खिल उठता है। अनदिनु = हर रोज।5। अर्थ: (हे भाई!) जिस स्मरण से तुझे किसी की अधीनता नहीं रहती, अपने घर में बे-फिक्र हो के सोता है, हृदय में सुख है, जीवात्मा खिली रहती है, ऐसा स्मरण-रूपी अमृत हर वक्त पीता रह।5। जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥ जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥ सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥ इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥ पद्अर्थ: बलाइ = रोग। माइ = माया। मनि = मन में।6। अर्थ: जिस स्मरण के कारण तेरा आत्मिक रोग काटा जाता है, तुझे माया नहीं सताती, हे भाई! सदा ये स्मरण कर, अपने मन में हरि की महिमा कर (पर, गुरु की शरण पड़), ये स्मरण गुरु से ही मिलता है।6। सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥ ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥ जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥ हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥ पद्अर्थ: सासि = सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सोइ = सो के। संजोग = भाग्यों से।7। अर्थ: हे भाई! सदा दिन-रात, उठते-बैठते, खाते हुए, साँस लेते हुए, सोते हुए हर वक्त स्मरण का रस ले। (हे भाई!) प्रभु का स्मरण सौभाग्य से मिलता है।7। जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥ सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥ कहि कबीर जा का नही अंतु ॥ तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥ पद्अर्थ: अधारु = आसरा। तंतु = टूणा, तंत्र।8। अर्थ: जिस स्मरण से तेरे ऊपर से (विकारों का) बोझ उतर जाएगा, प्रभु के नाम के उस स्मरण को (अपनी जीवात्मा का) आसरा बना। कबीर कहता है: उस प्रभु के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, (उसकी याद के बिना) कोई और मंत्र, कोई और टूणा-टटका उसके सामने नहीं चल सकता (किसी और ढंग-तरीके से उसको मिला नहीं जा सकता)।8।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |