श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 972 रामकली घरु २ बाणी कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बंधचि बंधनु पाइआ ॥ मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥ जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥ तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥ पद्अर्थ: बंधचि = बंधन डालने वाली माया को। मुकतै गुरि = मुक्त गुरु ने। अनलु = आग। नख सिख = (पैरों के) नाखूनों से लेकर सिर की चोटी तक, सारे को अच्छी तरह। अंतरि = अपने अंदर ही। मजनु = चुभ्भी, स्नान।1। अर्थ: (माया से) मुक्त गुरु ने माया को रोक लगा दी है, मेरी तृष्णा की आग बुझा दी है। अब जब अपने इस मन को अच्छी तरह देखता हूँ, तो अपने अंदर ही स्नान करता हूँ।1। पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥ नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पवन = हवा (जैसा चंचल मन)। पवन पति = मन की मालिक जीवात्मा। उन्मनि = उन्मन में, पूर्ण खिलाव की अवस्था में। खरा = सबसे अच्छी दशा। मिरतु = मौत। जरा = बुढ़ापा।1। रहाउ। अर्थ: जीवात्मा का पूर्ण खिड़ाव में बने रहना ही आत्मा की सबसे श्रेष्ठ अवस्था है, इस अवस्था को जनम-मरन और बुढ़ापा छू नहीं सकते।1। रहाउ। उलटी ले सकति सहारं ॥ पैसीले गगन मझारं ॥ बेधीअले चक्र भुअंगा ॥ भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥ पद्अर्थ: उलटीले = उलट जाता है। सकति सहारं = माया का सहारा। पैसीले = पड़ जाते हैं। गगन मझारं = गगन में, आकाश में, ऊँची उड़ान में, दसवाँ द्वार में। बेधीअले = भेदे जाते हैं। चक्र भुअंगा = भुयंगम नाड़ी के चक्र, टेढ़े चक्रों वाला मन, टेढ़ी चालों वाला मन। भेटीअले = मिल जाता है। राइ = राय, राजा प्रभु।2। अर्थ: माया वाला सहारा अब उलट गया है, (माया की जगह मेरा मन अब) प्रभु-चरणों में डुबकी लगा रहा है। टेढ़ी चालें चलने वाला ये मन अब भेदा जा चुका है क्योंकि निसंग हो के अब ये प्रभु को मिल गया है।2। चूकीअले मोह मइआसा ॥ ससि कीनो सूर गिरासा ॥ जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥ तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥ पद्अर्थ: मोह मइ = मोह मय, मोह की भरी हुई। ससि = चंद्रमा, ठंड, आत्मिक शांति। सूर = सूरज, तपस, मन की विकारों की गर्मी। गिरासा कीनो = ग्रास बना लिया, हड़प् कर लेती है। भरिपुरि = भरपूर में, उस प्रभु रूप समुंदर में जो सब जगह भरपूर है। कुंभकु = प्राणों को रोकना। वासना के मूल = मन की रुचि। अनहद = एक रस।3। अर्थ: मेरी मोह भरी आशाएं अब खत्म हो गई हैं; (मेरे अंदर की) शांति ने मेरे अंदर की तपश बुझा दी है। अब जबकि मन की रुचि सर्व-व्यापक प्रभु में जुड़ गई है, इस अवस्था में (मेरे अंदर, मानो) एक-रस वीणा बज रही है।3। बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥ सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥ करि करता उतरसि पारं ॥ कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥ पद्अर्थ: बकतै = उपदेश करने वाले (गुरु) ने। बकि = बोल के। सुनतै = सुनने वाले ने। सुनि = सुन के। मंनि = मन में। करि करता = ‘करता करता’ करके, ‘प्रभु प्रभु’ कह के, प्रभु का स्मरण करके। सारं = श्रेष्ठ बात, असल भेद की बात।4। अर्थ: कबीर कहता है (कि इस सारी तब्दीली में) असल राज की बात (ये है) - उपदेश करने वालें सतिगुरु ने जिसको अपना शब्द सुनाया, अगर उसको ध्यान से सुन के अपने मन में बसा लिया, तब प्रभु का स्मरण करके वह पार लांघ गया।4।1।10। नोट: इस राज की बात को, जो कबीर जी ने आखिरी बंद में बताई है, कहीं सिख समझने में चूक ना कर जाएं; शायद इस ख्याल से ही सतिगुरु नानक देव जी ने इस आखिरी बंद की और भी खुली व्याख्या अपने शब्द में कर दी है। वह शब्द भी राग रामकली में ही है और छंद की चाल भी इसी शब्द की चाल जैसी ही है। रामकली महला १॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी॥ ता हउमै विचहु मारी॥ सो सेवकि राम पिआरी॥ जो गुर सबदी बीचारी॥१॥ सो हरि जनु हरि प्रभ भावै॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै॥१॥ रहाउ॥ धुनि वाजे अनहद घोरा॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा॥ गुर पूरै सचु समाइआ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ॥२॥ सभि नाद बेद गुरबाणी॥ मनु राता सारिगपाणी॥ तह तीरथ वरत तप सारे॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे॥३॥ जह आपु गइआ भउ भागा॥ गुर चरणी सेवकु लागा॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ॥४॥१०॥ (पन्ना ८७९) नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है, इस केन्द्रिय भाव को सारे शब्द में विस्तार से बयान किया गया है। ‘रहाउ’ में बताया गया है कि जीवात्मा की सबसे उच्च अवस्था वह है जब यह ‘उनमन’ में पहुँचती है; इस अवस्था को जनम-मरण और बुढ़ापा छू नहीं सकते। इस अवस्था की और सारी हालत सारे शब्द में बताई गई है, और ये सारी हालत उस केन्द्रिय तब्दीली का नतीजा है। गगन, भुअंग, ससि, सूर, कुंभक आदि शब्दों के द्वारा जो हालात बयान किए गए हैं वे सारे ‘उनमन’ में पहुँचे हुए के नतीजे हैं। पहले आत्मा ‘उनमन’ में पहुँची है और देखने में जो बाहरी चक्र-चिन्ह बने हैं, उनका वर्णन सारे शब्द में है। साफ शब्दों में ऐसा कह लें कि यहाँ ये वर्णन नहीं कि गगन, भुअंग, ससि, सूर आदि वाले साधन करने का नतीजा निकला ‘उनमन’; बल्कि ‘उनमन’ के असल प्रयोग का हाल है। और, यह ‘उनमन’ कैसे बनी? नाम-जपने की इनायत से। कबीर जी कहते हैं कि यही असल भेद की बात है। चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥ जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥ पद्अर्थ: दुइ = दोनों। जोति सरूपु = (प्रभु के) नूर के स्वरूप। जोती अंतरि = हरेक प्रकाश देने वाली चीज़ के अंदर। अनूपु = (अन+ऊप) जिस जैसा और कोई नहीं, बेमिसाल।1। अर्थ: ये चाँद और सूरज दोनों ही उस परमात्मा की ज्योति का (बाहरी दिखाई देता) स्वरूप हैं, हरेक की रौशनी में सुंदर प्रभु स्वयं बस रहा है।1। करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥ जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे गिआनी = हे ज्ञानवान मूर्ख! ब्रहम बीचारु = परमात्मा (की कुदरत) की विचार। धरिआ = बनाया। पसारु = जगत रचना।1। रहाउ। अर्थ: हे विचारवान मनुष्य! (तू तो चाँद-सूरज आदि रौशनी वाली चीजें देख के सिर्फ इन्हें ही सलाह रहा है, इनको नूर देने वाले, रौशन करने वाले) परमात्मा (की महिमा) की विचार कर, उसने यह सारा संसार अपने नूर में से पैदा किया है।1। रहाउ। हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥ कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥ पद्अर्थ: देखि = देख के। हीरा = चमकता कीमती पत्थर। करउ = मैं करता हूँ। आदेसु = नमस्कार। अलेखु = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें।2। अर्थ: कबीर कहता है: मैं हीरे (आदि सुंदर कीमती चमकते पदार्थों) को देख के (उस) हीरे को सिर झुकाता हूँ (जिसने इनको ये गुण बख्शा है, और जो इनमें बसता हुआ भी) माया के प्रभाव से रहित है, और जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।2।2।11। नोट: चाँद-सूरज को माथे टेकने से मना किया गया है। दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥ निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दुनीआ = हे जगत (के लोगो!)। हुसीआर = सचेत (रहो)। बेदार = जागते (रहो)। मुसीअत हउ = लूटे जा रहे हो। रे भाई = हे भाई! निगम = वेद शास्त्र। हुसीआर पहरूआ = सचेत पहरेदार। देखत = देखते हुए। लै जाई = ले जा रहा है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! हे जगत के लोगो! सचेत रहो, जागते रहो, तुम तो (अपनी ओर से) जागते हुए लूटे जा रहे हो; वेद शास्त्र रूपी सचेत पहरेदारों के देखते हुए भी तुम्हें जम-राज लिए जा रहा है (भाव, शास्त्रों की रक्षा पहरेदारी में भी तुम ऐसे काम किए जा रहे हो, जिनके कारण जनम-मरण का चक्कर बना हुआ है)।1। रहाउ। नींबु भइओ आंबु आंबु भइओ नींबा केला पाका झारि ॥ नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥ पद्अर्थ: नींबु = नीम का वृक्ष। केला पाका = पका हुआ केला। झारि = (काँटों वाली) झाड़ी। सेबरि = सिंबल। मुगध = मूर्ख। गवार = अंजान।1। अर्थ: (शास्त्रों के बताए कर्मकांड में फंसे) मूर्ख मति-हीन अंजान लोगों को नीम का वृक्ष आम दिखाई देता है, आम का पौधा नीम लगता है; पका हुआ केला इन्हें झाड़ियाँ नजर आती हैं, और सिंबल इन्हें नारियल का पका फल दिखाई देता है।1। हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥ कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥ पद्अर्थ: रेतु महि = रेत में। हसतीं = हाथियों से। पांति = खानदान।2। नोट: ‘रेतु महि’ संबंधक ‘मोह’ के होते हुए शब्द ‘रेतु’ की (ु) मात्रा कायम है, ऐसे कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके अंत में ‘ु’ की मात्रा टिकी रहती है। अर्थ: कबीर कहता है: परमात्मा को ऐसे समझो जैसे खाण्ड रेत में मिली हुई हो। वह खांड हाथियों द्वारा नहीं चुनी जा सकती। (हाँ, अगर) चींटी हो तो वह (इस खाण्ड को) चुन के खा सकती है। इसी तरह मनुष्य कुल-जाति-खानदान (का गुमान) छोड़ के प्रभु को मिल सकता है।2।3।12। शब्द का भाव: हमारे आत्मिक जीवन के रखवाले वेद-शास्त्र ने ऊँची-नीच जाति का भेद-भाव पैदा करके ऊँची जाति वालों को अहंकार में डाल दिया है। ये रास्ता परमात्मा के राह से दूर ले जाता है। बाणी नामदेउ जीउ की रामकली घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आनीले कागदु काटीले गूडी आकास मधे भरमीअले ॥ पंच जना सिउ बात बतऊआ चीतु सु डोरी राखीअले ॥१॥ पद्अर्थ: आनीले = ले आए। काटीले = काट के बनाई। मधे = बीच में। भरमीअले = उड़ाई। बात बतऊआ = बात चीत, गप्पें।1। अर्थ: (हे त्रिलोचन! देख, लड़का) कागज लाता है, उसकी पतंग काटता है उस पतंग को आसमान में उड़ाता है, साथियों के साथ गप्पें भी मारता जाता है, पर उसका मन (पतंग की) डोर में टिका रहता है।1। मनु राम नामा बेधीअले ॥ जैसे कनिक कला चितु मांडीअले ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बेधीअले = भेद गया है। कनिक = सोना। कला = हुनर। कनिक कला = सोने का कारीगर, सोनियारा। मांडीअले = (सोने में) मढ़ा रहता है।1। रहाउ। अर्थ: (हे त्रिलोचन!) जैसे सोनियारे का मन (औरों से बात-चीत करते हुए भी, कुठाली में पड़े हुए सोने में) जुड़ा रहता है, वैसे ही मेरा मन परमात्मा के नाम में बेधा हुआ है।1। रहाउ। आनीले कु्मभु भराईले ऊदक राज कुआरि पुरंदरीए ॥ हसत बिनोद बीचार करती है चीतु सु गागरि राखीअले ॥२॥ पद्अर्थ: कुंभु = घड़ा। ऊदक = पानी। कुआरि = कँवारी। राज कुआरि = जवान कवारियाँ। पुरंदरीए = (पुर+अंदर से) शहर में से। हसत = हसते हुए। बिनोद = हसीं की बातें।2। अर्थ: (हे त्रिलोचन!) जवान लड़कियाँ शहर से (बाहर जाती हैं) अपना-अपना घड़ा उठा लेती हैं, पानी से भरती हैं, (आपस में) हसती हैं, हसीं की बातें व और कई विचारें करती हैं, पर अपना चिक्त अपने-अपने घड़े में रखती हैं।2। मंदरु एकु दुआर दस जा के गऊ चरावन छाडीअले ॥ पांच कोस पर गऊ चरावत चीतु सु बछरा राखीअले ॥३॥ अर्थ: (हे त्रिलोचन!) एक घर है जिसके दस दरवाजे हैं, इस घर में से मनुष्य गऊएं चराने के लिए छोड़ता है; ये गाएँ पाँच कोस पर जा के चरती हैं, पर अपना चिक्त अपने बछड़े में रखती हैं (वैसे ही दस-इन्द्रियों वाले इस शरीर में से मेरी ज्ञान-इंद्रिय शरीर के निर्वाह के लिए काम-काज करती हैं, पर मेरी तवज्जो अपने प्रभु-चरणों में ही है)।3। कहत नामदेउ सुनहु तिलोचन बालकु पालन पउढीअले ॥ अंतरि बाहरि काज बिरूधी चीतु सु बारिक राखीअले ॥४॥१॥ अर्थ: हे त्रिलोचन! सुन, नामदेव (एक और दृष्टांत) कहता है: माँ अपने बच्चे को पालने में डालती है, अंदर-बाहर घर के कामों में व्यस्त रहती है, पर अपनी तवज्जो अपने बच्चे में रखती है।4।1। भाव: प्रीति का स्वरूप- काम काज करते हुए तवज्जो हर वक्त प्रभु की याद में बनी रहे। बेद पुरान सासत्र आनंता गीत कबित न गावउगो ॥ अखंड मंडल निरंकार महि अनहद बेनु बजावउगो ॥१॥ पद्अर्थ: आनंता = बेअंत। न गावउगो = ना गाऊँ, मैं नहीं गाता। अखंड = अविनाशी। अखंड मंडल = अविनाशी ठिकाने वाला (प्रभु)। अनहद बेनु = एक रस बजती रहने वाली बाँसुरी। बजावउगो = बजाऊँ, मैं बजा रहा हूँ।1। अर्थ: मुझे वेद-शास्त्र, पुराण आदि के गीत काव्य आदि गाने की आवश्यक्ता नहीं, क्योंकि मैं अविनाशी ठिकाने वाले निरंकार में जुड़ के (उसके प्यार की) एक-रस बाँसुरी बजा रहा हूँ।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |