श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 973

बैरागी रामहि गावउगो ॥ सबदि अतीत अनाहदि राता आकुल कै घरि जाउगो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बैरागी = वैरागवान हो के, माया से उपराम हो के, माया से मोह तोड़ के। सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा। अतीत = विरक्त, उदास। अनाहदि = अनाहद में, एक रस टिके रहने वाले हरि में, अविनाशी प्रभु में। आकुल कै घरि = सर्व व्यापक प्रभु के चरणों में। जाउगो = जाऊँ, मैं जाता हूँ, मैं टिका रहता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: (सतिगुरु के) शब्द की इनायत से मैं वैरागवान हो के, विरक्त हो के प्रभु के गुण गा रहा हूँ, अविनाशी प्रभु (के प्यार) में रंगा गया हूँ, और सर्व-कुल-व्यापक प्रभु के चरणों में पहुँच गया हूँ।1। रहाउ।

इड़ा पिंगुला अउरु सुखमना पउनै बंधि रहाउगो ॥ चंदु सूरजु दुइ सम करि राखउ ब्रहम जोति मिलि जाउगो ॥२॥

पद्अर्थ: पउनै बंधि = पवन को बाँध के, पवन जैसे चंचल मन को काबू में रख के।

नोट: सारे बंद ध्यान से पढ़ें; महिमा के मुकाबले में कर्मकांड और तीर्थ स्नान आदि का विरोध कर रहे हैं; इस बंद में भी प्राणायाम को गैर-जरूरी कह रहे हैं।

सुखमना = (सं: सुषुमणा– a particular Artery of the human body said to lie between eerhaa and Pinglaa two of the vessels of the body) नाक के ऊपर माथे के बीच की वह नाड़ी जिसमें प्राणायाम के वक्त जोगी लोग बाई सुर (ईड़ा) के रास्ते प्राण चढ़ा के टिकाते हैं और दाई नासिका की नाड़ी पिंगला के रास्ते उतार देते हैं।

चंदु = बाई सुर ईड़ा। सूरज = दाहिनी सुर पिंगला। सम = बराबर, एक समान।2।

अर्थ: (प्रभु की महिमा की इनायत से) चंचल मन को रोक के (मैं प्रभु-चरणों में) टिका हुआ हूँ- यही मेरा ईड़ा, पिंगला, सुखमना (का साधन) है; मेरे लिए बाई और दाई सारी सुर एक जैसी हैं (भाव, प्राण चढ़ाने उतारने मेरे लिए एक जैसे ही हैं, अनावश्यक हैं), क्योंकि मैं परमात्मा की ज्योति में टिका बैठा हूँ।2।

तीरथ देखि न जल महि पैसउ जीअ जंत न सतावउगो ॥ अठसठि तीरथ गुरू दिखाए घट ही भीतरि न्हाउगो ॥३॥

पद्अर्थ: न पैसउ = नहीं पड़ता। भीतरि = अंदर।3।

अर्थ: न मैं तीर्थों के दर्शन करता हूँ, ना उनके पानी में चुभ्भी लगाता हूँ, और ना ही मैं उस पानी में रहने वाले जीवों को डराता हूँ। मुझे तो मेरे गुरु ने (मेरे अंदर ही) अढ़सठ तीर्थ दिखा दिए हैं। सो, मैं अपने अंदर ही (आत्म-तीर्थ पर) स्नान करता हूँ।3।

पंच सहाई जन की सोभा भलो भलो न कहावउगो ॥ नामा कहै चितु हरि सिउ राता सुंन समाधि समाउगो ॥४॥२॥

नोट: शब्द ‘गावउगो, बजावउगो’ आदि में अक्षर ‘गो’ सिर्फ पद-पूर्ती के लिए ही है, भविष्यत काल के लिए नहीं। अर्थ करने के वक्त इनको ‘गावउ, बजावउ’ आदि ही समझना है।

शब्द का भाव: जिस मनुष्य का मन महिमा की इनायत से सदा परमात्मा में टिका रहे, उसको शास्त्रों के कर्मकांड, जोगियों के प्राणायाम, तीर्थों के स्नान और लोक-शोभा की परवाह नहीं रहती।

पद्अर्थ: पंच सहाई = सज्जन मित्र। राता = रंगा हुआ। सुंन समाधि = मन की वह एकाग्रता जिसमें कोई मायावी फुरना नहीं उठता, जिसमें माया के फुरनों की तरफ से शून्य ही शून्य है।4।

अर्थ: नामदेव कहता है: (कर्मकांड, तीर्थ आदिक से लोग जगत में शोभा की कामना करते हैं, पर) मुझे (इन कर्मों के आधार पर) सज्जनों-मित्रों व लोगों की प्रसंशा की आवश्यक्ता नहीं है, मुझे ये गर्ज नहीं कि कोई मुझे भला कहे; मेरा चिक्त प्रभु (-प्यार) में रंगा गया है, मैं उस ठहराव में ठहरा हुआ हूँ जहाँ माया का कोई विचार नहीं चलता।4।2।

माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ ॥ हम नही होते तुम नही होते कवनु कहां ते आइआ ॥१॥

पद्अर्थ: माइ = माय, माँ। काइआ = काया, मनुष्य शरीर। हम तुम = हम सारे जीव। होते = होते थे।1।

अर्थ: (नहीं तो, अगर ये मान लें कि कर्मों की खेल है तो) जब माँ थी ना पिता था; ना कोई मनुष्य-शरीर था, और ना ही उसके द्वारा किए हुए कोई कर्म; जब कोई जीव ही नहीं थे, तब (हे प्रभु! तेरे बिना) और किस जगह से कोई जीव जनम ले सकता था?।1।

राम कोइ न किस ही केरा ॥ जैसे तरवरि पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे प्रभु! (तेरे बिना)। केरा = का। तरवर = वृक्षों पर। पंखि = पक्षी।1। रहाउ।

अर्थ: हे राम! तेरे बिना और कोई भी किसी का सहायक नहीं है (ना कोई ‘कर्म’ आदि इस जीव को जनम-मरण में लाने वाला है, और ना ही कोई शास्त्र-निहित कर्म अथवा प्राणायाम आदि इसको चक्कर में से निकालने में समर्थ है), जैसे वृक्षों पर पक्षियों का बसेरा होता है (वैसे ही तेरे भेजे हुए जीव यहाँ आते हैं और तू स्वयं ही इन्हें अपने में जोड़ता है)।1। रहाउ।

चंदु न होता सूरु न होता पानी पवनु मिलाइआ ॥ सासतु न होता बेदु न होता करमु कहां ते आइआ ॥२॥

पद्अर्थ: सूरु = सूरज। मिलाइआ = मिलाया, प्रभु ने अपने ही में मिलाए हुए थे, प्रभु ने अभी बनाए नहीं थे। करमु कहां ते आइआ = जीव के किए कर्मों का अभी अस्तित्व ही नहीं था।2।

अर्थ: जब ना चाँद था ना सूरज; जब पानी, हवा आदि तत्व भी अभी पैदा नहीं हुए थे, जब कोई वेद-शास्त्र भी नहीं थे; तब (हे प्रभु!) कर्मों का कोई अस्तित्व ही नहीं था।2।

खेचर भूचर तुलसी माला गुर परसादी पाइआ ॥ नामा प्रणवै परम ततु है सतिगुर होइ लखाइआ ॥३॥३॥

भाव: अपने उद्धार के लिए कोई तो शास्त्रों द्वारा बताए गए अच्छे कर्मों की आस रखे बैठा है, कोई प्राणायाम की टेक रखता है, किसी ने तुलसी माला आदि धार्मिक चिन्हों का आसरा लिया है; पर गुरु की शरण पड़ने से समझ आती है कि असल सहायक प्रभु स्वयं है।

पद्अर्थ: खेचर = (खे = आकाश। चर = चलना) प्राण ऊपर चढ़ाने। भूचर = (भू = धरती) प्राण नीचे उतारने। खेचर भूचर = प्राण चढ़ाने उतारने, प्राणायाम। ततु = मूल। परम ततु = सबसे बड़ा जो जगत का मूल है। होइ = होय, प्रकट हो के, मिल के।3।

अर्थ: नामदेव कहता है: कोई प्राणायाम करता है (और इसमें अपनी मुक्ति समझता है), कोई तुलसी की माला आदि धारण करता है; पर मुझे अपने गुरु की कृपा से समझ आई है। गुरु ने मिल के मुझे ये बात समझाई है कि असल सहाई सबसे ऊँचा वह प्रभु (ही) है, जो जगत का मूल है (उसने जगत बनाया, और वही संसार-समुंदर में से पार उतारता है)।3।3।

रामकली घरु २ ॥ बानारसी तपु करै उलटि तीरथ मरै अगनि दहै काइआ कलपु कीजै ॥ असुमेध जगु कीजै सोना गरभ दानु दीजै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥१॥

पद्अर्थ: उलटि = उल्टा लटक के। दहै = जले। काइआ = काया, शरीर। कलप = सं: कल्प, medical treatment of the sick, इलाज। काइआ कलपु = काया कल्प, शरीर का इलाज, योग अभ्यास और दवाईयों से शरीर को नया-निरोया करके बुढ़ापे से बचा लेना और चिरंजीवी हो जाना। असमेध जगु = अश्वमेध यज्ञ, वह यज्ञ जिसमें घोड़े की कुर्बानी दी जाती थी। गरभ दानु = (फल आदि में) छुपा के दान। सरि = के बराबर।1।

अर्थ: (हे मेरे मन!) यदि कोई मनुष्य काशी जा के उल्टा लटक के तप करे, तीर्थों पर शरीर त्यागे, (धूणियों की) आग में जले, या योगाभ्यास आदि से शरीर को चिरंजीवी कर ले, अगर कोई अश्वमेघ यज्ञ करे, या सोना (फल आदि में) छुपा के दान करे; तो भी ये सारे काम प्रभु के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।1।

छोडि छोडि रे पाखंडी मन कपटु न कीजै ॥ हरि का नामु नित नितहि लीजै ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: हे (मेरे) पाखण्डी मन! कपट ना कर, छोड़ ये कपट, ये कपट छोड़ दे। सदा परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।

गंगा जउ गोदावरि जाईऐ कु्मभि जउ केदार न्हाईऐ गोमती सहस गऊ दानु कीजै ॥ कोटि जउ तीरथ करै तनु जउ हिवाले गारै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥२॥

पद्अर्थ: कुंभि = कुंभ (समय) पर। केदार = एक हिन्दू तीर्थ है, जो रियासत गढ़वाल (उक्तर प्रदेश, भारत) में रुद्र हिमालय की बर्फानी धारा में महा पंथ की चोटी के नीचे एक टीले पर स्थित है। इसकी ऊँचाई समुंदर तल से 11753 फुट है। यहाँ सदा-शिव का मंदिर है, जिसमें भैंसे की शक्ल का महादेव है। बताया जाता है कि पांडवों से हार खा के शिव जी इस जगह पर भैंसा बन कर आए। अंदर के पुजारी जंगम हैं। अर्जुन से हार खा के शिव ने भैंसे के रूप में यहाँ पनाह ली। धड़ पहाड़ में धँस गया, सिर्फ पीठ बाहर दिखाई देती है, जिसकी लोग पूजा करते हैं। बाकी हिस्सों की पूजा चार अन्य स्थलों पर होती है = बाँहों की पूजा तुंगनाथ पर, मुँह की रुद्रनाथ पर, नाभि की मध्यमेश्वर पर और सिर और जटाओं की कल्पेश्वर पर। ये पाँचों स्थान पाँच केदार कहलाते हैं।

गोमती = एक नदी जो उक्तर प्रदेश में पीलीभीत में से शाहजहाँपुर की झील से निकल के खेड़ी, लखनऊ, जौनपुर आदि 500 मील बहती हुई सैदपुर के मकाम (जिला गाजीपुर में) गंगा से जा मिलती है। इसका दूसरा नाम वशिष्ट भी है। गोमती नाम की एक नदी द्वारावती के पास भी है।

गोदावरि = गो (स्वर्ग) देने वाली दक्षिण की एक नदी जो पूर्बी घाटों के त्रियंबक में से निकल के नौ सौ मील बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। हजूर साहिब इसी नदी के किनारे पर है। सहस = हजार। कोटि = करोड़ों। हिवाले = हिमालय पर्वत पर, बर्फ में।2।

अर्थ: (हे मेरे मन!) कुम्भ के मेले पर अगर गंगा या गोदावरी तीर्थ पर जाएं, केदार तीर्थ पर स्नान करें अथवा गोमती नदी के किनारे पर हजार गऊऔं का दान करें; (हे मन!) अगर कोई करोड़ों बार तीर्थ यात्रा करे, या अपना शरीर हिमालय पर्वत की बर्फ में गला दे, तो भी ये सारे काम प्रभु के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।2।

असु दान गज दान सिहजा नारी भूमि दान ऐसो दानु नित नितहि कीजै ॥ आतम जउ निरमाइलु कीजै आप बराबरि कंचनु दीजै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥३॥

पद्अर्थ: असु = अश्व, घोड़े। सिहजा = सेज। भूमि = जमीन। आतमु = अपना आप। निरमाइलु = (सं: निर्माल्य) देवताओं की भेंट। कंचनु = सोना।3।

अर्थ: (हे मेरे मन!) यदि घोड़े दान करें, हाथी दान करें, पत्नी दान कर दें, अपनी जमीन दान कर दें; अगर सदा ही ऐसा (कोई ना कोई) दान करते ही रहें; अगर अपना-आप भी भेट कर दें; अगर अपने बराबर तोल के सोना दान करें, तो भी (हे मन!) ये सारे काम प्रभु के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।3।

मनहि न कीजै रोसु जमहि न दीजै दोसु निरमल निरबाण पदु चीन्हि लीजै ॥ जसरथ राइ नंदु राजा मेरा राम चंदु प्रणवै नामा ततु रसु अम्रितु पीजै ॥४॥४॥

पद्अर्थ: मनहि = मन में। रोसु = गिला, गुस्सा। जमहि = जम को। निरबाण पदु = वह अवस्था जो वासना रहित है। चीन्हि लीजै = पहचान लें। जसरथ राइ नंदु = राजा यशरथ का पुत्र। मेरा = मेरे लिए, मेरे हिस्से का। ततु रसु = नाम रूप रस। पीजै = पीना चाहिए। राइ = राय, राजा। नंदु = पुत्र।4।

अर्थ: (हे जिंदे! यदि सदा ऐसे ही काम करते रहना है, और नाम नहीं स्मरणा तो फिर) मन में गिला ना करना, जम को दोष ना देना (कि वह क्यों आ गया है; इन कामों से जम से खलासी नहीं मिलनी); (हे जिंदे!) पवित्र, वासना-रहित अवस्था के साथ जान-पहचान डाल, नामदेव विनती करता है (सब रसों का) मूल-रस नाम-अमृत ही पीना चाहिए, ये नाम-अमृत ही मेरा (नामदेव का) राजा रामचंद्र है, जो राजा दशरथ का पुत्र है।4।4।

शब्द का भाव: नाम-जपने की महानता-तप, तीर्थ स्नान, दान, मूर्ति पूजा, ये कोई भी नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकते।

नोट: ‘रहाउ’ की तुक में जिक्र है कि प्रभु का नाम स्मरण करे बिना बाकी और धार्मिक आहर पाखण्ड ही हैं। ये है शब्द का बीज रूप भाव; इसका विस्तार चार बँदों में है। पहले तीन बँदों में तो ये साफ तौर पर उन कामों का वर्णन है जिनको जोग धार्मिक समझते हैं, पर जो भक्त जी के ख्याल में स्मरण करने के सामने बिल्कुल पाखण्ड है। आखिर में कहते हैं कि अगर तुम ऐसे काम ही करते रहे तो जमों से निजात नहीं मिलनी, फिर ये गिला ना करना कि जम सिर पर ही रहा।

पर चौथे पद में अचानक दशरथ के पुत्र राजा रामचंद्र जी का नाम आ जाना हैरानी में डाल देता है। कई सज्जन अर्थ करते हैं: ‘राजा दशरथ के पुत्र का राजा’। ये अर्थ गलत है क्योंकि ‘नंदु’ का अर्थ है ‘पुत्र’; ‘पुत्र का’ नहीं हो सकता। अगर इसका अर्थ ‘पुत्र का’ होता तो ‘नंदु’ के नीचे ‘ु’ मात्रा ना होती। कई सज्जन ये समझते हैं कि श्री राम चंद्र जी ने बड़े-बड़े काम किए हैं, इस वास्ते इन कामों को परमात्मा के काम बता के शब्द ‘राम चंदु’ को परमात्मा के प्रथाय बरता है। ये बात भी अनहोनी है। फिर, इस बात की क्या आवश्यक्ता थी कि श्री रामचंद्र के पिता का नाम भी बताया जाता? शब्द कृष्ण, दामोदर, माधो, मुरारि, राम, रामचंद आदि भक्तों ने और सतिगुरु जी ने भी सैकड़ों बार परमात्मा के वास्ते प्रयोग किए हैं; पर जब किसी के पिता का नाम भी साथ लगा दिया जाए, तो उस वक्त उस नाम को परमात्मा के लिए नहीं बरता जा सकता। फिर तो किसी व्यक्ति विशेष का वर्णन ही हो सकता है।

दरअसल बात ये है कि जैसे तीन बँदों में तप, यज्ञ, तीर्थ-स्नान और दान को नाम के मुकाबले में हल्का सा काम बताया है, वैसे ही किसी अवतार की मूर्ति को पूजना भी परमात्मा का नाम स्मरण के मुकाबले पर एक बहुत ही हल्का काम बताया है।

रामकली बाणी रविदास जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पड़ीऐ गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ॥ लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥१॥

पद्अर्थ: पढ़ीऐ = पढ़ते हैं। गुनीऐ = विचारते हैं। सभु = हर जगह। सुनीऐ = सुनते हैं। भाउ = प्रेम, लगन, आकर्षण। अनभउ = अनुभव, Direct perception, प्रत्यक्ष दर्शन। कंचनु = सोना। हिरन = (सं: हिरण्य) सोना। पारसहि = पारस को। परसै = छूए।1।

अर्थ: हर जगह प्रभु का नाम पढ़ते (भी) हैं, सुनते (भी) हैं और विचारते (भी) हैं (भाव, सब जीव प्रभु का नाम पढ़ते हैं, विचारते हैं और सुनते हैं; पर कामादिकों के कारण मन मेंसंशय की गाँठ बनी रहने के कारण, इनके अंदर) प्रभु का प्यार पैदा नहीं होता, प्रभु के दर्शन नहीं होते; (दर्शन हों भी तो कैसे? कामादिकों के कारण, मन के साथ प्रभु की छूह ही नहीं बनती, और) जब तक लोहा पारस से ना छूए, तब तक ये शुद्ध सोना कैसे बन सकता है?।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh