श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देव संसै गांठि न छूटै ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संसै = संशय की, डर की, सहम की। गांठि = गाँठ। न छूटै = नहीं खुलती। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। इन पंचहु = (कामादिक) इन पाँचों ने। लूटे = (सब जीव) लूट लिए हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! काम, क्रोध, माया (का मोह), अहंकार और ईष्या-जलन - इन पाँचों ने मिल के (सब जीवों के आत्मिक गुणों को) लूट लिया है (इस वास्ते निताणे हो जाने के कारण जीवों के अंदर से) सहम की गाँठ नहीं खुलती।1। रहाउ।

हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ॥ गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥२॥

पद्अर्थ: कबि = कवि। कुलीन = अच्छे कुल वाले। गुनी = गुणवान। सूर = सूरमे।2।

अर्थ: (कामादिकों की लूट के कारण, जीवों के अंदर से) कभी भी ये (बन चुकी) धारणा नहीं हटती कि हम बड़े कवि हैं, अच्छी कुल वाले हैं, विद्वान हैं, जोगी हैं, सन्यासी हैं, ज्ञानवान हैं, गुणवान हैं, सूरमे हैं या दाते हैं (जिस भी तरफ जीव पड़े उसी का गुमान हो गया)।2।

कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ॥ मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥३॥१॥

पद्अर्थ: सभै = सारे जीव (जिनको पांचों ने कामादिक वैरियों ने लूट लिया है)। भूलि परे = भूल गए हैं, गलती खा गए हैं। मोहि = मुझे। जीवन = जिंद। मोरे = मेरे लिए।3।

अर्थ: हे रविदास! कह: (जिनको कामादिक ने लूट लिया है, वह) सारे ही पागलों की भांति गलतियाँ किए जा रहे हैं और (यह) नहीं समझते (कि जिंदगी का असल आसरा प्रभु का नाम है); मुझे रविदास को परमात्मा का नाम ही आसरा है, नाम ही मेरी जिंद है, नाम ही मेरे प्राण हैं, नाम ही मेरा धन है।3।

शब्द का भाव: परमात्मा का नाम-जपना ही विकारों की मार से बचा सकता है।

रामकली बाणी बेणी जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥ बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥

पद्अर्थ: ईड़ा = बाई नासिका की नाड़ी, जिस रास्ते जोगी लोग प्राणायाम करने के समय श्वास ऊपर को खींचते हैं। पिंगुला = दाहिनी नासिका की नाड़ी, जिस रास्ते प्राण उतरते हैं। सुखमना = (सं: सुषमणा) नाम के ऊपर की नाड़ी जहाँ प्राणायाम के वक्त प्राण टिकाते हैं। तीनि = ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों ही नाड़ियाँ। इक ठाई = एक जगह पर (जहाँ निरंजन प्रभु बसता है)। बेणी = त्रिवेणी। बेणी संगमु = त्रिबेणी का मूल, वह जगह जहाँ गंगा-जमुना-सरस्वती तीनों ही नदियाँ मिलती हैं। तह = वहीं ही (जहाँ निरंजन राम प्रकट हुआ है)। पिरागु = प्रयाग तीर्थ। मजनु = स्नान।1।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की कृपा से उस मिलन-अवस्था में पहुँचा है, उसके वास्ते) ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों ही एक ही जगह बसती हैं, त्रिबेणी संगम प्रयाग तीर्थ भी (उस मनुष्य के लिए) वहीं बसते हैं। भाव, उस मनुष्य को ईड़ा, पिंगुला सुखमना के अभ्यास की आवश्यक्ता नहीं रह जाती; उसको तृवेणी और प्रयाग के स्नान की जरूरत नहीं रहती। (उस मनुष्य का) मन प्रभु के (मिलाप रूप तृवेणी में) स्नान करता है।1।

संतहु तहा निरंजन रामु है ॥ गुर गमि चीनै बिरला कोइ ॥ तहां निरंजनु रमईआ होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तहा = वहाँ (जहाँ मन डुबकी लगता है)। गमि = पहुँच के। गुर गमि = गुरु तक पहुँच के, गुरु की शरण पहुँच के। चीनै = पहचानता है, सांझ बनाता है। रमईआ = सुंदर राम।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनो! माया-रहित राम उस अवस्था में (मनुष्य के मन में) बसता है, निरंजन सोहाना राम प्रकट होता है, जिस अवस्था से सांझ कोई विरला मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ कर बनाता है।1। रहाउ।

देव सथानै किआ नीसाणी ॥ तह बाजे सबद अनाहद बाणी ॥ तह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी ॥ साखी जागी गुरमुखि जाणी ॥२॥

पद्अर्थ: देव सथान = प्रभु के रहने की जगह, वह जगह जहाँ प्रभु प्रकट हो गया है। बाजे = बजता है।

(नोट: घर में चाहे कई बढ़िया-बढ़िया साज पड़े रहें, जब तक वे बजाए ना जाएं, उनके बजने से जो उत्साह पैदा होता है, वह पैदा नहीं हो सकता) आनंद लाता है, हुलारा लाता है। सबद बाजे, वाणी बाजे, सतिगुरु का शब्द, प्रभु की महिमा की वाणी, हुलारा पैदा करते हैं।

तह = उस अवस्था में (जब निरंजन राम प्रकट होता है)। साखी = शिक्षा से। जागी = (तवज्जो) जाग उठती है। जाणी = सूझ पड़ जाती है।2।

अर्थ: (अगर कोई पूछे कि) जिस अवस्था में प्रभु (मन के अंदर) आ टिकता है, उसकी पहचान क्या है (तो उक्तर ये है कि) उस अवस्था में सतिगुरु का शब्द प्रभु की महिमा की वाणी (मनुष्य के हृदय में) हिल्लौरे पैदा करती हैं; (जगत के अंधेरे को दूर करने के लिए) चाँद और सूरज (उतने समर्थ) नहीं (जितना वह हिलौरा मन के अंधेरे को दूर करने के लिए होता है), पवन पानी (आदि तत्व जगत को उतना सुख) नहीं (दे सकते, जितना सुख ये हिलौरा मनुष्य के मन को देता है); मनुष्य की तवज्जो गुरु की शिक्षा के साथ जाग उठती है, गुरु के द्वारा सूझ पड़ जाती है।2।

उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥ अम्रित रसि गगनंतरि भीजै ॥ एसु कला जो जाणै भेउ ॥ भेटै तासु परम गुरदेउ ॥३॥

पद्अर्थ: छीजै = नाश हो जाती है। अंम्रित रसि = नाम अमृत के रस से। गगनंतरि = गगन+अंतरि, गगन में, आकाश में, ऊँची उड़ान में। भीजै = (मन) भीग जाता है, रस जाता है। कला = हुनर। भेउ = भेद। तासु = उसको। परम = सबसे ऊँचा।3।

अर्थ: (प्रभु-मिलाप वाली अवस्था में मनुष्य की) प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान बन जाती है। दुमर्ति नाश हो जाती है; ऊँची उड़ान में (पहुँचा हुआ मन) नाम-अमृत के रस के साथ रस जाता है; जो मनुष्य इस (अवस्था में पहुँच सकने वाले) हुनर का भेद जान लेता है, उसको अकाल-पुरख मिल जाता है।3।

दसम दुआरा अगम अपारा परम पुरख की घाटी ॥ ऊपरि हाटु हाट परि आला आले भीतरि थाती ॥४॥

पद्अर्थ: दुआर = दरवाजा, द्वार (जहाँ से किसी मकान के बाहरी हिस्से का संबंध मकान के अंदरूनी हिस्से से बनता है। मनुष्य शरीर के दस दरवाजे हैं, जिनके माध्यम से बाहरी पदार्थों का संबंध शरीर से और अंदर का बाहर से बनता है। नौ दरवाजे तो जगत से साधारण सांझ बनाने के लिए हैं, पर दिमाग एक ऐसा दरवाजा है जिसकी इनायत से मनुष्य प्रभु से सांझ बना सकता है, क्योंकि सोच-विचार इसी ‘द्वार’ के माध्यम से हो सकती है)। दसम दुआर = शरीर का दसवाँ द्वार, दिमाग़। घाटी = जगह। थाती = (सं: स्थिति) टिकाउ।4।

अर्थ: अगम्य (पहुँच से परे), बेअंत और परम पुरख प्रभु के प्रकट होने का ठिकाना (मनुष्य के शरीर का दिमाग़-रूप) दसवाँ-द्वार है; शरीर के ऊपरी हिस्से में (सिर, मानो) एक हाट है, उस हाट में (दिमाग़, मानो) एक बेहतर है, इस आले के द्वारा प्रभु का प्रकाश होता है।4।

जागतु रहै सु कबहु न सोवै ॥ तीनि तिलोक समाधि पलोवै ॥ बीज मंत्रु लै हिरदै रहै ॥ मनूआ उलटि सुंन महि गहै ॥५॥

पद्अर्थ: पलोवै = दौड़ जाते हैं, प्रभाव नहीं डाल सकते। उलटि = (‘तीन तिलोक’ की ओर से) पलट के। गहै = (ठिकाना) पकड़ता है।5।

अर्थ: (जिसके अंदर परमात्मा प्रकट हो गया) वह सदा जागता रहता है (सचेत रहता है), (माया की नींद में) कभी सोता नहीं; वह एक ऐसी समाधि में टिका रहता है जहाँ से माया के तीनों गुण और तीनों लोकों की माया परे ही रहती है; वह मनुष्य प्रभु का नाम-मंत्र अपने हृदय में टिका के रखता है, (जिसकी इनायत से) उसका मन माया की ओर से पलट के (सचेत रहता है), उस अवस्था में ठिकाना पकड़ता है जहाँ कोई फुरना नहीं उठता।5।

जागतु रहै न अलीआ भाखै ॥ पाचउ इंद्री बसि करि राखै ॥ गुर की साखी राखै चीति ॥ मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ॥६॥

पद्अर्थ: अलीआ = (सं: अलीक) झूठ। साखी = शिक्षा। चीति = चिक्त में। क्रिशन = प्रभु।6।

अर्थ: वह मनुष्य सदा जागता है, (सचेत रहता है), कभी झूठ नहीं बोलता; पाँचों ही इन्द्रियों को अपने काबू में रखता है, सतिगुरु का उपदेश अपने मन में संभाल के रखता है, अपना मन, अपना शरीर प्रभु के प्यार से सदके करता है।6।

कर पलव साखा बीचारे ॥ अपना जनमु न जूऐ हारे ॥ असुर नदी का बंधै मूलु ॥ पछिम फेरि चड़ावै सूरु ॥ अजरु जरै सु निझरु झरै ॥ जगंनाथ सिउ गोसटि करै ॥७॥

पद्अर्थ: कर = हाथ की (उंगलियाँ)। पलव = पत्र। साखा = शाखा, टहणियाँ। असुर नदी = विकारों की नदी। मूलु = श्रोत। बंधै = रोक देता है, बंद कर देता है। फेरि = मोड़ के, हटा के। पछमि = पश्चिम, उतरता पासा, वह दिशा जिधर सूरज डूबता है, वह पासा जिधर ज्ञान के सूर्य के डूबने का खतरा होता है, अज्ञानता। सूरु = ज्ञान का सूर्य। निझरु = चश्मा, झरना। गोसटि = मिलाप। अजरु = अ+जरा, जिसको कभी बुढ़ापा ना आए।7।

अर्थ: वह मनुष्य (जगत को) हाथ (की उंगलियाँ, वृक्ष की) टहनियाँ और पत्ते समझता है (इसलिए मूल प्रभु को छोड़ के इसके पसारे में फंस के) अपनी जिंदगी जूए के खेल में नहीं गवाता; विकारों की नींद का श्रोत ही बंद कर देता है, मन को अज्ञानता के अंधेरे से पलट के (इसमें ज्ञान का) सूरज चढ़ाता है; (सदा के लिए) परमात्मा के साथ मेल कर लेता है, (मिलाप का उसके अंदर) एक चश्मा फूट पड़ता है, (वह एक ऐसी मौज) का आनंद लेता है, जिसको कभी बुढ़ापा नहीं (भाव, कभी खत्म नहीं होता)।7।

चउमुख दीवा जोति दुआर ॥ पलू अनत मूलु बिचकारि ॥ सरब कला ले आपे रहै ॥ मनु माणकु रतना महि गुहै ॥८॥

पद्अर्थ: पलू = पल्लव, पक्तियाँ, पंखुड़ियाँ। अनत = अनंत। रहै = रहता है। रतन = प्रभु के गुण। गुहै = छुपा रहता है, जुड़ा रहता है। सरब कला = सारी ताकतों वाला प्रभु।8।

अर्थ: प्रभु की ज्योति द्वारा उसके अंदर (मानो) चार मुँह वाला दीपक जग उठता है (जिसके कारण हर तरफ प्रकाश ही प्रकाश रहता है); (उसके अंदर, मानो, एक ऐसा फूल खिल उठता है, जिसके) बीच में प्रभु-रूप मकरंद होता है और उसकी बेअंत पक्तियाँ होती हैं (अनंत रचना वाला प्रभु उसके अंदर प्रकट हो जाता है) वह मनुष्य सारी ताकतों के मालिक प्रभु को अपने अंदर बसा लेता है, उसका मन मोती (बन के प्रभु के गुण रूप) रत्नों में जुड़ा रहता है।8।

मसतकि पदमु दुआलै मणी ॥ माहि निरंजनु त्रिभवण धणी ॥ पंच सबद निरमाइल बाजे ॥ ढुलके चवर संख घन गाजे ॥ दलि मलि दैतहु गुरमुखि गिआनु ॥ बेणी जाचै तेरा नामु ॥९॥१॥

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। पदमु = कमल फूल। मणी = हीरे। माहि = धुर अंदर। धणी = मालिक। पंच सबद = पाँचों ही किस्मों के साजों की आवाज। निरमाइल = निर्मल, पवित्र, सोहाने। ढुलके = झूल रहा है। घन = बहुत। दलि = दलै, दल देता है। दैतहु = दैत्यों को, कामादिक विकारों को। जाचै = मांगता है।9।

अर्थ: उस बंदे के धुर अंदर त्रिलोकी का मालिक प्रभु आ टिकता है। (उसकी इनायत से) उसके माथे पर (मानो) कमल फूल (खिल उठता है, और) उस फूल के चारों तरफ हीरे (परोए जाते हैं); (उसके अंदर मानो एक ऐसा सुंदर राग होता है कि) पाँचों ही किस्मों के सुंदर साज बज उठते हैं, बड़े शंख बजने लग जाते हैं, उसके ऊपर चवर झूलने लगता है (भाव, उसका मन शहनशाहों का शाह बन जाता है)। सतिगुरु से मिला हुआ प्रभु के नाम का ये प्रकाश कामादिक विकारों को मार खत्म कर देता है।

हे प्रभु! (तेरा दास) बेणी (भी तेरे दर से) (ये) नाम ही माँगता है।9।1।

नोट: बेणी जी इस अष्टपदी में कई अलंकारों के माध्यम से वह सुख बयान करते हैं जो मन को प्रभु के चरणों में जोड़ने से मिलता है; माया के तीन गुणों और कामादिक की मार से मन ऊँचा हो जाता है। अगर निरी कविता का ही ख्याल करें तो भी बहुत सुंदर रचना है, पर अलंकारों के कारण मुश्किल जरूर लगती है।

ऐसा प्रतीत होता है जैसे गुरु नानक देव जी ने सादे शब्दों में अपनी एक अष्टपदी के माध्यम से इस शब्द के भाव को बयान कर दिया है; कई शब्द सांझे मिलते थे; जैसे: सुंन समाधि, दुरमति, नामु रतनु, अनाहद, जागि रहे, पंच तसकर, वाजै आदि। गुरु नानक देव जी वाली अष्टपदी भी इसी राग में ही है।

रामकली महला १॥ खटु मटु देही मनु बैरागी॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा॥१॥ प्राणी राम भगति सुखु पाईऐ॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईऐ॥१॥ रहाउ॥ माइआ मोहु बिवरजि समाए॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाए॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा॥ तितु राता मेरा मनु धीरा॥२॥ हउमै ममता रोगु न लागै॥ राम भगति जम का भउ भागै॥ जंमु जंदारु न लागै मोहि॥ निरमल नामु रिदै महि सोहि॥३॥ सबदु बीचारि भए निरंकारी॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई॥४॥ अलिपत गुफा महि रहहि निरारे॥ तसकर पंच सबदि संघारे॥ पर घर जाइ न मनु डोलाए॥ सहज निरंतरि रहउ समाए॥५॥ गुरमुखि जागि रहे अउधूता॥ सद बैरागी ततु परोता॥ जगु सूता मरि आवै जाइ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ॥६॥ अनहद सबदु वजै दिनु राती॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती॥ तउ जानी जा सबदि पछानी॥ एको रवि रहिआ निरबानी॥७॥ सुंन समाधि सहजि मनु राता॥ तजि हउ लोभा एको जाता॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ॥८॥३॥ (पन्ना ९०३–९०४)

भक्त वाणी के विरोधी सज्जन जी भक्त-वाणी को गुरबाणी गुरमति के उलट समझ के भक्त बेणी जी के बारे में यूँ लिखते हैं: ‘आप जाति के ब्राहमण थे, जोग-अभ्यास के पक्के श्रद्धालु थे, कर्मकांड की भी बहुत हिमायत करते थे।’

इससे आगे बेणी जी का रामकली राग वाला ये उपरोक्त शब्द दे के फिर लिखते हैं: ‘उक्त शब्द के अंदर भक्त जी ने ‘अनहत शब्द’, निउली करम, जोग-अभ्यास का उपदेश दे के जोरदार शब्दों द्वारा मंडन किया है। इससे साबित होता है कि भक्त जी जोग-अभ्यास और वैश्णव मत के पक्के श्रद्धालु थे’।

पर, पाठक सज्जन बेणी जी के शब्द में देख आए हैं कि नियोली करम का कोई वर्णन नहीं है, विरोधी सज्जन ने शब्द के प्रति उपरामता पैदा करने के लिए बढ़ा-चढ़ा के बात लिखी है। जोग-अभ्यास का भी भक्त जी ने उपदेश नहीं किया, बल्कि खण्डन किया है और कहा है कि प्रभु-मेल की अवस्था के बीच ही जोग-अभ्यास और त्रिवेणी का स्नान आ जाते हैं। अब रहा भक्त जी का ‘अनहद शब्द’ का उपदेश। ऊपर लिखी गुरु नानक पातशाह की अष्टपदी पढ़ें; साहिब कहते हैं: ‘वाजै अनहदु, अलिपत गुफा महि रहहि निरारे, अनहद सबदु वजै, सुंन समाधि सहजि मनु राता।’ इसे पढ़ कर विरोधी सज्जन क्या गुरु नानक साहिब को जोग-अभ्यास व वैश्णव मत का श्रद्धालू समझ लेगा? जल्दबाजी त्याग के, धैर्य से एक-एक शब्द की संरचना समझ के, उस समय की व्याकरण के अनुसार शब्दों के परस्पर संबंध को ध्यान से समझ के, पक्षपात से ऊपर उठ कर, अगर शब्द को पढ़ेंगे, तो ये शब्द निर्मल गुरमति अनुसार दिखाई दे जाएगा। भक्त जी तो आरम्भ में ही ‘रहाउ’ की तुकों में कहते हैं कि परमात्मा उस आत्मिक अवस्था में प्रकट होता है, जिस अवस्था की सूझ गुरु की शरण पड़ने से मिलती है। आखिरी तुक में फिर कहते हैं कि ‘गुरमुखि गिआनु’ गुरु से मिला हुआ ज्ञान (विकार) दैत्यों को नाश कर देता है। ये कह के प्रभु से नाम की दाति माँगते हैं।

अफसोस! जल्दबाजी और बे-प्रतीती में इस शब्द को पढ़ के विरोधी सज्जन गलत अर्थ लगा रहे हैं।

विरोधी सज्जन सिर्फ गलती ही नहीं कर रहे, खुद को कुछ हद तक धोखा भी दे रहे हैं। देखिए, भक्त बेणी जी के बाकी शबदों को सामने पेश किए बिना उनके बारे में ऐसा लिखना– “भक्त जी के दो और शब्द सिरी राग और प्रभाती राग में आए हैं, पर उन शबदों से भी गुरमति के किसी सिद्धांत पर रौशनी नहीं पड़ती। इससे साबित हुआ कि भक्त बेणी जी की रचना गुरमति का कोई प्रचार नहीं करती, बल्कि गुरमति की विरोधी है।”

रामकली राग के शब्द को तो पाठक पढ़ ही चुके हैं और देख चुके हैं कि ये हू-ब-हू आशय से मिलता है। बेणी जी का सिरी राग वाला शब्द पहले विचारा जा चुका है। हम यहाँ सिर्फ ‘रहाउ’ का बंद फिर देते हैं।

‘फिरि पछुतावहिगा मूढ़िआ, तूं कवन कुमति भ्रमि लागा। चेति रामु, नाही जमपुरि जाहिगा, जनु बिचरै अनराधा’।1। रहाउ।

क्यों भाई साहब! प्रभु के नाम स्मरण के लिए प्रेरणा करनी भी गुरमति के उलट ही है? इससे तो ऐसा लगता है कि जानबूझ के विरोधता की जा रही है।

बेणी जी का अगला शब्द प्रभाती राग वाला भी पढ़ कर देखना। जाति के ब्राहमण बेणी जी, ब्राहमण द्वारा डाले गए कर्मकांड के जाल का पाज और किस तगड़े ढंग साफ शब्दों में खोलते? लगता है भाई साहब ने ये शब्द पढ़ा ही नहीं। हठ-अधीन हो के सच्चाई से दूर ही जा पड़ते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh