श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 978 हरि का मारगु गुर संति बताइओ गुरि चाल दिखाई हरि चाल ॥ अंतरि कपटु चुकावहु मेरे गुरसिखहु निहकपट कमावहु हरि की हरि घाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥ पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। गुर संति = गुरु संत ने। गुरि = गुरु ने। चाल = चलने का तरीका। अंतरि = मन में से। कपटु = छल कपट। चुकावहु = दूर करो। निहकपट = छल कपट छोड़ के। घाल = मेहनत।1। अर्थ: हे भाई! संत-गुरु ने परमात्मा को मिलने का रास्ता बताया है, गुरु ने परमात्मा की राह पर चलने की विधि सिखाई है (और कहा है:) हे गुरसिखो! अपने अंदर से छल-कपट दूर करो, निष्छल हो के परमात्मा के नाम-जपने की मेहनत करो, (इस तरह) निहाल निहाल होया जाता है।1। ते गुर के सिख मेरे हरि प्रभि भाए जिना हरि प्रभु जानिओ मेरा नालि ॥ जन नानक कउ मति हरि प्रभि दीनी हरि देखि निकटि हदूरि निहाल निहाल निहाल निहाल ॥२॥३॥९॥ पद्अर्थ: ते = वह (बहुवचन)। हरि प्रभ भाए = हरि प्रभु को प्यारे लगे। प्रभि = प्रभु ने। देखि = देख के। निकटि = नजदीक। हदूरि = हाजर नाजर।2। अर्थ: हे भाई! मेरे गुरु के वह सिख परमात्मा को प्यारे लगते हैं, जिन्होंने ये जान लिया है कि परमात्मा हमारे नजदीक बस रहा है। हे नानक! जिस सेवकों को परमात्मा ने ये सूझ बख्शी दी, वह सेवक परमात्मा को अपने नजदीक बसता देख के अपने अंग-संग बसता देख के हर वक्त प्रसन्न-चिक्त रहते हैं।2।3।9। रागु नट नाराइन महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम हउ किआ जाना किआ भावै ॥ मनि पिआस बहुतु दरसावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। जाना = जानूँ, (मैं) जानता। किआ भावै = (तुझे) क्या अच्छा लगता है। मनि = मन में। पिआस = प्यास, तमन्ना। दरसावै = (तेरे) दर्शनों की।1। रहाउ। अर्थ: हे परमात्मा! मैं ये तो नहीं जानता कि तुझे क्या अच्छा लगता है (भाव, तुझे मेरी चाहत पसंद है अथवा नहीं, पर) मेरे मन में तेरे दर्शनों की बहुत अभिलाशा है।1। रहाउ। सोई गिआनी सोई जनु तेरा जिसु ऊपरि रुच आवै ॥ क्रिपा करहु जिसु पुरख बिधाते सो सदा सदा तुधु धिआवै ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। गिआनी = ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला। रुच = (तेरी) खुशी। करहु = तुम करते हो। पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे विधाता!।1। अर्थ: हे सर्व-व्यापक! हे विधाता! वही मनुष्य उच्च आत्मिक सूझवाला है, वही मनुष्य तेरा सेवक है, जिस पर तेरी खुशी होती है। हे प्रभु! जिस पर तू मेहर करता है, वह तुझे सदा ही स्मरण करता रहता है।1। कवन जोग कवन गिआन धिआना कवन गुनी रीझावै ॥ सोई जनु सोई निज भगता जिसु ऊपरि रंगु लावै ॥२॥ पद्अर्थ: जोग = योग साधन। गिआन = ज्ञान की बातें। धिआना = समाधियां। गुनी = गुणों से। रीझावै = (प्रभु को जीव) खुश कर सकता है। कवन = कौन से? निज = अपना प्यारा। रंगु = प्यार का रंग। लावै = लाता है, चढ़ाता है।2। अर्थ: हे भाई! वह कौन से योग-साधन हैं? कौन सी ज्ञान की बातें हैं? कौन सी समाधियाँ हैं? कौन से गुण हैं जिनसे कोई मनुष्य परमात्मा को पसंद कर सकता है? (मनुष्य के अपने इस तरह के कोई प्रयत्न कामयाब नहीं होते)। वही मनुष्य प्रभु का सेवक है, वही मनुष्य प्रभु का प्यारा भक्त है, जिस पर वह स्वयं अपने प्यार का रंग चढ़ाता है।2। साई मति साई बुधि सिआनप जितु निमख न प्रभु बिसरावै ॥ संतसंगि लगि एहु सुखु पाइओ हरि गुन सद ही गावै ॥३॥ पद्अर्थ: साई = वही। जितु = जिससे। निमख = आँख झपकने जितना समय। बिसरावै = भुलाता। संत संगि = गुरु (के चरणों के) साथ। लगि = लगके। सद = सदा।3। नोट: शब्द ‘सोई’ पुलिंग है, जबकि ‘साई’ स्त्रीलिंग। अर्थ: हे भाई! वही समझ (अच्छी है), वही बुद्धि और समझदारी (ठीक है), जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा को आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं भुलाता। (हे भाई! जिस मनुष्य ने) गुरु के चरणों में बैठ के ये (हरि-नाम-स्मरण का) सुख हासिल कर लिया, वह सदा ही परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। देखिओ अचरजु महा मंगल रूप किछु आन नही दिसटावै ॥ कहु नानक मोरचा गुरि लाहिओ तह गरभ जोनि कह आवै ॥४॥१॥ पद्अर्थ: मंगला रूप = आनंद स्वरूप प्रभु। आन = (अन्य) और। दिसटावै = नजर आता, दिखाई देता। मोरचा = जंग, मन पर चढ़ा हुआ विकारों का जंग। गुरि = गुरु ने। तह = वह। कह = कहाँ?।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने आश्चर्य-रूप महा आनंदरूप परमात्मा के दर्शन कर लिए, उसको (उस जैसी) कोई और चीज नहीं दिखती। हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के मन से विकारों का) जंग उतार दिया वहाँ पैदा होने-मरने का चक्कर कभी नजदीक नहीं फटक सकता।4।1। नट नाराइन महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ उलाहनो मै काहू न दीओ ॥ मन मीठ तुहारो कीओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उलाहनो = गिला। काहू = किसी को भी। तुहारो कीओ = तेरा किया (हरेक काम)। मन मीठ = मन को मीठा (लगा)।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु! गुरु की किरपा से तब से) तेरा किया हुआ (हरेक काम) मेरे मन को मीठा लगने लगा है, (जब से किसी की तरफ से किसी प्रकार के जोर-जब्र का) उलाहमा मैंने किसी को कभी नहीं दिया।1। रहाउ। आगिआ मानि जानि सुखु पाइआ सुनि सुनि नामु तुहारो जीओ ॥ ईहां ऊहा हरि तुम ही तुम ही इहु गुर ते मंत्रु द्रिड़ीओ ॥१॥ पद्अर्थ: मानि = मान के। आगिआ = आज्ञा, (तेरी) रज़ा। जानि = जान के, समझ के। सुनि = सुन के। जीओ = मैंने आत्मिक जीवन पा लिया है। ईहां = इस लोक में। ऊहां = परलोक में। ते = से। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ीओ = (हृदय में) पक्का कर लिया है, दृढ़ कर लिया।1। अर्थ: हे प्रभु! तेरी रज़ा को (मीठी) मान के, तेरी रज़ा को समझ के मैंने सुख हासिल कर लिया है, तेरा नाम सुन-सुन के मैंने ऊँचा आत्मिक जीवन हासिल कर लिया है। मैंने गुरु से ये उपदेश (ले के अपने मन में ये बात) दृढ़ कर ली है कि इस लोक में और परलोक में तू ही सिर्फ तू ही (मेरा सहायक है)।1। जब ते जानि पाई एह बाता तब कुसल खेम सभ थीओ ॥ साधसंगि नानक परगासिओ आन नाही रे बीओ ॥२॥१॥२॥ पद्अर्थ: जब ते = जब से। जानि पाई = समझ लिया है। कुसल = सुख। खेम = आनंद। सभ = हरेक किस्म का। साध संगि = गुरु की संगति में। परगासिओ = (उच्च आत्मिक जीवन का) ये प्रकाश किया है। आन = अन्य, और। रे = हे भाई! बीओ = कोई दूसरा।2। अर्थ: हे भाई! जब से (गुरु से) मैंने ये बात समझ ली है, तब से (मेरे अंदर) हरेक किस्म का सुख-आनंद बना रहता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-संगत में (गुरु ने मेरे अंदर आत्मिक जीवन का यह) प्रकाश कर दिया है कि (परमात्मा के बिना) कोई और दूसरा (कुछ भी करने के योग्य) नहीं है।2।1।2। नट महला ५ ॥ जा कउ भई तुमारी धीर ॥ जम की त्रास मिटी सुखु पाइआ निकसी हउमै पीर ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। धीर = धीरज, हौसला। त्रास = सहम, डर। निकसी = निकल गई। पीर = पीड़ा, चुभन।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा दिया हुआ धैर्य मिल गया, उसके अंदर से मौत का डर हर वक्त का सहम मिट गया, उसने आत्मिक आनन्द हासिल कर लिया, उसके मन में से अहंकार की चुभन भी निकल गई।1। रहाउ। तपति बुझानी अम्रित बानी त्रिपते जिउ बारिक खीर ॥ मात पिता साजन संत मेरे संत सहाई बीर ॥१॥ पद्अर्थ: तपति = (तृष्णा की) तपश। अंम्रित बानी = आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी ने। त्रिपते = तृप्त हो गए। बारिक = बालक। खीर = दूध। सहाई = मददगार। बीर = भाई।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों के अंदर से) सतिगुरु की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी ने माया की तृष्णा की तपश बुझा दी, वह (माया से) इस प्रकार तृप्त हो गए, जैसे बालक दूध से संतुष्ट होते हैं। हे भाई! मेरे वास्ते भी संत जन ही माता-पिता हैं, संत जन ही सज्जन-मित्र-भाई मददगार हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |