श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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खुले भ्रम भीति मिले गोपाला हीरै बेधे हीर ॥ बिसम भए नानक जसु गावत ठाकुर गुनी गहीर ॥२॥२॥३॥

पद्अर्थ: भ्रम = भ्रम, भटकना। भीति = भिक्ति, पर्दे, किवाड़। बेधे = भेद लिए। बिसम = आनंद भरपूर। जसु = यश, महिमा के गीत। गुनी गहीर = गुणों के खजाने प्रभु का।2।

अर्थ: हे नानक! गुणों के खजाने मालिक-प्रभु के गुण गाते-गाते (गुण गाने वाले मनुष्य) आनंद-मगन ही हो जाते हैं, (उनके अंदर से माया के पीछे) भटकते फिरने की भिक्ति खुल जाती है, उनको सृष्टि का पालनहार प्रभु मिल जाता है, (प्रभु उनकी जिंद को अपने चरणों में ऐसे जोड़ लेता है जैसे) हीरे को हीरा भेद लेता है।2।2।3।

नट महला ५ ॥ अपना जनु आपहि आपि उधारिओ ॥ आठ पहर जन कै संगि बसिओ मन ते नाहि बिसारिओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जनु = सेवक, भक्त, दास। आपहि आपि = आप ही आप, स्वयं ही स्वयं। उधारिओ = (विकारों से) बचाया है। कै संगि = के साथ। ते = से। बिसारिओ = भुलाया।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने सदा खुद ही अपने सेवक को विकारों से बचाया है। प्रभु अपने सेवक के साथ आठों पहर बसता है, (प्रभु ने अपने सेवक को अपने) मन से कभी भी नहीं भुलाया।1। रहाउ।

बरनु चिहनु नाही किछु पेखिओ दास का कुलु न बिचारिओ ॥ करि किरपा नामु हरि दीओ सहजि सुभाइ सवारिओ ॥१॥

पद्अर्थ: बरनु = रंग। चिहनु = निशान, रूप। पेखिओ = देखा। करि = कर के। सहजि = आतिमक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सवारिओ = जीवन सुंदर बनाया।1।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु ने अपने सेवक का बाहरी) रंग-रूप कुछ भी कभी नहीं देखा, सेवक के (ऊँचे-नीचे) कुल को भी नहीं विचारा। (सेवक को सदा ही) हरि ने मेहर कर के अपना नाम बख्शा है, (नाम की इनायत से उसको) आत्मिक अडोलता और प्रेम में टिका के उसका जीवन सुंदर बना दिया है।1।

महा बिखमु अगनि का सागरु तिस ते पारि उतारिओ ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥३॥४॥

पद्अर्थ: बिखमु = मुश्किल। अगनि = (तृष्णा की) आग। सागरु = समुंदर। पेखि = देख के। बिगसानो = खुश होता है। पुनह पुनह = बार बार।2।

नोट: ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! यह जगत तृष्णा की) आग का समुंदर है (इसमें से पार लांघना) बहुत मुश्किल है, (परमात्मा ने सदा अपने सेवक को) इसमें से (खुद) पार लंघाया है। सेवक अपने परमात्मा के दर्शन कर-करके खुश होता है और उससे बार-बार बलिहार जाता है।2।3।4।

नट महला ५ ॥ हरि हरि मन महि नामु कहिओ ॥ कोटि अप्राध मिटहि खिन भीतरि ता का दुखु न रहिओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहिओ = कहा, उचारा। कोटि = करोड़ों। अप्राध = अपराध, भूलें, पाप। मिटहि = मिट जाते हैं। ता का = उस (मनुष्य) का। न रहिओ = नहीं रह जाता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जिस भी मनुष्य ने) परमात्मा का नाम अपने मन में स्मरण किया है, एक छिन में ही उसके करोड़ों पाप मिट जाते हैं, उसका कोई भी दुख रह नहीं जाता।1। रहाउ।

खोजत खोजत भइओ बैरागी साधू संगि लहिओ ॥ सगल तिआगि एक लिव लागी हरि हरि चरन गहिओ ॥१॥

पद्अर्थ: खोजत = तलाश करते हुए। बैरागी = वैरागवान, मतवाला। साधू संगि = गुरु की संगति में। लहिओ = पा लिया, ढूँढ लिया। सगल = सारे (विचार)। लिव = लगन। गहिओ = पकड़ लिए।1।

अर्थ: हे भाई! (और) सारे (ख्याल) छोड़ के जिस मनुष्य की लगन एक परमात्मा में लग गई, जिसने परमात्मा के चरण (अपने मन में कस के) पकड़ लिए, जो मनुष्य प्रभु की तलाश करते-करते (उसी का ही) मतवाला बन गया, उसने प्रभु को गुरु की संगति में पा लिया।1।

कहत मुकत सुनते निसतारे जो जो सरनि पइओ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपुना कहु नानक अनदु भइओ ॥२॥४॥५॥

पद्अर्थ: मुकत = माया के बंधन से मुक्त। निसतारे = पार लंघा दिए। जो जो = जो जो मनुष्य। सिमरि = स्मरण करके। कहु = कह। नानक = हे नानक! अनदु = आनंद, सुख।2।

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) परमात्मा का नाम उचारने वाले माया के बंधनो से आजाद हो जाते हैं, नाम सुनने वालों को प्रभु संसार-समुंदर से पार लंघा देता है; जो जो भी मनुष्य प्रभु की शरण पड़ता है (प्रभु उसको पार लंघा देता है)। हे भाई! अपने मालिक प्रभु को बार-बार स्मरण करके आत्मिक आनंद बना रहता है।2।4।5।

नट महला ५ ॥ चरन कमल संगि लागी डोरी ॥ सुख सागर करि परम गति मोरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। डोरी = प्रेम की तार, ध्यान की डोर। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मोरी = मेरी।1। रहाउ।

अर्थ: हे सुखों के समुंदर हरि! मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना दे, तेरे सुंदर चरणों से मेरे प्रेम की तार लग गई है।1। रहाउ।

अंचला गहाइओ जन अपुने कउ मनु बीधो प्रेम की खोरी ॥ जसु गावत भगति रसु उपजिओ माइआ की जाली तोरी ॥१॥

पद्अर्थ: अंचला = पल्ला। गहाइओ = पकड़ाया है। कउ = को। बीधो = भेदा गया है। खोरी = खुमारी में। रसु = स्वाद। जाली = फांसी, फंदा। तोरी = तोड़ दी है।1।

अर्थ: हे सुख सागर! तूने अपने सेवक को अपना पल्ला स्वयं पकड़वाया है, (तेरे सेवक का) मन (तेरे) प्यार की खुमारी में भेदा गया है। तेरा यश गाते हुए (तेरे सेवक के हृदय में तेरी) भक्ति का (ऐसा) स्वाद पैदा हो गया है (जिसने) माया के फंदे को तोड़ दिया है।1।

पूरन पूरि रहे किरपा निधि आन न पेखउ होरी ॥ नानक मेलि लीओ दासु अपुना प्रीति न कबहू थोरी ॥२॥५॥६॥

पद्अर्थ: पूरन = हे सर्व व्यापक! पूरि रहे = व्याप रहा है। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने प्रभु! पेखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। होरी = (तेरे बिना) किसी और को। न थोरी = थोड़ी नहीं होती।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सर्व-व्यापक प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! तू हर जगह भरपूर है। मैं (कहीं भी तेरे बिना) किसी और को नहीं देखता। अपने सेवक को (अपने चरणों में) तूने स्वयं जोड़ लिया है, (जिसके कारण तेरे चरणों की) प्रीति (तेरे सेवक के हृदय में) कभी कम नहीं होती।2।5।6।

नट महला ५ ॥ मेरे मन जपु जपि हरि नाराइण ॥ कबहू न बिसरहु मन मेरे ते आठ पहर गुन गाइण ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपु = जपा कर। न बिसरहु = (हे प्रभु!) तू ना बिसर। ते = से।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! हरि नारायण के नाम का जाप जपा कर। हे प्रभु! तू मेरे मन से कभी भी ना भूल, (मेरा मन) आठों पहर तेरे गुण गाता रहे।1। रहाउ।

साधू धूरि करउ नित मजनु सभ किलबिख पाप गवाइण ॥ पूरन पूरि रहे किरपा निधि घटि घटि दिसटि समाइणु ॥१॥

पद्अर्थ: साधू धूरि = गुरु के चरणों की धूल (में)। करउ = करूँ, मैं करता रहूँ। मजनु = स्नान। किलबिख = पाप। गवाइण = दूर करने के समर्थ। पूरन = हे सर्व व्यापक! किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! घटि घटि = हरेक शरीर में। दिसटि समाइणु = दिखता रहे, समाया हुआ।1।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं गुरु के चरणों की धूल में सदा स्नान करता रहूँ, (गुरु के चरणों की धूल) सारे पाप दूर करने के समर्थ है। हे सबमें बस रहे प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! तू मुझे हरेक शरीर में समाया हुआ दिखता रहे।1।

जाप ताप कोटि लख पूजा हरि सिमरण तुलि न लाइण ॥ दुइ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै तेरे दासनि दास दसाइणु ॥२॥६॥७॥

पद्अर्थ: जाप = (देवताओं को वश में करने के मंत्रों के) जाप। ताप = (धूणियाँ आदि) तपों के साधन। कोटि = करोड़ों। तुलि = बराबर। दुइ = दोनों। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। दानु = ख़ैर। मांगै = माँगता है (एकवचन)। दासनि दास दसाइणु = दासों के दासों का दास।2।

अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! करोड़ों जप-तप और लाखों पूजा (पाठ) तेरे नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकते। (तेरा दास) नानक दोनों हाथ जोड़ के (तुझसे) ख़ैर माँगता है (कि मैं तेरे) दासों के दासों का दास (बना रहूँ)।2।6।7।

नट महला ५ ॥ मेरै सरबसु नामु निधानु ॥ करि किरपा साधू संगि मिलिओ सतिगुरि दीनो दानु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरै = मेरे हृदय में। सरबसु = सर्वस्व (सरब = सारा, सु = ह्व, धन पदार्थ) सारा ही धन पदार्थ, सब कुछ। निधानु = खजाना। करि = कर के। साधू संगि = गुरु की संगति में, गुरु से। मिलिओ = मिलाया। सतिगुरि = गुरु ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम-खजाना मेरे वास्ते दुनिया का सारा धन पदार्थ है। (परमात्मा) ने कृपा करके (मुझे) गुरु की संगति में मिला दिया, (और) गुरु ने (मुझे परमात्मा के नाम का) दान दिया।1। रहाउ।

सुखदाता दुख भंजनहारा गाउ कीरतनु पूरन गिआनु ॥ कामु क्रोधु लोभु खंड खंड कीन्हे बिनसिओ मूड़ अभिमानु ॥१॥

पद्अर्थ: दुख भंजनहारा = दुखों का नाश करने वाला। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। पूरन = पूर्ण। बिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। कीन्हे = कर दिए। मूढ़ = मूर्ख। अभिमान।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे सुख देने वाला है, सारे दुखों को नाश करने वाला हैं (ज्यों-ज्यों) मैं उसकी महिमा के गीत गाता हूँ, (मुझे) आत्मिक जीवन की मुकम्मल सूझ (प्राप्त होती जाती है)। मैंने काम-क्रोध-लोभ (आदि विकारों के) टुकड़े-टुकड़े कर दिए, (जीवों को) मूर्ख (बना देने वाला) अहंकार (मेरे अंदर से) नाश हो गया।1।

किआ गुण तेरे आखि वखाणा प्रभ अंतरजामी जानु ॥ चरन कमल सरनि सुख सागर नानकु सद कुरबानु ॥२॥७॥८॥

पद्अर्थ: आखि = कह के। वखाणा = बखान करूँ, बयान करूँ। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हरेक के अंदर की जानने वाला। जानु = समझदार, सयाना। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! सद = सदा।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू सुजान है, तू हरेक के दिल की जानने वाला है, मैं तेरे कौन-कौन से गुण बता के गिनूँ? हे सुखों के सागर प्रभु! (तेरा दास) नानक तेरे सुंदर चरणों की शरण आया है, और तुझसे सदा सदके होता है।2।7।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh