श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 983 नित नित काइआ मजनु कीआ नित मलि मलि देह सवारे ॥ मेरे सतिगुर के मनि बचन न भाए सभ फोकट चार सीगारे ॥३॥ पद्अर्थ: नित = सदा। काइआ = शरीर। मजनु = स्नान। मलि = मल के। देह = शरीर। सवारे = सवारता है, साफ सुथरा बनाता है। मनि = मन में। भाए = अच्छे लगे। चार = सुंदर। फोकट = व्यर्थ।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा शरीर का स्नान करता रहा, जो मनुष्य सदा शरीर को ही मल-मल के साफ-सुथरा बनाता रहता है, पर उसको अपने मन में गुरु के वचन प्यारे नहीं लगते, उसके ये सारे (शारीरिक) सुंदर श्रृंगार फोके ही रह जाते हैं।3। मटकि मटकि चलु सखी सहेली मेरे ठाकुर के गुन सारे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भाई मै सतिगुर अलखु लखारे ॥४॥ पद्अर्थ: मटकि = मटक के, मौज से, आत्मिक अडोलता में। चलु = चल, जीवन-यात्रा में चल। सखी = हे सखी! सरे = सारि, संभाल, हृदय में बसाए रख। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सेवा = भक्ति। प्रभ भाई = प्रभु को अच्छी लगती है। मै = मुझे (भी)। सतिगुर = हे गुरु! लखारे = दिखा के, सूझ दे के। अलखु = जिस प्रभु का सही स्वरूप बयान ना हो सके।4। अर्थ: हे सखी! हे सहेली! मालिक प्रभु के गुण हृदय में बसाए रख, (और इस तरह) आत्मिक अडोलता से जीवन-यात्रा में चल। हे सहेलिए! गुरु की शरण पड़ कर की हुई सेवा-भक्ति प्रभु को प्यारी लगती है। हे सतिगुरु! मुझे (भी) अलख प्रभु की सूझ बख्श।4। नारी पुरखु पुरखु सभ नारी सभु एको पुरखु मुरारे ॥ संत जना की रेनु मनि भाई मिलि हरि जन हरि निसतारे ॥५॥ पद्अर्थ: नारी = स्त्री। पुरख = मर्द। सभ = सबमें। सभु = हर जगह। पुरखु मुरारे = सर्व व्यापक हरि (मुर+अरि)। रेनु = चरण धूल। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। मिलि = मिल के। मिलि हरि जन = संत जनों को मिल के, संत जनों को मिलने से ही। निसतारे = पार लंघाता है।5। अर्थ: हे सखी! (वैसे तो चाहे) स्त्री है (चाहे) मर्द है, (भले ही) मर्द है (भले ही) स्त्री है, सब में हर जगह एक ही सर्व-व्यापक परमात्मा बस रहा है; पर जिस मनुष्य को संत जनों (के चरणों) की धूल (अपने) मन को प्यारी लगती है, उसको ही प्रभु संसार-समुंदर से पार लंघाता है। हे सखी! संत-जनों को मिलने से ही प्रभु पार लंघाता है।5। ग्राम ग्राम नगर सभ फिरिआ रिद अंतरि हरि जन भारे ॥ सरधा सरधा उपाइ मिलाए मो कउ हरि गुर गुरि निसतारे ॥६॥ पद्अर्थ: ग्राम = गाँव। नगर = शहर। सभ = सब जगह। रिद अंतरि = हृदय के भीतर ही। भारे = भाले, तलाशा, पा लिया। उपाइ = उपाय, पैदा करके। मो कउ = मुझे। मिलाए = मिला के, जोड़। गुरि = गुरु के द्वारा। निसतारे = पार लंघा ले।6। अर्थ: हे सखी! गाँव-गाँव शहर-शहर सब जगह घूम के देख लिया है (परमात्मा ऐसे बाहर ढूँढने पर नहीं मिलता), संतजनों ने परमात्मा को अपने हृदय में पाया है। हे हरि! (मेरे अंदर भी) श्रद्धा पैदा करके मुझे भी (गुरु के द्वारा) अपने चरणों में जोड़, मुझे भी गुरु के द्वारा संसार-समुंदर से पार लंघा ले।6। पवन सूतु सभु नीका करिआ सतिगुरि सबदु वीचारे ॥ निज घरि जाइ अम्रित रसु पीआ बिनु नैना जगतु निहारे ॥७॥ पद्अर्थ: पवन = श्वास। पवन सूतु = श्वासों का धागा, सांसों की डोर, सारे श्वास। नीका = सुंदर, अच्छा। सतिगुरि = गुरु में (जुड़ के)। वीचारे = बिचार के, सूझ में टिका के। निज घरि = अपने घर में, अंतर आत्मे। जाइ = जाए, जा के, टिक के। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। बिनु नैना = आँखों के बिना, मायावी आँखों के बगैर, माया का मोह दूर करके। निहारे = देख के।7। अर्थ: हे सखी! जिस मनुष्य ने गुरु (के चरणों) में (जुड़ के) गुरु के शब्द को अपनी सूझ में टिका के (नाम जपने की इनायत से) अपने श्वासों की लड़ी को सुंदर बना लिया, उसने माया के मोह को दूर करके जगत (की अस्लियत) को देख के, अंतरात्मे टिक के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस लिया।7। तउ गुन ईस बरनि नही साकउ तुम मंदर हम निक कीरे ॥ नानक क्रिपा करहु गुर मेलहु मै रामु जपत मनु धीरे ॥८॥५॥ पद्अर्थ: तउ = तेरे। ईस = हे ईश! हे ईश्वर! साकउ = सकूँ। हम = हम संसारी जीव। निक = छोटे, तुच्छ। कीरे = कीड़े। गुर मेलहु = गुरु (से) मिलाप करो। मै मनु = मेरा मन। धीरे = टिक जाए।8। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे गुण बयान नहीं कर सकता। तू एक सुंदर मन्दिर है हम जीव उसमें रहने वाले एक छोटे-छोटे कीड़े हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरु से मिला दे, ताकि मेरा मन नाम जप-जप के (तेरे चरणों में) सदा टिका रहे।8।5। नट महला ४ ॥ मेरे मन भजु ठाकुर अगम अपारे ॥ हम पापी बहु निरगुणीआरे करि किरपा गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरे मन = हे मेरे मन! भजु = स्मरण कर, याद कर। ठाकुर = मालिक प्रभु। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। हम = हम जीव। निरगुणीआरे = गुणों से वंचित। गुरि = गुरु के द्वारा। निसतारे = पार लंघा ले।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत मालिक प्रभु के गुण याद किया कर (और कहा कर- हे प्रभु!) हम जीव पापी हैं, गुणों से बहुत दूर हैं। कृपा करके हमें गुरु के माध्यम से (गुरु की शरण डाल के संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।1। रहाउ। साधू पुरख साध जन पाए इक बिनउ करउ गुर पिआरे ॥ राम नामु धनु पूजी देवहु सभु तिसना भूख निवारे ॥१॥ पद्अर्थ: साधू पुरखु = भला मनुष्य, संत। साध जन पाए = (जो) संत जनों की संगति प्राप्त करता है। बिनउ = (विनय) विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गुर = हे गुरु! पूजी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। निवारे = दूर कर दे।1। अर्थ: हे प्यारे गुरु! जो मनुष्य संत जनों की संगति प्राप्त करता है वह भी गुरमुख बन जाता है, मैं भी (तेरे दर पर) विनती करता हूँ (मुझे भी संत जनों की संगति बख्श, और) मुझे परमात्मा का नाम-धन संपत्ति दे जो मेरे भीतर से माया की तृष्णा माया की भूख सब दूर कर दे।1। पचै पतंगु म्रिग भ्रिंग कुंचर मीन इक इंद्री पकरि सघारे ॥ पंच भूत सबल है देही गुरु सतिगुरु पाप निवारे ॥२॥ पद्अर्थ: पचै = जलता है। पतंगु = पतंगा। म्रिग = मृग, हिरन। भ्रिंग = भृंग, भौरा। कुंचर = हाथी। मीन = मछली। इंद्री = (भाव) विकार वासना। पकरि = पकड़ के। सघारे = संघारे, नाश कर दिए, जान से मार दिए। पंच भूत = कामादिक पाँच दैत्य। सबल = स+बल, बलवान, बली। है = हैं। देही = शरीर में।2। अर्थ: हे भाई! पतंगा (दीपक की लाट पर) जल जाता है; हिरन, भौरा, हाथी, मछली इनको भी एक-एक विकार-वासना अपने वश में करके मार देते हैं। पर मानव शरीर में तो ये कामादिक पाँचों ही बलवान हैं, (मनुष्य इनका मुकाबला कैसे करे?)। गुरु ही सतिगुरु ही इन विकारों को दूर करता है।2। सासत्र बेद सोधि सोधि देखे मुनि नारद बचन पुकारे ॥ राम नामु पड़हु गति पावहु सतसंगति गुरि निसतारे ॥३॥ पद्अर्थ: सोधि = सुधार के, परख के, विचार के। पुकारे = ऊँचा ऊँचा पुकार के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गुरि = गुरु ने (ही)। निसतारे = पार उतारना है।3। अर्थ: हे भाई! वेद-शास्त्र कई बार विचार के देख लिए हैं, नारद आदि ऋषि-मुनि भी (जीवन-जुगति के बारे में) जो वचन जोर दे के कह रहे हैं (वह भी विचार लिए हैं, पर असल बात ये है भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा सीखोगे तब ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करोगे, गुरु ने साधु-संगत में ही (अनेक जीव संसार-समुंदर से) पार लंघाए हैं।3। प्रीतम प्रीति लगी प्रभ केरी जिव सूरजु कमलु निहारे ॥ मेर सुमेर मोरु बहु नाचै जब उनवै घन घनहारे ॥४॥ पद्अर्थ: केरी = की। निहारे = देखता है। मेर = मेरु, पहाड़। नाचै = नाचता है। उनवै = (बरसने के लिए) झुकता है। घन = बहुत। घनहारे = बादल।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में प्रीतम प्रभु का प्यार बना है (वह उसके मिलाप के लिए इस तरह तमन्ना बनाए रखता है) जैसे कमल का फूल सूरज को देखता है (और खिलता है, जैसे) जब बादल (बरसने के लिए) बहुत झुकता है तब ऊँचे पहाड़ों (की ओर से घटाएं आती देख के) मोर बहुत नाचता है।4। साकत कउ अम्रित बहु सिंचहु सभ डाल फूल बिसुकारे ॥ जिउ जिउ निवहि साकत नर सेती छेड़ि छेड़ि कढै बिखु खारे ॥५॥ पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। बिसु = विष, जहर। बिसकारे = जहरीले। निवहि = झुकते हैं, विनम्रता वाला व्यवहार करते हैं। सेती = साथ। छेड़ि = छेड़ के। कढै = निकालता है (एकवचन)। बिखु = जहर। खारे = खारा, कड़वा।5। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य (मानो, एक विषौला वृक्ष है) उसको चाहे कितना ही अमृत सें सींचते जाओ, उसकी टहनियाँ उसके फल सब विषौले ही रहेंगे। साकत मनुष्य से ज्यों-ज्यों लोग विनम्रता का प्रयोग करते हैं, त्यों-त्यों वह छेड़-खानियाँ कर करके (अपने अंदर से) कड़वा जहर ही निकालता है।5। संतन संत साध मिलि रहीऐ गुण बोलहि परउपकारे ॥ संतै संतु मिलै मनु बिगसै जिउ जल मिलि कमल सवारे ॥६॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। मिलि रहीऐ = मिले रहना चाहिए। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। पर उपकारे = दूसरों की भलाई करने के वचन। संतै = संत को। मिलै = मिलता है (एकवचन)। बिगसै = खिल उठता है। जल मिलि = पानी को मिल के।6। अर्थ: (इस वास्ते, हे भाई! साकत से सांझ डालने की जगह) संत जनों से गुरमुखों से मिल के रहना चाहिए। संत जन दूसरों की भलाई के लिए भले वचन ही बोलते हैं। जैसे पानी को मिल के कमल फूल खिलते हैं, वैसे ही जब कोई संत किसी संत को मिलता है तब उसका मन खिल उठता है।6। लोभ लहरि सभु सुआनु हलकु है हलकिओ सभहि बिगारे ॥ मेरे ठाकुर कै दीबानि खबरि हुोई गुरि गिआनु खड़गु लै मारे ॥७॥ पद्अर्थ: लोभ लहरि = लोभ की लहर। सभु = सारा। सुआनु = कुक्ता। हलकु सुआन = हलका हुआ कुक्ता। सभहि = सबको। कै दीबानि = के दीवान में, की कचहरि में। गुरि = गुरु के द्वारा। खड़गु = तलवार। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।7। नोट: ‘हुोई’ में से अक्षर ‘ह’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हुई हैं। असल शब्द है ‘होई’, यहाँ पढ़ना है ‘हुई’। नोट: ‘खबरि’ में से सदा ‘ि’ अंत में है। अर्थ: हे भाई! लोभ की लहर केवल हलकाया हुआ कुक्ता ही है (जिस तरह) हलकाया हुआ कुक्ता सबको (काट-काट के) बिगाड़ता जाता है (वैसे ही लोभी मनुष्य और लोगों को भी अपनी संगति में लोभी बनाए जाता है)। (इस लोभ से बचने के लिए जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर प्रभु-दर पे पुकार करता है, तब) परमात्मा की हजूरी में उसकी आरजू की खबर पहुँचती है, परमात्मा गुरु के माध्यम से आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार ले के उसके अंदर से लोभ के हलकाए हुए कुत्ते को मार देता है।7। राखु राखु राखु प्रभ मेरे मै राखहु किरपा धारे ॥ नानक मै धर अवर न काई मै सतिगुरु गुरु निसतारे ॥८॥६॥ छका १ ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मै = मुझे। राखु = बचा ले। राखहु = बचा लो। धारे = धार के, करके। धर = आसरा। मै सतिगुरु = मेरा (आसरा) गुरु ही। छका = छक्का, छह शबदों का जोड़।8। नोट: ‘काई’ स्त्रीलिंग है व ‘कोई’ पुलिंग। अर्थ: हे मेरे प्रभु! (इस लोभ-कुत्ते से) मुझे भी बचा ले, बचा ले, बचा ले, कृपा करके मुझे भी बचा ले। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेरा और कोई आसरा नहीं। गुरु ही मेरा आसरा है, गुरु ही पार लंघाता है। (मुझे गुरु की शरण रख)।8।6। छका1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |