श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 984 रागु माली गउड़ा महला ४ ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अनिक जतन करि रहे हरि अंतु नाही पाइआ ॥ हरि अगम अगम अगाधि बोधि आदेसु हरि प्रभ राइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि रहे = करके थक गए। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि बोध = वह जिसकी हस्ती के बारे में बोध करना अथाह है। आदेसु = नमस्कार। प्रभ राइआ = हे प्रभु पातिशाह!।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु पातशाह! (तेरे गुणों का अंत पाने के लिए बेअंत जीव) अनेक प्रयत्न कर कर के थक गए हैं, किसी ने तेरा अंत नहीं पाया। हे हरि! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अथाह है, तुझे कोई नहीं समझ सकता, मेरी तुझे ही नमस्कार है।1। रहाउ। कामु क्रोधु लोभु मोहु नित झगरते झगराइआ ॥ हम राखु राखु दीन तेरे हरि सरनि हरि प्रभ आइआ ॥१॥ पद्अर्थ: झगरते = (जीव) झगड़ते रहते हैं। झगराइआ = कामादिक विकारों के झगड़ाए हुए, झगड़ों में डाले हुए। हम = हम जीवों को। दीन = भिखारी।1। अर्थ: हे प्रभु! काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि विकार इतने बली हैं कि जीव इनके) उकसाए हुए सदा दुनिया के झगड़ों में पड़े रहते हैं। हे प्रभु! हम जीव तेरे दर पर भिखारी हैं, हमें इनसे बचा ले, बचा ले, हम तेरी शरण आए हैं।1। सरणागती प्रभ पालते हरि भगति वछलु नाइआ ॥ प्रहिलादु जनु हरनाखि पकरिआ हरि राखि लीओ तराइआ ॥२॥ पद्अर्थ: सरणागती = शरण आए हुओं को। प्रभ = हे प्रभु! भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। नाइआ = (तेरा) नाम। जनु = (तेरा) सेवक। हरनाखि = हरनाखश ने। हरि = हे हरि!।2। अर्थ: हे प्रभु! तू शरण पड़ों की रक्षा करने वाला है, हे हरि! ‘भक्ति से प्यार करने वाला’ - ये तेरा (प्रसिद्ध) नाम है। तेरे सेवक प्रहलाद को हरणाक्षस ने पकड़ लिया, हे हरि! तूने उसकी रक्षा की, तूने उसको संकट से बचाया।2। हरि चेति रे मन महलु पावण सभ दूख भंजनु राइआ ॥ भउ जनम मरन निवारि ठाकुर हरि गुरमती प्रभु पाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: चेति = स्मरण कर। महलु = (प्रभु के चरणों में) ठिकाना। पावण = प्राप्त करने के लिए। निवारि = दूर कर। ठाकुर = हे ठाकुर! गुरमती = गुरु की मति पर चलने से।3। अर्थ: हे मन! उस प्रभु के चरणों में ठिकाना प्राप्त करने के लिए सदा उसको याद किया कर, वह पातशाह सारे दुखों का नाश करने वाला है। हे ठाकुर! हे हरि! (हम जीवों का) जनम-मरन का चक्कर दूर कर। हे भाई! गुरु की मति पर चलने से वह प्रभु मिलता है।3। हरि पतित पावन नामु सुआमी भउ भगत भंजनु गाइआ ॥ हरि हारु हरि उरि धारिओ जन नानक नामि समाइआ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: पवित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। भउ भंजनु = हरेक डर नाश करने वाला। उरि = हृदय में। धारिओ = बसाया। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे भाई! हे स्वामी! तेरा नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है, तू (अपने भगतों का) हरेक डर दूर करने वाला है। हे दास नानक! (कह:) जिस भक्तों ने उसकी महिमा की है, जिन्होंने उसके नाम का हार अपने हृदय में संभाला है, वे उसके नाम में ही सदा लीन रहते हैं।4।1। माली गउड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नामु सुखदाता ॥ सतसंगति मिलि हरि सादु आइआ गुरमुखि ब्रहमु पछाता ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! मिलि = मिल के। सादु = स्वाद, आनंद। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। ब्रहमु पछाता = परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा सारे सुख देने वाला है। साधु-संगत में मिल के जिस मनुष्य ने प्रभु के नाम का आनंद हासिल किया, उसने गुरु के द्वारा परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा ली।1। रहाउ। वडभागी गुर दरसनु पाइआ गुरि मिलिऐ हरि प्रभु जाता ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अम्रिति हरि सरि नाता ॥१॥ पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाले मनुष्य ने। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। प्रभु जाता = प्रभु के साथ गहरी सांझ बन जाती है। दुरमति = खोटी मति। गई नीकरि = निकल गई। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल में। हरि सरि = हरि के सर में, साधु-संगत में।1। अर्थ: हे मन! किसी बड़े भाग्यशाली ने ही गुरु दर्शन प्राप्त किया है, (क्योंकि) अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा के साथ सांझ बन जाती है। जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सरोवर में (साधु-संगत में आत्मिक) स्नान करता है, उसके अंदर से दुमर्ति की सारी मैल निकल जाती है।1। धनु धनु साध जिन्ही हरि प्रभु पाइआ तिन्ह पूछउ हरि की बाता ॥ पाइ लगउ नित करउ जुदरीआ हरि मेलहु करमि बिधाता ॥२॥ पद्अर्थ: साध = (बहुवचन) गुरमुख संत जन। जिनी = जिन्होंने। पाइआ = पा लिया। पूछउ = मैं पूछूँ, पूछता हूँ। पाइ लगउ = पाय लगउं, मैं चरणों में लगता हूँ। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जुदरीआ = जोदड़ी, अरजोई। करमि = मेहर से, किरपा से। बिधाता = विधाता, निर्माता।2। अर्थ: हे मेरे मन! भाग्यशाली हैं वे संतजन, जिन्होंने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है। मैं भी (अगर प्रभु की मेहर हो तो) उनसे परमात्मा की महिमा की बातें पूछूँ। मैं उनके चरणों में लगूँ, मैं नित्य उनके आगे अरजोई करूँ कि मेहर करके मुझे विधाता प्रभु का मिलाप करवा दो।2। लिलाट लिखे पाइआ गुरु साधू गुर बचनी मनु तनु राता ॥ हरि प्रभ आइ मिले सुखु पाइआ सभ किलविख पाप गवाता ॥३॥ पद्अर्थ: लिलाट = माथा। लिलाट लिखे = माथे के लिखे लेखों के अनुसार। गुर बचनी = गुरु के वचन में। राता = रंगा गया। किलबिख = पाप। गवाता = दूर हो गए।3। अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने माथे के लिखे लेखों के अनुसार गुरु महापुरुष पा लिया उसका मन उसका तन गुरु के वचन में रंगा जाता है। (गुरु के द्वारा जिसको) परमात्मा मिल जाता है, उसको आत्मिक आनंद मिल जाता है, उसके सारे पाप विकार दूर हो जाते हैं।3। राम रसाइणु जिन्ह गुरमति पाइआ तिन्ह की ऊतम बाता ॥ तिन की पंक पाईऐ वडभागी जन नानकु चरनि पराता ॥४॥२॥ पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस। ऊतम बाता = श्रेष्ठ शोभा। पंक = चरण धूल। चरनि = चरणों में। पराता = पड़ता है।4। अर्थ: हे मन! गुरु की मति ले के जिस मनुष्यों ने सबसे श्रेष्ठ नाम-रस प्राप्त कर लिया, उनकी (लोक-परलोक में) बहुत शोभा होती है; उनके चरणों की धूल बड़े भाग्यों से मिलती है। दास नानक (भी उनके) चरणों पर पड़ता है।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |