श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ४ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि हरि नामु निधानु लै गुरमति हरि पति पाइ ॥ हलति पलति नालि चलदा हरि अंते लए छडाइ ॥ जिथै अवघट गलीआ भीड़ीआ तिथै हरि हरि मुकति कराइ ॥१॥

पद्अर्थ: निधानु = (असल) खजाना। लै = हासिल कर। गुरमति = गुरु की मति से। पति = इज्ज्त। हलति = इस लोक में (अत्र)। पलति = परलोक में (परत्र)। चलदा = साथ निबाहता है। अंते = आखिरी वक्त में। घट = पत्तन। अवघट = पत्तन दूर का बिखड़ा रास्ता। मुकति = निजात।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (ही असल) खजाना है; गुरु की शिक्षा पर चल के (ये खजाना) हासल कर; (जिसके पास ये खजाना होता है, वह) प्रभु की हजूरी में इज्जत पाता है। (ये खजाना) इस लोक में और परलोक में साथ निभाता है, और आखिरी वक्त भी परमात्मा (दुखों से) बचा लेता है। हे भाई! जीवन के जिस इस रास्ते में पत्तन से दूर के बिखड़े रास्ते हैं, बहुत ही संकरी गलियाँ हैं (जिनमें आत्मिक जीवन का दम घुटता जाता है) वहाँ परमात्मा ही निजात दिलवाता है।

मेरे सतिगुरा मै हरि हरि नामु द्रिड़ाइ ॥ मेरा मात पिता सुत बंधपो मै हरि बिनु अवरु न माइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सतिगुरा = हे सतिगुरु! मतै द्रिढ़ाइ = मेरे हृदय में पक्का कर। सुत = पुत्र। बंधपो = रिश्तेदार। माइ = हे माँ!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! परमात्मा का नाम मेरे हृदय में दृढ़ कर दे। हे मेरी माँ! हरि ही मेरी माँ है, हरि ही मेरा पिता है, हरि ही मेरे पुत्र हैं, हरि ही मेरा संबंधी है। हे माँ! हरि के बिना और कोई मेरा (पक्का साक) नहीं।1। रहाउ।

मै हरि बिरही हरि नामु है कोई आणि मिलावै माइ ॥ तिसु आगै मै जोदड़ी मेरा प्रीतमु देइ मिलाइ ॥ सतिगुरु पुरखु दइआल प्रभु हरि मेले ढिल न पाइ ॥२॥

पद्अर्थ: बिरही = प्यारा। आणि = ला के। जोदड़ी = आरजू। देइ मिलाइ = देय मिलाय, मिला दे। प्रभ हरि मेले = हरि प्रभु (से) मिला देता है।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही मेरा (असल) प्यारा (मित्र) है। हे माँ! अगर कोई (उस मित्र को) ला के (मेरे साथ) मिलाप करवा सकता हो, मैं उसके आगे नित्य आरजू करता रहूँ, भला कि कहीं मेरा प्रीतम मुझे मिला दे। हे माँ! गुरु ही दयावान पुरख है जो हरि प्रभु के साथ मिला देता है और रक्ती भर भी देरी नहीं होती।2।

जिन हरि हरि नामु न चेतिओ से भागहीण मरि जाइ ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मरि जमहि आवै जाइ ॥ ओइ जम दरि बधे मारीअहि हरि दरगह मिलै सजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: जिन = (बहुवचन) जिन्होंने। से = वह लोग (बहुवचन)। भाग हीण = बद् किस्मत (बहुवचन)। मरि जाइ = (एकवचन) मर जाता है, आत्मिक मौत मरता है। ओइ = वह लोग। भवाईअहि = भटकाए जाते हैं। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, मरते हैं पैदा होते हैं। आवै जाइ = (एकवचन) आता है जाता है, पैदा होता है मरता है। जम दरि = जमराज के दर पर। मारीअहि = पिटाई होती है।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने कभी परमात्मा का स्मरण नहीं किया, वे बद्-किस्मत हैं। हे भाई! (नाम-हीन मनुष्य) आत्मिक मौत मरा रहता है। वह (नाम से वंचित) बंदे बार-बार जूनियों में भटकाए जाते हैं, वह जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे भाई! नाम-हीन मनुष्य पैदा होता है मरता रहता है। हे भाई! उन (नाम से वंचित हुए) बंदों की जमराज के दर बाँध कर मार-पिटाई होती है। प्रभु की दरगाह में उनको (ये) सजा मिलती है।3।

तू प्रभु हम सरणागती मो कउ मेलि लैहु हरि राइ ॥ हरि धारि क्रिपा जगजीवना गुर सतिगुर की सरणाइ ॥ हरि जीउ आपि दइआलु होइ जन नानक हरि मेलाइ ॥४॥१॥३॥

पद्अर्थ: प्रभू = मालिक। हम = हम जीव। सरणागती = शरण आते हैं। मो कउ = मुझे। हरि राइ = हे प्रभु पातशाह! जग जीवना = हे जगत के जीवन हरि! दइआलु = दयावान।4।

अर्थ: हे पातशाह! तू हमारा मालिक है, हम जीव तेरी शरण में हैं। हे पातशाह! मुझे (अपने चरणों में) जोड़े रख। हे हरि! हे जगत के जीवन हरि! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरु की शरण सतिगुरु की शरण में (सदा) रख। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा आप दयावान होता है, उसको (गुरु की शरण में रख के) अपने साथ मिला लेता है।4।1।3।

मारू महला ४ ॥ हउ पूंजी नामु दसाइदा को दसे हरि धनु रासि ॥ हउ तिसु विटहु खन खंनीऐ मै मेले हरि प्रभ पासि ॥ मै अंतरि प्रेमु पिरम का किउ सजणु मिलै मिलासि ॥१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। दसाइदा = मैं पूछता हूँ, मैं तलाश रहा हूँ। को = कोई (सज्जन)। दसे = बताए। रासि = राशि। विटहु = से, में से। खन खंनीऐ = सदके, बलिहार। पासि = साथ, से। मै अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। पिरंम का = प्यारे प्रभु का। किउ = कैसे? किस तरह?।1।

अर्थ: हे भाई! मैं हरि-नाम सरमाए की तलाश करता फिरता हूँ। अगर कोई मुझे उस नाम-धन, नाम-राशि के बारे में बता दे, और, मुझे हरि-प्रभु के साथ जोड़ दे तो मैं उसके सदके जाऊँ, बलिहार जाऊँ। हे भाई! मेरे हृदय में प्यारे प्रभु का प्रेम बस रहा है। वह सज्जन मुझे कैसे मिले? मैं उससे किस प्रकार मिलूँ?।1।

मन पिआरिआ मित्रा मै हरि हरि नामु धनु रासि ॥ गुरि पूरै नामु द्रिड़ाइआ हरि धीरक हरि साबासि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर दिया। धीरक = धीरज, हौसला।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! हे प्यारे मित्र! परमात्मा का नाम ही मुझे (असल) धन (असल) संपत्ति (प्रतीत होता है)। जिस मनुष्य के हृदय में पूरे गुरु ने प्रभु का नाम पक्का कर दिया, उसको परमात्मा धीरज देता है उसको साबाश देता है।1। रहाउ।

हरि हरि आपि मिलाइ गुरु मै दसे हरि धनु रासि ॥ बिनु गुर प्रेमु न लभई जन वेखहु मनि निरजासि ॥ हरि गुर विचि आपु रखिआ हरि मेले गुर साबासि ॥२॥

पद्अर्थ: हरि हरि = हे हरि! मै = मुझे। दसे = बताए, दिखा दे। न लभई = ना मिले, नहीं मिलता। जन = हे जन! हे भाई! मनि = मन में। निरजासि = निर्णय करके। आपु = अपना आप। गुर साबासि = गुरु को शाबाश है।2।

अर्थ: हे हरि! तू खुद ही मुझे गुरु मिला दे, ता कि गुरु मुझे तेरा नाम-धन संपत्ति दिखा दे। हे सज्जनो! अपने मन में निर्णय करके देख लो, गुरु के बिना प्रभु का प्यार हासिल नहीं होता। परमात्मा ने गुरु में अपने आप को रखा हुआ है, गुरु ही उससे मिलाता है। गुरु की उपमा (बड़ाई) करो।2।

सागर भगति भंडार हरि पूरे सतिगुर पासि ॥ सतिगुरु तुठा खोलि देइ मुखि गुरमुखि हरि परगासि ॥ मनमुखि भाग विहूणिआ तिख मुईआ कंधी पासि ॥३॥

पद्अर्थ: सागर = समुंदर। भंडार = खजाने। पासि = पास। तुठा = मेहरवान हुआ। खोलि = खोल के। देइ = देय, देता है। मुखि = मुँह से (उपदेश देता है)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। परगास = प्रकाश करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। तिख = प्यास, तृष्णा। मुईआ = मर गई, आत्मिक मौत मर गई। कंधी पासि = (सरोवर के) किनारे पास।3।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु के पास परमात्मा की भक्ति के समुंदर, भक्ति के खजाने मौजूद हैं। जिस गुरमुख मनुष्य पर गुरु मेहरवान होता है (ये खजाने) खोल के (उसको) दे देता है, मुँह से उसको उपदेश करता है जिसके कारण उसके अंदर रूहानी नूर प्रकट हो जाता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री बद्-किस्मत होती है, वह गुरु के नजदीक होते हुए भी वैसे ही आत्मिक मौत मरी रहती है जैसे कोई मनुष्य सरोवर के किनारे पर खड़ा हुआ भी प्यासा मर जाता है।3।

गुरु दाता दातारु है हउ मागउ दानु गुर पासि ॥ चिरी विछुंना मेलि प्रभ मै मनि तनि वडड़ी आस ॥ गुर भावै सुणि बेनती जन नानक की अरदासि ॥४॥२॥४॥

पद्अर्थ: हउ मागउ = मैं माँगता हूँ। चिरी विछुंना = चिर से विछुड़ा हुआ। मै मनि तनि = मेरे मन में मेरे तन में। गुर भावै = हे गुरु! अगर तुझे अच्छा लगे।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु सब दातें देने में समर्थ है। मैं गुरु से यह ख़ैर माँगता हूँ कि मुझे चिरों से विछड़े हुए को प्रभु मिला दे, मेरे मन में मेरे हृदय में ये बड़ी तमन्ना है। हे गुरु! अगर तुझे भाए तो दास नानक की ये विनती सुन, अरदास सुन।4।2।4।

मारू महला ४ ॥ हरि हरि कथा सुणाइ प्रभ गुरमति हरि रिदै समाणी ॥ जपि हरि हरि कथा वडभागीआ हरि उतम पदु निरबाणी ॥ गुरमुखा मनि परतीति है गुरि पूरै नामि समाणी ॥१॥

पद्अर्थ: हरि हरि कथा प्रभ = हरि प्रभु की कथा। कथा = महिमा की बात। गुरमति = गुरु की मति से। रिदै = हृदय में। वडभागीआ = हे भाग्यशाली मन! पदु = दर्जा। निरबाणी = वासना रहित। गुरमुखा मनि = गुरु के सन्मुख रहने वालों के मन में। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। नामि = नाम में। सुणाइ = सुन।1।

अर्थ: हे मन! सदा हरि-प्रभु की महिमा सुनता रह। गुरु की मति पर चलने से ही ये हरि-कथा हृदय में टिक सकती है। हे भाग्यशाली मन! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की महिमा याद करता रह, (इस तरह) उत्तम और वासना-रहित आत्मिक दर्जा मिल जाता है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मन में (प्रभु की महिमा के लिए) श्रद्धा बनी रहती है, पूरे गुरु के द्वारा वे हरि नाम में लीन रहते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh