श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 995 मेरा प्रभु वेपरवाहु है ना तिसु तिलु न तमाइ ॥ नानक तिसु सरणाई भजि पउ आपे बखसि मिलाइ ॥४॥५॥ पद्अर्थ: वेपरवाहु = बेमुहताज। तिलु तमाइ = तिल जितना भी लालच (तमा)। भजि पउ = दौड़ के जा पड़। बखसि = मेहर कर के।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा को किसी की अधीनता नहीं, परमात्मा को कोई रक्ती जितना भी लालच नहीं (जीव ने अपने भले के वास्ते ही स्मरण करना है; सो) उस परमात्मा की शरण ही जल्दी जा पड़ो, (शरण पड़े को) वह स्वयं ही मेहर करके अपने चरणों में जोड़ता है।4।5। मारू महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जपिओ नामु सुक जनक गुर बचनी हरि हरि सरणि परे ॥ दालदु भंजि सुदामे मिलिओ भगती भाइ तरे ॥ भगति वछलु हरि नामु क्रितारथु गुरमुखि क्रिपा करे ॥१॥ पद्अर्थ: सुक = सुकदेव (ऋषि ब्यास का पुत्र)। गुर बचनी = गुरु के वचन से। दालदु = गरीबी। भंजि = दूर करके। भाई = प्रेम से। भगती भाइ = भक्ति भाव से। तरे = पार लांघ गए। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला (वत्सल)। क्रितारथु = (क्रित+अर्थ) कामयाब (बनाने वाला)। गुरमुखि = गुरु से।1। अर्थ: हे मन! राजा जनक ने, शुकदेव ऋषि ने गुरु के वचनों के द्वारा परमात्मा का नाम जपा, ये परमात्मा की शरण आ पड़े; सुदामा भक्त की गरीबी दूर करके प्रभु सुदामे को आ मिला। ये सब भक्ति भावना से संसार-समुंदर से पार हुए। परमात्मा भक्ति से प्यार करने वाला है, परमात्मा का नाम (मनुष्य के जीवन को) कामयाब बनाने वाला है। (ये नाम मिलता उनको है जिस पर) गुरु के द्वारा मेहर होती है।1। मेरे मन नामु जपत उधरे ॥ ध्रू प्रहिलादु बिदरु दासी सुतु गुरमुखि नामि तरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! उधरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए। दासी सुतु = दासी का पुत्र। नामि = नाम से।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपते हुए (अनेक प्राणी) विकारों से बच जाते हैं। धुराव भक्त, प्रहिलाद भक्त, दासी का पुत्र बिदर- (ये सारे) गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में जुड़ के संसार-समुंदर से पार लांघ गए।1। रहाउ। कलजुगि नामु प्रधानु पदारथु भगत जना उधरे ॥ नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु सभि दोख गए चमरे ॥ गुरमुखि नामि लगे से उधरे सभि किलबिख पाप टरे ॥२॥ पद्अर्थ: कलजुगि = कलियुग में। प्रधान = श्रेष्ठ। सभि = सारे। दोख = ऐब। चमरे = (रविदास) चमार के। नामि = नाम में। से = वह (बहुवचन)। किलबिख = पाप। टरे = टल गए।2। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम ही जगत में सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है। भक्त जन (इस नाम की इनायत से ही) विकारों से बचते हैं। नामदेव बच गया, जैदेव बच गया, कबीर बच गया, त्रिलोचन बच गया; नाम की इनायत से (रविदास) चमार के सारे पाप दूर हो गए। हे मन! जो भी मनुष्य गुरु के द्वारा हरि-नाम में लगे वे सब विकारों से बच गए, (उनके) सारे पाप टल गए।2। जो जो नामु जपै अपराधी सभि तिन के दोख परहरे ॥ बेसुआ रवत अजामलु उधरिओ मुखि बोलै नाराइणु नरहरे ॥ नामु जपत उग्रसैणि गति पाई तोड़ि बंधन मुकति करे ॥३॥ पद्अर्थ: जो जो = जो जो मनुष्य। अपराधी = विकारी (भी)। सभि = सारे। दोख = पाप। परहरे = दूर करता है। वेसुआ = वेश्या। रवत = संग करने वाला। उधरिओ = बच गया। मुखि = मुँह से। नरहरे = परमात्मा, नर हरि। उग्रसैणि = उग्रसेन ने (कंस का पिता)। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। तोड़ि = तोड़ के। बंधन = मोह की फाहियां। मुकति = बंधनो से मुक्ति।3। अर्थ: हे मन! जो जो विकारी व्यक्ति (भी) परमात्मा का नाम जपता है, परमात्मा उनके सारे विकार दूर कर देता है। (देख) वेश्या का संग करने वाला अजामल जब मुँह से ‘नारायण नर हरि’ उचारने लग पड़ा, तब वह विकारों से बच गया। परमात्मा का नाम जपते हुए उग्रसैन ने उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली, परमात्मा ने उसके बंधन तोड़ के उसको विकारों से निजात बख्शी।3। जन कउ आपि अनुग्रहु कीआ हरि अंगीकारु करे ॥ सेवक पैज रखै मेरा गोविदु सरणि परे उधरे ॥ जन नानक हरि किरपा धारी उर धरिओ नामु हरे ॥४॥१॥ पद्अर्थ: जन = सेवक। कउ = को। अनुग्रहु = कृपा, दया। अंगीकारु = पक्ष। पैज = सत्कार, इज्जत। उधरे = विकारों से बच गए। जन नानक = हे दास नानक! उर = हृदय। हरे = हरि का।4। अर्थ: हे मन! परमात्मा अपने भक्त पर (सदा) खुद मेहर करता आ रहा है, अपने भक्त का (सदा) पक्ष करता है। परमात्मा अपने सेवक की इज्जत रखता है, जो भी उसकी शरण पड़ते हैं वे विकारों से बच जाते हैं। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर प्रभु ने मेहर (की निगाह) की, उसने उसका नाम अपने हृदय में बसा लिया।4।1। मारू महला ४ ॥ सिध समाधि जपिओ लिव लाई साधिक मुनि जपिआ ॥ जती सती संतोखी धिआइआ मुखि इंद्रादिक रविआ ॥ सरणि परे जपिओ ते भाए गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सिध = सिद्ध, योग साधना में सिद्ध योगी। लिव लाई = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। साधिक = साधन करने वाले। मुखि = मुँह से। इंद्रादिक = इन्द्र आदिकों ने। रविआ = जपा। ते = वे (बहुवचन)। भाए = (प्रभु को) अच्छे लगे। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चल के।1। अर्थ: हे मन! सिद्ध समाधि लगा के तवज्जो जोड़ के जपते रहे, साधिक और मुनि जपते रहे। जतियों ने प्रभु का ध्यान धरा, सतियों ने संतोखियों ने ध्यान धरा, इन्द्र आदिक देवताओं ने मुँह से प्रभु का नाम जपा। हे मन! जो गुरु की शरण पड़ कर प्रभु की शरण पड़े, जिन्होंने गुरु के रास्ते पर चल के नाम जपा, वे परमात्मा को प्यारे लगे, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।1। मेरे मन नामु जपत तरिआ ॥ धंना जटु बालमीकु बटवारा गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! बटवारा = डाकू, राह मारने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हुए (अनेक प्राणी संसार समुंदर से) पार लांघ गए। धन्ना जट पार लांघ गया, बाल्मीक डाकू पार लांघ गया।1। रहाउ। सुरि नर गण गंधरबे जपिओ रिखि बपुरै हरि गाइआ ॥ संकरि ब्रहमै देवी जपिओ मुखि हरि हरि नामु जपिआ ॥ हरि हरि नामि जिना मनु भीना ते गुरमुखि पारि पइआ ॥२॥ पद्अर्थ: सुरि = देवते। गंधरबे = देवताओं के गवईऐ। रिखि बपुरै = बेचारे ऋषि (धर्मराज) ने। संकरि = शिव ने। नामि = नाम में। भीना = भीग गया। गण = शिव जी के खास उपासक देवते जो गणेश के अधीन बताए जाते हैं।2। अर्थ: हे मन! देवताओं ने, मनुष्यों ने, (शिव जी के उपासक-) गणों ने, देवताओं के रागियों ने नाम जपा; बेचारे धर्मराज ने हरि का गुणगान किया। शिव ने, देवताओं ने मुँह से हरि का नाम जपा। हे मन! गुरु की शरण पड़ कर जिनका मन परमात्मा के नाम-रस में भीग गया वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।2। कोटि कोटि तेतीस धिआइओ हरि जपतिआ अंतु न पाइआ ॥ बेद पुराण सिम्रिति हरि जपिआ मुखि पंडित हरि गाइआ ॥ नामु रसालु जिना मनि वसिआ ते गुरमुखि पारि पइआ ॥३॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़। हरि जपतिआ अंतु = हरि का नाम जपने वालों की गिनती। मुखि = मुँह से। पंडित = पण्डितों ने (बहुवचन)। रसालु = (रस+आलय) सारे रसों का घर। मनि = मन में। ते = वे (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।3। अर्थ: हे मेरे मन! तेतीस करोड़ देवताओं ने परमात्मा का नाम जपा, हरि-नाम जपने वालों (की गिनती) का अंत नहीं पाया जा सकता। वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि धर्म-पुस्तकों के लिखने वालों ने हरि-नाम जपा, पण्डितों ने मुँह से प्रभु की महिमा का गीत गाया। हे मन! गुरु की शरण पड़ कर जिनके मन में सारे रसों का श्रोत हरि-नाम टिक गया, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।3। अनत तरंगी नामु जिन जपिआ मै गणत न करि सकिआ ॥ गोबिदु क्रिपा करे थाइ पाए जो हरि प्रभ मनि भाइआ ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि नामु द्रिड़ाइओ जन नानक नामु लइआ ॥४॥२॥ पद्अर्थ: अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहर। अनत तरंगी = बेअंत लहरों वाला प्रभु। जिन = जिन्होंने। थाइ पाए = स्वीकार करता है, स्वीकार करता है। जो = जो जीव। प्रभ मनि = प्रभु के मन में। भाइआ = अच्छा लगा। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइओ = हृदय में पक्का कर दिया।4। अर्थ: हे मेरे मन! बेअंत रचना के मालिक परमात्मा का नाम जिस प्राणियों ने जपा है, मैं उनकी गिनती नहीं कर सकता। जो प्राणी परमात्मा के मन को भा जाते हैं, परमात्मा कृपा करके (उनकी सेवा-भक्ति) स्वीकार करता है। हे नानक! गुरु ने कृपा करके जिनके हृदय में परमात्मा का नाम दृढ़ कर दिया, (उन्होंने ही) नाम स्मरण किया है।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |