श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 994

ए मन हरि जीउ चेति तू मनहु तजि विकार ॥ गुर कै सबदि धिआइ तू सचि लगी पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चेति = चेते करता रह, स्मरण कर। मनहु = मन से। तजि = छोड़ दे। सबदि = शब्द में (जुड़ के)। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लगी = बन जाएगा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! परमात्मा को याद करता रह। हे भाई! तू अपने मन में विचारों को त्याग दे। गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु का स्मरण किया कर। (नाम-जपने की इनायत से) सदा-स्थिर प्रभु में प्यार बनेगा।1। रहाउ।

ऐथै नावहु भुलिआ फिरि हथु किथाऊ न पाइ ॥ जोनी सभि भवाईअनि बिसटा माहि समाइ ॥२॥

पद्अर्थ: ऐथे = इस लोक में, इस जनम में। नावहु = नाम से। किथाऊ = कहीं भी। जोनी सभि = सारी जूनियां। भवाइअनि = भटकती जाती हैं। बिसटा = विकारों का गंद।2।

अर्थ: हे भाई! इस जनम में प्रभु के नाम से टूटे रहने पर (ये मनुष्य जनम पाने के लिए) दोबारा कहीं भी हाथ नहीं पड़ सकता (मौका नहीं मिलता), (नाम से टूटा हुआ व्यक्ति) सारी ही जूनियों में पाया जाता है, वह सदा विकारों के गंद में पड़ा रहता है।2।

वडभागी गुरु पाइआ पूरबि लिखिआ माइ ॥ अनदिनु सची भगति करि सचा लए मिलाइ ॥३॥

पद्अर्थ: पूरबि = पहले जनम में। माइ = हे माँ! अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सची भगति = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति। करि = कर के, के कारण। सचा = सदा स्थिर प्रभु।3।

अर्थ: हे माँ! जिस मनुष्य के माथे पर धुर से लेख लिखे होते हैं, उसको बड़े भाग्यों से गुरु मिलता है। हर वक्त सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति के कारण सदा-स्थिर प्रभु उसको (अपने चरणों में) जोड़े रखता है।3।

आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे नदरि करेइ ॥ नानक नामि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। साजीअनु = साजी है उसने। नदरि = निगाह। नामि = नाम में (जोड़ के)। जै = जो उसको। भावै = अच्छा लगता है। तै = तिसु, उसको। देइ = देता है।4।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा ने स्वयं ही सारी सृष्टि पैदा की है, वह स्वयं ही (इस पर) मेहर की निगाह करता है; जो जीव उसको अच्छा लगता है उसको (अपने) नाम में (जोड़ के लोक-परलोक की) महानता देता है।4।2।

मारू महला ३ ॥ पिछले गुनह बखसाइ जीउ अब तू मारगि पाइ ॥ हरि की चरणी लागि रहा विचहु आपु गवाइ ॥१॥

पद्अर्थ: गुनह = गुनाह, पाप। बखसाइ = बख्श। जीउ = हे प्रभु जी! अब = इस जनम में। मारगि = (ठीक) रास्ते पर। लागि रहा = (ता कि) मैं लगा रहूँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। गवाइ = दूर करके।1।

अर्थ: हे प्रभु जी! मेरे पिछले गुनाह बख्श, अब तू मुझे सही रास्ते पर चला; अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके (मैं) हरि के चरणों में टिका रहूँ।1।

मेरे मन गुरमुखि नामु हरि धिआइ ॥ सदा हरि चरणी लागि रहा इक मनि एकै भाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु की शरण पड़ कर। इक मनि = एकाग्र चिक्त हो के। एकै भाइ = एक (परमात्मा) के ही प्यार में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ कर हरि का नाम स्मरण किया कर (और, अरदास किया कर- हे प्रभु! मेहर कर) मैं सदा, हे हरि! एकाग्र चिक्त हो के एक तेरे ही प्यार में टिक के तेरे चरणों में जुड़ा रहूँ।1। रहाउ।

ना मै जाति न पति है ना मै थेहु न थाउ ॥ सबदि भेदि भ्रमु कटिआ गुरि नामु दीआ समझाइ ॥२॥

पद्अर्थ: मै = मेरी। पति = इज्जत। थेहु = जमीन की माल्कियत। थाउ = जगह, घर घाट। सबदि = शब्द से। भेदि = भेद के। भ्रमु = भटकना। गुरि = गुरु ने। समझाइ = जीवन-राह की समझ दे के।2।

अर्थ: हे भाई! ना मेरी (कोई ऊँची) जाति है, ना (मेरी लोगों में कोई) इज्जत है, ना मेरी जमीन की कोई मल्कियत है, ना मेरा कोई घर-घाट है, (मुझ निमाणे को) गुरु ने (अपने) शब्द से भेद के मेरी भटकना काट दी है, मुझे आत्मिक जीवन की सूझ बख्श के परमात्मा का नाम दिया है।2।

इहु मनु लालच करदा फिरै लालचि लागा जाइ ॥ धंधै कूड़ि विआपिआ जम पुरि चोटा खाइ ॥३॥

पद्अर्थ: लालच = अनेक लालच (बहुवचन)। लालचि = लालच में। जाइ = भटकता फिरता है। धंधै = धंधे में। कूड़ि = झूठ में। विआपिआ = फसा हुआ। जम पुरि = जम के शहर में, आत्मिक मौत के वश में। चोटा = चोटें, (चिन्ता फिक्र की) चोटें।3।

अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम से टूटा हुआ) यह मन अनेक लालचें करता फिरता है, (माया के) लालच में लग के भटकता है। (माया के) झूठे धंधे में फंसा हुआ आत्मिक मौत में पड़ कर (चिन्ता-फिक्र की) चोटें खाता रहता है।3।

नानक सभु किछु आपे आपि है दूजा नाही कोइ ॥ भगति खजाना बखसिओनु गुरमुखा सुखु होइ ॥४॥३॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! आपे = स्वयं ही। बखसिओनु = उसने बख्शा है। गुरमुखा = गुरु के सन्मुख रहने वालों को।4।

अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश? ये जो कुछ सारा संसार दिखाई दे रहा है ये) सब कुछ परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, उसके बिना (किसी पर भी) कोई और नहीं है। गुरु के सन्मुख रहने वालों को (अपनी) भक्ति का खजाना उसने स्वयं ही बख्शा है (जिसके कारण उनको) आत्मिक आनंद बना रहता है।4।3।

मारू महला ३ ॥ सचि रते से टोलि लहु से विरले संसारि ॥ तिन मिलिआ मुखु उजला जपि नामु मुरारि ॥१॥

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। रते = रंगे हुए। से = वह (बहुवचन)। संसारि = संसार में। जपि = जप के। नामु मुरारि = परमात्मा का नाम।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा (के नाम) में (सदा) रंगे रहते हैं उनकी तलाश कर (वैसे) वह जगत में कोई विरले-विरले ही होते हैं, उनको मिलने से परमात्मा का नाम जप के (लोक परलोक में) सही स्वीकार हो जाया जाता है (इज्जत मिलती है)।1।

बाबा साचा साहिबु रिदै समालि ॥ सतिगुरु अपना पुछि देखु लेहु वखरु भालि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! साचा = सदा स्थिर। साहिबु = मालिक। रिदै = हृदय में। समालि = याद कर। पुछि = पूछ के। वखरु = नाम का सौदा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु को (अपने) हृदय में (सदा) याद करता रह (यही है जीवन का असल उद्देश्य; बेशक) अपने गुरु को पूछ के देख ले। हे भाई! गुरु से ये नाम का सौदा पा ले।1। रहाउ।

इकु सचा सभ सेवदी धुरि भागि मिलावा होइ ॥ गुरमुखि मिले से न विछुड़हि पावहि सचु सोइ ॥२॥

पद्अर्थ: सभ = सारी दुनिया। सेवदी = भक्ति करती। धुरि = धुर से। धुरि भागि = धुर से लिखे भाग्य अनुसार। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पावहि = ढूँढ लेते हैं (बहुवचन)।2।

अर्थ: हे भाई! सिर्फ एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है, सारी लुकाई उसकी ही सेवा-भक्ति करती है, धुर से लिखी किस्मत से ही (उस परमात्मा के साथ) मिलाप होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (उसके चरणों में) जुड़ते हैं, वह (दोबारा) नहीं विछुड़ते, वह उस सदा-स्थिर प्रभु (का मिलाप) प्राप्त कर लेते हैं।2।

इकि भगती सार न जाणनी मनमुख भरमि भुलाइ ॥ ओना विचि आपि वरतदा करणा किछू न जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: इकि = कई (जीव)। सार = कद्र। जाणनी = जानते। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। भरमि = भटकना में, भटकना के कारण। भुलाइ = गलत रास्ते पर पड़ के। वरतदा = मौजूद है। करणा न जाइ = किया नहीं जा सकता।3।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! कई ऐसे लोग हैं जो अपने मन के पीछे चलते हैं, माया की भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, वह लोग प्रभु की भक्ति की कद्र नहीं समझते। (पर, हे भाई!) उन (मनमुखों) के अंदर (भी) परमात्मा स्वयं ही बसता है (और उन्हें गलत राह पर डाले रखता है, सो उसके उलट) कुछ भी किया नहीं जा सकता।3।

जिसु नालि जोरु न चलई खले कीचै अरदासि ॥ नानक गुरमुखि नामु मनि वसै ता सुणि करे साबासि ॥४॥४॥

पद्अर्थ: न चलई = न चलै, नहीं चल सकता। खले = (उसके दर पर) खड़े हो के, अदब से। कीचै = करनी चाहिए। मनि = मन में। ता = तब। सुणि = सुन के।4।

अर्थ: (तो फिर उन मनमुखों के लिए क्या किया जाए? यही कि) जिस परमात्मा के आगे (जीव की कोई) पेश नहीं चल सकती, उसके दर पर अदब से अरदास करते रहना चाहिए। हे नानक! जब गुरु के द्वारा परमात्मा का नाम मन में बसता है तब वह प्रभु (आरजू) सुन के आदर देता है।4।4।

मारू महला ३ ॥ मारू ते सीतलु करे मनूरहु कंचनु होइ ॥ सो साचा सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥१॥

पद्अर्थ: मारू = रेता स्थल, तपती रेत, तृष्णा से जल रहा दिल। ते = से। सीतलु = ठंडा। मनूरहु = मनूर से, जले हुए लोहे से। कंचनु = सोना। साचा = सदा स्थिर प्रभु। जेवडु = जितना बड़ा, बराबर का।1।

अर्थ: हे मन! (परमात्मा का स्मरण) तपते रेगिस्तान (जैसे जलते दिल) को शांत कर देता है, (नाम-जपने की इनायत से) मनूर (जंग लगे लोहे जैसा मन) सोने (सा शुद्ध) बन जाता है। हे मन! उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करनी चाहिए, उसके बराबर का और कोई नहीं है।1।

मेरे मन अनदिनु धिआइ हरि नाउ ॥ सतिगुर कै बचनि अराधि तू अनदिनु गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। कै बचनि = वचन से, के वचन पर चल के। गाउ = गाता रह।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर वक्त स्मरण करता रह। गुरु के वचनों पर चल के तू प्रभु की आराधना करता रह, हर वक्त परमात्मा के गुण गाया कर।1। रहाउ।

गुरमुखि एको जाणीऐ जा सतिगुरु देइ बुझाइ ॥ सो सतिगुरु सालाहीऐ जिदू एह सोझी पाइ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा। एको जाणीऐ = सिर्फ एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली जा सकती है। जा = जब। देइ बुझाइ = देय बुझाय, आत्मिक जीवन की सूझ देता है। जिदू = जिस (गुरु) से।2।

अर्थ: हे मन! जब गुरु (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्शता है (तब) गुरु के माध्यम से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है। हे मन! जिस गुरु से ये समझ प्राप्त होती है उस गुरु की सदा उपमा करनी चाहिए।2।

सतिगुरु छोडि दूजै लगे किआ करनि अगै जाइ ॥ जम पुरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। दूजै = किसी और में। लगे = (जो लोग) लगे हुए हैं। करनि = करते हैं, करेंगे (बहुवचन)। अगै = परलोक में। जाइ = जा के। जम पुरि = जम राज के दरबार में। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं।3।

अर्थ: हे मन! जो लोग गुरु को छोड़ के (माया आदि) और ही (मोह) में लगे रहते हैं वे परलोक में जा के क्या करेंगे? (ऐसे बँदे तो) जमराज की कचहरी में बँधे हुए मार खाते हैं, ऐसों को तो बड़ी सजा मिलती है।3।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh