श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 993

रागु मारू महला १ घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

अहिनिसि जागै नीद न सोवै ॥ सो जाणै जिसु वेदन होवै ॥ प्रेम के कान लगे तन भीतरि वैदु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। नीद = माया के मोह की नींद। सो जाणै = ‘अंम्रित की सार’ वही जाने। वेदन = वेदना, पीड़ा, विरह की पीड़, विछोड़े के अहिसास की तड़प। कान = तीर। वैदु = वैद्य, शारीरिक रोगों का इलाज करने वाला। कारी = इलाज। जीउ = हे सज्जन!।1।

अर्थ: नाम-अमृत का व्यापारी जीव दिन-रात सचेत रहता है, वह माया के मोह की नींद में सोता नहीं। नाम-अमृत की कद्र जानता भी वही मनुष्य है जिसके अंदर परमात्मा से विछोड़े के अहिसास की तड़प हो, जिस के शरीर में प्रभु-प्रेम के तीर लगे हों। शारीरिक रोगों का इलाज करने वाला व्यक्ति बिरह-रोग का इलाज नहीं जानता।1।

जिस नो साचा सिफती लाए ॥ गुरमुखि विरले किसै बुझाए ॥ अम्रित की सार सोई जाणै जि अम्रित का वापारी जीउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सिफती = महिमा के काम में। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है, जो गुरु के बताए हुए राह पर चले। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। सार = कद्र, कीमत। वापारी = विहाजने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: जिस किसी विरले व्यक्ति को गुरु के माध्यम से सदा कायम रहने वाला परमात्मा अपनी महिमा में जोड़ता है और महिमा की कद्र समझाता है, आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की कद्र वही व्यक्ति समझता है क्योंकि वह इस नाम-अमृत का व्यापारी बन जाता है।1। रहाउ।

पिर सेती धन प्रेमु रचाए ॥ गुर कै सबदि तथा चितु लाए ॥ सहज सेती धन खरी सुहेली त्रिसना तिखा निवारी जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: पिर = पति। सेती = साथ। धन = स्त्री। सबदि = शब्द में। तथा = उसी तरह। सहज = अडोल अवस्था, शांति। धन = जीव-स्त्री। खरी = बहुत। सुहेली = आसान, सखी। तिखा = तृखा, प्यास।2।

अर्थ: जैसे स्त्री (अपना आपा अर्थात स्वै वार के) अपने पति से प्यार करती है, वैसे ही जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द में चिक्त जोड़ती है, वह जीव-स्त्री आत्मिक अडोलता में टिक के बहुत सुखी हो जाती है, वह (अपने अंदर से) माया की तृष्णा माया की प्यास दूर कर लेती है।2।

सहसा तोड़े भरमु चुकाए ॥ सहजे सिफती धणखु चड़ाए ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे सुंदरि जोगाधारी जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: सहसा = सहम, तौखला। चुकाए = दूर करे। सहजे = सहज, सहज में, अडोलता में (टिक के)। सिफती धणखु = महिमा का धनुष। सुंदरि = सुंदर धन, सुंदर जीव-स्त्री।

(नोट: शब्द ‘सुंदरि’ की ‘ि’ मात्रा इसे ‘स्त्रीलिंग’ में बदलने के लिए है)।

जोगाधारी = जोग आधारी। जोग = परमात्मा से मिलाप। आधार = आसरा। जोगाधारी = हरि मिलाप के आसरे वाली।3।

अर्थ: जो जीव-स्त्री अडोलता में टिक के परमात्मा की महिमा का धनुष (बाण) कसती है (उसकी सहायता से अपने अंदर से) सहम-डर समाप्त कर लेती है माया वाली भटकना खत्म करती है, वह गुरु शब्द में जुड़ के (स्वैभाव को) मारती है अपने मन को वश में रखती है वह जीव-स्त्री प्रभु-मिलाप के आसरे वाली हो जाती है (भाव, प्रभु-चरणों का मिलाप उसके जीवन का आसरा बन जाता है)।3।

हउमै जलिआ मनहु विसारे ॥ जम पुरि वजहि खड़ग करारे ॥ अब कै कहिऐ नामु न मिलई तू सहु जीअड़े भारी जीउ ॥४॥

पद्अर्थ: मनहु = मन से। जमपुरि = जम के शहर में। करारे = करड़े, सख्त। अब कै कहिऐ = अब इस समय के कहने से। सहु = सह। जीअड़े = हे जीव!।4।

अर्थ: जो जीव अहंकार में जला रह के (आत्मिक जीवन के अंकुर को जला के) परमात्मा को अपने मन से भुला देता है उसको जम के शहर में करारे खड़ग बजते हैं (भाव, इतने आत्मिक कष्ट होते हैं, मानो, तलवारों की जोरदार चोटें बज रही हों), उस वक्त (जब मार पड़ रही होती है) तरले लेने से नाम (स्मरण का मौका) नहीं मिलता। (हे जीव! अगर तू सारी उम्र इतना गाफिल रहा है तो) वह बड़ा दुख (अब) सहता रह (उस बहुत बड़े कष्ट से तुझे कोई निकाल नहीं सकता)।4।

माइआ ममता पवहि खिआली ॥ जम पुरि फासहिगा जम जाली ॥ हेत के बंधन तोड़ि न साकहि ता जमु करे खुआरी जीउ ॥५॥

पद्अर्थ: पवहि = तू पड़ता है। खिआली = ख्यालों में। जम जाली = जम के जाल में। हेत = मोह। खुआरी = निरादरी।5।

अर्थ: हे जीव! अगर तू अब माया की ममता के ख्यालों में ही पड़ा रहेगा (अगर तू सारी उम्र माया जोड़ने के आहरों में ही रहेगा, तो आखिर) जम की नगरी में जम के जाल में फंसेगा, (उस वक्त) तू मोह के बंधन नहीं तोड़ पाएगा, (तभी तो) तब ही जमराज तेरी बेइज्जती करेगा।5।

ना हउ करता ना मै कीआ ॥ अम्रितु नामु सतिगुरि दीआ ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा नानक सरणि तुमारी जीउ ॥६॥१॥१२॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। करता = (अब) करने वाला। कीआ = किया (बीते हुए समय में)। सतिगुरि = सतिगुरु ने। देहि = देता है। चारा = तदबीर। तिसै किआ चारा = उसको और किस तदबीर की आवश्यक्ता?।6।

अर्थ: (पर, हे प्रभु! तेरी माया के मुकाबले में मैं बेचारा क्या चीज हूँ? माया के बंधनो से बचने के लिए) ना ही मैं अब कुछ कर रहा हूँ, ना ही इससे पहले कुछ कर पाया हूँ। मुझे तो सतिगुरु ने (मेहर करके) तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शा है। जिसको तू (गुरु के द्वारा अपना अमृत-नाम) देता है उसको कोई और तदबीर करने की आवश्यक्ता ही नहीं रह जाती।

हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ।6।1।12।

नोट: ‘घरु ५’ का ये एक शब्द है।

मारू महला ३ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जह बैसालहि तह बैसा सुआमी जह भेजहि तह जावा ॥ सभ नगरी महि एको राजा सभे पवितु हहि थावा ॥१॥

पद्अर्थ: जह = जहाँ। बैसालहि = तू बैठाता है। तह = वहाँ। बैसा = बैठूँ, मैं बैठता हूँ। सुआमी = हे स्वामी! जावा = जाऊँ, मैं जाता हूँ। सभ नगरी महि = सारी सृष्टि में। सभे = सारे। हहि = (बहुवचन) हैं।1।

अर्थ: हे प्रभु! (जब मैं आत्मिक अडोलता में लीन रहूँगा, तब) जहाँ तू मुझे बैठाएगा मैं वहीं बैठा रहूँगा, जहाँ तू मुझे भेजेगा मैं वहीं जाऊँगा (भाव, मैं हर वक्त तेरी रजा में रहूँगा)। हे स्वामी! सारी सृष्टि में मुझे तू ही एक पातशाह (दिखेगा, तेरी व्यापकता के कारण धरती के) सारी ही जगहें मुझे पवित्र लगेंगी।1।

बाबा देहि वसा सच गावा ॥ जा ते सहजे सहजि समावा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! देहि = (तू ये दाति) दे। वसा = बसूँ, मैं बसूँ। सच गावा = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को गाँव (पिंड) में, साधु-संगत में। जा ते = जिस की इनायत से। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही। समावा = समाऊँ, मैं समाया रहूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तू (मुझे ये दान) दे कि मैं तेरी साधु-संगत में टिका रहूँ, जिसकी इनायत से मैं सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहूँ।1। रहाउ।

बुरा भला किछु आपस ते जानिआ एई सगल विकारा ॥ इहु फुरमाइआ खसम का होआ वरतै इहु संसारा ॥२॥

पद्अर्थ: आपस ते = अपने आप से, अहंकार के कारण। एई = ये (अहंकार) ही। सगल = सारे। इहु = ये हुक्म। वरतै = वरत रहा है, काम कर रहा है। संसारा = संसार में।2।

अर्थ: हे भाई! अहंकार के कारण मनुष्य किसी को बुरा और किसी को अच्छा समझता है, ये अहंकार ही सारे विकारों का मूल बनती है। (साधु-संगत की इनायत से आत्मिक अडोलता में रहने वाले को दिखता है कि) ये भी पति-प्रभु का हुक्म ही हो रहा है, ये हुक्म ही सारे जगत में बरत रहा है।2।

इंद्री धातु सबल कहीअत है इंद्री किस ते होई ॥ आपे खेल करै सभि करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥

पद्अर्थ: इंद्री धातु = इन्द्रियों की दौड़ भाग। सबल = स+बल, बल वाली। किस ते = (परमात्मा के बिना और) किससे? खेल सभि = सारे खेल। कोई = कोई (विरला) मनुष्य (जो साधु-संगत में टिकता है)।3।

नोट: ‘किस ते’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: (हे भाई! सारी सृष्टि में) ये बात कही जा रही है कि इन्द्रियों की दौड़-भाग बहुत बलवान है; पर (साधु-संगत की इनायत से सहज अवस्था में टिका हुआ) कोई विरला मनुष्य ऐसे समझता है कि (काम-वासना आदि वाली) इंद्री भी (परमात्मा के बिना) किसी और से नहीं बनी, (वह यह समझता है कि) सारे करिश्मे कर्तार स्वयं ही कर रहा है।3।

गुर परसादी एक लिव लागी दुबिधा तदे बिनासी ॥ जो तिसु भाणा सो सति करि मानिआ काटी जम की फासी ॥४॥

पद्अर्थ: गुर परसादी = गुर प्रसादि, गुरु की कृपा से। लिव = लगन, प्रीत। दुबिधा = मेर तेर। तिस भाणा = उस प्रभु को अच्छा लगा। सति = ठीक, सही। जम = मौत, आत्मिक मौत। फासी = फाही।4।

अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में रह के जब) गुरु की कृपा से एक परमात्मा का प्यार (हृदय में) बन जाता है, तब (मनुष्य के अंदर से) मेर-तेर दूर हो जाती है। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वह मनुष्य उसको ठीक मानता है, और, उसकी आत्मिक मौत वाली फाँसी काटी जाती है।4।

भणति नानकु लेखा मागै कवना जा चूका मनि अभिमाना ॥ तासु तासु धरम राइ जपतु है पए सचे की सरना ॥५॥१॥

पद्अर्थ: भणति = कहता है। मागै कवना = कौन माँग सकता है? कोई नहीं माँग सकता। जा = जब। चूका = समाप्त हो गया। मनि = मन में (बसता)। तासु तासु = त्राहि त्राहि, बचा ले बचा ले (त्रायस्व)। पए = पड़ गए।5।

अर्थ: नानक कहता है: (साधु-संगत की इनायत से) जब मनुष्य के मन में (बसता) अहंकार समाप्त हो जाता है तब कोई भी (उससे उसके बुरे कर्मों का) लेखा नहीं माँग सकता (क्योंकि उसके अंदर कोई बुराई रह ही नहीं जाती)। (साधु-संगत में रहने वाले व्यक्ति) उस सदा-स्थिर प्रभु की शरण पड़े रहते हैं जिसकी हजूरी में धर्मराज भी कहता रहता है: मैं तेरी शरण हूँ, मैं तेरी शरण हूँ।5।1।

नोट: सत्संग में टिकने से ‘सहजि अवस्था’ प्राप्त होती है जिसका नक्शा इस सारे शब्द में है।

मारू महला ३ ॥ आवण जाणा ना थीऐ निज घरि वासा होइ ॥ सचु खजाना बखसिआ आपे जाणै सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना। थीऐ = होता। निज घरि = अपने (असल) घर में। सचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम। आपे = (प्रभु) आप ही।1।

अर्थ: (हे स्मरण का सदका) जनम-मरण (चक्कर) नहीं रहता, अपने असल घर में (प्रभु की हजूरी में) तवज्जो टिकी रहती है। पर सदा-स्थिर प्रभु का यह नाम-खजाना (उसने स्वयं ही) बख्शा है, वह प्रभु खुद ही जानता है (कि कौन इस दाति के योग्य है)।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh