श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 999 राजसु सातकु तामसु डरपहि केते रूप उपाइआ ॥ छल बपुरी इह कउला डरपै अति डरपै धरम राइआ ॥३॥ पद्अर्थ: राजसु = रजो गुण। सातकु = सतो गुण। तामसु = तमो गुण। केते = बेअंत। बपुरी = बिचारी, निमाणी। कउला = लक्ष्मी। अति = बहुत।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने बेअंत जीव पैदा किए हैं जो रजो, सतो, तमो (इन तीन गुणों में विचर रहे हैं, ये सारे उसके) हुक्म में कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। (दुनिया के सारे जीवों के लिए) छलावा (बनी हुई) यह बेचारी लक्ष्मी भी रज़ा में चल रही है, धर्मराज भी हुक्म के आगे थर-थर काँपता है।3। सगल समग्री डरहि बिआपी बिनु डर करणैहारा ॥ कहु नानक भगतन का संगी भगत सोहहि दरबारा ॥४॥१॥ पद्अर्थ: डरहि = डर में। बिआपी = फसी रहती है। करणैहारा = विधाता प्रभु। संगी = साथी। सोहहि = शोभा देते हैं।4। अर्थ: हे भाई! दुनिया की सामग्री रज़ा में बँधी हुई है, एक विधाता प्रभु ही है जिस पर किसी का डर नहीं। हे नानक! कह: परमात्मा अपने भगतों की सहायता करने वाला है, उसके दरबार में भक्तगण हमेशा शोभा पाते हैं।4।1। मारू महला ५ ॥ पांच बरख को अनाथु ध्रू बारिकु हरि सिमरत अमर अटारे ॥ पुत्र हेति नाराइणु कहिओ जमकंकर मारि बिदारे ॥१॥ पद्अर्थ: पांच बरख को = पाँच साल (की उम्र) का। बारिकु = बालक। अमर = अटल। अटारे = अटारी पर, दर्जे पर। हेति = की खातिर, हित में। जम कंकर = (किंकर, नौकर) जम का नौकर, जमदूत। मारि बिदारे = मार भगाए।1। अर्थ: हे भाई! धुराव पाँच वर्षों का एक अनाथ बालक था। हरि-नाम स्मरण करके उसने अटल पदवी प्राप्त कर ली। (अजामल अपने) पुत्र (को आवाज देने) की खातिर ‘नारायण, नारायण’ कहा करता था, उसने जमदूतों को मार भगा दिया।1। मेरे ठाकुर केते अगनत उधारे ॥ मोहि दीन अलप मति निरगुण परिओ सरणि दुआरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! केते = कितने ही, बेअंत। उधारे = बचा लिए। मोहि = मैं। दीन = निमाणा। अलप मति = थोड़ी मति वाला। परिओ = पड़ा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे ठाकुर! कितने ही बेअंत जीव तू बचा रहा है। मैं निमाणा हूँ, तुच्छ बुद्धि वाला हूँ, गुण हीन हूँ। मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ।1। रहाउ। बालमीकु सुपचारो तरिओ बधिक तरे बिचारे ॥ एक निमख मन माहि अराधिओ गजपति पारि उतारे ॥२॥ पद्अर्थ: सुपचारो = सुपच, (श्व+पच) चंडाल (कुत्ते मार के खाने वाला)। बधिक = शिकारी (कृष्ण जी को हिरन समझ के तीर मारने वाला)। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। गजपति = हाथी (जिसको तेंदूए ने पकड़ लिया था)।2। अर्थ: (हे भाई! नाम जपने की इनायत से) बाल्मीकि चण्डाल (संसार-समुंदर से) पार लांघ गया, बेचारे शिकारी जैसों का भी उद्धार हो गया। आँख झपकने जितने समय के लिए ही गज ने अपने मन में आराधना की और उसको प्रभु ने पार लंघा दिया।2। कीनी रखिआ भगत प्रहिलादै हरनाखस नखहि बिदारे ॥ बिदरु दासी सुतु भइओ पुनीता सगले कुल उजारे ॥३॥ पद्अर्थ: प्रहिलादै = प्रहिलाद की। नखहि = नाखूनों से। बिदारे = चीर दिया। दासी सुतु = दासी का पुत्र। पुनीता = पवित्र। उजारे = रौशन कर लिए।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (अपने) भक्त प्रहलाद की रक्षा की, (उसने पिता) हृणाकश्यप को नाखूनों से चीर दिया। दासी का पुत्र बिदर (परमात्मा की कृपा से) पवित्र (जीवन वाला) हो गया, उसने अपनी सारी कुलें रौशन कर लीं।3। कवन पराध बतावउ अपुने मिथिआ मोह मगनारे ॥ आइओ साम नानक ओट हरि की लीजै भुजा पसारे ॥४॥२॥ पद्अर्थ: कवन पराध = कौन कौन से अपराध? बतावउ = बताऊँ, मैं कहूँ। मिथिआ मोह = नाशवान पदार्थों का मोह। मगनारे = मगन, डूबा हुआ, मस्त। साम = शरण। लीजै = पकड़ ले। भुजा पसारे = बाँह पसार के।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! अपने कौन-कौन से अपराध बताऊँ? मैं तो नाशवान पदार्थों के मोह में डूबा रहता हूँ। हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैंने तेरी ओट पकड़ी है। मुझे अपनी बाँह पसार के पकड़ ले।4।2। मारू महला ५ ॥ वित नवित भ्रमिओ बहु भाती अनिक जतन करि धाए ॥ जो जो करम कीए हउ हउमै ते ते भए अजाए ॥१॥ पद्अर्थ: वित = विक्त, धन। नवित = नविक्त, निमिक्त, की खातिर। भ्रमिओ = भटकता फिरा। बहु भाती = कई तरीकों से। धाए = दौड़ भाग की। हउ हउमै = ‘मैं मैं’ के आसरे। ते = वह (बहुवचन)। ते ते = वे सारे। अजाए = व्यर्थ।1। अर्थ: जो मनुष्य धन की खातिर (ही) कई तरह भटकता रहा, (धन की खातिर) अनेक यत्न करके दौड़-भाग करता रहा; ‘मैं मैं’ के आसरे वह जो जो भी काम करता रहा, वह सारे ही व्यर्थ चले गए।1। अवर दिन काहू काज न लाए ॥ सो दिनु मो कउ दीजै प्रभ जीउ जा दिन हरि जसु गाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अवर काहू काज = किसी और कामों में। न लाए = ना लगाए रख। मो कउ = मुझे। प्रभ जीउ = हे प्रभु जी! जा दिन = जिस दिन। जसु = यश, महिमा।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! (जिंदगी के) दिनों में मुझे और-और कामों में ना लगाए रख। मुझे वह दिन दे, जिस दिन मैं तेरी महिमा के गीत गाता रहूँ।1। रहाउ। पुत्र कलत्र ग्रिह देखि पसारा इस ही महि उरझाए ॥ माइआ मद चाखि भए उदमाते हरि हरि कबहु न गाए ॥२॥ पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। ग्रिह = घर। देखि = देख के। पसारा = खिलारा। महि = में। उरझाए = व्यस्त रहे। मद = नशा। उदमाते = मस्त।2। नोट: ‘इस ही’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: पुत्र-स्त्री घर का पसारा देख के जीव इस (खिलारे) में ही व्यस्त रहते हैं। माया का नशा चख के मस्त रहते हैं, कभी भी परमात्मा के गुण नहीं गाते।2। इह बिधि खोजी बहु परकारा बिनु संतन नही पाए ॥ तुम दातार वडे प्रभ सम्रथ मागन कउ दानु आए ॥३॥ पद्अर्थ: इह बिधि = इस तरीके से। खोजी = खोज की। बहु परकारा = कई प्रकार की। दातार = दातें देने वाला। संम्रथ = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। मागन कउ = माँगने के लिए।3। अर्थ: इस तरह कई किस्म की खोज करके देखी है (सब माया में ही प्रवृक्त दिखाई देते हैं)। सो, संत जनों के बिना (किसी और जगह) परमात्मा की प्राप्ति नहीं है। हे प्रभु! तू सब दातें देने वाला है, तू सब ताकतों का मालिक है। (मैं तेरे दर से तेरे नाम का) दान माँगने आया हूँ।3। तिआगिओ सगला मानु महता दास रेण सरणाए ॥ कहु नानक हरि मिलि भए एकै महा अनंद सुख पाए ॥४॥३॥ पद्अर्थ: सगला = सारा। मानु महता = महत्वता का घमण्ड। रेण = चरण धूल। मिलि = मिल के। भए एकै = एक रूप हो गए हैं।4। अर्थ: हे नानक! कह: मैंने सारा सम्मान सारा बड़प्पन छोड़ दिया है। मैं उन दासों की चरण धूल माँगता हूँ, मैं उन दासों की शरण आया हूँ, जो प्रभु को मिल के प्रभु के साथ एक-रूप हो गए हैं। उनकी शरण में ही बड़ा सुख बड़ा आनंद मिलता है।4।3। मारू महला ५ ॥ कवन थान धीरिओ है नामा कवन बसतु अहंकारा ॥ कवन चिहन सुनि ऊपरि छोहिओ मुख ते सुनि करि गारा ॥१॥ पद्अर्थ: कवन थान = कौन सी जगह? धीरिओ है = टिका हुआ है। नामा = (तेरा वह) नाम (जिसे ले ले के कोई मनुष्य तुझे गालियाँ निकालता है)। बसतु = वस्तु, चीज। चिहन = चिन्ह, निशान, जख़्म। सुनि = सुन के। मुख ते = (किसी के) मुँह से। सुनि करि गारा = गालियाँ सुन के। ऊपरि छोहिओ = तू क्रोधित हो रहा है।1। अर्थ: (हे भाई! तेरा वह) नाम (तेरे अंदर) कहाँ टिका हुआ है (जिसको ले ले के कोई तुझे गालियाँ निकालता है?) वह अहंकार क्या चीज है (जिससे तू आफरा फिरता है)? हे भाई! सुन, तुझे वह कौन से जख़्म लगे हैं किसी के मुँह से गालियाँ सुन के, जिसके कारण तू क्रोधित हो जाता है?।1। सुनहु रे तू कउनु कहा ते आइओ ॥ एती न जानउ केतीक मुदति चलते खबरि न पाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! कहा ते = किस जगह से? एती = इतनी बात भी। न जानउ = न जानूँ, मैं नहीं जानता। केतीक = कितनी? मुदति = समय। चलते = (जूनियों में) चलते हुए।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सुन (विचार कि) तू कौन है (तेरी अस्लियत क्या है?), तू कहाँ से (इस जगत में) आया है? मैं तो इतनी बात भी नहीं जानता (कि जीव को अनेक जूनियों में) चलते हुए कितना समय लग जाता है। किसी को भी ये खबर नहीं मिल सकती। (फिर, बताओ, अपने ऊपर कैसा गुमान?)।1। रहाउ। सहन सील पवन अरु पाणी बसुधा खिमा निभराते ॥ पंच तत मिलि भइओ संजोगा इन महि कवन दुराते ॥२॥ पद्अर्थ: सहन सील = सहनशील, सह सकने के स्वभाव वाले। पवन = हवा। अरु = और। बसुधा = धरती। खिमा = किसी की ज्यादती माफ करने वाला स्वभाव। निभराते = नि: संदेह। मिलि = मिल के। दुराते = दुरत, बुराई।2। अर्थ: हे भाई! हवा और पानी (ये दोनों तत्व) बर्दाश्त कर सकने के स्वभाव वाले हैं। धरती तो नि: संदेह क्षमा का रूप ही है। पाँच तत्व मिल के (मनुष्य का) शरीर बनता है। इन पाँच तत्वों में से बुराई किस में है?।2। जिनि रचि रचिआ पुरखि बिधातै नाले हउमै पाई ॥ जनम मरणु उस ही कउ है रे ओहा आवै जाई ॥३॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। पुरखि = पुरख ने। बिघातै = विधाता ने। जिनि पुरख बिधातै = जिस रक्षा करने वाले प्रभु ने। नाले = साथ ही। उस ही कउ = उस (अहंकार, अहम्) को ही। रे = हे भाई! ओहा = वह (अहंकार, अहम्) ही। आवै जाई = पैदा होती मरती है।3। नोट: ‘उस ही कउ’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण शब्द ‘उसु’ की ‘ु’ मात्रा हटी हुई है। अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस विधाता कर्तार ने यह रचना रची है, उसने (शरीर बनाने के समय) अहंकार भी साथ में ही (हरेक के अंदर) डाल दी है। उस (अहंकार) को ही जनम-मरण (का चक्कर) है, वह अहंकार ही पैदा होता मरता है (भाव, उस अहंकार के कारण ही जीव के लिए पैदा होने मरने का चक्कर बना रहता है)।3। बरनु चिहनु नाही किछु रचना मिथिआ सगल पसारा ॥ भणति नानकु जब खेलु उझारै तब एकै एकंकारा ॥४॥४॥ पद्अर्थ: बरनु = वर्ण, रंग। चिहनु = चिन्ह, निशान। मिथिआ = नाशवान। पसारा = जगत का खिलारा। भणति = कहता है। उझारै = उजाड़ता है। एकै = एक स्वयं ही। एकंकारा = एक परमात्मा।4। अर्थ: हे भाई! यह सारा जगत पसारा नाशवान है, इस रचना में (स्थिरता का) कोई वर्ण-चिन्ह नहीं है। नानक कहता है: (हे भाई!) जब परमात्मा इस खेल को उजाड़ता है तब एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है।4।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |