श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1000 मारू महला ५ ॥ मान मोह अरु लोभ विकारा बीओ चीति न घालिओ ॥ नाम रतनु गुणा हरि बणजे लादि वखरु लै चालिओ ॥१॥ पद्अर्थ: अरु = और (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क है। अरि = वैरी)। बीओ = दूसरा। चीति = चिक्त में। घालिओ = आने दिया, ले के आए। बणजे = व्यापार किया, खरीदे। लादि = लाद के। वखरु = सौदा।1। अर्थ: हे भाई! मान-मोह और लोभ आदि अन्य विकारों को परमात्मा का सेवक अपने चिक्त में नहीं आने देता। वह सदा परमात्मा का नाम-रतन और परमात्मा की महिमा का व्यापार ही करता रहता है। यही सौदा वह यहाँ से लाद के ले के चलता है।1। सेवक की ओड़कि निबही प्रीति ॥ जीवत साहिबु सेविओ अपना चलते राखिओ चीति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओड़कि = आखिर तक। निबही = बनी रहती है। सेविओ = स्मरण करता रहा। चलते = जगत से चलने के वक्त। चीति = चिक्त में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त की परमात्मा के साथ प्रीति आखिर तक बनी रहती है। जितना समय वह जगत में जीता है उतना समय वह अपने मालिक-प्रभु की सेवा-भक्ति करता रहता है, जगत से जाने के वक्त भी प्रभु को अपने चिक्त में बसाए रखता है।1। रहाउ। जैसी आगिआ कीनी ठाकुरि तिस ते मुखु नही मोरिओ ॥ सहजु अनंदु रखिओ ग्रिह भीतरि उठि उआहू कउ दउरिओ ॥२॥ पद्अर्थ: आगिआ = आज्ञा, हुक्म। ठाकुरि = ठाकुर ने। मोरिओ = मोड़ा। सहजु = आत्मिक अडोलता। ग्रिह भीतरि = घर में। उआहू कउ = उसी तरफ को। दउरिओ = दौड़ पड़ा।2। नोट: ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! सेवक वह है जिसको मालिक-प्रभु ने जिस प्रकार का कभी हुक्म किया, उसने उस हुक्म से कभी मुँह नहीं मोड़ा। अगर मालिक ने उसको घर के अंदर टिकाए रखा, तो सेवक के लिए वहीं ही आत्मिक अडोलता और आनंद बना रहता है; (अगर मालिक ने कहा-) उठ (उस तरफ की ओर जा, तो सेवक) उस तरफ की ओर दौड़ पड़ा।2। आगिआ महि भूख सोई करि सूखा सोग हरख नही जानिओ ॥ जो जो हुकमु भइओ साहिब का सो माथै ले मानिओ ॥३॥ पद्अर्थ: भुख = भूख, गरीबी। करि सूखा = सुख के कारण। सोग = ग़म। हरख = हर्ष, खुशी। साहिब का = (रहाउ की पंक्ति में शब्द ‘साहिबु’ और यहाँ ‘साहिब का’ शब्दों का जोड़ देखना)। माथै लै = माथे पर ले के।3। अर्थ: हे भाई! अगर सेवक को मालिक प्रभु के हुक्म में नंग-भूख आ गई, तो उसको ही उसने सुख मान लिया। सेवक खुशी अथवा ग़मी की परवाह नहीं करता। सेवक को मालिक-प्रभु का जो जो हुक्म मिलता है, उसको सिर-माथे मानता है।3। भइओ क्रिपालु ठाकुरु सेवक कउ सवरे हलत पलाता ॥ धंनु सेवकु सफलु ओहु आइआ जिनि नानक खसमु पछाता ॥४॥५॥ पद्अर्थ: सेवक कउ = सेवक को, सेवक पर। सवरे = सँवर गए। हलत पलाता = हलत पलत, ये लोक और परलोक। धंनु = भाग्यशाली। सफलु = कामयाब। जिनि = जिस ने। नानक = हे नानक! खसमु पछाता = पति प्रभु के साथ सांझ डाली।4। अर्थ: हे नानक! मालिक-प्रभु जिस सेवक पर दयावान होता है, उसका यह लोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। जिस सेवक ने पति-प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली, वह भाग्यशाली है, उसका दुनिया में आना सफल हो जाता है।4।5। मारू महला ५ ॥ खुलिआ करमु क्रिपा भई ठाकुर कीरतनु हरि हरि गाई ॥ स्रमु थाका पाए बिस्रामा मिटि गई सगली धाई ॥१॥ पद्अर्थ: करमु = भाग्य। खुलिआ करमु = भाग्य जाग उठे। क्रिपा ठाकुर = ठाकुर की कृपा। गाई = गाता है। स्रमु = श्रम, थकावट, दौड़ भाग। बिस्रामा = विश्राम, ठहराव। धाई = दौड़ भाग, भटकना।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर मालिक प्रभु की मेहर होती है, वह सदा परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं, उसकी दौड़भाग खत्म हो जाती है, वह मनुष्य प्रभु-चरणों में ठिकाना पा लेता है, उसकी सारी भटकना दूर हो जाती है।1। अब मोहि जीवन पदवी पाई ॥ चीति आइओ मनि पुरखु बिधाता संतन की सरणाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। जीवन पदवी = आत्मिक जीवन का दर्जा। चीति = चिक्त में। मनि = मन में। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = विधाता, निर्माता।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! संत जनों की शरण पड़ने के कारण मेरे मन में मेरे चिक्त में सर्व-व्यापक विधाता प्रभु आ बसा है, अब मैंने आत्मिक जीवन वाला दर्जा प्राप्त कर लिया है।1। रहाउ। कामु क्रोधु लोभु मोहु निवारे निवरे सगल बैराई ॥ सद हजूरि हाजरु है नाजरु कतहि न भइओ दूराई ॥२॥ पद्अर्थ: निवारे = दूर कर लिए। निवरे = दूर हो गए। सगल = सारे। बैराई = वैरी। सद = सदा। हजूरि हाजरु = हाज़र हजूरि, अंग संग। नाजरु = नाज़र, (सबको) देखने वाला। कतहि = कहीं भी। दूराई = दूर।2। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य संतजनों की शरण पड़ता है वह अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि सारे विकार) दूर कर लेता है, उसके ये सारे ही वैरी दूर हो जाते हैं। सबको देखने वाला प्रभु उसको हर वक्त अंग-संग प्रतीत होता है, किसी भी जगह से उसको वह प्रभु दूर नहीं लगता।2। सुख सीतल सरधा सभ पूरी होए संत सहाई ॥ पावन पतित कीए खिन भीतरि महिमा कथनु न जाई ॥३॥ पद्अर्थ: सीतल = ठंढ। सभ = सारी। पावन पतित = पतितों को पवित्र, विकारियों को पवित्र। महिमा = उपमा, बड़ाई।3। अर्थ: हे भाई! संतों की महिमा बयान नहीं की जा सकती, संत जन विकारियों को एक छिन में पवित्र कर देते हैं। संत जन जिस मनुष्य के मददगार बनते हैं, उसके अंदर हर वक्त ठंड और आनंद बना रहता है, उसकी हरेक माँग पूरी हो जाती है।3। निरभउ भए सगल भै खोए गोबिद चरण ओटाई ॥ नानकु जसु गावै ठाकुर का रैणि दिनसु लिव लाई ॥४॥६॥ पद्अर्थ: निरभउ = डर रहित। सगल भै = सारे डर। ओटाई = ओट लेने से। नानकु गावै = नानक गाता है। जसु = महिमा का गीत। रैणि = रात। लिव लाई = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।4। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा के चरणों का आसरा ले लिया, उनके सारे डर दूर हो गए, वे निर्भय हो गए। हे भाई! नानक भी दिन-रात तवज्जो जोड़ के मालिक-प्रभु की महिमा के गीत गाता रहता है।4।6। मारू महला ५ ॥ जो समरथु सरब गुण नाइकु तिस कउ कबहु न गावसि रे ॥ छोडि जाइ खिन भीतरि ता कउ उआ कउ फिरि फिरि धावसि रे ॥१॥ पद्अर्थ: समरथु = सब ताकतों का मालिक। नाइकु = नायक, मालिक। न गावसि = तू नहीं गाता। छोडि जाइ = (हरेक प्राणी) छोड़ जाता है। ता कउ = उस (माया) को। उआ कउ = उस (माया) की ही खातिर। धावसि = तू दौड़ भाग कर रहा है। रे = हे भाई!।1। नोट: ‘तिस कउ’ में से संबंधक ‘कउ’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, जो सारे गुणों का मालिक है, तू उसकी महिमा कभी भी नहीं करता। हे भाई! उस (माया) को तो हर कोई एक छिन में छोड़ जाता है, तू भी उसी की खातिर बार-बार भटकता फिरता है।1। अपुने प्रभ कउ किउ न समारसि रे ॥ बैरी संगि रंग रसि रचिआ तिसु सिउ जीअरा जारसि रे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ कउ = प्रभु को। न समारसि = तू याद नहीं करता। बैरी संगि = वैरी के साथ। रंग रसि = मौज मस्ती के स्वाद में। तिसु कउ = उस (वैरी मोह) से। जारसि = तू जला रहा है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! तू अपने परमात्मा को क्यों याद नहीं करता? तू (माया के मोह-) वैरी के साथ मौज-मेलों के स्वाद में मस्त है, और, उस (मोह के) साथ ही अपनी जिंदगी को जला रहा है (अपने आत्मिक जीवन को जला रहा है)।1। रहाउ। जा कै नामि सुनिऐ जमु छोडै ता की सरणि न पावसि रे ॥ काढि देइ सिआल बपुरे कउ ता की ओट टिकावसि रे ॥२॥ पद्अर्थ: नामि सुनिऐ = नाम सुनने से। जा कै नामि सुनिऐ = जिसका नाम सुनने से। न पावसि = तू नहीं पड़ता। देइ = देता है। काढि देइ = निकाल देता है। सिआल = सियार, गीदड़। ता की ओट = उस (शेर प्रभु) का आसरा। टिकावसि = (अपने अंदर) टिका ले।2। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम सुन के जमराज (भी) छोड़ जाता है, तू उसकी शरण (क्यों) नहीं पड़ता? हे भाई! तू अपने अंदर उस प्रभु का आसरा टिका ले, जो (शेर-प्रभु) बेचारे गीदड़ को निकाल देता है।2। जिस का जासु सुनत भव तरीऐ ता सिउ रंगु न लावसि रे ॥ थोरी बात अलप सुपने की बहुरि बहुरि अटकावसि रे ॥३॥ पद्अर्थ: जासु = यश। भव = संसार समुंदर। तरीऐ = तैरा जाता है, उद्धार हो जाता है। रंगु = प्रेम। न लावसि = तू नहीं लगाता। अलप = थोड़ी, होछी। बहुरि बहुरि = बार बार। अटकावसि = तू (अपने मन को) फसा रहा है।3। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का यश सुन के संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है, तू उससे प्यार नहीं जोड़ता। (माया की प्रीति) सपने समान ही तुच्छ सी बात है, पर तू मुड़-मुड़ के उसी में ही अपने मन को फसा रहा है।3। भइओ प्रसादु क्रिपा निधि ठाकुर संतसंगि पति पाई ॥ कहु नानक त्रै गुण भ्रमु छूटा जउ प्रभ भए सहाई ॥४॥७॥ पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा, मेहर। ठाकुर प्रसादु = प्रभु की कृपा। क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। संत संगि = संत जनों की संगति में। पति = इज्जत। नानक = हे नानक! त्रै गुण भ्रमु = त्रै गुणी माया की खातिर भटकना। जउ = जब। सहाई = मददगार।4। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर कृपा के खजाने मालिक की मेहर होती है, वे संत जनों की संगति में रह कर (लोक-परलोक का) आदर कमाता है। जब प्रभु जी मददगार बनते हैं, मनुष्य की त्रैगुणी माया वाली भटकना दूर हो जाती है।4।7। मारू महला ५ ॥ अंतरजामी सभ बिधि जानै तिस ते कहा दुलारिओ ॥ हसत पाव झरे खिन भीतरि अगनि संगि लै जारिओ ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = दिलों की जानने वाला। सभ बिधि = हरेक किस्म की बात। तिस ते = उस (परमात्मा) से। कहा दुलारिओ = कहाँ कुछ छुपाया जा सकता है? हसत = हाथ (बहुवचन)। पाव = पैर। झरे = झड़ जाते हैं, जल जाते हैं। अगनि संगि = आग से, आग में। जारिओ = जलाया जाता है।1। नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है। नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे मूर्ख! जिस शरीर की खातिर तू हरामखोरी करता है, वह शरीर अंत के समय) आग में डाल कर जलाया जाता है, (उसके) हाथ पैर (आदि अंग) एक छिन में जल के राख हो जाते हैं। हे मूर्ख! सब के दिलों की जानने वाला परमात्मा (मनुष्य का) हरेक किस्म (का अंदरूनी भेद) जानता है। उससे कहाँ कुछ छुपाया जा सकता है?।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |