श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1001 मूड़े तै मन ते रामु बिसारिओ ॥ लूणु खाइ करहि हरामखोरी पेखत नैन बिदारिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मूढ़े = हे मूर्ख! तै = तू। मन ते = मन से। बिसारिओ = भुला दिया है। खाइ = खा के। करहि = तू करता है। हरामखोरी = हराम का माल खाने की करतूत। नैन बिदारिओ = आँखें फाड़ फाड़ के, शर्म हया उतार के। पेखत = देखता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा को अपने मन से भुला दिया है। परमात्मा का सब कुछ दिया खा के बड़ी बेशर्मी के साथ तू हरामखोरी कर रहा है।1। रहाउ। असाध रोगु उपजिओ तन भीतरि टरत न काहू टारिओ ॥ प्रभ बिसरत महा दुखु पाइओ इहु नानक ततु बीचारिओ ॥२॥८॥ पद्अर्थ: असाध रोगु = वह रोग जिसका इलाज ना हो सके। तन भीतरि = शरीर में। टरत न = नहीं टलता, दूर नहीं होता। काहू = और किसी तरह भी। टारिओ = टालने से, दूर करने से। नानक = हे नानक!।2। अर्थ: हे मूर्ख! (जब हरामखोरी का यह) असाध रोग शरीर में पैदा होता है, किसी भी और तरीके से दूर करने से यह दूर नहीं होता। हे नानक! (कह:) संत जनों ने ये भेद समझा है कि परमात्मा को भुला के मनुष्य बड़ा दुख सहता है।2।8। मारू महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ राखे चीति ॥ हरि गुण गावह नीता नीत ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोऊ ॥ आदि मधि अंति है सोऊ ॥१॥ पद्अर्थ: चरन कमल = सुंदर चरण। चीति = चिक्त में। गावह = गाते हैं। नीता नीत = नित्य ही। कोऊ = कोई भी। आदि = शुरू में। मधि = बीच वाले समय में। अंति = जगत के अंत में। सोऊ = वह स्वयं ही।1। अर्थ: हे भाई! संत जनों ने प्रभु के सुंदर चरण (सदा अपने) चिक्त में बसाए होते हैं, वह सदा ही परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं परमात्मा के बिना उन्हें और कोई सहारा नहीं दिखता (जो सदा कायम रह सके। संत जनों को विश्वास है कि) वह परमात्मा ही जगत के आरम्भ में, मध्य में और जगत के अंत में कायम रहने वाला है।1। संतन की ओट आपे आपि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओट = आसरा। आपे = स्वयं ही।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही (संत जनों का) आसरा है।1। रहाउ। जा कै वसि है सगल संसारु ॥ आपे आपि आपि निरंकारु ॥ नानक गहिओ साचा सोइ ॥ सुखु पाइआ फिरि दूखु न होइ ॥२॥९॥ पद्अर्थ: जा कै वसि = जिसके वश में। सगल = सारा। निरंकारु = निर+आकार, जिसका कोई खास रूप नहीं बयान किया जा सकता। गहिओ = पकड़ लिया, हृदय में बगसा लिया। साचा = सदा कायम रहने वाला।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) जो निरंकार सदा स्वयं ही स्वयं है, जिसमें सारा जगत है, (संत जनों ने) उस सदा कायम रहने वाले को अपने हृदय में बसाया हुआ है, वह सदा आत्मिक आनंद भोगते हैं, उन्हें कोई दुख छू नहीं सकता।2।9। मारू महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ प्रान सुखदाता जीअ सुखदाता तुम काहे बिसारिओ अगिआनथ ॥ होछा मदु चाखि होए तुम बावर दुलभ जनमु अकारथ ॥१॥ पद्अर्थ: प्रान दाता = जीवन देने वाला। जीअ सुख दाता = सब जीवों को सुख देने वाला। काहे = क्यों? अगिआनथ = हे अज्ञानी! होछा = जल्दी खत्म हो जाने वाला। मदु = नशा। बावर = झल्ला। अकारथ = व्यर्थ।1। अर्थ: हे अज्ञानी! तूने क्यों उस परमात्मा को भुला दिया है जो प्राणों का दाता है, सारे सुखों को देने वाला है और सारे जीवों का सुखदाता है। जल्दी खत्म हो जाने वाले (होछे) नशे चख के तू पागल होता जा रहा है, तेरा कीमती जनम व्यर्थ जा रहा है।1। रे नर ऐसी करहि इआनथ ॥ तजि सारंगधर भ्रमि तू भूला मोहि लपटिओ दासी संगि सानथ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे नर = हे मनुष्य! करहि = तू करता है। इआनथ = बेअक्ली, मूर्खता। तजि = छोड़ के। सारंगधर = जगत का आसरा प्रभु। भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूला = गलत राह पर पड़ गया। मोहि = मोह में। दासी = माया। संगि = साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे मनुष्य! तू बहुत ही बुरी बुद्धिहीनता कर रहा है कि तू धरती के आसरे प्रभु को छोड़ के भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है, माया के मोह से चिपका हुआ है और माया-दासी से साथ बना रहा है।1। रहाउ। धरणीधरु तिआगि नीच कुल सेवहि हउ हउ करत बिहावथ ॥ फोकट करम करहि अगिआनी मनमुखि अंध कहावथ ॥२॥ पद्अर्थ: धरणीधरु = धरती का आसरा। सेवहि = तू सेवा करता है। हउ हउ = मैं मैं, अहंकार। बिहावथ = बिहावत, (उम्र) गुजर रही है। फोकट = फोके। मनमुख = हे मनमुख! हे मन के मुरीद! अंधु = अंधा। कहावथ = कहलवा रहा है।2। अर्थ: हे भाई! धरती के आसरे प्रभु को त्याग के तू नीच कुल वाली माया-दासी की सेवा कर रहा है, (इस माया के कारण) ‘मैं मैं’ करते हुए तेरी उम्र बीत रही है। हे मन के मुरीद मूर्ख! तू फोके कर्म कर रहा है, (आँखों के होते हुए भी) तू (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधा कहलवा रहा है।2। सति होता असति करि मानिआ जो बिनसत सो निहचलु जानथ ॥ पर की कउ अपनी करि पकरी ऐसे भूल भुलानथ ॥३॥ पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। असति = जो सत्य नहीं है, जिसकी कोई हस्ती नहीं है। निहचलु = अटल। पर की = पराई (हो जाने वाली)। कउ = को। करि = जाने के, समझ के। पकरी = पकड़ी हुई है।3। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, तू उसकी हस्ती ही नहीं मानता, जो यह नाशवान जगत है इसको तू अटल समझता है। जिस माया ने अवश्य पराई हो जाना है इसको तू अपनी समझ के जफी मार के बैठा है। कैसी आश्चर्यजनक भूल में तू भूला हुआ है!।3। खत्री ब्राहमण सूद वैस सभ एकै नामि तरानथ ॥ गुरु नानकु उपदेसु कहतु है जो सुनै सो पारि परानथ ॥४॥१॥१०॥ पद्अर्थ: एकै नामि = सिर्फ नाम से ही। तरानथ = पार लांघता है।4। अर्थ: हे भाई! खत्री, ब्राहमण, शूद्र, वैश्य (किसी भी वर्ण के जीव हों) सारे एक हरि-नाम से ही संसार-सागर से पार होते है। जो उपदेश गुरु नानक करता है इसको जो मनुष्य सुनता है वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।4।1।10। मारू महला ५ ॥ गुपतु करता संगि सो प्रभु डहकावए मनुखाइ ॥ बिसारि हरि जीउ बिखै भोगहि तपत थम गलि लाइ ॥१॥ पद्अर्थ: गुपतु = गुप्त, छुप के। करता = (पाप) करता है। संगि = (जीव के सदा) साथ। डहकावए = ठगता है। मनुखाइ = मनुखाय, और मनुष्यों को। बिसारि = भुला के। बिखै = विषय भोग। भोगहि = तू भोगता है। गलि = गले से। लाइ = लगा के। तपत...लाइ = तपे हुए खम्भे को गले से लगा के, विकारों की आग में जल जल के।1। अर्थ: (हे भाई! मनुष्य) छुप के (विकार) करता है, (पर देखने वाला) वह प्रभु (हर वक्त इसके) साथ होता है (विकारी मनुष्य प्रभु को ठग नहीं सकता, ये तो) मनुष्यों को ही ठगता है। हे भाई! परमात्मा को बिसार के विकारों की आग में जल-जल के तू विषय भोगता रहता है।1। रे नर काइ पर ग्रिहि जाइ ॥ कुचल कठोर कामि गरधभ तुम नही सुनिओ धरम राइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे नर = हे मनुष्य! काइ = काय, क्यों? पर ग्रिहि = पराए घर में। जाइ = जाए, जा के। कुचल = हे गंदे! कामि = हे कामी! गरधभ = हे गधे?।1। रहाउ। अर्थ: हे मनुष्य! पराए घर में जा के ऐसे (बुरे कर्म करता है?) हे गंदे! हे पत्थर दिल! हे विषयी! हे गधे मूर्ख! क्या तूने धर्मराज (का नाम कभी) नहीं सुना?।1। रहाउ। बिकार पाथर गलहि बाधे निंद पोट सिराइ ॥ महा सागरु समुदु लंघना पारि न परना जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: गलहि = गले में। बाधे = बँधे हुए हैं। निंद पोट = निंदा की पोटली। सिराइ = सिर पर। सागरु = समुंदर। न परना जाइ = पार नहीं किया जा सकता।2। अर्थ: हे भाई! विकारों के पत्थर (तेरे) गले से बँधे पड़े हैं, निंदा की पोटली (तेरे) सिर पर है। बड़ा संसार-समुंदर (है जिसमें से) गुजरना है (इतने भार से इसमें से) पार नहीं लांघा जा सकता।2। कामि क्रोधि लोभि मोहि बिआपिओ नेत्र रखे फिराइ ॥ सीसु उठावन न कबहू मिलई महा दुतर माइ ॥३॥ पद्अर्थ: कामि = काम-वासना में। क्रोधि = क्रोध में। बिआपिओ = बसा हुआ है। नेत्र = आँखें। रख फिराइ = फेरे हुए हैं। सीसु = सिर। कबहू = कभी भी। मिलई = मिले, मिलता। दुतर = दुष्तर, मुश्किल, जिससे पार लांघना मुश्किल है। माइ = माया।3। अर्थ: हे भाई! (तू) काम-क्रोध-लोभ-मोह में फसा हुआ है, तूने परमात्मा की ओर से आँखें फेर रखी हैं। (इन विकारों की तरफ से तुझे) कभी भी सिर उठाना नहीं मिलता। (तेरे आगे) माया का बड़ा समुंदर है जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है।3। सूरु मुकता ससी मुकता ब्रहम गिआनी अलिपाइ ॥ सुभावत जैसे बैसंतर अलिपत सदा निरमलाइ ॥४॥ पद्अर्थ: सूर = सूरज। मुकता = मैल आदि से रहित। ससी = चंद्रमा। ब्रहम गिआनी = वह मनुष्य जिसने परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा ली है। अलिपाइ = अलेप, निर्लिप, पवित्र जीवन वाला। सुभावत = शोभा पा रहा है, सुंदर जीवन वाला है। बैसंतर = आग। निरमलाइ = निर्मल।4। अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के साथ गहरी सांझ डाले रखता है वह माया से इस प्रकार से निर्लिप रहता है जैसे सूरज (अच्छे-बुरे हरेक जगह अपनी रौशनी दे के) मैल आदि से साफ है, जैसे चंद्रमा भी (इसी तरह) पवित्र है। ब्रहम से जान-पहचान रखने वाला इस तरह सुंदर लगता है जैसे (हरेक किस्म की मैल को जला के भी) आग (मैल से) निर्लिप है और सदा निर्मल है।4। जिसु करमु खुलिआ तिसु लहिआ पड़दा जिनि गुर पहि मंनिआ सुभाइ ॥ गुरि मंत्रु अवखधु नामु दीना जन नानक संकट जोनि न पाइ ॥५॥२॥ पद्अर्थ: जिसु = जिस मनुष्य का। करम खुलिआ = भाग्य जागे। तिसु पड़दा = उसका पर्दा। लहिआ = उतर गया। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुर पहि = गुरु के पास (रह के)। मंनिआ = (परमात्मा का हुक्म) मान लिया। सुभाइ = प्रेम में (टिक के) (भाउ = प्रेम)। गुरि = गुरु ने। अवखधु = दारू, दवा। संकट जोनि = जूनों का कष्ट।5।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य जाग उठते हैं, जिसने गुरु की शरण में रह के प्रेम से रज़ा को मान लिया उस (आँखों से माया के मोह) का पर्दा उतर जाता है। हे दास नानक! जिस को गुरु ने नाम मंत्र दे दिया, वह मनुष्य (चौरासी लाख) जूनियों के कष्ट में नहीं पड़ता।5।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |