श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1012 गुरु सागरु अम्रित सरु जो इछे सो फलु पाए ॥ नामु पदारथु अमरु है हिरदै मंनि वसाए ॥ गुर सेवा सदा सुखु है जिस नो हुकमु मनाए ॥७॥ पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। अंम्रितसरु = अमृत का सरोवर, अमृत से भरा हुआ सरोवर। पदारथु = संपत्ति। अमरु = कभी ना खत्म होने वाला। मंनि = मन में।7। अर्थ: गुरु समुंदर है, गुरु अमृत से भरा हुआ सरोवर है (‘अमृतसर’ है। सेवक इस अमृत के सरोवर गुरु की शरण पड़ता है, फिर यहाँ से) जो कुछ माँगता है वह फल ले लेता है। (गुरु की मेहर से सेवक अपने) हृदय में मन में परमात्मा का नाम बसाता है जो (असल) संपत्ति है और जो कभी खत्म होने वाला नहीं। गुरु जिस सेवक से परमात्मा का हुक्म मनाता है उस सेवक को गुरु की (इस बताई) सेवा से सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है।7। सुइना रुपा सभ धातु है माटी रलि जाई ॥ बिनु नावै नालि न चलई सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ नानक नामि रते से निरमले साचै रहे समाई ॥८॥५॥ पद्अर्थ: रूपा = चांदी। धातु = माया। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझ = समझ। नामि = नाम में। साचै = सदा स्थिर प्रभु में।8। अर्थ: (हे भाई!) सोना-चाँदी आदि सब (नाशवान) माया है (जब जीव शरीर त्यागता है तो उसके लिए तो ये सब) मिट्टी में मिल गए (क्योंकि उसके किसी काम नहीं आते)। सतिगुरु ने (प्रभु के सेवक को यह) सूझ दे दी है कि परमात्मा के नाम के बिना (सोना-चाँदी आदि कोई भी चीज़ जीव के) साथ नहीं जाती। हे नानक! (गुरु की कृपा से) जो लोग परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, वे सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में लीन रहते हैं।8।5। मारू महला १ ॥ हुकमु भइआ रहणा नही धुरि फाटे चीरै ॥ एहु मनु अवगणि बाधिआ सहु देह सरीरै ॥ पूरै गुरि बखसाईअहि सभि गुनह फकीरै ॥१॥ पद्अर्थ: भइआ = (जब) हो जाता है। धुरि = धुर से, परमात्मा की हजूरी से। चीरी = चिट्ठी। फाटे चीरै = अगर चिट्ठी फट जाए। (नोट: हमारे देश का रिवाज है कि किसी की मौत की खबर भेजने के वक्त चिट्ठी एक तरफ से थोड़ी सी फाड़ दी जाती है)। सहु = सह, बर्दाश्त कर। देह = शरीर। देह सरीरै = शरीर पर। गुरि = गुरु के द्वारा। सभि = सारे। गुनहु = गुनाह, पाप। बखसाईअहि = बख्शिश लेते हैं। फकीरै = फकीर के, भिखारी के, उस मनुष्य के जो प्रभु के दर से मेहर की दाति माँगे।1। अर्थ: जब (परमात्मा का) हुक्म हो जाता है जब (किसी की) चिट्ठी धुर (दरगाह) से फाड़ दी जाती है, तो वह (इस संसार में) नहीं रह सकता। (हे भाई! जब तक तेरा) ये मन अवगुणों (की फाँसी) में बँधा हुआ है (तब तक अपने इस) शरीर में (दुख) सह। जो मनुष्य पूरे गुरु के द्वारा परमात्मा के दर का मँगता बनता है उसके सारे गुनाह बख्शे जाते हैं।1। किउ रहीऐ उठि चलणा बुझु सबद बीचारा ॥ जिसु तू मेलहि सो मिलै धुरि हुकमु अपारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किउ रहीऐ = नहीं रह सकते। अपारा = हे अपार! हे बेअंत प्रभु!।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! अभी-अभी वक्त है) गुरु के शब्द की विचार समझ, (यहाँ सदा) टिके नहीं रहा जा सकता, (जब प्रभु का हुक्म आया तब) यहाँ से चलना ही पड़ेगा। (पर, हे प्रभु! जीवों के क्या वश?) हे बेअंत प्रभु! तुझे वही मनुष्य मिल सकता है जिसको तू स्वयं मिलाए, धुर से तेरा (ऐसा ही) हुक्म है (ऐसी ही रज़ा है)।1। रहाउ। जिउ तू राखहि तिउ रहा जो देहि सु खाउ ॥ जिउ तू चलावहि तिउ चला मुखि अम्रित नाउ ॥ मेरे ठाकुर हथि वडिआईआ मेलहि मनि चाउ ॥२॥ पद्अर्थ: रहा = मैं रहता हूँ। खाउ = मैं खाता हूँ। चला = मैं (जीवन-राह पर) चलता हूँ। मुखि = मुँह में (डालता हूँ)। अंम्रित नाउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। हथि = हाथ में। मनि = मन में। चाउ = तमन्ना।2। अर्थ: (पर, हम जीवों के वश की बात नहीं) हे प्रभु! जिस हालत में तू मुझे रखता है, मैं उसी हालत में रह सकता हूँ, जो (आत्मिक खुराक) तू मुझे देता है मैं वही खाता हूँ। (आत्मिक जीवन के रास्ते पर) जिस तरह तू मुझे चलाता है मैं उसी तरह चलता हूँ, और अपने मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम डालता हूँ। हे मेरे ठाकुर! तेरे अपने हाथ में वडिआईआँ (आदर-मान) हैं (जिसको तू बड़ाई बख्शता है जिसको तू अपने चरणों में) जोड़ता है उसके मन में (तेरी भक्ति का) चाव पैदा हो जाता है।2। कीता किआ सालाहीऐ करि देखै सोई ॥ जिनि कीआ सो मनि वसै मै अवरु न कोई ॥ सो साचा सालाहीऐ साची पति होई ॥३॥ पद्अर्थ: करि = पैदा कर के। देखै = संभाल करता है। जिनि = जिस परमात्मा ने। मै = मुझे।3। अर्थ: (परमात्मा की महिमा छोड़ के परमात्मा के) पैदा किए हुए की बड़ाई करने से कोई (आत्मिक) लाभ नहीं होगा (बड़ाई उस कर्तार की करो) जो (जगत-रचना) कर के स्वयं ही (उसकी) संभाल करता है। जिस कर्तार ने जगत रचा है वही (मेरे) मन में बसता है। मुझे उस जैसा और कोई नहीं दिखाई देता। उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की ही महिमा करनी चाहिए (जो करता है उसको) सदा के लिए आदर मिल जाता है।3। पंडितु पड़ि न पहुचई बहु आल जंजाला ॥ पाप पुंन दुइ संगमे खुधिआ जमकाला ॥ विछोड़ा भउ वीसरै पूरा रखवाला ॥४॥ पद्अर्थ: आल जंजाला = (आलय = घर) घर के धंधे। दुइ = द्वै, दुबिधा। संगमे = साथ। खुधिआ = (माया की) भूख।4। अर्थ: पंडित (शास्त्र, पुराण आदि धर्म-पुस्तकें सिर्फ) पढ़ के (उस अवस्था पर) नहीं पहुँचता (जहाँ परमात्मा से विछोड़ा समाप्त हो जाए, क्योंकि पढ़-पढ़ के भी) वह माया के जंजालों में बहुत फसा रहता है। (धर्म-शास्त्रों के अनुसार) पाप क्या है औरा पुण्य क्या है ये विचार करता हुआ भी वह द्वैत के फंदे में ही रहता है, माया की भूख और आत्मिक मौत (मौत का डर) उसके सिर पर कायम रहते हैं। परमात्मा के चरणों से विछोड़ा और सहम उस मनुष्य का ही खत्म होता है जिसके मन में हर तरह से रक्षा करने वाला परमात्मा बसा रहता है।4। जिन की लेखै पति पवै से पूरे भाई ॥ पूरे पूरी मति है सची वडिआई ॥ देदे तोटि न आवई लै लै थकि पाई ॥५॥ पद्अर्थ: पति = इज्जत। भाई = हे भाई! दे = दे के। तोटि = घाटा। थकि पाई = जीव थक जाता है।5। अर्थ: हे भाई! किए कर्मों का हिसाब होने पर जिन्हें इज्जत मिलती है वह सम्पूर्ण बर्तन समझे जाते हैं। ऐसे संपूर्ण गुणवान मनुष्य को परमात्मा के दर से मति भी पूरी ही मिलती है (जिसके कारण वह भूलने वाले जीवन के राह पर नहीं पड़ता) और सदा-स्थिर रहने वाली इज्जत प्राप्त होती है। (वह परमात्मा बेअंत दातों का मालिक है, जीव को) सदा देता है (उसके खजाने में) घाटा नहीं पड़ता, जीव दातें ले ले के थक जाता है।5। खार समुद्रु ढंढोलीऐ इकु मणीआ पावै ॥ दुइ दिन चारि सुहावणा माटी तिसु खावै ॥ गुरु सागरु सति सेवीऐ दे तोटि न आवै ॥६॥ पद्अर्थ: खार = खारा। मणीआ = रतन। पावै = पा लिए। तिसु = उस (मणी) को। गुरु सागरु सति = सतिगुरु समुंदर। दे = देता है।6। अर्थ: (इस बात की बहुत उपमा की जाती है कि देवताओं ने समुंदर मथा और उसमें से चौदह रत्न निकले, भला) अगर खारा समुंदर मथने से, उसमें से कोई मनुष्य रत्न ढूँढ ले (तो भी आखिर कौन सी बड़ी बात कर ली? वह रतन) दो-चार दिन ही सुंदर लगता है (अंत में) उस रत्न को कभी ना कभी मिट्टी ही खा जाती है। (सतिगुरु असल समुंदर है) अगर सतिगुरु” समुंदर को सेवा जाए (अगर गुरु-समुंदर की शरण पड़ें, तो गुरु-समुंदर ऐसा नाम-रत्न) देता है जिसमें कभी भी कमी नहीं आ सकती।6। मेरे प्रभ भावनि से ऊजले सभ मैलु भरीजै ॥ मैला ऊजलु ता थीऐ पारस संगि भीजै ॥ वंनी साचे लाल की किनि कीमति कीजै ॥७॥ पद्अर्थ: से = वह लोग। ऊजले = पवित्र। सभ = सारी दुनिया। ता = तब। थीऐ = होता। संगि = साथ। वंनी = रंग। साचे = सदा स्थिर की। किनी = किस ने? किस ओर से? कीजै = की जा सकती है।7। अर्थ: सारी दुनिया (माया के मोह की) मैल से भरी हुई है। सिर्फ वह लोग साफ-सुथरे हैं जो परमात्मा को प्यारे लगते हैं। (माया के मोह से) मलीन-मन हुआ आदमी तब ही पवित्र हो सकता है जब वह गुरु पारस की संगति में रह के (परमात्मा के नाम-अमृत से) भीगता है। सदा-स्थिर प्रभु-लाल का नाम-रंग उसको ऐसा चढ़ता है कि किसी भी तरफ से उसका मूल्य नहीं पड़ सकता।7। भेखी हाथ न लभई तीरथि नही दाने ॥ पूछउ बेद पड़ंतिआ मूठी विणु माने ॥ नानक कीमति सो करे पूरा गुरु गिआने ॥८॥६॥ पद्अर्थ: भेख = भेस धारण करने से। हाथ = गहराई। तीरथि = तीर्थ पर (स्नान करने से)। दाने = दान से। पूछउ = मैं पूछता हूँ। मूठी = (सारी दुनिया) ठगी जा रही है। माने = माने। विणु माने = बिना माने, जब तक मन नहीं मानता। कीमति = कद्र।8। अर्थ: पर उस नाम-रंग की गहराई बाहरी धार्मिक पहिरावों से नहीं पाई जा सकती, तीर्थ पर स्नान करने से दान-पून्य करने से नहीं मिलती। मैं बेद पढ़ने वालों से ये भेद पूछता हूँ (धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से नाम-रंग की गहराई की समझ नहीं पड़ती)। जब तक नाम-रंग में मन नहीं डूबता (मन नहीं भीगता तब तक सारी दुनिया ही माया-मोह में) ठगी जा रही है। हे नानक! नाम-रंग की कद्र वही मनुष्य करता है जिसको पूरा गुरु मिलता है और (गुरु के माध्यम से परमात्मा के साथ) गहरी सांझ मिलती है।8।6। मारू महला १ ॥ मनमुखु लहरि घरु तजि विगूचै अवरा के घर हेरै ॥ ग्रिह धरमु गवाए सतिगुरु न भेटै दुरमति घूमन घेरै ॥ दिसंतरु भवै पाठ पड़ि थाका त्रिसना होइ वधेरै ॥ काची पिंडी सबदु न चीनै उदरु भरै जैसे ढोरै ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुख = वह व्यक्ति जिसने अपना मुँह अपने मन की ओर किया हुआ है, अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति। लहरि = (त्याग की) लहर, (त्याग का) जोश। तजि = त्याग के। विगुचै = दुखी होता है। अवरा के = औरों के। हेरै = देखता है। ग्रिह धरमु = गृहस्थ का फर्ज। भेटै = मिलता है। घूमन घेरै = चक्रवात में (फस जाता है)। दिसंतरु = देश देश अंतर, और-और देश। पढ़ि = पढ़ के। त्रिसना = तृष्णा, माया की लालच। काची पिंडी = होछी मति देने वाला। उदरु = पेट। ढोर = पशू।1। (नोट: शब्द ‘घरु’ और ‘घर’ में फर्क है)। अर्थ: पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (त्याग के) जोश में अपना घर त्याग के (फिर रोटी आदि की खातिर) औरों के घर देखता फिरता है। गृहस्थ निभाने का फर्ज (मेहनत-कमाई करनी) छोड़ देता है (इस गलत त्याग से उसको) सतिगुरु (भी) नहीं मिलता, और अपनी दुर्मति के चक्रवात में (गोते खाता है)। (अपना घर छोड़ के) और-और देशों (का) रटन करता फिरता है, (धर्म-पुस्तकों के) पाठ पढ़-पढ़ के भी थक जाता है, (पर माया की) तृष्णा (खत्म होने की जगह बल्कि) बढ़ती जाती है। होछी मति वाला (मनमुख) गुरु के शब्द को नहीं विचारता, (और लोगों के घरों से बग़ैर काम काज वाले) पशुओं की तरह अपना पेट भरता है।1। बाबा ऐसी रवत रवै संनिआसी ॥ गुर कै सबदि एक लिव लागी तेरै नामि रते त्रिपतासी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! रवत रवै = रहित रहे। सबदि = शब्द से। नामि = नाम में। रते = रंगे जा के। त्रिपतासी = तृप्त हो गया, माया की तृष्णा की ओर से तृप्ति।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! असल सन्यासी वह है जो ऐसा जीवन जीए कि गुरु के शब्द में जुड़ के उसकी लगन एक (तेरे चरणों) में लगी रहे। तेरे नाम-रंग में रंग के (माया की ओर से) उसे सदा तृप्ति रहेगी।1। रहाउ। घोली गेरू रंगु चड़ाइआ वसत्र भेख भेखारी ॥ कापड़ फारि बनाई खिंथा झोली माइआधारी ॥ घरि घरि मागै जगु परबोधै मनि अंधै पति हारी ॥ भरमि भुलाणा सबदु न चीनै जूऐ बाजी हारी ॥२॥ पद्अर्थ: गेरू = गेरी। भेख = साधूओं वाले पहरावे। भेखारी = भिखारी। फारि = फाड़ के। खिंथा = गोदड़ी। माइआधारी = (अन्न आटा आदि) माया डालने के लिए झोली। परबोधै = उपदेश करता है। मनि = मन से। मनि अंधै = अंधे मन से, मन (माया के मोह में) अंधा होने के कारण। पति = इज्जत। हारी = गवा ली।2। अर्थ: मनमुख बंदा गेरूआ घोलता है, उसका रंग (अपने कपड़ों पर) चढ़ाता है, धार्मिक पहरावे वाले कपड़े पहन के भिखारी बन जाता है। कपड़े फाड़ के (पहनने के लिए) गुदड़ी बनाता है, और (अन्न आटा आदि) माया डालने के लिए झोली (तैयार कर लेता है)। (खुद तो) हरेक घर में (जा के भिक्षा) माँगता है पर जगत को (सत-धर्म का, गृहस्थ मार्ग वाला) उपदेश करता है, अपना मन अंधा होने के कारण मनमुख अपनी इज्जत गवा लेता है। भटकना में (पड़ कर जीवन-राह से) विछुड़ा हुआ गुरु के शब्द को पहचानता नहीं (जैसे कोई जुआरी) जूए में बाज़ी हारता है (वैसे ही यह मनमुख अपनी मानव जनम की बाज़ी हार जाता है)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |