श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1013 अंतरि अगनि न गुर बिनु बूझै बाहरि पूअर तापै ॥ गुर सेवा बिनु भगति न होवी किउ करि चीनसि आपै ॥ निंदा करि करि नरक निवासी अंतरि आतम जापै ॥ अठसठि तीरथ भरमि विगूचहि किउ मलु धोपै पापै ॥३॥ पद्अर्थ: न बूझै = नहीं समझती। पूअर = धूणियाँ। तापै = तपाता है, जलाता है। चीनसि = पहचाने। आपै = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। अंतरि आतम = अपने आप के अंदर। जापै = (उसको) सूझता है, दिखाई देता है। अठसठि = अढ़सठ। विगूचहि = दुखी होते हैं। पापै = पाप की।3। अर्थ: (अपनी ओर से त्यागी बने हुए मनमुख के) मन में तृष्णा की (जलती) आग गुरु के बिना बुझती नहीं, पर बाहर धूणियाँ तपाता है। गुरु की बताई हुई सेवा किए बिना परमात्मा की भक्ति हो नहीं सकती (यह मनमुख) अपने आत्मिक जीवन को कैसे पहचाने? वैसे अंतरात्मे इसको समझ आ जाती है कि (किरती गृहस्तियों की) निंदा कर करके नरकी जीवन व्यतीत कर रहा है। अढ़सठ तीर्थों पर भटक के भी (मनमुख त्यागी) दुखी होते हैं, (तीर्थों पर जाने से) पापों की मैल कैसे धुल सकती है?।3। छाणी खाकु बिभूत चड़ाई माइआ का मगु जोहै ॥ अंतरि बाहरि एकु न जाणै साचु कहे ते छोहै ॥ पाठु पड़ै मुखि झूठो बोलै निगुरे की मति ओहै ॥ नामु न जपई किउ सुखु पावै बिनु नावै किउ सोहै ॥४॥ पद्अर्थ: बिभूत = राख। चढ़ाई = (शरीर पर) मल ली। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। छोहै = खिझता है। झूठो = झूठ ही। ओहै = वह पहली ही। जपई = जपता है। सोहै = शोभा देता है।4। अर्थ: (लोक दिखावे के लिए) राख छानता है और वह राख अपने शरीर पर मल लेता है, पर (अंतरात्मे) माया का रास्ता देखता रहता है (कि कोई गृहस्थी दानी आ के माया भेट करे)। (बाहर से और व अंदर से और होने के कारण) अपने अंदर और बाहर जगत में एक परमात्मा को (व्यापक) नहीं समझ सकता, (अगर) ये सच्चा वाक्य उसको कहें तो वह खीझता है। (धर्म-पुस्तकों का) पाठ पढ़ता (तो) है पर मुँह से झूठ ही बोलता है, गुरु हीन होने के कारण उसकी मति उस पहले जैसी ही रहती है (भाव, बाहरी तौर पर त्याग करने से उसके आत्मिक जीवन में कोई बदलाव नहीं पड़ता)। जब तक परमात्मा का नाम नहीं जपता तब तक आत्मिक आनंद नहीं मिलता, प्रभु-नाम के बिना जीवन सुचज्जा (सदाचारी) नहीं बन सकता।4। मूंडु मुडाइ जटा सिख बाधी मोनि रहै अभिमाना ॥ मनूआ डोलै दह दिस धावै बिनु रत आतम गिआना ॥ अम्रितु छोडि महा बिखु पीवै माइआ का देवाना ॥ किरतु न मिटई हुकमु न बूझै पसूआ माहि समाना ॥५॥ पद्अर्थ: मूंडु = सिर। मुडाई = मुना के। सिख = शिखा, चोटी। मोनि रहै = चुप धार के रखता है। दह = दस। दिस = दिशाएं। धावै = दौड़ता है, भटकता है। रत = रंगा हुआ। बिख = जहर (जो आत्मिक मौत लाता है)। देवाना = पागल, आशिक। किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह।5। अर्थ: कोई सिर मुनवा लेता है, कोई जटाओं का जूड़ा बना लेता है, और मौन धार के बैठ जाता है (इन सारे भेषों का) घमण्ड (भी करता है)। पर आत्मिक तौर पर प्रभु के साथ गहरी सांझ के रंग में रंगे जाने के बिना उसका मन डोलता रहता है, और (माया की तृष्णा में ही) दसों-दिशाओं में दौड़ता-फिरता है। (अंतरात्मे) माया का प्रेमी (होने के कारण) परमात्मा का नाम-अमृत छोड़ देता है और (तृष्णा का वह) जहर पीता रहता है (जो इसके आत्मिक जीवन को मार डालता है)। (पर, इस मनमुख के भी क्या वश?) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह (अंदर से) समाप्त नहीं होता, (उन संस्कारों के असर तले जीव) परमात्मा की रजा को नहीं समझ सकता, (इस तरह, त्यागी बन के भी) पशु-स्वभाव में टिका रहता है।5। हाथ कमंडलु कापड़ीआ मनि त्रिसना उपजी भारी ॥ इसत्री तजि करि कामि विआपिआ चितु लाइआ पर नारी ॥ सिख करे करि सबदु न चीनै ल्मपटु है बाजारी ॥ अंतरि बिखु बाहरि निभराती ता जमु करे खुआरी ॥६॥ पद्अर्थ: हथि = हाथ में। कमंडलु = चिप्पी। कापड़ीआ = कपड़े की लीरों का चोला पहनने वाला साधु। मनि = मन में। तजि = छोड़ के। कामि = काम-वासना तहित। विआपिआ = प्रभावित हो गया। सिख = (अनेक) सेवक। लंपटु = (माया में, विकार में) खचित। बाजारी = मसखरा। निभराती = भटकना का अभाव, शांति। खुआरी = दुर्गती।6। अर्थ: (मनमुख मनुष्य त्यागी बन के) हाथ में कमण्डल पकड़ लेता है, कपड़े की लीरों का चोला पहन लेता है, पर मन में माया की भारी तृष्णा पैदा हुई रहती है (अपनी ओर से त्यागी बन के) अपनी स्त्री छोड़ के आए को काम-वासना ने आ दबाया, तो पराई नारि के साथ चिक्त जोड़ता है। चेले बनाता है, गुरु के शब्द को नहीं पहचानता, काम-वासना में ग्रसा हुआ है, और (इस तरह सन्यासी बनने की जगह लोगों की नजरों में) मसखरा बना हुआ है। (मनमुख के) अंदर (आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा का) जहर है, बाहर (लोगों को दिखाने के लिए) शांति धारण की हुई है। (ऐसे पाखण्डी को) आत्मिक मौत दुखी करती है।6। सो संनिआसी जो सतिगुर सेवै विचहु आपु गवाए ॥ छादन भोजन की आस न करई अचिंतु मिलै सो पाए ॥ बकै न बोलै खिमा धनु संग्रहै तामसु नामि जलाए ॥ धनु गिरही संनिआसी जोगी जि हरि चरणी चितु लाए ॥७॥ पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। छादन = कपड़ा। अचिंतु = सहज सुभाय, चिन्ता किए बिना। खिमा = दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव। संग्रहै = इकट्ठा करता है। तामसु = तमो गुण, क्रोध। नामि = नाम से। धनु = भाग्यशाली। गिरही = गृहस्थी।7। अर्थ: असल सन्यासी वह है जो गुरु की बताई हुई सेवा करता है और अपने अंदर से सवै-भाव दूर करता है, (लोगों से) कपड़े और भोजन की आस बनाए नहीं रखता, सहज सुभाय जो मिल जाता है वह ले लेता है, बहुत कम व ज्यादा बोल नहीं बोलता रहता, दूसरों की ज्यादती को सहने के स्वभाव रूप धन अपने अंदर संचित करता है, प्रभु के नाम की इनायत से अंदर से क्रोध को जला देता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है, वह भाग्यशाली है, (फिर) चाहे वह गृहस्थी है चाहे सन्यासी है चाहे जोगी है।7। आस निरास रहै संनिआसी एकसु सिउ लिव लाए ॥ हरि रसु पीवै ता साति आवै निज घरि ताड़ी लाए ॥ मनूआ न डोलै गुरमुखि बूझै धावतु वरजि रहाए ॥ ग्रिहु सरीरु गुरमती खोजे नामु पदारथु पाए ॥८॥ पद्अर्थ: एकसु सिउ = सिर्फ एक (परमात्मा) से। लिव = लगन। निज घरि = अपने घर में, उस घर में जो सदा अपना है। वरजि = रोक के। रहाए = रखे। ग्रिहु = घर। पदारथु = संपत्ति।8। अर्थ: असल सन्यासी वह है जो मायावी आशाओं की तरफ से निराश रहता है और एक परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है। जब मनुष्य परमात्मा का नाम-रस पीता है और अंतरात्मे प्रभु-चरणों में जुड़ता है तब इसके अंदर शांति पैदा होती है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (सही जीवन-राह) समझता है उसका मन माया की तृष्णा में डोलता नहीं, माया के पीछे दौड़ते मन को वह रोक के रखता है; गुरु की शिक्षा ले के (जंगलों में तलाशने की बजाय) शरीर-घर में खोजता है और परमात्मा का नाम-पूंजी को प्राप्त कर लेता है।8। ब्रहमा बिसनु महेसु सरेसट नामि रते वीचारी ॥ खाणी बाणी गगन पताली जंता जोति तुमारी ॥ सभि सुख मुकति नाम धुनि बाणी सचु नामु उर धारी ॥ नाम बिना नही छूटसि नानक साची तरु तू तारी ॥९॥७॥ पद्अर्थ: महेसु = शिव। सरेसट = श्रेष्ठ, सबसे उत्तम। नामि रते = परमात्मा के नाम में रंगे हुए। वीचारी = विचारवान। खाणी = जगत उत्पक्ति की चार खानें = अंडज, जेरज, सेतज और उत्भुज (1. अंडज = अण्डों से पैदा होने वाले जीव पंक्षी आदि; 2. जेरज = ज्योर से पैदा होने, पशु मनुष्य। 3. सेतज = पसीने से और धरती की हुमस से पैदा होने वाला, जूएँ, आदि। 4.उत्भुज = धरती से पैदा होने वाले वृक्ष आदि)। बाणी = बोली, सब देशों के जीवों की अलग अलग बोलियाँ। गगन = आकाश। पताली = पातालों में। सभि = सारे। मुकति = माया के बंधनो से मुक्ति। नाम धुनि = नाम की लहर। बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी। उर धारी = हृदय में टिका। उर = हृदय। नही छूटसि = मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। साची तारी = वह तैरना जो सदा स्थिर रहे, ऐसा तैरना जिसमें डूबने का खतरा ना रहे।9। अर्थ: ब्रहमा हो, विष्णू हो, शिव हो, वही सबसे श्रेष्ठ हैं जो प्रभु के नाम में रंगे गए और (इस तरह) सुंदर विचारों के मालिक बन गए। हे प्रभु! (भले ही) चारों खाणियों के जीवों में और उनकी बोलियों में, पाताल-आकाश में सब जीवों के अंदर तेरी ही ज्योति है, पर जिन्होंने तेरे सदा-स्थिर नाम को अपने हृदय में टिकाया है जिनके अंदर तेरे नाम की लहर जारी है जिनकी तवज्जो तेरी महिमा की वाणी में है उन्हें ही सारे सुख हैं उनको ही माया के बंधनो से मुक्ति मिलती है। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना कोई भी जीव माया के मोह से नहीं बच सकता, तू भी यही तैराकी तैर जिससे कभी डूबने का खतरा ना रहेगा।9।7। मारू महला १ ॥ मात पिता संजोगि उपाए रकतु बिंदु मिलि पिंडु करे ॥ अंतरि गरभ उरधि लिव लागी सो प्रभु सारे दाति करे ॥१॥ पद्अर्थ: संजोगि = संयोग से, मेल द्वारा। रकतु = लहू। बिंदु = वीर्य। पिंडु = शरीर। करे = बनाता है। अंतरि गरभ = माँ के पेट में। उरधि = उल्टा। सारे = संभाल करता है।1। अर्थ: माता और पिता के (शारीरिक) संयोग के द्वारा परमात्मा जीव पैदा करता है, माँ का लहू और पिता का वीर्य मिलने पर परमात्मा (जीव का) शरीर बनाता है। माँ के पेट में उल्टे पड़े हुए की लगन प्रभु-चरणों में लगी रहती है। वह परमात्मा इसकी हर तरह संभाल करता है (और आवश्यक्ता अनुसार पदार्थ) देता है।1। संसारु भवजलु किउ तरै ॥ गुरमुखि नामु निरंजनु पाईऐ अफरिओ भारु अफारु टरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भवजलु = समुंदर। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। निरंजनु = (निर+अंजन) जिस पर माया की कालिख असर नहीं कर सकती। अफरिओ भारु = अहंकारे हुए के पापों का भार। अफारु = असहि। टरै = टल जाता है, दूर हो जाता है।1। रहाउ। अर्थ: (परमात्मा के नाम के बिना) संसारी जीव संसार-समुंदर से किसी भी हालत में पार नहीं लांघ सकता क्योंकि जीव माया आदि के अहंकार के कारण आफरा रहता है। परमात्मा का नाम, जिस पर माया की कालिख का प्रभाव नहीं पड़ सकता, गुरु की शरण पड़ने पर मिलता है, (जिस मनुष्य को नाम प्राप्त होता है) उसका (अहंकार आदि का) असहि भार दूर हो जाता है (यह अहंकार आदि ही भार बन के जीव को संसार समुंदर में डुबा देता है)।1। रहाउ। ते गुण विसरि गए अपराधी मै बउरा किआ करउ हरे ॥ तू दाता दइआलु सभै सिरि अहिनिसि दाति समारि करे ॥२॥ पद्अर्थ: बउरा = कमला, झल्ला। हरे = हे हरि! सभै सिरि = हरेक जीव के सिर पर। अहि = दिन। निसि = रात। समारि = संभाल कर के।2। अर्थ: हे हरि! मुझ गुनाहगार को तेरे वह उपकार भूल गए हैं, मैं (माया के मोह में) झल्ला हुआ पड़ा हूँ (तेरा स्मरण करने से) बेबस हूँ। पर तू दया का श्रोत है, हरेक जीव के सिर पर (रखवाला) है, और सबको दातें देता है। (हे भाई!) दयालु प्रभु दिन-रात (जीवों की) संभाल करता है और दातें देता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |