श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चारि पदारथ लै जगि जनमिआ सिव सकती घरि वासु धरे ॥ लागी भूख माइआ मगु जोहै मुकति पदारथु मोहि खरे ॥३॥

पद्अर्थ: चारि पदारथ = (1. धरम = शुभ कर्म। 2. अर्थ = पदार्थ। 3. काम = कामना, इच्छा। 4. मोक्ष = मुक्ति)। लै = ले के। जगि = जगत में। सिव सकती घरि = परमात्मा की रची माया के घर में। भूख = लालच। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। मोहि = माया के मोह में। खरे = लाया जाता है, गायब हो जाता है।3।

अर्थ: (जीव परमात्मा से) चारों ही पदार्थ ले के जगत में पैदा हुआ है (फिर भी प्रभु की बख्शिश भुला के सदा) परमात्मा की पैदा की हुई माया के घर में निवास रखता है। सदा इसको माया की भूख ही चिपकी रहती है, सदा माया की राह ही देखता रहता है, माया के मोह में (फंस के चारों पदार्थों में से) मुक्ति पदार्थ गवा लेता है।3।

करण पलाव करे नही पावै इत उत ढूढत थाकि परे ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विआपे कूड़ कुट्मब सिउ प्रीति करे ॥४॥

पद्अर्थ: करण पलाह = (करुणाप्रलाप) तरस पैदा करने वाला विलाप, दुहाई, विरलाप, तरले। इत उत = इधर उधर, हर तरफ। कामि = काम में। विआपे = दबाया हुआ।4।

अर्थ: (सारी उम्र जीव माया की खातिर ही) विरलाप करता रहता है (मन की तसल्ली योग्य माया) प्राप्त नहीं होती, हर तरफ माया की तलाश करता-करता थक जाता है। काम में, क्रोध में, अहंकार में दबा हुआ जीव सदा नाशवान पदार्थों के साथ ही प्रीति करता है, सदा अपने परिवार के साथ ही मोह जोड़ के रखता है।4।

खावै भोगै सुणि सुणि देखै पहिरि दिखावै काल घरे ॥ बिनु गुर सबद न आपु पछाणै बिनु हरि नाम न कालु टरे ॥५॥

पद्अर्थ: कालु घरे = काल के घर में। आपु = अपने आप को। टरे = टालता।5।

अर्थ: (दुनिया के अच्छे-अच्छे पदार्थ) खाता है (विषौ) भोगता है, (शोभा-निंदा आदि के वचन) बार-बार सुनता है, (दुनिया के रंग-तमाशे) देखता है, (सुंदर-सुंदर कपड़े आदि) पहन के (लोगों को) दिखाता है; (बस! इन्हीं व्यस्तताओं में मस्त हो के) आत्मिक मौत के घर में टिका रहता है (आत्मिक मौत सहेड़ के रखता है)। गुरु के शब्द से टूटा हुआ अपने आत्मिक जीवन को पहचान नहीं सकता। परमात्मा के नाम से टूटा हुआ होने के कारण आत्मिक मौत (इसके सिर से) नहीं टलती।5।

जेता मोहु हउमै करि भूले मेरी मेरी करते छीनि खरे ॥ तनु धनु बिनसै सहसै सहसा फिरि पछुतावै मुखि धूरि परे ॥६॥

पद्अर्थ: छीनि खरे = क्षीण होता जाता है। सहसै सहसा = सहम ही सहम। मुखि = मुँह पर। धूरि = मिट्टी, राख, फिटकार।6।

अर्थ: जितना ही मोह और अहंकार के कारण जीव सही जीवन-राह से भूलता जाता है, जितना ज्यादा ‘मेरी मेरी’ (माया) करता है, उतना ही ज्यादा अहंकार और ममता इसके आत्मिक जीवन को छीन के लेते जाते हैं। आखिर में ये शरीर और ये धन, (जिनकी खातिर हर वक्त सहम में रहता था,) नाश हो जाते हैं। तब जीव पछताता है, (पर उस वक्त पछताने से कुछ नहीं बनता) इसके मुँह पर धिक्कारें ही पड़ती हैं।6।

बिरधि भइआ जोबनु तनु खिसिआ कफु कंठु बिरूधो नैनहु नीरु ढरे ॥ चरण रहे कर क्मपण लागे साकत रामु न रिदै हरे ॥७॥

पद्अर्थ: बिरधि = वृद्ध, बुड्ढा। खिसिआ = खिसका, कम हो गया। कछु = बलगम। कंठु = गला। बिरूधो = रुक गया। नैनहु = आँखों से। ढरे = ढलता है, बहता है। कर = हाथ।7।

अर्थ: मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, जवानी खिसक जाती है शरीर कमजोर हो जाता है, गला बलगम से रुका रहता है, आँखों से पानी बहता रहता है, पैर (चलने से) रह जाते हैं, हाथ काँपने लग जाते हैं, (फिर भी) माया-ग्रसित जीव के हृदय में हरि परमात्मा (का नाम) नहीं (बसता)।7।

सुरति गई काली हू धउले किसै न भावै रखिओ घरे ॥ बिसरत नाम ऐसे दोख लागहि जमु मारि समारे नरकि खरे ॥८॥

पद्अर्थ: काली हू = काले (केसों) से। न भावै = अच्छा नहीं लगता। मारि = मार के। नरकि = नर्क में। खरे = ले जाता है।8।

अर्थ: (वृद्ध हो जाने पर) अकल ठिकाने नहीं रहती, केश काले और सफेद हो जाते हैं, घर में रखा हुआ किसी को अच्छा नहीं लगता (फिर भी परमात्मा के नाम को भुलाए रखता है) परमात्मा का नाम बिसार के रखने के कारण ऐसी बुराईयाँ इससे चिपकी रहती हैं जिनके कारण जमराज इसको मार के नर्क में ले जाता है।8।

पूरब जनम को लेखु न मिटई जनमि मरै का कउ दोसु धरे ॥ बिनु गुर बादि जीवणु होरु मरणा बिनु गुर सबदै जनमु जरे ॥९॥

पद्अर्थ: को = का। का कउ = किसको? बादि = व्यर्थ।9।

अर्थ: (पर जीव के भी वश की बात नहीं) पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के संस्कारों का लेखा मिटता नहीं (जितना समय वह लेखा मौजूद है, उनके प्रभाव तले कुकर्म कर करके) जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। जीव बेचारा और किस को दोष दे? (दरअसल, बात ये है कि) गुरु की शरण पड़े बिना जिन्दगी व्यर्थ जाती है (विकारों में पड़ कर मनुष्य) और आत्मिक मौत सहेड़ता जाता है। गुरु शब्द से टूटने के कारण जिंदगी (विकारों में) जल जाती है।9।

खुसी खुआर भए रस भोगण फोकट करम विकार करे ॥ नामु बिसारि लोभि मूलु खोइओ सिरि धरम राइ का डंडु परे ॥१०॥

पद्अर्थ: फोकट = व्यर्थ, फोके। लोभि = लोभ में (पड़ कर)। सिरि = सिर पर। डंडु = डंडा।10।

अर्थ: जीव दुनियां की खुशियाँ लेने में, रस भोगने में, और फोके व बुरे कर्म करने में पड़ कर दुखी होता है। परमात्मा का नाम भुला के, लोभ में फंस के मूल भी गवा लेता है, आखिर इसके सिर पर धर्मराज का डण्डा पड़ता है।10।

गुरमुखि राम नाम गुण गावहि जा कउ हरि प्रभु नदरि करे ॥ ते निरमल पुरख अपर्मपर पूरे ते जग महि गुर गोविंद हरे ॥११॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस पर। ते = वह लोग। निरमल = पवित्र।11।

अर्थ: गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम के गुण गाते हैं। जिस पर हरि-प्रभु मेहर की निगाह करता है वह जगत में हरि-गोबिंद बेअंत पूरन सर्व-व्यापक प्रभु को स्मरण करके पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।11।

हरि सिमरहु गुर बचन समारहु संगति हरि जन भाउ करे ॥ हरि जन गुरु परधानु दुआरै नानक तिन जन की रेणु हरे ॥१२॥८॥

पद्अर्थ: समारहु = याद रखो। भाउ = प्रेम। करे = कर के। रेणु = चरण धूल।12।

अर्थ: हे भाई! संत जनों की संगति में प्रेम जोड़ के परमात्मा का नाम स्मरण करो, गुरु के वचन (हृदय में) संभाल के रखो। परमात्मा के दर पर गुरु (का वचन) ही आदर पाता है, संत जनों की संगति ही स्वीकार पड़ती है।

हे नानक! (अरदास कर-) हे हरि! (मुझे) उन संत जनों की चरण-धूल दे।12।8।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू काफी महला १ घरु २ ॥

आवउ वंञउ डुमणी किती मित्र करेउ ॥ सा धन ढोई न लहै वाढी किउ धीरेउ ॥१॥

पद्अर्थ: आवउ = मैं आती हूँ। वंञउ = वंजउ, मैं जाती हूँ। डुंमणी = (दु+मनी) दोचिक्ती हो के। किती = कितने ही। करेउ = मैं बनाती हूँ। साधन = जीव-स्त्री। ढोई = आसरा। न लहै = नहीं ले सकती। वाढी = परदेसण, बिछुड़ी हुई। किउ धीरेउ = मैं कैसे धीरज हासिल कर सकती हूँ?।1।

अर्थ: (हे प्रीतम प्रभु! तुझसे विछुड़ के) मैं (दुविधा और) दु-चिक्ती में (डावाँडोल) होई हुई (जन्मों के चक्कर में) भटकती फिरती हूँ (दिलासा धरने के लिए) मैं अनेक मित्र बनाती हूँ, पर जब तक तुझसे विछुड़ी हुई हूँ, मुझे धरवास कैसे आए? (तुझसे विछुड़ी हुई) जीव-स्त्री (किसी और जगह) आसरा पा ही नहीं सकती।1।

मैडा मनु रता आपनड़े पिर नालि ॥ हउ घोलि घुमाई खंनीऐ कीती हिक भोरी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मैडा = मेरा। रता = रंगा हुआ है। पिर = पति। हउ = मैं। घोलि घुमाई = बलिहार जाती हूँ। खंनीऐ कीती = टुकड़े टुकड़े होती हूँ। हिक = एक। भोरी = रक्ती सा समय। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = (मेरी ओर) देख।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रीतम प्रभु!) मैं तुझसे वारने जाती हूँ, कुर्बान जाती हूँ। रक्ती भर भी समय ही (मेरी ओर) मेहर की नजर से देख, ता कि मेरा मन (तुझ) अपने प्यारे पति के साथ रंगा जाए।1। रहाउ।

पेईअड़ै डोहागणी साहुरड़ै किउ जाउ ॥ मै गलि अउगण मुठड़ी बिनु पिर झूरि मराउ ॥२॥

पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेके घर में, इस जनम में। डोहागणी = दुहागनि, बुरे भाग्यों वाली, विछड़ हुई। साहुरड़ै = साहुरे घर में, परमात्मा के देस में, प्रभु के चरणों में। किउ जाउ = मैं कैसे पहुँच सकती हूँ? गलि = गले में, गले तक। मुठड़ी = मैं ठगी गई हूँ। झूरि मराउ = झुर झुर के मरती हूँ, दुखी होती हूँ और आत्मिक मौत सहेड़ती हूँ।2।

अर्थ: (इस संसार) पेके घर में मैं (सारी उम्र) प्रभु-पति से विछुड़ी रही हूँ, मैं पति-प्रभु के देश में कैसे पहुँच सकती हूँ? (प्रभु से विछोड़े के कारण) अवगुण मेरे गले तक पहुँच गए हैं, (सारी उम्र) मुझे अवगुणों ने ठग के रखा है। पति-प्रभु के मिलाप से वंचित रह के मैं अंदर-अंदर से दुखी भी हो रही हूँ, और आत्मिक मौत भी मैंने सहेड़ ली है।2।

पेईअड़ै पिरु समला साहुरड़ै घरि वासु ॥ सुखि सवंधि सोहागणी पिरु पाइआ गुणतासु ॥३॥

पद्अर्थ: संमला = (अगर) मैं (हृदय में) संभाल लूँ। घरि = पति प्रभु के घर में। सुखि = सुख से। सवंधि = सोते हैं, शांत चिक्त रहती हैं। सोहागणी = अच्छे भाग्यों वालियां। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु।3।

अर्थ: यदि मैं (इस संसार) पेके घर में पति-प्रभु को (अपने हृदय में) संभाल के रखूँ तो पति-प्रभु के देश में मुझे उसके चरणों में जगह मिल जाए। वह भाग्यशाली (जीवन-रात) सुख से सो के गुजारती हैं जिन्होंने (पेके घर में) गुणों के खजाना पति-प्रभु को पा लिया है।3।

लेफु निहाली पट की कापड़ु अंगि बणाइ ॥ पिरु मुती डोहागणी तिन डुखी रैणि विहाइ ॥४॥

पद्अर्थ: निहाली = तुलाई। कापड़ु = (पट का ही) कपड़ा। अंगि = शरीर पर (पहनती हैं)। मुती = छोड़ी हुई, त्यागी हुई। डुखी = दुखों में। रैणि = (जिंदगी की) रात। विहाइ = बीतती है।4।

अर्थ: जिस दुर्भाग्यपूर्ण (स्त्रीयों) ने पति को भुला दिया और जो त्याग हो गई, वे अगर रेशम का लेफ लें, रेशम की तुलाई लें, और कपड़ा भी रेशम का बना के ही शरीर पर प्रयोग करें, तब भी उनकी जीवन-रात दुखों में ही बीतती है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh