श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किती चखउ साडड़े किती वेस करेउ ॥ पिर बिनु जोबनु बादि गइअमु वाढी झूरेदी झूरेउ ॥५॥

पद्अर्थ: किती = कितने ही। चखउ = मैं चखूँ। साडड़े = स्वादिष्ट पदार्थ। वेस = पहिरावे। करेउ = मैं करूँ। जोबनु = जवानी। बादि = व्यर्थ। गइअमु = मेरा (जोबन) गया। वाढी = त्यागी हुई।5।

अर्थ: अगर मैं अनेक ही स्वादिष्ट खाने खाती रहूँ, अनेक ही सुंदर पहरावे पहनती रहूँ, फिर भी पति-प्रभु से विछुड़ के मेरी जवानी व्यर्थ ही जा रही है। जब तक मैं त्यागी हुई हूँ, मैं (सारी उम्र) झुर-झुर के ही दिन काटूँगी।5।

सचे संदा सदड़ा सुणीऐ गुर वीचारि ॥ सचे सचा बैहणा नदरी नदरि पिआरि ॥६॥

पद्अर्थ: संदा = का। सचे संदा = सदा स्थिर पति प्रभु का। सदड़ा = प्यार भरा संदेशा। गुर वीचारि = गुरु की वाणी की विचार से। बैहणा = संगति, संग। सचे सचा बैहणा = सदा स्थिर प्रभु का सदा-स्थिर साथ। नदरी नदरि = मेहर की नजर करने वाली की निगाह से। पिआरि = प्यार में।6।

अर्थ: अगर सदा-स्थिर प्रभु का प्यार-संदेशा सतिगुरु की वाणी की विचार के माध्यम से सुनें, तो उस सदा-स्थिर प्रभु-पति का सदा के लिए साथ मिल जाता है, उस मेहर की नजर वाला प्रभु मेहर की नजर से देखता है, और उसके प्यार में लीन हो जाया जाता है।6।

गिआनी अंजनु सच का डेखै डेखणहारु ॥ गुरमुखि बूझै जाणीऐ हउमै गरबु निवारि ॥७॥

पद्अर्थ: गिआनी = परमात्मा के साथ सांझ डालने वाला व्यक्ति। अंजनु = सुरमा। सच का = सदा स्थिर प्रभु के नाम का। डेखणहारु = वह परमात्मा जो सब जीवों की संभाल करने के समर्थ है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। बूझै = समझता है। जाणीऐ = आदर पाता है। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर कर के।7।

अर्थ: परमात्मा से जान-पहचान डालने वाला सदा-स्थिर प्रभु के नाम का सुरमा प्रयोग करता है, और वह (उस) प्रभु का दीदार कर लेता है जो सब जीवों की संभाल करने के समर्थ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (इस भेद को) समझ लेता है वह हउमै-अहंकार दूर करके (उसकी हजूरी में) आदर पाता है।7।

तउ भावनि तउ जेहीआ मू जेहीआ कितीआह ॥ नानक नाहु न वीछुड़ै तिन सचै रतड़ीआह ॥८॥१॥९॥

नोट: ये अष्टपदी राग मारू और राग काफी को मिला के गानी है।

पद्अर्थ: तउ = तुझे। भावनि = जो पसंद आ जाती हैं। जेहीआ = जैसी। मू जेहीआ = मेरे जैसी। कितीआह = अनेक ही। नाहु = नाथ, पति प्रभु। तिन = उनसे। सचै = सदा स्थिर प्रभु में।8।

अर्थ: हे पति-प्रभु! जो जीव-सि्त्रयाँ तुझे अच्छी लगती हैं, वह तेरे जैसी हो जाती हैं, (पर तेरी मेहर की निगाह से वंचित हुई) मेरे जैसी भी अनेक ही हैं।

हे नानक! जो जीव-सि्त्रयाँ सदा-स्थिर प्रभु के प्यार में रंगी रहती हैं, उनके (हृदय) से पति-प्रभु कभी नहीं विछुड़ता।8।1।9।

नोट: पहली 8 अष्टपदियाँ घरु १ की हैं। यहाँ से ‘घरु २’ की आरम्भ होती हैं। ‘घरु २’ की यह पहली अष्टपदी है। कुल जोड़ 9 है। देखें आखिरी अंक।

मारू महला १ ॥ ना भैणा भरजाईआ ना से ससुड़ीआह ॥ सचा साकु न तुटई गुरु मेले सहीआह ॥१॥

पद्अर्थ: ससुड़ीआह = प्यारी सासें। से = वह। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सहीआह = सहेलियां, सत्संगी।1।

अर्थ: गुरु (सत्संगी-) सहेलियों के साथ मिलाता है (सत्संगियों वाला) सदा स्थिर रहने वाला साक कभी नहीं टूटता। ना बहिनें, ना भौजाईयाँ, ना सासें - किसी का भी वैसा साक नहीं जो (सत्संगी) सहेलियों का है।1।

बलिहारी गुर आपणे सद बलिहारै जाउ ॥ गुर बिनु एता भवि थकी गुरि पिरु मेलिमु दितमु मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बलिहारी = सदके। सद = सदा। जाउ = मैं जाती हूँ। एता = इतना, बहुत ज्यादा। भवि = भटक भटक के। गुरि = गुरु ने। मेलिमु = मुझे मिलाया। दितमु मिलाइ = मुझे मिला दिया।1। रहाउ।

अर्थ: मैं अपने गुरु से बलिहार हूँ, सदा सदके जाती हूँ। गुरु (के मिलाप) के बिना मैं भटक-भटक के बहुत थक गई थी, (अब) गुरु ने मुझे पति मिलाया है, मुझे (पति) मिला दिया है।1। रहाउ।

फुफी नानी मासीआ देर जेठानड़ीआह ॥ आवनि वंञनि ना रहनि पूर भरे पहीआह ॥२॥

पद्अर्थ: देर = देवरानियां। वंञनि = चली जाती हैं। पूर = बेड़ी के मुसाफिरों के पूर। पहीआह = मुसाफिरों के। पही = राही, पांधी, मुसाफिर।2।

अर्थ: फूफियाँ, नानियां, मासियां, देवरानियां, जेठानियाँ - यह (संसार में) आती है और चली जाती हैं, सदा (हमारे साथ) नहीं रहती। इन (साकों अंगो-) राहियों के पूरों के पूर भरे हुए समूह चले जाते हैं।2।

मामे तै मामाणीआ भाइर बाप न माउ ॥ साथ लडे तिन नाठीआ भीड़ घणी दरीआउ ॥३॥

पद्अर्थ: मामाणीआं = मामियाँ। तै = और। भाइर = भाई। साथ = काफले। लडे = लादे (जा रहे हैं)। नाठी = पराहुणा, मेहमान। घणी = बहुत।3।

अर्थ: मामे, मामियाँ, भाई, पिता, और माँ - (किसी के साथ भी सच्चा साक) नहीं बन सकता। (ये भी मेहमान की तरह हैं) इन पराहुणों के काफिले के काफिले लादे हुए चले जा रहे हैं। संसार-दरिया के पक्त न पर इनकी भीड़ लगी पड़ी है।3।

साचउ रंगि रंगावलो सखी हमारो कंतु ॥ सचि विछोड़ा ना थीऐ सो सहु रंगि रवंतु ॥४॥

पद्अर्थ: साचउ = सदा स्थिर रहने वाला। रंगि = प्रेम रंग में। रंगावलो = रंगा हुआ। सखी = हे सखी! सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से। बीऐ = होता। सहु = पति। रंगि = प्रेम से। रवंत = (अपने से) मिलाता है।4।

अर्थ: हे सहेलियो! हमारा पति-प्रभु ही सदा-स्थिर रहने वाला है और वह प्रेम-रंग में रंगा रहता है। उस सदा-स्थिर के नाम में जुड़ने से उससे विछोड़ा नहीं होता। (चरणों में जुड़ी जीव-स्त्री को) वह पति प्यार से गले लगाए रखता है।4।

सभे रुती चंगीआ जितु सचे सिउ नेहु ॥ सा धन कंतु पछाणिआ सुखि सुती निसि डेहु ॥५॥

पद्अर्थ: रुती = ऋतुएं। जितु = जिस जिस (ऋतु) में। साधन = जीव-स्त्री। सुखि = सुख में। सुती = शांत चिक्त हो गई। निसि = रात। डेहु = दिन।5।

नोट: ‘रुति’ से ‘रुती’ बहुवचन है।

अर्थ: जो जीव-स्त्री पति-प्रभु (के साक) को पहचान लेती है उसको वह सारी ही ऋतुएं अच्छी लगती हैं जिस-जिस ऋतु में सदा-स्थिर प्रभु-पति के साथ उसका प्यार बनता है, (क्योंकि) वह जीव-स्त्री दिन-रात पूर्ण आनंद में शांत-चिक्त रहती है।5।

पतणि कूके पातणी वंञहु ध्रुकि विलाड़ि ॥ पारि पवंदड़े डिठु मै सतिगुर बोहिथि चाड़ि ॥६॥

पद्अर्थ: पतणि = पत्तन पर। पातणी = मल्लाह। वंञहु = गुजर जाओ, चले जाओ। ध्रुकि = दौड़ के। विलाड़ि = छलांग लगा के। पवंदड़े = पड़ते, पहुँचे। डिठु = देखे हैं। बोहिथि = जहाज में। चाढ़ि = चढ़ के।6।

अर्थ: (संसार-दरिया के) पत्तन पर (खड़ा) गुरु मल्लाह (जीव-राहियों को) पुकार के कह रहा है कि (प्रभु-नाम के जहाज में चढ़ो और) दौड़ के छलांग मार के पार लांघ जाओ। सतिगुरु के जहाज में चढ़ के (संसार-दरिया से) पार पहुँचे हुए (अनेक ही प्राणी) मैंने (स्वयं) देखे हैं।6।

हिकनी लदिआ हिकि लदि गए हिकि भारे भर नालि ॥ जिनी सचु वणंजिआ से सचे प्रभ नालि ॥७॥

पद्अर्थ: हिकनी = कई (जीव राहियों) ने। हिकि = कई, अनेक। लदि = लाद के। भारे = (पापों के भार से) भारे। भरनालि = समुंदर में (डूब गए)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम धन। वणंजिआ = खरीदा, व्यापार किया।7।

नोट: ‘हिक’ का बहुवचन ‘हिकि’ (हिक = एक)।

अर्थ: (सतिगुरु का आहवाहन सुन के) अनेक जीवों ने (संसार-दरिया से पार लांघने के लिए प्रभु-नाम का सौदा गुरु के जहाज में) लाद लिया है, अनेक ही लाद के पार पहुँच गए हैं, पर अनेक ही (ऐसे भी दुर्भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरु की पुकार की परवाह ही नहीं की, और वे विकारों के भार के साथ) भारे हो के संसार-समुंदर में (डूब गए हैं)। जिन्होंने (गुरु का उपदेश सुन के) सदा-स्थिर रहने वाला नाम-सौदा खरीदा है वह (सदा-स्थिर प्रभु के) चरणों में लीन हो गए हैं।7।

ना हम चंगे आखीअह बुरा न दिसै कोइ ॥ नानक हउमै मारीऐ सचे जेहड़ा सोइ ॥८॥२॥१०॥

पद्अर्थ: मारीऐ = मारनी चाहिए। जेहड़ा = जो, जैसा। सोइ = वह मनुष्य (जो अहंकार मारता है)।8।

अर्थ: हे नानक! (प्रभु चरणों में एक-मेक होने के लिए) अहंकार को दूर करनाप चाहिए (जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर अहंकार को दूर कर लिया) वह सदा-स्थिर प्रभु जैसा ही बन गया। (ऐसे भाग्यशाली लोग ये निश्चय रखते हैं कि) हम (सबसे) अच्छे नहीं कहे जा सकते, और हमसे बुरा कोई मनुष्य (जगत में) दिखता नहीं।8।2।10।

मारू महला १ ॥ ना जाणा मूरखु है कोई ना जाणा सिआणा ॥ सदा साहिब कै रंगे राता अनदिनु नामु वखाणा ॥१॥

पद्अर्थ: ना जाणा = मैं नहीं समझता। रंगे = रंग ही, प्रेम रंग ही। राता = रंगा हुआ। अनदिनु = हर रोज। वखाणा = मैं स्मरण करता हूँ।1।

अर्थ: मैं नहीं समझ सकता कि जो (व्यक्ति परमात्मा का नाम स्मरण करता है) वह मूर्ख (कैसे) है, और जो मनुष्य नाम नहीं स्मरण करता वह समझदार कैसे है। (असल समझदारी नाम-स्मरण करने में है, इस वास्ते) मैं हर वक्त प्रभु का नाम स्मरण करता हूँ और सदा मालिक प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता हूँ।1।

बाबा मूरखु हा नावै बलि जाउ ॥ तू करता तू दाना बीना तेरै नामि तराउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! हा = मैं हूँ। नावै = (तेरे) नाम से। जाउ = मैं जाता हूँ। दाना = (सबके दिलों की) जानने वाला। बीना = (सब जीवों के काम को) देखने वाला। नामि = नाम से। तराउ = तैरूँ, मैं पार लांघ सकता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरे नाम से टूट के) मैं मति-हीन रहता हूँ (क्योंकि मुझे ये समझ नहीं होती कि इस संसार-समुंदर से) मैं तेरे नाम में जुड़ के ही पार लांघ सकता हूँ। मैं तेरे नाम से सदके जाता हूँ (तेरे नाम की इनायत से ही मुझे समझ आती है कि) तू हमारा विधाता है, तू हमारे दिल की जानता है, तू हमारे कामों को हर वक्त देखता है।1। रहाउ।

मूरखु सिआणा एकु है एक जोति दुइ नाउ ॥ मूरखा सिरि मूरखु है जि मंने नाही नाउ ॥२॥

पद्अर्थ: मूरखा सिरि मूरखु = सबसे बड़ा मूर्ख। जि = जो।2।

अर्थ: पर चाहे कोई मूर्ख है चाहे कोई समझदार है (हरेक जीव) एक ही परमात्मा में बसता है। मूर्ख और समझदार दो अलग-अलग नाम हैं ज्योति दोनों में एक ही है। जो आदमी परमात्मा का नाम स्मरणा नहीं कबूलता, वह महा मूर्ख है।2।

गुर दुआरै नाउ पाईऐ बिनु सतिगुर पलै न पाइ ॥ सतिगुर कै भाणै मनि वसै ता अहिनिसि रहै लिव लाइ ॥३॥

पद्अर्थ: दुआरै = दर से। पलै न पाइ = नहीं मिल सकता। भाणै = रजा में, मर्जी में (चलने से)। मनि = मन में। अहि = दिन। निसि = रात। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।3।

अर्थ: परमात्मा का नाम गुरु-दर से मिलता है, गुरु की शरण के बिना प्रभु के नाम की प्राप्ति नहीं हो सकती। अगर गुरु के हुक्म में चल के मनुष्य के मन में नाम बस जाए, तब वह दिन-रात नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।3।

राजं रंगं रूपं मालं जोबनु ते जूआरी ॥ हुकमी बाधे पासै खेलहि चउपड़ि एका सारी ॥४॥

पद्अर्थ: ते = वह लोग। पासै = पासे में, चौपड़ की खेल में। एका सारी = एक ही नर्द, एक माया की तृष्णा की नर्द।4।

अर्थ: जो लोग राज, रंग-तमाशे, रूप, माल-धन और जवानी -सिर्फ इसी में मस्त रहते हैं उनको जुआरिए समझो। पर उनके भी क्या वश? प्रभु के हुक्म में बँधे हुए वह (मायावी पदार्थों की) चौपड़ खेल खेलते रहते हैं, एक माया की तृष्णा ही उनकी नर्द है।4।

जगि चतुरु सिआणा भरमि भुलाणा नाउ पंडित पड़हि गावारी ॥ नाउ विसारहि बेदु समालहि बिखु भूले लेखारी ॥५॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। भरमि = भटकना में। भुलाना = (जीवन-राह से) भूला हुआ। पढ़हि = पढ़ते हैं। गावारी = मूर्खों की विद्या। नाउ = परमात्मा का नाम। समालहि = संभालते हैं, याद रखते हैं। बिखु = जहर, माया की तृष्णा जो आत्मिक जीवन के लिए जहर समान है। लेखारी = विद्वान।5।

अर्थ: जो बंदा माया की भटकना में पड़ कर जीवन-राह से विछुड़ता जा रहा है वही जगत में चतुर और सयाना माना जाता है; पढ़ते हैं (माया कमाने वाली) मूर्खों की विद्या, पर अपना नाम कहलवाते हैं ‘पंडित’। (ये पण्डित) परमात्मा का नाम भुला देते हैं; और अपनी ओर से वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को संभाल रहे हैं, ये विद्वान आत्मिक जीवन की मौत लाने वाली माया के जहर में भूले पड़े हैं।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh