श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1016 कलर खेती तरवर कंठे बागा पहिरहि कजलु झरै ॥ एहु संसारु तिसै की कोठी जो पैसै सो गरबि जरै ॥६॥ पद्अर्थ: कंठे = दरिया के किनारे। बागा = सफेद कपड़े। झरै = झड़ता है, उड़-उड़ के पड़ता है। तिसै की = तृष्णा की। पैसै = पड़ता है, काबू आ जाता है। जरै = जलता है।6। अर्थ: बंजर में खेती बीज के फसल की आशा व्यर्थ है। दरिया के किनारे उगे हुए वृक्षों को आसरा बनाना भूल है, जहाँ कालिख़ उड़-उड़ के पड़ती हो वहाँ जो लोग सफेद कपड़े पहनते हैं (और उन पर कालिख़ ना लगने की आस रखते हैं वे भूले हुए हैं, इस तरह) ये जगत तृष्णा की कोठी है इसमें जो फंस जाता है (वह निकल नहीं सकता) वह अहंकार में (ग़र्क होता है, उसका आत्मिक जीवन तृष्णा की आग में) जल जाता है।6। रयति राजे कहा सबाए दुहु अंतरि सो जासी ॥ कहत नानकु गुर सचे की पउड़ी रहसी अलखु निवासी ॥७॥३॥११॥ पद्अर्थ: रयति = प्रजा, जनता। कहा = कहाँ गए? सबाए = सारे। दुहु अंतरि = जमीन आसमान के अंदर, इस दुनियां में। जासी = नाश हो जाएगा। रहसी = सदा टिका रहेगा, अटल आत्मिक जीवन वाला हो जाएगा। निवासी = निवास रखने वाला, तवज्जो जोड़ी रखने वाला।7। अर्थ: राजे और (राजाओं की) प्रजा -ये सब कहाँ हैं? (सब अपनी-अपनी वारी कूच कर जाते हैं)। इस दुनियां में जो पैदा होता है वह अंत में यहाँ से चला जाता है (पर माया की तृष्णा में फंस के जनम-मरण के चक्कर भी सहता है)। नानक कहता है: जो मनुष्य अचूक गुरु की पौड़ी का आसरा लेता है (भाव, जो नाम स्मरण करता है, और नाम-जपने की पौड़ी के द्वारा) अलख प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है वह अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।7।3।11। नोट: ‘घरु २’ की 3 अष्टपदीयां, ‘घरु १’ की 8। कुल जोड़ 11 है। मारू महला ३ घरु ५ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिस नो प्रेमु मंनि वसाए ॥ साचै सबदि सहजि सुभाए ॥ एहा वेदन सोई जाणै अवरु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: मंनि = मन में। साचै सबदि = सदा स्थिर शब्द में। सुभाए = प्यार में। एहा वेदन = ये (प्रेम की) वेदना। वेदन = पीड़ा, वेदना, चुभन। सोई = वही मनुष्य। कि जाणै = क्या जानता है? नहीं जान सकता। कारी = इलाज। जीउ = हे भाई!।1। नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) जिस मनुष्य के मन में (अपना) प्यार बसाता है, वह मनुष्य प्रभु की सदा-स्थिर महिमा की वाणी में (जुड़ा रहता है), आत्मिक अडोलता में (टिका रहता है) प्रभु प्यार में (लीन रहता है), (प्रेम की चुभन का यही एक इलाज है)। वही मनुष्य इस वेदना को समझता है, कोई और मनुष्य (जिसके अंदर ये चुभन ये वेदना नहीं है, इस पीड़ा का) इलाज नहीं जानता।1। आपे मेले आपि मिलाए ॥ आपणा पिआरु आपे लाए ॥ प्रेम की सार सोई जाणै जिस नो नदरि तुमारी जीउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। मेले, मिलाए = मिलाता है। सार = कद्र। नदरि = मेहर की निगाह।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं (जीव को अपने चरणों के साथ) जोड़ता है, स्वयं ही मिलाता है। (जीव के हृदय में) अपना प्यार परमात्मा स्वयं ही पैदा करता है। हे प्रभु! (तेरे) प्यार की कद्र (भी) वही जीव जान सकता है, जिस पर तेरी मेहर की निगाह होती है।1। रहाउ। दिब द्रिसटि जागै भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥ सो जोगी इह जुगति पछाणै गुर कै सबदि बीचारी जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: दिब = (दिव्य, Divine) देवताओं वाली, ईश्वरीय, आत्मिक जीवन में रोशनी देने वाली। द्रिसटि = दृष्टि, नजर, निगाह। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर कर देती है। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा दर्जा। जुगति = युक्ति, ढंग, तरीका। कै सबदि = के शब्द द्वारा। बीचारी = विचारवान, ऊँचे जीवन की सूझ वाला।2। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के मन में प्रभु अपना प्यार बसाता है उसके अंदर) आत्मिक जीवन का प्रकाश देने वाली निगाह जाग उठती है (और वह निगाह उसकी) भटकना दूर कर देती है। गुरु की कृपा से (वह मनुष्य) सबसे ऊँचा आत्मिक जीवन का दर्जा प्राप्त कर लेता है। (जो मनुष्य) इस जुगति को समझ लेता है वह (सही अर्थों में) जोगी है; गुरु के शब्द की इनायत से वह ऊँचे जीवन की सूझ वाला हो जाता है।2। संजोगी धन पिर मेला होवै ॥ गुरमति विचहु दुरमति खोवै ॥ रंग सिउ नित रलीआ माणै अपणे कंत पिआरी जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: संजोगी = संयोगी, संयोग से, परमात्मा द्वारा निहित सबब से, पिछले संस्कारों के अनुसार। धन = जीव-स्त्री। पिर = पिता, प्रभु पति। गुरमति = गुरु की शिक्षा ले के। विचहु = अपने अंदर से। दुरमति = खोटी मति। रंग सिउ = प्रेम से। कंत पिआरी = कंत की प्यारी।3। अर्थ: हे भाई! अच्छे भाग्यों से जिस जीव-स्त्री का प्रभु-पति के साथ मिलाप हो जाता है, वह गुरु की मति पर चल कर अपने अंदर से खोटी मति नाश कर देती है, वह प्रेम के सदका प्रभु-पति के साथ आत्मिक मिलाप का आनंद भोगती है, वह अपने प्रभु-पति की लाडली बन जाती है।3। सतिगुर बाझहु वैदु न कोई ॥ आपे आपि निरंजनु सोई ॥ सतिगुर मिलिऐ मरै मंदा होवै गिआन बीचारी जीउ ॥४॥ पद्अर्थ: बाझहु = बिना। वैदु = (प्रेम की वेदना का इलाज करने वाला) वैद्य, हकीम। आपे = स्वयं ही। निरंजनु = (निर+अंजनु, माया के मोह की कालिख से रहित) निर्लिप। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। मंदा = बुरा। गिआन बीचारी = ऊँचे आत्मिक जीवन की विचार कर सकने वाला।4। अर्थ: हे भाई! (प्रेम की वेदना का इलाज करने वाला) हकीम गुरु के बिना और कोई नहीं है (जिसका इलाज गुरु कर देता है उसको यह दिखाई दे जाता है कि) वह निर्लिप परमात्मा स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद है)। हे भाई! अगर गुरु मिल जाए तो (मनुष्य के अंदर से) बुराई मिट जाती है, मनुष्य ऊँचे आत्मिक जीवन की विचार करने के योग्य हो जाता है।4। एहु सबदु सारु जिस नो लाए ॥ गुरमुखि त्रिसना भुख गवाए ॥ आपण लीआ किछू न पाईऐ करि किरपा कल धारी जीउ ॥५॥ पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। गुरमुखि = गुरु की शरण डाल के। गवाए = दूर कर देता है। आपणा लीआ = अपने उद्यम से हासिल किया हुआ। कल = सत्ता। धारी = धारता है, पाता है।5। अर्थ: हे भाई! गुरु का यह श्रेष्ठ शब्द जिसके हृदय में परमात्मा बसा देता है, (उसको) गुरु की शरण में डाल कर (उसके अंदर से) माया की तृष्णा माया की भूख दूर कर देता है। हे भाई! अपनी बुद्धि के बल पर (आत्मिक जीवन का) कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। परमात्मा स्वयं ही मेहर करके यह सत्ता (मनुष्य के अंदर) डालता है।5। अगम निगमु सतिगुरू दिखाइआ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ॥ अंजन माहि निरंजनु जाता जिन कउ नदरि तुमारी जीउ ॥६॥ पद्अर्थ: अगम = आगम, शास्त्र। निगमु = वेद। अगम निगमु = शास्त्रों वेदों का (यह) तत्व (कि ‘आपण लीआ किछू न पाईऐ, करि किरपा कल धारी जीउ’)। सतिगुरू = गुरु के द्वारा। करि = कर के। अपनै घरि = अपने असल घर में, प्रभु के चरणों में। अंजन माहि = माया के पसारे में। जिन कउ = जिस पर।6। अर्थ: (हे जोगी! यह निश्चय कि ‘आपण...धारी जीउ’ - यही है हमारे वास्ते ‘अगम निगमु’) प्रभु ने कृपा करके गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य को यह) ‘अगम निगमु’ दिखा दिया, वह मनुष्य अपने असल घर में आ टिकता है। हे प्रभु! जिस पर तेरी मेहर की निगाह होती है, वह मनुष्य इस माया के पसारे में तुझ निर्लिप को बसता हुआ पहचान लेते हैं।6। गुरमुखि होवै सो ततु पाए ॥ आपणा आपु विचहु गवाए ॥ सतिगुर बाझहु सभु धंधु कमावै वेखहु मनि वीचारी जीउ ॥७॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सो = वह मनुष्य। ततु = तत्व, निचोड़, असल नतीजा। आपु = स्वै भाव। धंधु = माया के मोह में फसाने वाला काम काज। मनि = मन में। वीचारी = विचार के।7। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह (यह) अस्लियत पा लेता है, वह मनुष्य अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर देता है। हे भाई! अपने मन में विचार कर के देख ले कि गुरु की शरण पड़े बिना हरेक जीव माया के मोह में फसने वाली दौड़-भाग ही कर रहा है।7। इकि भ्रमि भूले फिरहि अहंकारी ॥ इकना गुरमुखि हउमै मारी ॥ सचै सबदि रते बैरागी होरि भरमि भुले गावारी जीउ ॥८॥ पद्अर्थ: इकि = कई। भ्रमि = भुलेखे में। भूले = गलत राह पर पड़े हुए। इकना = कई मनुष्यों ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी मैं। रते = रंगे हुए। बैरागी = माया के मोह से उपराम, (जोगियों का एक अंग)। होरि = अन्य, और। गवारी = मूर्ख, अंजान।8। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो भुलेखे में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े हुए (अपने इस गलत त्याग पर ही) मान करते फिरते हैं। कई ऐसे हैं जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लिया है। हे भाई! असल बैरागी वह हैं जो सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में रंगे हुए हैं, बाकी मूर्ख (अपने त्याग के) भुलेखे में गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं।8। गुरमुखि जिनी नामु न पाइआ ॥ मनमुखि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ अगै विणु नावै को बेली नाही बूझै गुर बीचारी जीउ ॥९॥ पद्अर्थ: मनमुखि = मन के मुरीद लोगों ने। बिरथा = व्यर्थ। अगै = परलोक में। को = कोई। बेली = मददगार। गुर बीचारी = गुरु के शब्द के विचार से। बूझै = समझता है।9। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं किया, उन मन के मुरीदों ने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली है। हे भाई! परलोक में परमात्मा के नाम के बिना और कोई मददगार नहीं है। पर इस बात को गुरु के शब्द के विचार के द्वारा ही (कोई विरला मनुष्य) समझता है।9। अम्रित नामु सदा सुखदाता ॥ गुरि पूरै जुग चारे जाता ॥ जिसु तू देवहि सोई पाए नानक ततु बीचारी जीउ ॥१०॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। गुरि पूरै = पूरे गुरु से। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। जाता = जाना जाता है, समझ पड़ती है। तू देवहि = (हे प्रभु!) तू देता है। नानक = हे नानक! ततु बीचारी = अस्लियत को समझने वाला।10। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा आनंद देने वाला है। सदा से पूरे गुरु के द्वारा ही (तेरे इस नाम से) सांझ पड़ती आ रही है। हे प्रभु! वही मनुष्य तेरा नाम प्राप्त करता है जिसको तू स्वयं (ये दाति) देता है। वही मनुष्य असल जीवन-भेद को समझने-योग्य होता है।10।1। नोट: यह शब्द जोगियों-बैरागियों के प्रर्थाय है। गुरु का शब्द यह बताता है कि ‘अंजन’ के बीच में रह कर ही ‘निरंजन’ को हर जगह देखना है; यही है सिख के लिए ‘अगम निगमु’। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |