श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1017 मारू महला ५ घरु ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ लख चउरासीह भ्रमते भ्रमते दुलभ जनमु अब पाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: भ्रमते भ्रमते = भटकते हुए। दुलभ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। अब = अब।1। अर्थ: हे मूर्ख! चौरासी लाख जूनियों में भटकते-भटकते तुझे ये मानव जनम मिला है।1। रे मूड़े तू होछै रसि लपटाइओ ॥ अम्रितु संगि बसतु है तेरै बिखिआ सिउ उरझाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! होछै रसि = होछे रस में, नाशवान (पदार्थों के) स्वाद में। लपटाइओ = फसा हुआ है। अंम्रितु = अटल जीवन वाला नाम जल। तेरै संगि = तेरे साथ, तेरे अंदर। बिखिआ = माया। सिउ = साथ। उरझाइओ = उलझा हुआ, व्यस्त।1। रहाउ। अर्थ: हे मूर्ख! तू नाशवान (पदार्थों के) स्वाद में फसा रहता है। अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल तेरे अंदर बसता है (तू उसको छोड़ के आत्मिक मौत लाने वाली) माया के साथ चिपका हुआ है।1। रहाउ। रतन जवेहर बनजनि आइओ कालरु लादि चलाइओ ॥२॥ पद्अर्थ: बनजनि आइओ = विहाजने आया, सौदा करने आया। कालरु = कल्लर, बंजर। लादि = लाद के।2। अर्थ: हे मूर्ख! तू आया था रतन और जवाहर खरीदने के लिए, पर तू यहाँ से कल्लर लाद के ही चल पड़ा है।2। जिह घर महि तुधु रहना बसना सो घरु चीति न आइओ ॥३॥ पद्अर्थ: जिह = जिस। महि = में। चीति = चिक्त में। घरु = घर में।3। नोट: शब्द ‘घरु’ और ‘घर’ के व्याकर्णिक रूप का ध्यान रखें। अर्थ: हे मूर्ख! जिस घर में तूने सदा रहना-बसना है, वह घर तेरे कभी चिक्त-चेते में नहीं आया।3। अटल अखंड प्राण सुखदाई इक निमख नही तुझु गाइओ ॥४॥ पद्अर्थ: अटल = कभी ना टलने वाला। अखंड = अविनाशी। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।4। अर्थ: हे मूर्ख! तूने आँख झपकने जितने समय के लिए भी कभी उस परमात्मा की महिमा नहीं की, जो सदा कायम रहने वाला है, जो अविनाशी है, जो प्राण देने वाला है और जो सारे सुख देने वाला है।4। जहा जाणा सो थानु विसारिओ इक निमख नही मनु लाइओ ॥५॥ पद्अर्थ: जहा = जहाँ। विसारिओ = (तूने) भुला दिया है। लाइओ = जोड़ा।5। अर्थ: हे मूर्ख! जिस जगह आखिर में अवश्य जाना है उस तरफ तूने कभी आँख झपकने जितने समय के लिए भी ध्यान नहीं दिया।5। पुत्र कलत्र ग्रिह देखि समग्री इस ही महि उरझाइओ ॥६॥ अर्थ: हे मूर्ख! पुत्र, स्त्री और घर का सामान देख के इसके मोह में ही तू फसा हुआ है।6। जितु को लाइओ तित ही लागा तैसे करम कमाइओ ॥७॥ पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। ग्रिह समग्री = घर का सामान। देखि = देख के। तैसे = वैसे ही।7। नोट: ‘इस ही’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘तितु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है। अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश?) जिस (काम) में कोई जीव (परमात्मा की ओर से) लाया जाता है उसमें वह लगा रहता है, वैसे ही काम वह करता रहता है।7। जउ भइओ क्रिपालु ता साधसंगु पाइआ जन नानक ब्रहमु धिआइओ ॥८॥१॥ पद्अर्थ: जउ = जब। क्रिपालु = कृपालु, दयावान। ता = तब।8। अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जब परमात्मा किसी जीव पर दयावान होता है, तब उसको गुरु का साथ प्राप्त होता है, और, वह परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है।8।1। मारू महला ५ ॥ करि अनुग्रहु राखि लीनो भइओ साधू संगु ॥ हरि नाम रसु रसना उचारै मिसट गूड़ा रंगु ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। अनुग्रहु = कृपा, दया। साधू संगि = गुरु का मिलाप। रसु = स्वाद। रसना = जीभ (से)। मिसट = मीठा।1। अर्थ: हे भाई! दया करके जिस मनुष्य की रक्षा परमात्मा करता है, उसको गुरु का मिलाप प्राप्त होता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद पाता है, वह अपनी जीभ से प्रभु का नाम जपता है, (उसके मन पर परमात्मा के प्यार का) मीठा गाढ़ा रंग चढ़ा रहता है।1। मेरे मान को असथानु ॥ मीत साजन सखा बंधपु अंतरजामी जानु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मान को असथानु = मन का सहारा। सखा = साथी। बंधपु = रिश्तेदार। जानु = सुजान, सब कुछ जानने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला सुजान परमात्मा ही सदा मेरे मन का सहारा है। वही मेरा मित्र है, वही मेरा सज्जन है, वही मेरा साथी है, वही मेरा रिश्तेदार है।1। रहाउ। संसार सागरु जिनि उपाइओ सरणि प्रभ की गही ॥ गुर प्रसादी प्रभु अराधे जमकंकरु किछु न कही ॥२॥ पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। जिनि = जिस (प्रभु) ने। गही = पकड़ी। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। अराधे = आराधना करता है। कंकरु = किंकर, दास। जम कंकरु = जमदूत।2। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) उस प्रभु का आसरा लिया है जिसने यह संसार-समुंदर पैदा किया है, वह मनुष्य गुरु की कृपा से परमात्मा की आराधना करता रहता है, उसको जमदूत भी कुछ नहीं कहते।2। मोख मुकति दुआरि जा कै संत रिदा भंडारु ॥ जीअ जुगति सुजाणु सुआमी सदा राखणहारु ॥३॥ पद्अर्थ: मोख = मुक्ति। दुआरि जा कै = जिस के दर पर। भंडारु = खजाना। जीअ जुगति = आत्मिक जीवन जीने की विधि।3। अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु सदा रक्षा करने की सामर्थ्य वाला है, वह सुजान प्रभु ही आत्मिक जीवन जीने की विधि सिखाता है जिसके दर पर मुकित टिकी रहती है, जिसका खजाना संतजनों का हृदय है (जो संतजनों के हृदय में सदा बसता है)।3। दूख दरद कलेस बिनसहि जिसु बसै मन माहि ॥ मिरतु नरकु असथान बिखड़े बिखु न पोहै ताहि ॥४॥ पद्अर्थ: बिनसहि = नाश हो जाते हैं। माहि = में। मिरतु = मौत। असथान बिखड़े = मुश्किल जगह। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। न पोहै = असर नहीं कर सकती। ताहि = उसको।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है उसके सारे दुख-दर्द-कष्ट मिट जाते हैं। आत्मिक मौत, नर्क, हर मुश्किल जगह, आत्मिक मौत लाने वाली माया - इन में से कोई भी उस पर असर नहीं डाल सकती।4। रिधि सिधि नव निधि जा कै अम्रिता परवाह ॥ आदि अंते मधि पूरन ऊच अगम अगाह ॥५॥ पद्अर्थ: रिधि सिधि = करामाती ताकतें। नवनिधि = जगत के सारे ही नौ खजाने। जा कै = जिस के घर में। अंम्रिता परवाह = अमृत का प्रवाह, आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का झरना। आदि = जगत के आरम्भ में। पूरन = व्यापक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाह = अथाह।5। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के घर में सारी ही करामाती ताकतें हैं, और सारे ही खजाने हैं, जिसके घर में आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के झरने बल रहे हैं, वही परमात्मा जगत के शुरू में, अंत में, मध्य में हर समय मौजूद है। वह परमात्मा ही सबसे ऊँचा है, अगम्य (पहुँच से परे) है, और अथाह है।5। सिध साधिक देव मुनि जन बेद करहि उचारु ॥ सिमरि सुआमी सुख सहजि भुंचहि नही अंतु पारावारु ॥६॥ पद्अर्थ: सिध = सिद्ध, जोग साधना में पुगे हुए योगी। साधिक = योग साधना करने वाले साधक। देव = देवते। मुनिजन = मौन धारी साधु। बेद करहि उचारु = (वह पंडित जो) वेदों का उच्चारण करते हैं। सिमरि = स्मरण करके (ही)। सुआमी = मालिक। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सुख भुंचहि = आत्मिक आनंद भोगते हैं। पारावारु = पार आवार, इस पार उस पार का किनारा।6। अर्थ: हे भाई! जोग साधना में सिद्धहस्त योगी, योग-साधना करने वाले साधक योगी, देवता गण, मौनधारी साधु, (वह पण्डित जो) वेदों का पाठ करते रहते हैं - (कोई भी हों) मालिक-प्रभु (का नाम) स्मरण करके (ही) आत्मिक अडोलता का आनंद पा सकते हैं, (ऐसा आनंद जिसका) अंत नहीं (जो कभी समाप्त नहीं होता) जिसका इस पार का उस पार का छोर पाया नहीं जा सकता।6। अनिक प्राछत मिटहि खिन महि रिदै जपि भगवान ॥ पावना ते महा पावन कोटि दान इसनान ॥७॥ पद्अर्थ: प्राछत = पाप। मिटहि = मिट जाते हैं। रिदै = हृदय में। जपि = जप के। पावन = पवित्र करने वाला। कोटि = करोड़ों।7। अर्थ: हे भाई! हृदय में भगवान (का नाम) जप के एक छिन में ही अनेक पाप मिट जाते हैं। भगवान (का नाम ही) सबसे ज्यादा पवित्र है, नाम-जपना ही करोड़ों दान हैं और करोड़ों तीर्थों के स्नान हैं।7। बल बुधि सुधि पराण सरबसु संतना की रासि ॥ बिसरु नाही निमख मन ते नानक की अरदासि ॥८॥२॥ पद्अर्थ: सुधि = सूझ। पराण = प्राण, जिंद। सरबसु = सर्व+स्व, सारा धन, सब कुछ। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। बिसरु नाही = ना भूल। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ते = से। अरदासि = विनती।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही संतजनों की राशि-पूंजी है, बल है, बुद्धि है, सूझ-बूझ है, प्राण हैं, यही उनका सब कुछ है। नानक की भी यही विनती है: हे प्रभु! मेरे मन से तू आँख झपकने जितनें समय के लिए भी ना भूल।8।2। मारू महला ५ ॥ ससत्रि तीखणि काटि डारिओ मनि न कीनो रोसु ॥ काजु उआ को ले सवारिओ तिलु न दीनो दोसु ॥१॥ पद्अर्थ: ससत्रि = शस्त्र से। तीखण ससत्रि = तेज शस्त्र से। काटि = काट के। काटि डारिओ = काट डाला। मनि = मन में। रोसु = गुस्सा। उआ को = उस (मनुष्य) का। तिलु = रक्ती भर भी। दोसु = गिला।1। अर्थ: (हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने वृक्ष को किसी) तेज़ धार हथियार से काट दिया (वृक्ष ने अपने) मन में (उस पर) गुस्सा ना किया, (बल्कि वृक्ष ने) उसके काम सवार दिए, और (उसको) रक्ती भर भी कोई दोश ना दिया।1। मन मेरे राम रउ नित नीति ॥ दइआल देव क्रिपाल गोबिंद सुनि संतना की रीति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! रउ = रम, स्मरण कर। नित नीति = सदा ही, नित्य। सुनि = (हे मन!) सुन। रीति = जीवन मर्यादा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! दयालु, प्रकाश रूप, कृपालु गोबिंद के (संतजनों की संगति में रह के) सदा ही परमात्मा का स्मरण करता रह (वह संत जन कैसे होते हैं? उन) संत जनों की जीवन मर्यादा सुन।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |