श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चरण तलै उगाहि बैसिओ स्रमु न रहिओ सरीरि ॥ महा सागरु नह विआपै खिनहि उतरिओ तीरि ॥२॥

पद्अर्थ: चरण तलै = पैरों के नीचे। उगाहि = दबा के। बैसिओ = बैठ गया। स्रमु = श्रम, थकावट। सरीरि = शरीर में। सागरु = समुंदर। नह विआपै = अपना दबाव नहीं डाल सकता। खिनहि = एक छिन में ही। तीरि = (उस पार के) किनारे पर।2।

अर्थ: (हे मेरे मन! जो मनुष्य बेड़ी को) पैरों तले दबा के (उसमें) बैठ गया, (उस मनुष्य के) शरीर में (रास्ते की) थकावट ना रही, भयानक समुंदर (दरिया भी) उस पर अपना असर नहीं डाल सके, (बेड़ी में बैठ के वह) एक छिन में ही (उस दरिया से) उस पार किनारे पर जा उतरा।2।

चंदन अगर कपूर लेपन तिसु संगे नही प्रीति ॥ बिसटा मूत्र खोदि तिलु तिलु मनि न मनी बिपरीति ॥३॥

पद्अर्थ: अगर = ऊद की लकड़ी। संगे = साथ। खोदि = खोद के। तिलु तिलु = रक्ती रक्ती। मनि = मन में। मनी = मानी। बिपरीति = उल्टी बात, विरोधता।3।

अर्थ: (हे मेरे मन! जो मनुष्य धरती पर) चंदन अगर कपूर का लेपन (करता है, धरती) उस (मनुष्य) के साथ (कोई विशेष) प्यार नहीं करती; और (जो मनुष्य धरती पर) गूह-मूत्र (फेंकता है, धरती को) खोद के रक्ती रक्ती (करता है, उस मनुष्य के विरुद्ध अपने) मन में (धरती) बुरा नहीं मनाती।3।

ऊच नीच बिकार सुक्रित संलगन सभ सुख छत्र ॥ मित्र सत्रु न कछू जानै सरब जीअ समत ॥४॥

पद्अर्थ: सुक्रित = भलाई। संलगन = एक जैसा ही लगा हुआ। सुख छत्र = सुखों का छत्र। सत्र = वैरी। न जानै = नहीं जानता (एकवचन)। समत = एक समान। सरब जीआ = सारे जीवों को।4।

अर्थ: (हे मेरे मन!) कोई ऊँचा हो अथवा नीचा हो, कोई बुराई करे या कोई भलाई करे (आकाश सबके साथ) एक समान ही लगा रहता है, सबके लिए सुखों का छत्र (बना रहता) है। (आकाश) ना किसी को मित्र समझता है ना किसी को वैरी, (आकाश) सारे जीवों के लिए एक-समान है।4।

करि प्रगासु प्रचंड प्रगटिओ अंधकार बिनास ॥ पवित्र अपवित्रह किरण लागे मनि न भइओ बिखादु ॥५॥

पद्अर्थ: करि = करके। प्रगासु = प्रकाश, रोशनी। प्रचंड = तेज़। अंधकार बिनास = अंधेरे का नाश। मनि = (सूरज के) मन में। बिखादु = दुख।5।

अर्थ: (हे मेरे मन! सूर्य) तेज़ रौशनी करके (आकाश में) प्रकट होता है और अंधकार का नाश करता है। अच्छे-बुरे सब जीवों को उसकी किरणें लगती हैं, (सूर्य के) मन में (इस बात का) दुख नहीं होता।5।

सीत मंद सुगंध चलिओ सरब थान समान ॥ जहा सा किछु तहा लागिओ तिलु न संका मान ॥६॥

पद्अर्थ: सीत = ठंडी। मंद = हल्की हल्की। समान = एक जैसी। सरब थान = सब जगह। जहा = जहाँ भी। सा = थी। किछु = कोई (अच्छी बुरी) चीज। तिलु = रक्ती भी। संका = शंका, झिझक। न मान = नहीं माना।6।

अर्थ: हे मेरे मन! ठंडी (हवा) सुगंधि भरी (पवन) हल्की-हल्की सब जगहों पर एक जैसी ही चलती है; जहाँ भी कोई चीज़ हो (अच्छी हो चाहे बुरी हो) वहाँ भी (सबको) लगती है, रक्ती भर भी संकोच नहीं करती।6।

सुभाइ अभाइ जु निकटि आवै सीतु ता का जाइ ॥ आप पर का कछु न जाणै सदा सहजि सुभाइ ॥७॥

पद्अर्थ: सुभाय = अच्छी भावना से। अभाइ = दुर्भावना से। जु = जो। निकटि = नजदीक। सीतु = शीत, पाला। आप का = अपना। पर का = पराया। सहजि = अडोलता मे। सुभाइ = अच्छे भाव से।7।

अर्थ: (हे मेरे मन!) जो भी मनुष्य सद्-भावना से अथवा दुर्भावना से (आग के) नज़दीक आता है, उसकी लगी ठंडक दूर हो जाती है। (आग) ये बात बिल्कुल नहीं जानती कि यह अपना है यह पराया है, (आग) अडोलता में रहती है अपने स्वभाव में रहती है।7।

चरण सरण सनाथ इहु मनु रंगि राते लाल ॥ गोपाल गुण नित गाउ नानक भए प्रभ किरपाल ॥८॥३॥

पद्अर्थ: सनाथ = नाथ वाले, पति वाले। रंगि = प्यार में। राते = रंगे हुए। लाल रंगि = सोहाने प्रभु के प्रेम रंग में। गाउ = (हे मेरे मन!) गाया कर। नानक = हे नानक! किरपाल = दयावान।8।

अर्थ: (हे मेरे मन! इसी तरह परमात्मा के संत जन) परमात्मा के चरणों की शरण में रह के खसम वाले बन जाते हैं, वे सोहाने प्रभु में रते रहते हैं, उनका यह मन प्रभु के प्रेम-रंग में (रंगा रहता है)। (हे मेरे मन! तू भी) गोपाल प्रभु के गुण गाता रहा कर। हे नानक! (जो गुण गाते हैं उन पर) प्रभु जी दयावान हो जाते हैं।8।3।

मारू महला ५ घरु ४ असटपदीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चादना चादनु आंगनि प्रभ जीउ अंतरि चादना ॥१॥

पद्अर्थ: चादना चादनु = चाँदनियों में से चाँदनी (रौशनियों में से रौशनी)। आंगनि = आँगन में। प्रभ जीउ चादना = प्रभु के नाम की रौशनी। अंतरि = अंदर, हृदय में।1।

अर्थ: (हे भाई! लोग खुशी आदि के मौके पर घरों में दीए आदि जला के रौशनी करते हैं, पर मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के नाम की रौशनी हो जाना - ये आँगन में अन्य सभी रौशनियों से उत्तम रौशनी है।1।

आराधना अराधनु नीका हरि हरि नामु अराधना ॥२॥

पद्अर्थ: नीका = (नक्त) सुंदर, सोहाना, अच्छा। आराधना अराधनु = स्मरणों में से स्मरण।2।

अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का ही नाम स्मरणा- ये अन्य सभी स्मरणों से बढ़िया स्मरण है।2।

तिआगना तिआगनु नीका कामु क्रोधु लोभु तिआगना ॥३॥

पद्अर्थ: तिआगना = छोड़ देना।3।

अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में से निकलने के लिए लोग गृहस्थ त्याग जाते हैं, पर) काम-क्रोध-लोभ (आदि विकारों को हृदय में से) त्याग देना- ये अन्य सारे त्यागों में श्रेष्ठ त्याग है।3।

मागना मागनु नीका हरि जसु गुर ते मागना ॥४॥

पद्अर्थ: मागना मागनु = माँगने में से माँगना। गुर ते = गुरु से।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु से परमात्मा की महिमा की खैर माँगना- ये अन्य सभी माँगों से उत्तम माँग है।4।

जागना जागनु नीका हरि कीरतन महि जागना ॥५॥

पद्अर्थ: हरि कीरतन महि = परमात्म की महिमा महिमा के कीर्तन में।5।

अर्थ: (हे भाई! देवी आदि की पूजा के लिए लोग जगराते करते हैं, पर) परमात्मा की महिमा महिमा में जागना -यह और सभी जगरातों से श्रेष्ठतम् जगराता है।5।

लागना लागनु नीका गुर चरणी मनु लागना ॥६॥

पद्अर्थ: लागना लागनु नीका = लगन लगने से बेहतर लगन। अन्य प्यार करने से बढ़िया प्यार।6।

अर्थ: हे भाई! गुरु के चरणों में मन का प्यार बन जाना- ये अन्य सभी लगी हुई लगनों में से उच्च दर्जे की लगन है।6।

इह बिधि तिसहि परापते जा कै मसतकि भागना ॥७॥

पद्अर्थ: इह बिधि = इस तरह। जा कै मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर।7।

नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: पर, हे भाई! ये जुगति उसी ही मनुष्य को प्राप्त होती है, जिसके माथे पर भाग्य जाग उठें।7।

कहु नानक तिसु सभु किछु नीका जो प्रभ की सरनागना ॥८॥१॥४॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सरनागना = शरण आ जाता है।8।

अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा की शरण में आ जाता है, उसको हरेक सद्-गुण प्राप्त हो जाता है।8।1।4।

मारू महला ५ ॥ आउ जी तू आउ हमारै हरि जसु स्रवन सुनावना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जी = हे (सतिगुरु) जी! हमारै = मेरे (हृदय) में। जसु = यश, महिमा। स्रवन = श्रवण, कानों से। सुनावना = सुनूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु! आ। मेरे हृदय-गृह में आ बस, और, मेरे कानों में परमात्मा की महिमा सुना।1। रहाउ।

तुधु आवत मेरा मनु तनु हरिआ हरि जसु तुम संगि गावना ॥१॥

पद्अर्थ: हरिआ = हरा भरा, प्राणमय, आत्मिक जीवन वाला। तुम संगि = तेरी संगति में।1।

अर्थ: हे प्यारे गुरु! तेरे आने से मेरा मन मेरा तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे सतिगुरु! तेरे चरणों में रह के ही परमात्मा का यश गाया जा सकता है।1।

संत क्रिपा ते हिरदै वासै दूजा भाउ मिटावना ॥२॥

पद्अर्थ: संत क्रिपा ते = गुरु की कृपा से। ते = से। हिरदै = हृदय में। वासै = बस जाता है। दूजा भाउ = माया का प्यार।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु की मेहर से परमात्मा हृदय में आ बसता है, और माया का मोह दूर किया जा सकता है।2।

भगत दइआ ते बुधि परगासै दुरमति दूख तजावना ॥३॥

पद्अर्थ: ते = से। परगासै = चमक पड़ती है। बुधि परगासै = आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है। दुरमति = खोटी मति। दूख = ऐब, विकार। तजावना = त्यागे जाते हैं।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त की किरपा से बुद्धि में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, दुर्मति के सारे विकार त्यागे जाते हैं।3।

दरसनु भेटत होत पुनीता पुनरपि गरभि न पावना ॥४॥

पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए, करते हुए। पुनीता = पवित्र। पुनरपि = (पुनः अपि) फिर भी, बार बार। गरभि = गर्भ में, जूनियों के चक्कर में।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु के दर्शन करने से जीवन पवित्र हो जाता है, बार-बार जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ा जाता।4।

नउ निधि रिधि सिधि पाई जो तुमरै मनि भावना ॥५॥

पद्अर्थ: नउनिधि = दुनिया के सारे ही नौ खजाने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। तुमरै मनि = तेरे मन में। भावना = प्यारा लगता है।5।

अर्थ: हे प्रभु! जो (भाग्यशाली) मनुष्य तेरे मन को प्यारा लगने लग जाता है, वह, (मानो) दुनिया के सारे ही नौ खजाने और करामाती ताकतें हासिल कर लेता है।5।

संत बिना मै थाउ न कोई अवर न सूझै जावना ॥६॥

पद्अर्थ: संत बिना = गुरु के बिना। मै = मुझे। अवर = किसी और जगह। न सूझै जावना = जाना नहीं सूझता।6।

अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना मेरा और कोई आसरा नहीं, किसी और जगह जाना मुझे नहीं सूझता।6।

मोहि निरगुन कउ कोइ न राखै संता संगि समावना ॥७॥

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। निरगुन कउ = गुण हीन को। संता संगि = संत जनों की संगति में।7।

अर्थ: हे भाई! मेरी गुण-हीन की (गुरु के बिना) और कोई बाँह नहीं पकड़ता। संत जनों की संगति में रह के ही प्रभु-चरणों में लीन हुआ जाता है।7।

कहु नानक गुरि चलतु दिखाइआ मन मधे हरि हरि रावना ॥८॥२॥५॥

पद्अर्थ: कह = कह। नानक = हे नानक! गुरि = गुरु ने। चलतु = करिश्में, अजीब खेल। मधे = में। रावना = आनंद भोगना।8।

अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने (मुझे) आश्चर्यजनक तमाशा दिखा दिया है। मैं अपने मन में हर वक्त परमात्मा के मिलाप का आनंद ले रहा हूँ।8।2।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh