श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1020 संगि न कोई भईआ बेबा ॥ मालु जोबनु धनु छोडि वञेसा ॥ करण करीम न जातो करता तिल पीड़े जिउ घाणीआ ॥३॥ पद्अर्थ: संगि = (परलोक में) साथ। भईआ = भाई। बेबा = बहिन। जोबनु = जवानी। छोडि = छोड़ के। वञेसा = (वंजेसा) चल पड़ेगा। करीम = बख्शिश करने वाला। करण करता = जगत रचनहार। जातो = जाना। घाणी = कौल में पीसने के एक बार में डाले हुए तिल।3। अर्थ: हे भाई! (जगत से जाने के वक्त) ना कोई भाई ना कोई बहिन, कोई भी जीव के साथ नहीं जाता। माल, धन, जवानी- हरेक जीव अवश्य ही यहाँ से छोड़ के चला जाएगा। जिस मनुष्यों ने जगत के रचयता बख्शिंद प्रभु के साथ सांझ डाली, वह (दुखों में) इस तरह पीढ़े जाते हैं जैसे तिलों की घाणी में तिल।3। खुसि खुसि लैदा वसतु पराई ॥ वेखै सुणे तेरै नालि खुदाई ॥ दुनीआ लबि पइआ खात अंदरि अगली गल न जाणीआ ॥४॥ पद्अर्थ: खुसि खुसि = खोह खोह के, छीन छीन के। पराई = बेगानी। वसतु = वस्तु। खुदाई = ख़ुदा। दुनिया लबि = दुनिया के लब में, दुनिया के (स्वाद के) चस्कों में। खात = टोआ, गड्ढा। गल = गला। अगली = आगे घटित होने वाली।4। अर्थ: हे भाई! तू पराया माल-धन छीन-छीन के इकट्ठा करता रहता है, तेरे साथ बसता रब (तेरी हरेक करतूत को) देखता है (तेरे हरेक बोल को) सुनता है। तू दुनिया (के स्वादों) के चस्के में फसा पड़ा है (मानो गहरे) गड्ढे में गिरा पड़ा है। आगे घटित होने वाली बात को समझता ही नहीं।4। जमि जमि मरै मरै फिरि जमै ॥ बहुतु सजाइ पइआ देसि लमै ॥ जिनि कीता तिसै न जाणी अंधा ता दुखु सहै पराणीआ ॥५॥ पद्अर्थ: जमि = पैदा हो के। जमि जमि मरै = बार बार पैदा होता है मरता है, जनम मरण के चक्कर में पड़ा जाता है। सजाइ = सजा, दण्ड। देसि लंमै = लंबे देश में, (बार बार पैदा होने मरने के) लंबे रास्ते में। जिनि = जिस (प्रभु) ने। कीता = पैदा किया। अंधा = (माया के मोह में) अंधा (हुआ मनुष्य)। ता = तभी। सहै = सहता है। पराणीआ = प्राणी, जीव।5। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य (माया के मोह में) अंधा (हो के) उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने इसको पैदा किया है, तब यह (जनम-मरण के चक्कर का) दुख सहता है, इसको बहुत सजा मिलती है, यह (जनम-मरन के चक्कर के) लंबे रास्ते पर पड़ जाता है, ये बार-बार पैदा हो के (बार-बार) मरता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है।5। खालक थावहु भुला मुठा ॥ दुनीआ खेलु बुरा रुठ तुठा ॥ सिदकु सबूरी संतु न मिलिओ वतै आपण भाणीआ ॥६॥ पद्अर्थ: खालक = खालिक, पैदा करने वाला। थावहु = जगह से, से। भुला = भूला हुआ, टूटा हुआ। मुठा = ठगा जा रहा है। खेलु = तमाशा, जादू का खेल। बुरा = खराब। रुठ = रूठा। तुठा = खुश हुआ। सिदकु = शांति, तसल्ली। सबूरी = सब्र, तृप्ति। संतु = गुरु। वतै = भटकता फिरता है। आपण भाणीआ = अपने मन की मर्जी के अनुसार।6। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु नहीं मिलता, वह अपने मन का मुरीद हो के भटकता फिरता है, उसके अंदर माया की तरफ से ना शांति है ना तृप्ति; वह मनुष्य विधाता से टूटा रहता है, वह अपने आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा बैठता है; यह जगत-तमाशा उसको बुरा (दुखी करता है), कभी (माया के गवा बैठने पर ये) घबरा जाता है, कभी माया के मिलने पर ये खुश हो हो के बैठता है।6। मउला खेल करे सभि आपे ॥ इकि कढे इकि लहरि विआपे ॥ जिउ नचाए तिउ तिउ नचनि सिरि सिरि किरत विहाणीआ ॥७॥ पद्अर्थ: मउला = खुदा, रब। सभि = सारे। खेल = कई खेल। आपे = स्वयं ही। इकि = कई। विआपे = फसे हुए। नचाए = नचाता है। नचनि = नाचते हैं। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (के) सिर पर। किरत = (पिछले जन्मों के किए कर्मों की) कमाई। विहाणीआ = बीतती है, असर डालती है।7। नोट: ‘खेल’ है ‘खेलु’ का बहुवचन (‘खेलु’ एकवचन है)। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही सारे खेल कर रहा है। कई ऐसे हैं जो माया के मोह की लहरों में फंसे हुए हैं, कई ऐसे हैं जिनको उसने इन लहरों में से निकाल लिया है। हे भाई! परमात्मा जैसे-जैसे जीवों को (माया के हाथों में) नचाता है, वैसे-वैसे जीव नाचते हैं। हरेक जीव के सिर पर (उसके पिछले जन्मों के किए कर्मों की) कमाई असर डाल रही है।7। मिहर करे ता खसमु धिआई ॥ संता संगति नरकि न पाई ॥ अम्रित नाम दानु नानक कउ गुण गीता नित वखाणीआ ॥८॥२॥८॥१२॥२०॥ पद्अर्थ: ता = तब, तो। धिआई = मैं ध्याता हूँ। नरकि = नर्क में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। दानु = खैर। कउ = को (दे)। गुण गीता = गुणों के गीत, महिमा के गीत। वखाणीआ = मैं बखानूँ।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं मेहर करे, तो ही मैं उस पति-प्रभु को स्मरण कर सका हूँ। (जो मनुष्य स्मरण करता है) वह संत जनों की संगति में रह के नर्क में नहीं पड़ता। हे प्रभु! नानक को आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम-दान दे, (ता कि मैं नानक) तेरी महिमा के गीत सदा गाता रहूँ।8।2।8।12।20। नोट: अंकों का निर्णय: अंक नं: 2– यह दो अंजुलीआं (आरजूएं हैं, विनतियां हैं) महला ५ की। अंक नं: 8– महला ५ की कुल अष्टपदीयां (2 अँजुलियों समेत) 8 हैं।
महला १ की अष्टपदीयां-------11 मारू सोलहे महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नोट: सोलहे = 16 बँदों का शबद। आम तौर पर तो हरेक में 16 पद (बंद) हैं, पर कम–ज्यादा भी मिलते है॥ गुरू ग्रंथ साहिब जी में सोलहे अष्टपदियों के बाद में दर्ज हैं। इनको अष्टपदीयाँ ही समझना चाहिए। ‘सोलहे’ सिर्फ मारू राग में। इनमें ‘रहाउ’ की तुक नहीं है। साचा सचु सोई अवरु न कोई ॥ जिनि सिरजी तिन ही फुनि गोई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु रहणा तुम सिउ किआ मुकराई हे ॥१॥ पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सचु = सदा स्थिर, अटल। सोई = वह परमात्मा ही। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरजी = पैदा की। तिन ही = तिनि ही। फुनि = दोबारा, पुनः। गोई = नाश की गई। मुकराई = इन्कार।1। नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। देखें, ‘गुरबाणी व्याकरण’। अर्थ: वह परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, सदा अटल रहने वाला है। कोई और उस जैसा नहीं है। जिस (प्रभु) ने (ये रचना) रची है उसने ही दोबारा नाश किया है (वही इसको नाश करने वाला है)। हे प्रभु! जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू हम जीवों को रखता है, वैसे ही हम रह सकते हैं। हम जीव तेरे (हुक्म) के आगे कोई ना-नुक्कर नहीं कर सकते।1। आपि उपाए आपि खपाए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे वीचारी गुणकारी आपे मारगि लाई हे ॥२॥ पद्अर्थ: खपाए = नाश करता है। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर (किए कर्मों के लेख लिख के)। धंधै = धंधे में, मेहनत-कमाई में। वीचारी = जीवों के कर्मों को विचारने वाला। गुणकारी = (जीवों के अंदर) गुण पैदा करने वाला। मारगि = (सही जीवन-) मार्ग पर।2। अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है स्वयं ही मारता है। स्वयं ही हरेक जीव को उसके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार दुनियां के धंधों में लगाता है। प्रभु स्वयं ही जीवों के कर्मों को विचारने वाला है, स्वयं ही (जीवों के अंदर) गुण पैदा करने वाला है, खुद ही (जीवों को) सही जीवन-रास्ते पर लाता है।2। आपे दाना आपे बीना ॥ आपे आपु उपाइ पतीना ॥ आपे पउणु पाणी बैसंतरु आपे मेलि मिलाई हे ॥३॥ पद्अर्थ: दाना = (जीवों के दिल की) जानने वाला। बीना = (जीवों के किए कर्म) देखने वाला। आपु = अपने आप को। उपाइ = (सृष्टि में) प्रकट करके, पैदा करके। पतीना = पतीजता है, खुश होता है। बैसंतरु = आग। मेलि = (सब तत्वों को) इकट्ठा करके।3। अर्थ: परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के दिल की जानने वाला है, स्वयं ही जीवों के किए कर्मों को देखने वाला है। प्रभु स्वयं ही अपने आप को (सृष्टि के रूप में) प्रकट करके (स्वयं ही इसको देख-देख के) खुश हो रहा है। परमात्मा खुद ही (अपने आप से) हवा-पानी-आग (आदि तत्व पैदा करने वाला) है, प्रभु ने स्वयं ही (इन तत्वों को) इकट्ठा करके जगत-रचना की है।3। आपे ससि सूरा पूरो पूरा ॥ आपे गिआनि धिआनि गुरु सूरा ॥ कालु जालु जमु जोहि न साकै साचे सिउ लिव लाई हे ॥४॥ पद्अर्थ: ससि = (शशि) चंद्रमा। सूरा = सूरज। पूरो पूरा = हर जगह पूर्ण, हर जगह अपना प्रकाश देने वाला। गिआनि = ज्ञान का मालिक। धिआनि = ध्यान का मालिक। सूरा = सूरज। जोहि न साकै = ताक नहीं सकता। लिव = लगन।4। अर्थ: हर जगह रौशनी देने वाला परमात्मा स्वयं ही सूर्य है स्वयं ही चँद्रमा है, प्रभु खुद ही ज्ञान का मालिक और तवज्जो का मालिक सूरमा गुरु है। जिस भी जीव ने उस सदा-स्थिर प्रभु से प्रेम-लगन लगाई है जमराज उसकी ओर देख भी नहीं सकता।4। आपे पुरखु आपे ही नारी ॥ आपे पासा आपे सारी ॥ आपे पिड़ बाधी जगु खेलै आपे कीमति पाई हे ॥५॥ पद्अर्थ: पासा = चौपड़, संसार का आकार। सारी = नर्दें, जीव। कीमति = मूल्य, कद्र, परख।5। अर्थ: (हरेक) मर्द भी प्रभु स्वयं ही है और (हरेक) स्त्री भी स्वयं ही है, प्रभु खुद ही (ये जगत रूप) चौपड़ (की खेल) है और खुद ही (चौपड़ की जीव-) नर्दें है। परमात्मा ने स्वयं ही ये जगत (चौपड़ की खेल-रूप) मैदान को तैयार किया है, स्वयं ही इस खेल को परख रहा है।5। आपे भवरु फुलु फलु तरवरु ॥ आपे जलु थलु सागरु सरवरु ॥ आपे मछु कछु करणीकरु तेरा रूपु न लखणा जाई हे ॥६॥ अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा सही स्वरूप क्या है? - ये बयान नहीं किया जा सकता। तू स्वयं ही (अपने आप से) सारी रचना रचने वाला है। तू स्वयं ही भौरा है, स्वयं ही फूल है, तू खुद ही फल है, और खुद ही वृक्ष है। तू स्वयं ही पानी है, स्वयं ही सूखी हुई धरती है, तू स्वयं ही समुंदर है स्वयं ही तालाब है। तू स्वयं ही मछली है तू स्वयं ही कछूआ है।6। आपे दिनसु आपे ही रैणी ॥ आपि पतीजै गुर की बैणी ॥ आदि जुगादि अनाहदि अनदिनु घटि घटि सबदु रजाई हे ॥७॥ पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। रैणी = (रजनी) रात। पतीजै = खुश होता है। बैणी = वचनों से। अनाहदि = नाश रहित। रजाई = रजा के मालिक प्रभु का।7। अर्थ: परमात्मा खुद ही दिन है खुद ही रात है, वह खुद ही गुरु के वचनों के द्वारा खुश हो रहा है, सारे जगत का मूल है, जुगों से भी आदि से है, उसका ना कभी नाश हो सकता है, हर वक्त हरेक शरीर में उसी रजा के मालिक की जीवन-लहर रुमक रही है।7। आपे रतनु अनूपु अमोलो ॥ आपे परखे पूरा तोलो ॥ आपे किस ही कसि बखसे आपे दे लै भाई हे ॥८॥ पद्अर्थ: अनूपु = बेमिसाल। अमोलो = जिसका मूल्य ना पड़ सके। कसि = कसवटी पर लगा के। दे = देता है। लै = लेता है। दे लै = देता लेता है, लेन देन करता है, व्यापार करता है।8। अर्थ: प्रभु स्वयं ही एक ऐसा रतन है जिस जैसा और कोई नहीं और जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। प्रभु स्वयं ही उस रत्न को परखता है, और ठीक तरह तौलता है। प्रभु स्वयं ही किसी रत्न-जीव को कसौटी पर ला के स्वीकार करता है, और हे भाई! प्रभु स्वयं ही जगत की वणज-व्यापार की कार चला रहा है (रतन देता है और रतन लेता है)।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |