श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपे धनखु आपे सरबाणा ॥ आपे सुघड़ु सरूपु सिआणा ॥ कहता बकता सुणता सोई आपे बणत बणाई हे ॥९॥

पद्अर्थ: सर = तीर। सरबाणा = (शरवाणि) तीर चलाने वाला, तीर अंदाज। सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। सरूपु = सुंदर रूप वाला। बकता = बोलने वाला।9।

अर्थ: परमात्मा खुद ही धनुष है (खुद ही तीर है) खुद ही तीर-अंदाज है। खुद ही कुशलता वाला-सोहाना और सयाना है। हर जगह बोलने वाला सुनने वाला वही खुद ही है जिसने ये जगत रचना रची है।9।

पउणु गुरू पाणी पित जाता ॥ उदर संजोगी धरती माता ॥ रैणि दिनसु दुइ दाई दाइआ जगु खेलै खेलाई हे ॥१०॥

पद्अर्थ: जाता = जाना जाता है। उदर संजोगी = पेट के संयो के कारण। रैणि = रात। दुइ = दोनों। दाइआ = खिलौना खिलाने वाला।10।

अर्थ: हवा (जो शरीरों के लिए इस तरह है जैसे) गुरु (जीवों की आत्मा के लिए है) प्रभु स्वयं ही है। पानी (जो सब जीवों का) पिता (है, यह भी) प्रभु स्वयं ही है। धरती (जो इसके लिए जीवों की) माँ कहलवाने-योग्य है ये माँ की तरह सब चीजों को अपने पेट में रखती है और पेट में से पैदा करती है; यह भी परमात्मा स्वयं ही है (क्योंकि सब कुछ परमात्मा ने अपने आप से प्रकट किया है)। दिन और रात (जो जीवों के लिए) दोनों खेल खिलाने वाली और खेल खिलाने वाला है (और इनके प्रभाव में) जगत खेल रहा है, यह भी वह स्वयं ही है, यह सारी खेल वह खुद ही खेल रहा है।10।

आपे मछुली आपे जाला ॥ आपे गऊ आपे रखवाला ॥ सरब जीआ जगि जोति तुमारी जैसी प्रभि फुरमाई हे ॥११॥

पद्अर्थ: जाला = (मछली फसाने वाला) जाल। जगि = जगत में। प्रभि = प्रभु ने।11।

अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही मछली है और स्वयं ही (मछली फसाने वाला) जाल है, तू खुद ही गाय है और खुद ही गाईयों का रखवाला है। सारे जीवों में सारे जगत में तेरी ही ज्योति मौजूद है।

जगत में वही कुछ हो रहा है जैसे प्रभु ने हुक्म किया है (हुक्म कर रहा है)।11।

आपे जोगी आपे भोगी ॥ आपे रसीआ परम संजोगी ॥ आपे वेबाणी निरंकारी निरभउ ताड़ी लाई हे ॥१२॥

पद्अर्थ: रसीआ = रस लेने वाला। वेबाणी = बिआबान में रहने वाला, जंगल में रहने वाला त्यागी। निरंकारी = आकार रहित।12।

अर्थ: (माया से निर्लिप होने के कारण) प्रभु स्वयं ही जोगी है, (और सारे जीवों में व्यापक होने के कारण) खुद ही (सारे पदार्थों को) भोगने वाला है। सबसे बड़े संयोग (मिलाप) के कारण (सब जीवों में रमा होने के कारण) प्रभु स्वयं ही सारे रस माण रहा है। प्रभु स्वयं ही सारे उजाड़ में रहने वाला है, प्रभु स्वयं ही निराकार है, उसको किसी का डर नहीं। वह स्वयं ही अपने स्वरूप में तवज्जो जोड़ने वाला है।12।

खाणी बाणी तुझहि समाणी ॥ जो दीसै सभ आवण जाणी ॥ सेई साह सचे वापारी सतिगुरि बूझ बुझाई हे ॥१३॥

पद्अर्थ: खाणी = जीवों की उत्पक्ति की चार खानें। बाणी = चार बाणियां। सेई = वही लोग। सतिगुरि = गुरु ने।13।

अर्थ: हे प्रभु! चारों खाणियों के जीव और उनकी बोलियाँ भी तेरे में ही समा जाती हैं। जगत में जो कुछ दिखाई दे रहा है वह पैदा होने मरने के चक्र में है। जिस लोगों को सतिगुरु ने (सही जीवन की) सूझ दी है वही कभी घाटा ना खाने वाले शाह हैं, व्यापारी हैं।13।

सबदु बुझाए सतिगुरु पूरा ॥ सरब कला साचे भरपूरा ॥ अफरिओ वेपरवाहु सदा तू ना तिसु तिलु न तमाई हे ॥१४॥

पद्अर्थ: अफरिओ = अटल हुक्म वाला। तिसु = उस (प्रभु) को। तिलु = तिल जितना भी। तमाई = तमा, लालच।14।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरा रूप) पूरा सतिगुरु (तेरी महिमा की) वाणी (तेरे पैदा किए हुए जीवों को) समझाता है। हे सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू (अपनी सारी रचना में) हर जगह मौजूद है। कोई जीव तेरे हुक्म को मोड़ नहीं सकता, (इतने बड़े पसारे का मालिक हो के भी) तू सदा बेफिक्र है।

(हे भाई! परमात्मा अपने पैदा किए हुए जीवों के लिए सब कुछ करता है, पर) उस को (अपने लिए) कोई रक्ती भर भी लालच नहीं है।14।

कालु बिकालु भए देवाने ॥ सबदु सहज रसु अंतरि माने ॥ आपे मुकति त्रिपति वरदाता भगति भाइ मनि भाई हे ॥१५॥

पद्अर्थ: कालु = मौत। बिकालु = जनम। सहज रसु = आत्मिक अडोलता का आनंद। माने = भोगा है, पाया है। मुकति दाता = विकारों से खलासी देने वाला। त्रिपति दाता = माया की ओर से संतोष देने वाला। वर दाता = बख्शिशें करने वाला। भाइ = प्रेम से। मनि = मन मे। भगति भाइ = जिसको परमात्मा की भक्ति प्यारी लगी है।15।

अर्थ: (परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य) अपने हृदय में उसकी महिमा की वाणी बसाता है और आत्मिक अडोलता का रस लेता है, जनम और मरण उसके नजदीक नहीं फटकते (उसको देख के पागल हो जाते हैं सहम जाते हैं)। (प्रभु की बख्शी हुई प्रभु-चरणों की) प्रीति से जिस मनुष्य के मन में प्रभु की भक्ति का प्यार जाग उठता है, उसको प्रभु (स्वयं ही विकारों से) निजात देने वाला है स्वयं ही (माया की तृष्णा से) तृप्ति देने वाला है, और स्वयं ही सब बख्शिशें करने वाला है।15।

आपि निरालमु गुर गम गिआना ॥ जो दीसै तुझ माहि समाना ॥ नानकु नीचु भिखिआ दरि जाचै मै दीजै नामु वडाई हे ॥१६॥१॥

पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप। गुर गम गिआना = गुरु के द्वारा जिसकी जान पहचान बनती है। भिखिआ = नाम की खैर। दरि = (तेरे) दर से। जाचै = मांगता है। मै = मुझे।16।

अर्थ: हे प्रभु! (इतना बेअंत जगत रच के) तू स्वयं (इसके मोह से) निर्लिप है। हे प्रभु! (तेरे रूप) गुरु के द्वारा ही तेरे साथ जान-पहचान हो सकती है। (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब तेरे में ही लीन हो जाता है।

गरीब नानक तेरे दर से (नाम की) ख़ैर माँगता है। हे प्रभु! मुझे अपना नाम दे, यही मेरे वास्ते सबसे ऊँची इज्जत है।16।1।

मारू महला १ ॥ आपे धरती धउलु अकासं ॥ आपे साचे गुण परगासं ॥ जती सती संतोखी आपे आपे कार कमाई हे ॥१॥

पद्अर्थ: धउलु = बैल (जो धरती को अपने सींगों पर उठा के खड़ा हुआ माना जाता है), धरती का आसरा। कार = (जत सत संतोख की) कार।1।

अर्थ: (सारा जगत प्रभु के अपने आप से प्रकट हुआ है, इस वास्ते प्रभु) स्वयं ही धरती है स्वयं धरती का आसरा है, स्वयं ही आकाश है। प्रभु स्वयं ही अपने सदा-स्थिर रहने वाले गुणों का प्रकाश करने वाला है। स्वयं ही जती है, स्वयं ही दानी है, स्वयं ही संतोषी है, स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के जत-सत-संतोख के अभ्यास की) कार कमाने वाला है।1।

जिसु करणा सो करि करि वेखै ॥ कोइ न मेटै साचे लेखै ॥ आपे करे कराए आपे आपे दे वडिआई हे ॥२॥

पद्अर्थ: जिसु करणा = जिस परमात्मा का रचा हुआ जगत। वेखै = संभाल करता है। लेखै = लेख को, हुक्म को। साचे = सदा स्थिर प्रभु के।2।

अर्थ: जिस कर्तार का यह रचा हुआ संसार है वह इसको रच-रच के स्वयं ही इसकी संभाल करता है। कोई जीव उस परमात्मा के सदा-स्थिर रहने वाले हुक्म की उलंघना नहीं कर सकता। (जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही सब कुछ कर रहा है, स्वयं ही जीवों से (अपने हुक्म अनुसार काम) करवा रहा है। स्वयं ही (जिनको अपने नाम की दाति देता है उनको) आदर दे रहा है।2।

पंच चोर चंचल चितु चालहि ॥ पर घर जोहहि घरु नही भालहि ॥ काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी बिनु सबदै पति जाई हे ॥३॥

पद्अर्थ: चालहि = मोह लेते हैं। जोहहि = देखते हैं। घरु = अपना हृदय घर। काइआ = शरीर। पति = इज्जत।3।

अर्थ: (प्रभु की अपनी रजा में ही) भरमा देने वाले पाँच कामादिक चोर (जीवों के) मन को मोह लेते हैं। (जिनके मन कामादिक आदि मोह लेते हैं) वे पराए घरों में देखते हैं, अपने हृदय-घर को नहीं खोजते। (विकारों में फसे हुओं का आखिर) शरीर शहर गिर जाता है, गिर के ढेरी हो जाता है; गुरु के शब्द से वंचित रहने के कारण उनकी इज्जत जाती रहती है।3।

गुर ते बूझै त्रिभवणु सूझै ॥ मनसा मारि मनै सिउ लूझै ॥ जो तुधु सेवहि से तुध ही जेहे निरभउ बाल सखाई हे ॥४॥

पद्अर्थ: त्रिभवणु = तीन भवनों में व्यापक परमात्मा। मनसा = मन का फुरना। लूझै = मुकाबला करता है। बाल सखाई = सदा का साथी।4।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से जो मनुष्य) गुरु का ज्ञान हासिल करता है उसको तू तीनों भवनों मेुं व्यापक दिखाई दे जाता है, वे मनुष्य मन के मायावी फुरने मार के मन से मुकाबला करता है (और इसको वश में रखता है)। हे प्रभु! जो लोग तुझे स्मरण करते हैं वह तेरे जैसे हो जाते हैं, तू किसी से ना डरने वाला उनका सदा का साथी बन जाता है।4।

आपे सुरगु मछु पइआला ॥ आपे जोति सरूपी बाला ॥ जटा बिकट बिकराल सरूपी रूपु न रेखिआ काई हे ॥५॥

पद्अर्थ: मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। बाला = बड़ा। बिकट = (विकट = formidable) भयानक। बिकराल = डरावनी। सरूपी = सुंदर रूप वाला। रेखिआ = रेखा, लकीर, चक्र चिन्ह।5।

अर्थ: (सारी सृष्टि प्रभु के अपने आप से प्रकट होने के कारण) प्रभु स्वयं ही स्वर्ग-लोक है, स्वयं ही मातृ लोक है, स्वयं ही पाताल लोक है। स्वयं ही सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश है और सबसे बड़ा है। भयानक और डरावनी बालों की जटा धारने वाला भी स्वयं ही है। फिर भी उस का ना कोई खास रूप है ना कोई खास चक्र-चिन्ह है।5।

बेद कतेबी भेदु न जाता ॥ ना तिसु मात पिता सुत भ्राता ॥ सगले सैल उपाइ समाए अलखु न लखणा जाई हे ॥६॥

पद्अर्थ: कतेबी = पश्चिमी मजहबी किताबें। सुत = पुत्र। सैल = शैल, पहाड़। समाए = लीन कर लेता है।6।

अर्थ: ना ही हिन्दू धर्म की वेद आदिक धर्म पुस्तकों ने ना ही पश्चिमी मतों की कुरान आदि किताबों ने परमात्मा की हस्ती की गहराई को समझा है। उस परमात्मा की ना कोई माँ, ना उसका कोई खास पुत्र ना कोई भाई है। बड़ऋे बड़े पहाड़ आदिक पैदा करके (जब चाहे) सारे ही अपने में लीन कर लेता है। उसका स्वरूप बयान से परे है, बियान नहीं किया जा सकता।6।

करि करि थाकी मीत घनेरे ॥ कोइ न काटै अवगुण मेरे ॥ सुरि नर नाथु साहिबु सभना सिरि भाइ मिलै भउ जाई हे ॥७॥

पद्अर्थ: सुरि = देवते। सिरि = सिर पर। भाइ = प्रेम से।7।

अर्थ: (परमात्मा से टूट के) अनेक (देवी-देवताओं को) मैं अपने मित्र बना-बना के हार गई हूँ, (मेरे अंदर से) कोई (ऐसा मित्र) मेरे अवगुण दूर नहीं कर सका। वह परमात्मा ही सारे देवताओं और मनुष्यों का पति है, वही सब जीवों के सर पर मालिक है। प्यार के द्वारा जिस बंदे को वह मिल जाता है उसका (पापों-विकारों का सारा) सहम दूर हो जाता है।7।

भूले चूके मारगि पावहि ॥ आपि भुलाइ तूहै समझावहि ॥ बिनु नावै मै अवरु न दीसै नावहु गति मिति पाई हे ॥८॥

पद्अर्थ: मारगि = (सही जीवन-) राह पर। भुलाइ = भुलाय, भुला के, गलत रास्ते पर डाल के। मै = मुझे। अवरु = कोई और। नावहु = नाम से, नाम स्मरण से। गति मिति = प्रभु की गति और प्रभु की मिति, प्रभु कैसा है और कितना बड़ा बेअंत है = ये समझ।8।

अर्थ: हे प्रभु! भटके हुए गलत रास्ते पर पड़े हुए बंदों को तू स्वयं ही सही मार्ग पर लगाता है। तू खुद ही गलत रास्ते पर डाल के फिर खुद ही (सीधे राह की) समझ बख्शता है (भटकना से बचने के लिए) तेरे नाम के बिना मुझे और कोई साधन दिखाई नहीं देता। तेरा नाम स्मरण करने से ही पता चलता है कि तू कैसा (दयालु) है, कितना बड़ा (बेअंत) है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh