श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गंगा जमुना केल केदारा ॥ कासी कांती पुरी दुआरा ॥ गंगा सागरु बेणी संगमु अठसठि अंकि समाई हे ॥९॥

पद्अर्थ: केल = खेल, श्री कृष्ण जी के खेलने की जगह, बिंद्रावन। केदारा = गढ़वाल के इलाके में केदारनाथ तीर्थ। कांती = कांची, जिसका प्रसिद्ध नाम ‘कांची वरम’ है, सात पुरियों में से एक पवित्र पुरी। पुरी दुआरका = द्वारका पुरी। गंगा सागरु = (सागरु = समुंदर) जहाँ गंगा समुंदर में पड़ती है। बेणी संगमु = त्रिवेणी (गंगा यमुना सरस्वती) के मेल की जगह। अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। अंकि = अंक में, स्वरूप में।9।

अर्थ: गंगा, जमुना, बिंद्रावन, केदार, काशी, कांति, द्वारका पुरी, सागर-गंगा, त्रिवेणी का संगम आदिक अढ़सठ तीर्थ उस कर्तार प्रभु की अपनी ही गोद में टिके हुए हैं।9।

आपे सिध साधिकु वीचारी ॥ आपे राजनु पंचा कारी ॥ तखति बहै अदली प्रभु आपे भरमु भेदु भउ जाई हे ॥१०॥

पद्अर्थ: सिध = जोग साधना में माहिर योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। पंचा कारी = पँचों को बनाने वाला। तखति = तख्त पर। अदली = न्याय करने वाला।10।

अर्थ: (प्रभु के स्वयं से पैदा हुई सृष्टि में कहीं त्यागी हैं तो कहीं राजा हैं, सो,) प्रभु स्वयं ही योग-साधना में सिद्ध-हस्त योगी है, स्वयं ही योग-साधना करने वाला है, स्वयं ही योग-साधना की विचार करने वाला है। प्रभु स्वयं ही राजा है स्वयं ही (अपने राज में) पँच-चौधरी बनाने वाला है। न्याय करने वाला प्रभु स्वयं ही तख़्त पर बैठा हुआ है, (उसकी अपनी ही मेहर से जगत में से) भटकना, (परस्पर) दूरियां और डर-सहम दूर होता है।10।

आपे काजी आपे मुला ॥ आपि अभुलु न कबहू भुला ॥ आपे मिहर दइआपति दाता ना किसै को बैराई हे ॥११॥

पद्अर्थ: किसै को = किसी का। बैराई = वैरी।11।

अर्थ: (सब जीवों में स्वयं ही व्यापक होने के कारण) प्रभु स्वयं ही काज़ी है स्वयं ही मुल्ला है (जीव तो माया के मोह में फंस के भूलें करते रहते हैं, पर सबमें व्यापक होते हुए भी प्रभु) आप अमोध है, वह कभी गलती नहीं करता। वह किसी के साथ वैर भी नहीं करता, वह सदा मेहर का मालिक है दया का श्रोत है सब जीवों को दातें देता है।11।

जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ सभसै दाता तिलु न तमाई ॥ भरपुरि धारि रहिआ निहकेवलु गुपतु प्रगटु सभ ठाई हे ॥१२॥

पद्अर्थ: सभसै = हरेक जीव का। तमाई = तमा, लालच। भरपुरि = भरपूर, नाको नाक व्यापक। निहकेवलु = (निष्कैवल्य) शुद्ध स्वरूप, पवित्र। ठाई = जगहों में।12।

अर्थ: प्रभु जिस जीव पर बख्शिश करता है उसको बड़ाई देता है, हरेक जीव को दातें देने वाला है (उसको किसी जीव से किसी किस्म का) रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। सब जीवों में व्यापक हो के सबको आसरा दे रहा है (सबमें होते हुए भी स्वयं) पवित्र हस्ती वाला है। दिखाई देता जगत हो अथवा अदृश्य, प्रभु हर जगह मौजूद है।12।

किआ सालाही अगम अपारै ॥ साचे सिरजणहार मुरारै ॥ जिस नो नदरि करे तिसु मेले मेलि मिलै मेलाई हे ॥१३॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। मुरारि = परमात्मा (मुर+अरि)।13।

अर्थ: परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, उसके गुणों का उस पार का छोर नहीं मिल सकता, वह सदा-स्थिर रहने वाला है, सब जीवों को पैदा करने वाला है, और दैत्यों को नाश करने वाला है। मैं उसकी कौन-कौन सी कीर्ति बयान कर सकता हूँ? जिस जीव पर मेहर की नजर करता है उसको अपने चरणों में जोड़ लेता है, वह जीव प्रभु के चरणों में मिला रहता है, प्रभु खुद ही मिलाए रखता है।13।

ब्रहमा बिसनु महेसु दुआरै ॥ ऊभे सेवहि अलख अपारै ॥ होर केती दरि दीसै बिललादी मै गणत न आवै काई हे ॥१४॥

पद्अर्थ: दुआरै = (प्रभु के) दर पर। महेसु = शिव। ऊभे = खड़े हुए। होर केती = और बेअंत दुनिया। दरि = प्रभु के दर पर। मै = मुझसे। काई गणत = कोई गिनती।14।

अर्थ: (बड़े-बड़े देवते भी) क्या ब्रहमा, क्या विष्णु, और क्या शिव - सारे उस अलख और अपार प्रभु के दर पर खड़े हुए सेवा में हाजिर रहते हैं। और भी इतनी बेअंत दुनिया उसके दर पर तरले लेती दिखाई दे रही है कि मुझसे कोई गिनती नहीं हो सकती।14।

साची कीरति साची बाणी ॥ होर न दीसै बेद पुराणी ॥ पूंजी साचु सचे गुण गावा मै धर होर न काई हे ॥१५॥

पद्अर्थ: सची = सदा सिथर रहने वाली। कीरति = महिमा, कीर्ति। पूंजी = संपत्ति, धन-दौलत। धर = आसरा।15।

अर्थ: परमात्मा की महिमा और महिमा की वाणी ही सदा-स्थिर रहने वाली संपत्ति है। वेद-पुराण आदिक धर्म-पुस्तकों में भी इस राशि-पूंजी के बिना और सदा-स्थिर रहने वाला पदार्थ नहीं दिखता। प्रभु का नाम ही अटल पूंजी है, मैं सदा उस अटल प्रभु के गुण गाता हूँ, मुझे उसके बिना और कोई आसरा नहीं दिखता।15।

जुगु जुगु साचा है भी होसी ॥ कउणु न मूआ कउणु न मरसी ॥ नानकु नीचु कहै बेनंती दरि देखहु लिव लाई हे ॥१६॥२॥

पद्अर्थ: जुगु जुगु = कोई भी युग हो। देखहु = (हे प्रभु!) तू संभाल करता है।16।

अर्थ: प्रभु हरेक युग में कायम रहने वाला है, अब भी मौजूद है, सदा ही कायम रहेगा। जगत में और जो भी जीव आया वह (आखिर) मर गया, जो भी आएगा वह (अवश्य) मरेगा।

गरीब नानक विनती करता है: हे प्रभु! तू अपने दरबार में बैठा सब जीवों की बड़े ध्यान से संभाल कर रहा है।16।2।

मारू महला १ ॥ दूजी दुरमति अंनी बोली ॥ काम क्रोध की कची चोली ॥ घरि वरु सहजु न जाणै छोहरि बिनु पिर नीद न पाई हे ॥१॥

पद्अर्थ: दूजी = परमात्मा के बिना अन्य आसरे की झाक। दुरमति = बुरी मति। कची चोली = नाशवान शरीर। घरि = हृदय घर में। खसम = प्रभु। सहजु = आत्मिक अडोलता। छोडहि = अंजान जीव-स्त्री। नीद = आत्मिक शांति।1।

अर्थ: प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक ऐसी दुर्मति है कि इसमें फसी हुई जीव-स्त्री अंधी और बहरी हो जाती है (ना वह आँखों से परमात्मा को देख सकती है, ना वह कानों से परमात्मा की महिमा सुन सकती है)। उसका शरीर काम-क्रोध आदि में गलता रहता है। पति-प्रभु उसके हृदय-घर में बसता है, पर वह अंजान जीव-स्त्री उसको पहचान नहीं सकती, आत्मिक अडोलता उसके अंदर ही है पर वह समझ नहीं सकती। पति-प्रभु से विछुड़ी हुई को शांति नसीब नहीं होती।1।

अंतरि अगनि जलै भड़कारे ॥ मनमुखु तके कुंडा चारे ॥ बिनु सतिगुर सेवे किउ सुखु पाईऐ साचे हाथि वडाई हे ॥२॥

पद्अर्थ: अगनि = तृष्णा आग। भड़कारे = भड़ भड़ करके। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।2।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया) की खातिर चारों तरफ़ भटकता है, उसके अंदर तृष्णा की आग भड़-भड़ करके जलती है। सतिगुरु की बताई हुई सेवा करे बिना आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता, यह बड़ाई सदा-स्थिर प्रभु के अपने हाथ में है (जिस पर मेहर करे उसी को देता है)।2।

कामु क्रोधु अहंकारु निवारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ गिआन खड़गु लै मन सिउ लूझै मनसा मनहि समाई हे ॥३॥

पद्अर्थ: तसकर = चोर। सबदि = शब्द से। खड़गु = तलवार। लूझै = लड़ता है। मनहि = मन में।3।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य अपने अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार दूर करता है, गुरु के शब्द में जुड़ के कामादिक पाँच चोरों को मारता है, गुरु से मिले ज्ञान की तलवार ले के अपने मन के साथ लड़ाई करता है, उसके मन का मायावी फुरना मन में ही समाप्त हो जाता है (भाव, मन में मायावी फुरने उठते ही नहीं)।3।

मा की रकतु पिता बिदु धारा ॥ मूरति सूरति करि आपारा ॥ जोति दाति जेती सभ तेरी तू करता सभ ठाई हे ॥४॥

पद्अर्थ: मा = माँ। रकतु = लहू। बिदु = बिंदु, वीर्य की बूँद। जेती = जितनी भी।4।

अर्थ: हे अपार प्रभु! माँ के रक्त और पिता के वीर्य की बूँद को मिला के तूने मनुष्य का बुत बना दिया, सुंदर चेहरा बना दिया। हरेक जीव के अंदर तेरी ही ज्योति है, जो भी पदार्थों की बख्शिश है सब तेरी ही है, तू विधाता हर जगह मौजूद है।4।

तुझ ही कीआ जमण मरणा ॥ गुर ते समझ पड़ी किआ डरणा ॥ तू दइआलु दइआ करि देखहि दुखु दरदु सरीरहु जाई हे ॥५॥

पद्अर्थ: ते = से। देखहि = तू संभाल करता है। सरीरहु = शरीर में से।5।

अर्थ: हे प्रभु! जनम और मरण (का सिलसिला) तूने ही बनाया है, जिस मनुष्य को गुरु से यह सूझ पड़ जाए वह फिर मौत से नहीं डरता। हे प्रभु! तू दया का घर है, जिस मनुष्य की ओर तू निगाह करके देखता है उसके शरीर में से दुख-दर्द दूर हो जाता है।5।

निज घरि बैसि रहे भउ खाइआ ॥ धावत राखे ठाकि रहाइआ ॥ कमल बिगास हरे सर सुभर आतम रामु सखाई हे ॥६॥

पद्अर्थ: निज घरि = अपने हृदय घर में। खाइआ = समाप्त कर दिया। धावत = माया के पीछे भटकने को। ठाकि = रोक के। सर = तालाब, ज्ञान इन्द्रियाँ। सुभर = नाको नाक भरे हुए (नाम अमृत से)। आतमरामु = परमात्मा।6।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) जो मनुष्य अपने हृदय (में बसते परमात्मा की याद) में टिके रहते हैं वे मौत का डर समाप्त कर लेते हैं, वे अपने मन को माया के पीछे दौड़ने से बचा लेते हैं और (माया की ओर से) रोक के (प्रभु-चरणों में) टिकाते हैं, उनके हृदय-कमल खिल उठते हैं, हरे हो जाते हैं, उनके (ज्ञान-इन्द्रिय-रूप) तालाब (नाम-अमृत से) लबालब भरे रहते हैं, सार्व-व्यापक परमात्मा उनका (सदा के लिए) मित्र बन जाता है।6।

मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ किउ रहीऐ चलणा परथाए ॥ सचा अमरु सचे अमरा पुरि सो सचु मिलै वडाई हे ॥७॥

पद्अर्थ: मंडल = संसार। परथाए = परलोक में। अमरापुरि = उस पुरी में जो सदा अटल है।7।

अर्थ: जो भी जीव जगत में आते हैं वह मौत (का परवाना अपने सिर पर) लिखा के ही आते हैं। किसी भी हालत में कोई भी जीव यहाँ सदा नहीं रह सकता, हरेक ने अवश्य परलोक में जाना है। परमात्मा का यह सदा-कायम रहने वाला हुक्म (अमर) है। जो लोग सदा-स्थिर प्रभु की सदा-स्थिर पुरी में टिके रहते हैं उनको सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है, उनको (प्रभु-मिलाप की यह) महिमा मिलती है।7।

आपि उपाइआ जगतु सबाइआ ॥ जिनि सिरिआ तिनि धंधै लाइआ ॥ सचै ऊपरि अवर न दीसै साचे कीमति पाई हे ॥८॥

पद्अर्थ: सबाइआ = सारा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरिआ = पैदा किया। तिनि = उस (प्रभु) ने।8।

अर्थ: यह सारा जगत प्रभु ने स्वयं ही पैदा किया है। जिस (प्रभु) ने (जगत) पैदा किया है उसने (स्वयं ही) इसको माया की दौड़-भाग में लगा दिया है। उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के (सिर) पर और कोई (ताकत) नहीं दिखती जो उस सदा-स्थिर (की सामर्थ्य) का मूल्य डाल सके।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh