श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ऐथै गोइलड़ा दिन चारे ॥ खेलु तमासा धुंधूकारे ॥ बाजी खेलि गए बाजीगर जिउ निसि सुपनै भखलाई हे ॥९॥

पद्अर्थ: गोइल = नदियों के किनारे वह जगहें जहाँ मुश्किल के दिनों में लोग अपने पशू-मवेशियों को चराने के लिए आ टिकते हैं। धुंधूकारे = घोर अंधेरे में, अज्ञानता के अंधकार में। निसि = रात के समय। सुपनै = सपने में। भखलाई = बड़ बड़ाता है।9।

अर्थ: (जैसे मुश्किल के दिनों में दरियाओं के किनारे पशू-मवेशियों को चराने आए लोगों का वहाँ थोड़े दिनों के लिए ही ठिकाना होता है, वैसे ही) यहाँ जगत में जीवों का चार दिनों का ही बसेरा है। यह जगत एक खेल है, एक तमाशा है, पर (जीव माया के मोह के कारण अज्ञानता के) घोर अंधेरे में फसे पड़े हैं। बाज़ीगरों की तरह जीव (माया की) बाज़ी खेल के चले जाते हैं, (इस खेल में से किसी के हाथ-पल्ले कुछ नहीं पड़ता) जैसे रात के सपने में कोई व्यक्ति (धन पा के) बड़-बड़ाता है (पर सपना टूट जाने पर पल्ले कुछ भी नहीं रहता)।9।

तिन कउ तखति मिली वडिआई ॥ निरभउ मनि वसिआ लिव लाई ॥ खंडी ब्रहमंडी पाताली पुरीई त्रिभवण ताड़ी लाई हे ॥१०॥

पद्अर्थ: तखति = तख़्त पर। मनि = मन में। ताड़ी लाई हे = व्यापक है।10।

अर्थ: जो परमात्मा सारे खण्डों-ब्रहमण्डों-पातालों-मण्डलों में तीनों ही भवनों में गुप्त रूप में व्यापक है वह निर्भय प्रभु जिस मनुष्यों के मन में बस जाता है जो मनुष्य उस प्रभु की याद में जुड़ते हैं (वह, मानो, आत्मिक मण्डल में बादशाह बन जाते हैं) उनको तख़्त पर बैठने की महिमा मिलती है (वे सदा अपने हृदय-तख़्त पर बैठते हैं)।10।

साची नगरी तखतु सचावा ॥ गुरमुखि साचु मिलै सुखु पावा ॥ साचे साचै तखति वडाई हउमै गणत गवाई हे ॥११॥

पद्अर्थ: नगरी = शरीर। तखतु = हृदय। गणत = माया की सोचें।11।

अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु के सन्मुख हो के सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है, उसका ये शरीर उसका यह हृदय-तख़्त सदा-स्थिर प्रभु का निवास-स्थान बन जाता है। उस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु के सदा-स्थिर तख़्त पर (माया की ओर से सदा अडोल रहने वाले हृदय-तख़्त पर बैठने की) बड़ाई महिमा मिलती है। वह मनुष्य अहंकार और माया की सोचें दूर कर लेता है।11।

गणत गणीऐ सहसा जीऐ ॥ किउ सुखु पावै दूऐ तीऐ ॥ निरमलु एकु निरंजनु दाता गुर पूरे ते पति पाई हे ॥१२॥

पद्अर्थ: जीऐ = जी में, मन में। दूऐ = दूसरे भाव में। तीऐ = त्रिगुणी माया में।12।

अर्थ: जब तलक माया की सोचें सोचते रहें प्राणों में सहम बना ही रहता है, ना ही प्रभु के बिना किसी अन्य झाक में और ना ही त्रिगुणी माया की लगन में - सुख कहीं नहीं मिलता। जिस मनुष्य ने पूरे गुरु की शरण पड़ कर इज्जत कमा ली (उसको निश्चय हो जाता है कि) सब दातें देने वाला एक परमात्मा ही है जो पवित्र-स्वरूप है और जिस पर माया की कालिख़ का प्रभाव नहीं पड़ता।12।

जुगि जुगि विरली गुरमुखि जाता ॥ साचा रवि रहिआ मनु राता ॥ तिस की ओट गही सुखु पाइआ मनि तनि मैलु न काई हे ॥१३॥

पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। गही = पकड़ी।13।

अर्थ: हरेक युग में (भाव, युग चाहे कोई भी हो) किसी उस विरले ने ही सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाली है जो गुरु की शरण पड़ा है। वह सदा-स्थिर प्रभु हर जगह मौजूद है। (गुरु के माध्यम से जिसका) मन (उस प्रभु के प्रेम-रंग में) रंगा गया है, जिसने उस सदा-स्थिर प्रभु का पल्ला पकड़ा है उसको आत्मिक आनंद मिल गया है, उसके मन में उसके तन में (विकारों की) कोई मैल नहीं रह जाती।13।

जीभ रसाइणि साचै राती ॥ हरि प्रभु संगी भउ न भराती ॥ स्रवण स्रोत रजे गुरबाणी जोती जोति मिलाई हे ॥१४॥

पद्अर्थ: रसाइणि = रसों के घर प्रभु के नाम में। भराती = भटकना। स्रवण = कान।14।

अर्थ: जिस मनुष्य की जीभ सब रसों के श्रोत सदा-स्थिर प्रभु के नाम-रंग में रंगी जाती है, हरि परमात्मा उसका (सदा के लिए) साथी बन जाता है, उसको कोई डर नहीं व्यापता, उसको कोई भटकना नहीं रह जाती। सतिगुरु की वाणी सुनने में उसके कान सदा मस्त रहते हैं, उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।14।

रखि रखि पैर धरे पउ धरणा ॥ जत कत देखउ तेरी सरणा ॥ दुखु सुखु देहि तूहै मनि भावहि तुझ ही सिउ बणि आई हे ॥१५॥

अर्थ: हे प्रभु! मैं जिधर देखता हूँ उधर सब जीव तेरी ही शरण पड़ते हैं। जिस मनुष्य की प्रीति सिर्फ तेरे साथ ही निभ रही है (भाव, जिसने अन्य सारे आसरे छोड़ के सिर्फ एक तेरा ही आसरा पकड़ा है) वह मनुष्य धरती पर अपनी जीवन-पथ समाप्त करते हुए बड़े ही ध्यान से पैर रखता है (विकारों की ओर बिल्कुल ही नहीं पड़ता), तू ही उसके मन को प्यारा लगने लगता है, (उसको निश्चय हो जाता है कि) तू ही सुख देता है तू ही दुख देता है।15।

अंत कालि को बेली नाही ॥ गुरमुखि जाता तुधु सालाही ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥१६॥३॥

पद्अर्थ: को = कोई भी। सालाही = सालाहते हैं।16।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वे यह समझ लेते हैं कि जगत में आखिरी वक्त कोई (साक-संबंधी) साथी नहीं बन सकता, (इस वास्ते, हे प्रभु!) वह तेरी ही महिमा करते हैं। हे नानक! वे मनुष्य प्रभु के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे माया के मोह से उपराम रहते हैं, वे सदा अपने हृदय-गृह में टिक के प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हैं।16।3।

मारू महला १ ॥ आदि जुगादी अपर अपारे ॥ आदि निरंजन खसम हमारे ॥ साचे जोग जुगति वीचारी साचे ताड़ी लाई हे ॥१॥

पद्अर्थ: आदि = हे सृष्टि के मूल प्रभु! जुगादी = हे जुगों के आदि से मौजूद प्रभु! अपर = हे प्रभु जिससे परे और कोई नहीं। अपारे = हे प्रभु जिसका परला किनारा नहीं दिखता। निरंजन = हे माया के प्रभाव से परे प्रभु! साचे = हे सदा स्थिर! जोग जुगति = जीवों को अपने साथ मिलाने की जुगति। वीचारी = हे विचारने वाले हरि! साचे ताड़ी लाई हे = हे अपने आप में तवज्जो जोड़ी रखने वाले सदा स्थिर प्रभु!।1।

अर्थ: हे सारी रचना के मूल! हे जुगों के शुरू से मौजूद प्रभु! हे अपर और अपार हरि! हे निरंजन! हे हमारे खसम! हे सदा-स्थिर प्रभु! हे मिलाप की जुगती को विचारने वाले! (जब तूने संसार की रचना नहीं की थी) तूने अपने आप में समाधि लगाई हुई थी।1।

केतड़िआ जुग धुंधूकारै ॥ ताड़ी लाई सिरजणहारै ॥ सचु नामु सची वडिआई साचै तखति वडाई हे ॥२॥

पद्अर्थ: धुंधूकारै = धुंधूकार में, एकसार घुप अंधकार में, उस अवस्था में जिसकी बाबत कुछ भी पता नहीं लग सकता। सिरजणहारै = विधाता ने। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। तखति = तख्त पर।2।

अर्थ: (जगत-रचना से पहले) विधाता ने अनेक ही युग उस अवस्था में समाधि लगाई जिसकी बाबत कुछ भी पता नहीं चल सकता। उस विधाता का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी बड़ाई सदा कायम रहने वाली है, वह बड़ाई का मालिक प्रभु सदा टिके रहने वाले तख़्त पर बैठा हुआ है।2।

सतजुगि सतु संतोखु सरीरा ॥ सति सति वरतै गहिर ग्मभीरा ॥ सचा साहिबु सचु परखै साचै हुकमि चलाई हे ॥३॥

पद्अर्थ: सतजुगि = सतियुग के प्रभाव में। सरीरा = शरीर में, मनुष्यों में (बरते)। सति = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। गहिर = गहरा। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। साचै हुकमि = अपने अटल हुक्म में। चलाई हे = जगत की कार चलाता है।3।

अर्थ: (जगत रचना करके) वह सदा-स्थिर रहने वाला, गहरा और बड़े जिगरे वाला प्रभु (हर जगह) व्यापक हो रहा है। जिस प्राणियों के अंदर (उस विधाता की मेहर के सदका) सत्य और संतोख (वाला जीवन उघड़ता) है, वह, मानो, सतियुग में (बस रहे हैं)। सदा-स्थिर रहने वाला मालिक (सब जीवों की) सही परख करता है, वह सृष्टि की कार को अपने अटल हुक्म में चला रहा है।3।

सत संतोखी सतिगुरु पूरा ॥ गुर का सबदु मने सो सूरा ॥ साची दरगह साचु निवासा मानै हुकमु रजाई हे ॥४॥

पद्अर्थ: सत संतोखी = सत्य और संतोष का मालिक। मने = मानता है। सूरा = सूरमा। रजाई = रजा के मालिक प्रभु का।4।

अर्थ: पूरा गुरु (भी) सत और संतोख का मालिक है। जो मनुष्य गुरु का शब्द मानता है (अपने हृदय में टिकाता है) वह सूरमा (बन जाता) है (विकार उसको जीत नहीं सकते)। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में सदा का निवास प्राप्त कर लेता है, वह उस रजा के मालिक प्रभु का हुक्म मानता है।4।

सतजुगि साचु कहै सभु कोई ॥ सचि वरतै साचा सोई ॥ मनि मुखि साचु भरम भउ भंजनु गुरमुखि साचु सखाई हे ॥५॥

पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। सभु कोई = हरेक जीव (जो सतियुग के प्रभाव तले है)। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। भरम भउ भंजनु = (जीवों की) भटकना और डर दूर करने वाला प्रभु। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है। सखाई = मित्र।5।

अर्थ: जो जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करता है वह, मानो, सतियुग में है। वह सदा-स्थिर-प्रभु की याद में टिका हुआ ही जगत की कार करता है, उसको हर जगह सदा-स्थिर प्रभु ही दिखता है। उसके मन में उसके मुँह में सदा-स्थिर-प्रभु उसका सदा साथी बन जाता है।5।

त्रेतै धरम कला इक चूकी ॥ तीनि चरण इक दुबिधा सूकी ॥ गुरमुखि होवै सु साचु वखाणै मनमुखि पचै अवाई हे ॥६॥

पद्अर्थ: त्रेतै = त्रेते में, त्रेते के प्रभाव में। धरम कला = धर्म की एक ताकत। चूकी = समाप्त हो जाती है। चरण = पैर। सूकी = शूकती है, प्रबल हो जाती है। दुबिधा = मेर तेर। साचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम। वखाणै = स्मरण करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। पचै = दुखी होता है। अवाई = अवैड़ापन।6।

अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर से धर्म की एक ताकत समाप्त हो जाती है, जिसके अंदर धर्म के तीन पैर रह जाते हैं और मेर-तेर अपना जोर डाल लेती है, वह मानो, त्रेते युग में बस रहा है। अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति (मेर-तेर के) अवैड़ेपन में दुखी होता है, जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करता है (और, वह मानो, सतियुग में है)।6।

मनमुखि कदे न दरगह सीझै ॥ बिनु सबदै किउ अंतरु रीझै ॥ बाधे आवहि बाधे जावहि सोझी बूझ न काई हे ॥७॥

पद्अर्थ: कदे = कोई भी समय हो। सीझै = कामयाब होता, स्वीकार होता। अंतरु = अंतरात्मा, हृदय। रीझै = रीझ में आता, (स्मरण के) उत्साह में आता।7।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला बँदा कभी परमात्मा की हजूरी में आदर नहीं पाता, उसकी अंतरात्मा कभी भी (स्मरण की) उत्साह में नहीं आती। ऐसे व्यक्ति अपने मन की वासना में बँधे हुए जगत में आते हैं और बँधे हुए ही यहाँ से चले जाते हैं, उन्हें (सही जीवन-मार्ग की) कोई सूझ नहीं होती।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh