श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दइआ दुआपुरि अधी होई ॥ गुरमुखि विरला चीनै कोई ॥ दुइ पग धरमु धरे धरणीधर गुरमुखि साचु तिथाई हे ॥८॥

पद्अर्थ: दुआपरि = द्वापर में, द्वापर के प्रभाव में। होई = हो जाती है। चीनै = पहचानता है। दुइ = दो। पग = पैर। धरणीधर = धरती का आसरा। तिथाई = वहीं ही, प्रभु चरणों में ही।8।

अर्थ: जिस लोगों के अंदर दया आधी रह गई (दया का गुण कम हो गया) जिनके हृदय में धरती का आसरा धर्म सिर्फ दो पैर टिकाता है (भाव, जिनके अंदर सुरी संपदा और असुरी संपदा एक समान हो गई) वह, मानो, द्वापर में बसते हैं। पर जो कोई विरला बँदा गुरु की शरण पड़ता है वह (जीवन के सही राह को) पहचानता है, वह उसी आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ सदा-स्थिर प्रभु उसके अंदर प्रत्यक्ष बसता है।8।

राजे धरमु करहि परथाए ॥ आसा बंधे दानु कराए ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई थाके करम कमाई हे ॥९॥

पद्अर्थ: परथाए = किसी गरज वास्ते। बंधे = बँधे हुए। मुकति = (आशा के बंधनो से) खलासी।9।

अर्थ: राजा गण किसी मतलब के लिए धर्म कमाते हैं, दुनियावी (लोग) आशाओं में बँधे हुए दान-पुण्य करते हैं (ये सब कुछ कमर-टूटी हुई दया के कारण ही करते हैं, ये लोक और परलोक के सुख ही तलाशते हैं)। (दान-पुण्य आदि के) कर्म कर के थक जाते हैं, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (दुनिया के सुखों की आशाओं से) उनको खलासी नहीं मिलती (इसलिए आत्मिक आनंद नहीं मिलता)।9।

करम धरम करि मुकति मंगाही ॥ मुकति पदारथु सबदि सलाही ॥ बिनु गुर सबदै मुकति न होई परपंचु करि भरमाई हे ॥१०॥

पद्अर्थ: मंगाही = माँगते हैं। सालाही = महिमा से। परपंच = जगत की खेल।10।

अर्थ: विधाता ने यह जगत-रचना करके जीवों को अजीब भुलेखे में डाला हुआ है कि (दान-पुण्य तीर्थ आदिक) कर्म कर के मुक्ति माँगते हैं। पर, मुक्ति देने वाला नाम पदार्थ गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु की महिमा करने से ही मिलता है। (ये पक्की बात है कि समय का नाम चाहे सतियुग रख लो चाहे त्रेता रख लो और चाहे द्वापर) गुरु के शब्द के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती।10।

माइआ ममता छोडी न जाई ॥ से छूटे सचु कार कमाई ॥ अहिनिसि भगति रते वीचारी ठाकुर सिउ बणि आई हे ॥११॥

पद्अर्थ: सचु कार = सदा स्थिर प्रभु का स्मरण रूप कार। अहि = दिन। निसि = रात।11।

अर्थ: (समय कोई भी हो) माया का अपनत्व त्यागा नहीं जा सकता। सिर्फ वही बंदे (इस ममता के पँजे में से) निजात पाते हैं जो सदा-स्थिर प्रभु के नाम-जपने की कार करते हैं, जो दिन-रात परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगे रहते हैं, जो उसके गुणों की विचार करते हैं और (इस तरह) जिनकी प्रीति मालिक-प्रभु के साथ बनी रहती है।11।

इकि जप तप करि करि तीरथ नावहि ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि ॥ हठि निग्रहि अपतीजु न भीजै बिनु हरि गुर किनि पति पाई हे ॥१२॥

पद्अर्थ: इकि = कई मनुष्य। हठि = हठ से (किए कर्मों द्वारा)। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने के प्रयत्न से। अपतीजु = ना पतीजने वाला मन।12।

अर्थ: हे प्रभु! अनेक लोग ऐसे हैं जो जप करते हैं तप तापते हैं तीर्थों पर जाते हैं (और इस तरह इस लोक में और परलोक में इज्जत हासिल करनी चाहते हैं)। (पर, हे प्रभु! उनके भी क्या वश?) जैसे तेरी रजा है तू उनको इस राह पर चला रहा है। (वे बिचारे नहीं समझते कि) जबरन इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करने से ये कभी ना पतीजने वाला मन तेरे नाम-रस में आनंदित नहीं हो सकता।

गुरु की शरण पड़े बिना किसी ने कभी प्रभु की हजूरी में इज्जत नहीं प्राप्त की (समय और युग का नाम चाहे कुछ भी हो)।12।

कली काल महि इक कल राखी ॥ बिनु गुर पूरे किनै न भाखी ॥ मनमुखि कूड़ु वरतै वरतारा बिनु सतिगुर भरमु न जाई हे ॥१३॥

पद्अर्थ: इक कल = धरम की एक ही शक्ति। राखी = रह जाता है। भाखी = बताई, समझाई। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले बँदे के अंदर। कूड़ु = झूठ, माया का मोह। कूड़ु वरतै वरतारा = माया का मोह अपना जोर डाले रखता है।13।

अर्थ: पूरे गुरु के बिना कभी किसी ने यह बात नहीं समझाई कि (अगर धरम-सत्ता के चार हिस्से कर दिए जाएं और अगर किसी मनुष्य के अंदर) धर्म की सिर्फ एक ही सत्ता रह जाए तो वह मनुष्य, मानो, कलियुग में बसता है, अपने मन के पीछे चलने वाले उस मनुष्य के अंदर माया का मोह ही अपना प्रभाव डाल के रखता है (उसके अंदर सदा माया की भटकना बनी रहती है) सतिगुरु की शरण पड़े बिना उसकी यह भटकना दूर नहीं होती।13।

सतिगुरु वेपरवाहु सिरंदा ॥ ना जम काणि न छंदा बंदा ॥ जो तिसु सेवे सो अबिनासी ना तिसु कालु संताई हे ॥१४॥

पद्अर्थ: सिरंदा = विधाता (का रूप)। काणि = अधीनता। छंदा बंदा = बँदों की अधीनता।14।

अर्थ: सतिगुरु विधाता का रूप है, गुरु दुनियाँ की नजरों में बहुत ऊँचा है, गुरु को जमका डर नहीं, गुरु को दुनिया के बँदों की अधीनता नहीं। जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा करता है वह नाश-रहित हो जाता है (उसको कभी आत्मिक मौत नहीं आती) मौत का डर उसको कभी नहीं सताता।14।

गुर महि आपु रखिआ करतारे ॥ गुरमुखि कोटि असंख उधारे ॥ सरब जीआ जगजीवनु दाता निरभउ मैलु न काई हे ॥१५॥

पद्अर्थ: आपु = अपना आप। करतारे = कर्तार ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले। उधारे = (परमात्मा) उद्धारता है।15।

अर्थ: कर्तार ने अपना आप गुरु में छुपा रखा है, वह जगत की जिंदगी का आसरा है वह सब जीवों को दातें देता है, उसको किसी का डर नहीं, उसको (माया-मोह आदि की) कोई मैल नहीं लग सकती। वह कर्तार गुरु के द्वारा करोड़ों और असंख जीवों को (संसार-समुंदर में डूबने से) बचा लेता है।15।

सगले जाचहि गुर भंडारी ॥ आपि निरंजनु अलख अपारी ॥ नानकु साचु कहै प्रभ जाचै मै दीजै साचु रजाई हे ॥१६॥४॥

पद्अर्थ: जाचहि = माँगते हैं। साचु = सदा स्थिर नाम। कहै = स्मरण करता है। रजाई = हे रज़ा के मालिक प्रभु! 16।

अर्थ: सारे जीव गुरु के खजाने में से (उस प्रभु का नाम) माँगते हैं जो स्वयं माया के प्रभाव से ऊपर है जो अलख है और बेअंत है।

हे रजा के मालिक प्रभु! नानक (भी गुरु के दर पर पड़ कर) तेरा सदा-स्थिर नाम स्मरण करता है और माँगता है कि मुझे अपने सदा-स्थिर रहने वाले नाम की दाति दे।16।4।

मारू महला १ ॥ साचै मेले सबदि मिलाए ॥ जा तिसु भाणा सहजि समाए ॥ त्रिभवण जोति धरी परमेसरि अवरु न दूजा भाई हे ॥१॥

पद्अर्थ: साचै = सदा स्थिर रहने वाले (प्रभु) ने। सबदि = शब्द में। तिसु = उस (प्रभु) को। भाणा = अच्छा लगा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। परमेसरि = परमेश्वर ने। भाई = हे भाई!।1।

अर्थ: परमेश्वर ने अपनी ज्योति तीनों भवनों में टिका के रखी है; हे भाई! कोई और उस प्रभु जैसा नहीं है। उस सदा-स्थिर प्रभु ने जिस लोगों को (अपने चरणों में) मिलाया जिन्हें गुरु के शब्द में जोड़ा तब जब उसे अच्छा लगा, वह लोग अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो गए।1।

जिस के चाकर तिस की सेवा ॥ सबदि पतीजै अलख अभेवा ॥ भगता का गुणकारी करता बखसि लए वडिआई हे ॥२॥

पद्अर्थ: जिस के = जिस (प्रभु) के। पतीजै = खुश होता है। अभेवा = जिसका भेद ना पाया जा सके। गुणकारी = आत्मिक गुण देने वाला।2।

अर्थ: जब (भक्तजन) गुरु के शब्द में जुड़ते हैं, जब उस प्रभु के सेवक बन के उसकी सेवा-भक्ति करते हैं, तब वह अलख और अभेव प्रभु (उनकी इस मेहनत पर) प्रसन्न होता है। कर्तार अपने भक्तों में आत्मिक गुण पैदा करता है, स्वयं उन पर बख्शिश करता है उनको महातम देता है।2।

देदे तोटि न आवै साचे ॥ लै लै मुकरि पउदे काचे ॥ मूलु न बूझहि साचि न रीझहि दूजै भरमि भुलाई हे ॥३॥

पद्अर्थ: दे = दे के। साचे = सदा स्थिर प्रभु के (भण्डारों में)। काचे = छोटे जीव, तुच्छ जीव। साचि = सदा स्थिर प्रभु (के नाम) में।3।

अर्थ: (जीवों को दातें) दे दे के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के (भण्डारों में) कमी नहीं आती (घाटा नहीं पड़ता), पर तुच्छ जीव दातें ले ले के (भी) मुकर जाते हैं, (अपने जीवन के) मूल-प्रभु (के खुल-दिले-स्वाभाव) को नहीं समझते, सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने की जीवों में रीझ पैदा नहीं होती, प्रभु के बिना और आसरों की झाक में भटक के गलत राह पर पड़े रहते हैं।3।

गुरमुखि जागि रहे दिन राती ॥ साचे की लिव गुरमति जाती ॥ मनमुख सोइ रहे से लूटे गुरमुखि साबतु भाई हे ॥४॥

पद्अर्थ: जागि रहे = माया के मोह से सचेत रहते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे। साबतु = बची हुई पूंजी वाले।4।

अर्थ: जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं वे हर वक्त माया के मोह से सचेत रहते हैं, गुरु की शिक्षा ले के वे सदा-स्थिर प्रभु की लगन (का आनंद) पहचान लेते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे अपने आत्मिक जीवन की पूंजी को (माया के हमलों से) बचा के रखते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया के मोह में गाफिल टिके रहते हैं, और आत्मिक गुणों की संपत्ति लुटा बैठते हैं।4।

कूड़े आवै कूड़े जावै ॥ कूड़े राती कूड़ु कमावै ॥ सबदि मिले से दरगह पैधे गुरमुखि सुरति समाई हे ॥५॥

पद्अर्थ: कूड़े = झूठ ही, माया के मोह में ही। आवै = पैदा होता है। राती = रति हुई (जीव-स्त्री)। से = वह लोग। पैधे = सरोपा हासल करते हैं, सम्मान पाते हैं।5।

अर्थ: जो जीव-स्त्री माया के मोह के रंग में रंगी रहती है, वह माया के मोह में ग्रसी ही पैदा होती है, यहाँ (संसार में) हमेशा माया के मोह का ही व्यापार करती है, माया के मोह में फसी हुई ही दुनिया से चली जाती है। जो लोग गुरु के शब्द में जुड़े रहते हैं उन्हें परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। गुरु की शरण पड़ने वाले लोगों की तवज्जो (प्रभु की याद में) टिकी रहती है।5।

कूड़ि मुठी ठगी ठगवाड़ी ॥ जिउ वाड़ी ओजाड़ि उजाड़ी ॥ नाम बिना किछु सादि न लागै हरि बिसरिऐ दुखु पाई हे ॥६॥

पद्अर्थ: कूड़ि = माया के मोह में। ठगी ठग = ठगों ने ठग ली। वाड़ी = बगीची। ओजाड़ी = उजाड़ में, जिसको कोई वाली वारिस नहीं है, बिना पति की, निखसमी। सादि = स्वाद वाला, स्वादिष्ट। हरि बिसरिऐ = हरि को बिसारने से।6।

अर्थ: जो जीव-स्त्री माया की तृष्णा में मोही रहती है उसके आत्मिक जीवन की बगीची को कामादिक ठग, ठग लेते हैं, जैसे कोई फुलवाड़ी कहीं उजाड़ में (बिना किसी वाली वारिस रखवाले की होने के कारण) उजड़ जाती है। (भले वह माया के मोह में फसी रहती है फिर भी) परमात्मा के नाम के बिना कोई भी चीज स्वादिष्ट नहीं लग सकती (कोई भी आकर्षण अच्छा नहीं लग सकता), प्रभु का नाम भूलने के कारण वह सदा दुख ही पाती है।6।

भोजनु साचु मिलै आघाई ॥ नाम रतनु साची वडिआई ॥ चीनै आपु पछाणै सोई जोती जोति मिलाई हे ॥७॥

पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। आघाई = तृप्त हो जाता है। साची = सदा अटल रहने वाली। आपु = अपने आप को।7।

अर्थ: जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु का नाम (आत्मिक जिंदगी के लिए) भोजन मिलता है, वह (तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है, जिसको परमात्मा का नाम-रत्न मिल जाता है, उसको (लोक-परलोक में) सदा-स्थिर रहने वाली इज्जत मिलती है। जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, वही (अपने जीवन के लक्ष्य को) पहचानता है, उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh