श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नावहु भुली चोटा खाए ॥ बहुतु सिआणप भरमु न जाए ॥ पचि पचि मुए अचेत न चेतहि अजगरि भारि लदाई हे ॥८॥

पद्अर्थ: नावहु = नाम से। भरमु = भटकना। पचि = दुखी हो के। अचेत = गाफिल। अजगरि भारि = बहुत ही ज्यादा भार तले।8।

अर्थ: जो जीव-स्त्री परमात्मा के नाम से टूटी रहती है वह दुख सहती है (दुनिया के कामों में चाहे वह) बहुत समझदारी (दिखाए), उसकी (माया की) भटकना दूर नहीं होती। जो लोग परमात्मा की याद से बेखबर रहते हैं परमात्मा को याद नहीं करते, (वे माया के मोह में) दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, वे (मोह के) बहुत ही भारे बोझ तले लदे रहते हैं।8।

बिनु बाद बिरोधहि कोई नाही ॥ मै देखालिहु तिसु सालाही ॥ मनु तनु अरपि मिलै जगजीवनु हरि सिउ बणत बणाई हे ॥९॥

पद्अर्थ: बाद = झगड़े। मै = मुझे। सालाही = मैं उसकी कीर्ति करूँ। अरपि = भेटा करके। जग जीवन = जगत का जीवन, परमात्मा। बणत = संबंध।9।

अर्थ: (माया के मोह में फसे हुओं का जिधर-किधर भी हाल देखो) झगड़ों से विरोध से कोई भी खाली नहीं है (और अगर तुम्हें यकीन नहीं आता तो) मुझे कोई ऐसा दिखाओ, मैं उसका आदर करता हूँ। अपना मन और शरीर भेटा करने से ही (भाव, अपने मन की अगुवाई और ज्ञान-इंद्रिय की भटकना को छोड़ के ही) जगत का जीवन परमात्मा मिलता है, तब ही उसके साथ सांझ बनती है।9।

प्रभ की गति मिति कोइ न पावै ॥ जे को वडा कहाइ वडाई खावै ॥ साचे साहिब तोटि न दाती सगली तिनहि उपाई हे ॥१०॥

पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। मिति = माप, गिनती। को = कोई व्यक्ति। वडाई = मान, अहंकार। खावै = (उसके आत्मिक जीवन को) खा जाता है। दाती = दातों में। तोटि = कमी, घाटा। तिनहि = तिनि ही, उस (परमात्मा) ने ही।10।

अर्थ: कोई आदमी नहीं जान सकता कि परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है। अगर कोई मनुष्य अपने आप को बड़ा कहलवा के (ये घमण्ड करे कि मैं प्रभु की गति-मिति पा सकता हूँ तो यह) घमण्ड उसके आत्मिक जीवन को तबाह कर देता है। सारी सृष्टि सदा-स्थिर रहने वाले मालिक ने पैदा की है (सबको दातें देता है, पर उसकी) दातों में कमी नहीं होती।10।

वडी वडिआई वेपरवाहे ॥ आपि उपाए दानु समाहे ॥ आपि दइआलु दूरि नही दाता मिलिआ सहजि रजाई हे ॥११॥

पद्अर्थ: वेपरवाह = बेपरवाह प्रभु की। समाहे = संबाहे, पहुँचाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रजाई = रजा का मालिक।11।

अर्थ: (परमात्मा की यह एक) बड़ी भारी खूबी है कि (इतने बड़े जगत-परिवार का मालिक-पति हो के भी) बे-परवाह है (प्रबंध करने में घबराता नहीं), स्वयं ही पैदा करता है और स्वयं ही सबको रिजक पहुँचाता है। सब दातों का मालिक प्रभु दया का श्रोत है, किसी भी जीव से दूर नहीं है, वह रजा का मालिक जिस जीव को मिल जाता है वह (भी) आत्मिक अडोलता में टिक जाता है।11।

इकि सोगी इकि रोगि विआपे ॥ जो किछु करे सु आपे आपे ॥ भगति भाउ गुर की मति पूरी अनहदि सबदि लखाई हे ॥१२॥

पद्अर्थ: इकि = अनेक जीव। सोगी = शोक में ग्रसे हुए। विआपे = दबाए हुए। भाउ = प्रेम। अनहदि = अमर प्रभु में। सबदि = गुरु के शब्द से।12।

अर्थ: (सृष्टि के) अनेक जीव सोग में ग्रसे रहते हैं, अनेक जीव रोग तले दबाए रहते हैं, जो कुछ करता है प्रभु स्वयं ही करता है। जो मनुष्य गुरु की पूरी मति के द्वारा परमात्मा की भक्ति करता है परमात्मा के साथ प्रेम गाठता है, वह उस अमर प्रभु में लीन रहता है, गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु उसको अपने आप की समझ दे देता है (और उसको कोई सोग कोई रोग नहीं व्यापता)।12।

इकि नागे भूखे भवहि भवाए ॥ इकि हठु करि मरहि न कीमति पाए ॥ गति अविगत की सार न जाणै बूझै सबदु कमाई हे ॥१३॥

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अविगति = गिरती हुई (निम्न) आत्मिक अवस्था। सार = कद्र। कमाई = कमा के।13।

अर्थ: अनेक लोग (जगत त्याग के) नंगे रहते हैं, भूख काटते हैं (त्याग के भुलेखे के) भटकाए हुए (जगह-जगह) भटकते फिरते हैं। अनेक लोग (किसी निहित आत्मिक उन्नति की प्राप्ति की खातिर) अपने शरीर पर जोर-जबरदस्ती कर-कर के मरते हैं। पर ऐसा कोई मनुष्य (मनुष्य जीवन की) कद्र नहीं समझता, ऐसे किसी व्यक्ति को अच्छे-बुरे आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। वही व्यक्ति समझता है जो गुरु का शब्द कमाता है (जो गुरु के शब्द अनुसार अपना जीवन ढालता है)।13।

इकि तीरथि नावहि अंनु न खावहि ॥ इकि अगनि जलावहि देह खपावहि ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई कितु बिधि पारि लंघाई हे ॥१४॥

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। देह = शरीर। खपावहि = मुश्किल करते हैं। कितु बिधि = किस तरीके से?।14।

अर्थ: अनेक लोग (जगत त्याग के) तीर्थ (तीर्थों) पर स्नान करते हैं, और अन्न नहीं खाते (दूधाधारी बनते हैं)। अनेक लोग (त्यागी बन के) आग जलाते हैं (धूणियाँ तपाते हैं और) अपने शरीर को (तपों का) कष्ट देते हैं पर परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (माया के बंधनो से) खलासी नहीं मिलती। स्मरण के बिना और किसी तरीके से कोई मनुष्य संसार-समुंदर से पार नहीं लांघ सकता।14।

गुरमति छोडहि उझड़ि जाई ॥ मनमुखि रामु न जपै अवाई ॥ पचि पचि बूडहि कूड़ु कमावहि कूड़ि कालु बैराई हे ॥१५॥

पद्अर्थ: उझड़ि = गलत मार्ग पर। अवाई = अवैड़ा। जाई = जा के, जाए। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति। बूडहि = डूबता है। कूड़ि = माया के मोह में (फंसने के कारण)। बैराई = वैरी।15।

अर्थ: (कई व्यक्ति ऐसे हैं जो) कुर्मागी हो कर गुरु की मति पर चलना छोड़ देते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला अवैड़ा मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपता। परमात्मा के नाम से टूटे हुए बंदे (निरा) माया का ही धंधा करते रहते हैं, ऐसे व्यक्ति दुखी हो-हो के (माया के मोह के समुंदर में ही) गोते खाते रहते हैं (माया के मोह के) झूठे धंधों में (फसे रहने के कारण) आत्मिक मौत उनकी वैरनि बन जाती है।15।

हुकमे आवै हुकमे जावै ॥ बूझै हुकमु सो साचि समावै ॥ नानक साचु मिलै मनि भावै गुरमुखि कार कमाई हे ॥१६॥५॥

पद्अर्थ: आवै = पैदा होता है। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। साचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है।16।5।

अर्थ: हरेक जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार ही (जगत में) आता है, उसके हुक्म अनुसार (यहाँ से) चला जाता है। जो जीव उसकी रजा को समझ लेता है वह उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (स्मरण की) कार करता है उसको सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है, उसके मन को प्रभु प्यारा लगने लग जाता है।16।5।

मारू महला १ ॥ आपे करता पुरखु बिधाता ॥ जिनि आपे आपि उपाइ पछाता ॥ आपे सतिगुरु आपे सेवकु आपे स्रिसटि उपाई हे ॥१॥

पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = पैदा करने वाला, विधाता। जिनि = जिस (कर्तार) ने। उपाइ = पैदा करके। पछाता = संभाल की है, संभाल का फर्ज पहचान रहा है।1।

अर्थ: कर्तार स्वयं ही सृष्टि को पैदा करने वाला है और स्वयं ही इसमें व्यापक है। उस कर्तार ने स्वयं ही जगत पैदा करके इसकी संभाल का फर्ज भी पहचाना है। प्रभु खुद ही सतिगुरु है खुद ही सेवक है, प्रभु ने स्वयं ही ये सृष्टि रची है।1।

आपे नेड़ै नाही दूरे ॥ बूझहि गुरमुखि से जन पूरे ॥ तिन की संगति अहिनिसि लाहा गुर संगति एह वडाई हे ॥२॥

पद्अर्थ: पूरे = सारे गुणों के मालिक। अहि = दिन। निसि = रात। लाहा = लाभ।2।

अर्थ: (सर्व-व्यापक होने के कारण प्रभु) स्वयं ही (हरेक जीव के) नजदीक है किसी से भी दूर नहीं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के यह भेद समझ लेते हैं वे अचूक आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। गुरु की संगति करने के कारण उन्हें ये महत्वता मिलती है कि उनकी संगत से भी दिन-रात लाभ ही लाभ मिलता है।2।

जुगि जुगि संत भले प्रभ तेरे ॥ हरि गुण गावहि रसन रसेरे ॥ उसतति करहि परहरि दुखु दालदु जिन नाही चिंत पराई हे ॥३॥

पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। प्रभू = हे प्रभु! रसन = जीभ। रसेरे = रस आनंद से। परहरि = दूर कर के। चिंत = आशा।3।

अर्थ: हे प्रभु! हरेक युग में तेरे संत नेक बँदे होते हैं, वे जीभ से रस ले के तेरे गुण गाते हैं। तेरे बिना उन्हें किसी और की आस नहीं होती, हे प्रभु! वह तेरी महिमा करते हैं (अपने अंदर से) दुख-दरिद्रता दूर कर लेते हैं।3।

ओइ जागत रहहि न सूते दीसहि ॥ संगति कुल तारे साचु परीसहि ॥ कलिमल मैलु नाही ते निरमल ओइ रहहि भगति लिव लाई हे ॥४॥

पद्अर्थ: ओइ = वे। परीसहि = बाँटते हैं। कलिमल = पाप।4।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: वह (संत जन माया के हमलों से सदा) सचेत रहते हैं, वह गफ़लत की नींद में कभी भी सोते नहीं दिखते। उनकी संगति अनेक कुल तार देती है क्योंकि वह सबको सदा-स्थिर प्रभु का नाम बाँटते हैं। (उनके अंदर) पापों की मैल (रक्ती भर भी) नहीं होती, वह पवित्र जीवन वाले होते हैं, वह प्रभु की भक्ति में व्यस्त रहते हैं, प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़े रखते हैं।4।

बूझहु हरि जन सतिगुर बाणी ॥ एहु जोबनु सासु है देह पुराणी ॥ आजु कालि मरि जाईऐ प्राणी हरि जपु जपि रिदै धिआई हे ॥५॥

पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि के जनो! सासु = श्वास। पुराणी = पुराने हो जाने वाले!।5।

अर्थ: हे प्राणियो! हरि-जनों की संगति में रह के सतिगुरु की वाणी में जुड़ के (ये पक्की बात) समझ लो कि ये जवानी ये सांस ये शरीर सब पुराने हो जाने वाले हैं। हे प्राणी! (जो भी पैदा हुआ है उसने) थोड़े ही समय में मौत के वश आ जाना है, (इस वास्ते) परमात्मा का नाम जपो और हृदय में उसका ध्यान धरो।5।

छोडहु प्राणी कूड़ कबाड़ा ॥ कूड़ु मारे कालु उछाहाड़ा ॥ साकत कूड़ि पचहि मनि हउमै दुहु मारगि पचै पचाई हे ॥६॥

पद्अर्थ: कूड़ कबाड़ा = कूड़ का कबाड़ा, माया के मोह की बातें। उछाहाड़ा = उछल के, उत्साह से। पचहि = दुखी होते हैं। दुहु मारगि = द्वैत के मार्ग पर, अन्य आसरों की झाक के रास्ते में।6।

अर्थ: हे प्राणी! निरी माया के मोह की बातें छोड़ो। जिस मनुष्य के अंदर निरा माया का मोह ही है उसको आत्मिक मौत पहुँच-पहुँच के मारती है। माया-ग्रसित जीव माया के मोह में दुखी होते हैं। जिस मनुष्य के मन में अहंकार है वह मेर-तेर के रास्ते पर पड़ कर दुखी होता है, अहंकार उसको ख्वार करता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh