श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1026 छोडिहु निंदा ताति पराई ॥ पड़ि पड़ि दझहि साति न आई ॥ मिलि सतसंगति नामु सलाहहु आतम रामु सखाई हे ॥७॥ पद्अर्थ: ताति = ईष्या। पड़ि पड़ि = पड़ पड़ कर। दझहि = जलते हैं। आतम रामु = परमात्मा।7। अर्थ: (हे भाई!) पराई ईष्या और पराई निंदा छोड़ दो। (जो निंदा और ईष्या करते हैं वे निंदा और ईष्या की जलन में) पड़-पड़ कर जलते हैं (उनको अपने आप को भी) आत्मिक शांति नहीं मिलती। (हे भाई!) सत-संगति में मिल के प्रभु के नाम की महिमा करो (जो लोग महिमा करते हैं) परमात्मा उनका (सदा का) साथी बन जाता है।7। छोडहु काम क्रोधु बुरिआई ॥ हउमै धंधु छोडहु ल्मपटाई ॥ सतिगुर सरणि परहु ता उबरहु इउ तरीऐ भवजलु भाई हे ॥८॥ पद्अर्थ: लंपटाई = लंपट होना, खचित होना। ता = तब ही।8। अर्थ: हे भाई! काम-क्रोध आदि मंद-कर्म त्यागो, अहंकार की उलझन छोड़ो, (विकारों में) खचित होने से बचो। (पर इन विकारों से) तब ही बच सकोगे अगर सतिगुरु का आसरा लोगे। इसी तरह ही (भाव, गुरु की शरण पड़ कर ही) संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है।8। आगै बिमल नदी अगनि बिखु झेला ॥ तिथै अवरु न कोई जीउ इकेला ॥ भड़ भड़ अगनि सागरु दे लहरी पड़ि दझहि मनमुख ताई हे ॥९॥ पद्अर्थ: आगै = विकारों वाले रास्ते में। बिमल अगनि नदी = केवल आग की नदी। बिखु = जहर। झेला = लाटें। पड़ि = पड़ के। पाई = वहाँ।9। अर्थ: निंदा तात पराई कोम क्रोध बुराई वाले जीवन में पड़ कर केवल आग की नदी में से गुजरने वाला जीवन-राह बन जाता है वहाँ वह लाटें निकलती हैं जो आत्मिक जीवन को मार-मुकाती हैं। उस आत्मिक बिपता में कोई और साथी नहीं बनता, अकेली अपनी जीवात्मा ही दुख सहती है। (निंदा-ईष्या-काम-क्रोध आदि की) आग का समुंदर इतने शोले भड़काता है इतनी लाटें छोड़ता हैं कि अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे उस में पड़ कर जलते हैं (आत्मिक जीवन तबाह कर लेते हैं और दुखी होते हैं)।9। गुर पहि मुकति दानु दे भाणै ॥ जिनि पाइआ सोई बिधि जाणै ॥ जिन पाइआ तिन पूछहु भाई सुखु सतिगुर सेव कमाई हे ॥१०॥ पद्अर्थ: पहि = पास। भाणै = रजा में।10। अर्थ: (इस आग के समुंदर से) मुक्ति (का उपाय) गुरु के पास ही है, गुरु अपनी रजा में (परमात्मा के नाम की) ख़ैर डालता है, जिसने यह ख़ैर प्राप्त की वह (वह इस समुंदर में से बच निकलने का) भेद समझ लेता है। जिन्हें गुरु से नाम-दान मिलता है, हे भाई! उनसे पूछ के देख लो (वे बताते हैं कि) सतिगुरु की बताई हुई सेवा करने से आत्मिक आनंद मिलता है।10। गुर बिनु उरझि मरहि बेकारा ॥ जमु सिरि मारे करे खुआरा ॥ बाधे मुकति नाही नर निंदक डूबहि निंद पराई हे ॥११॥ पद्अर्थ: उरझि बेकारा = विकारों में फस के।11। अर्थ: गुरु की शरण पड़े बिना जीव विकारों में फंस के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, (आत्मिक) मौत (उनके) सिर पर (बार-बार) चोट मारती है और (उनको) दुखी करती (रहती है)। (निंदा के फंदे में) बँधे हुए निंदक लोगों को (निंदा की वादी में से) मुक्ति नसीब नहीं होती, पराई निंदा (के समुंदर में) सदा गोते खाते रहते हैं।11। बोलहु साचु पछाणहु अंदरि ॥ दूरि नाही देखहु करि नंदरि ॥ बिघनु नाही गुरमुखि तरु तारी इउ भवजलु पारि लंघाई हे ॥१२॥ पद्अर्थ: नंदरि = नजर, निगाह।12। अर्थ: (हे भाई!) सदा-स्थिर प्रभु का नाम जपो, उसको अपने अंदर बसता प्रतीत करो। ध्यान लगा के देखो, वह तुमसे दूर नहीं है। गुरु की शरण पड़ कर (नाम जपो, नाम स्मरण की) तैराकी तैरो (जीवन-यात्रा में कोई) रुकावट नहीं आएगी। गुरु इस तरह (भाव, नाम जपा के) संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।12। देही अंदरि नामु निवासी ॥ आपे करता है अबिनासी ॥ ना जीउ मरै न मारिआ जाई करि देखै सबदि रजाई हे ॥१३॥ पद्अर्थ: ना मरै = आत्मिक मौत नहीं मरता।13। अर्थ: परमात्मा का नाम हरेक जीव के शरीर के अंदर निवास रखता है, अविनाशी कर्तार स्वयं ही (हरेक के अंदर) मौजूद है। (जीव उस परमात्मा की ही अंश है, इस वास्ते) जीवात्मा ना मरती है, ना ही इसको कोई मार सकता है। रजा का मालिक कर्तार (जीव) पैदा करके अपने हुक्म में (सबकी) संभाल करता है।13। ओहु निरमलु है नाही अंधिआरा ॥ ओहु आपे तखति बहै सचिआरा ॥ साकत कूड़े बंधि भवाईअहि मरि जनमहि आई जाई हे ॥१४॥ पद्अर्थ: ओहु = परमात्मा।14। अर्थ: वह परमात्मा शुद्ध-स्वरूप है, उसमें (माया के मोह आदि का) रक्ती भर भी अंधेरा नहीं है। वह सत्य-स्वरूप प्रभु स्वयं ही (हरेक के) हृदय तख़्त पर बैठा हुआ है। पर माया-गसित जीव माया के मोह में बँध के भटकना में पड़े हुए हैं, मरते हैं पैदा होते हैं, उनका ये आवागवन का चक्र बना रहता है।14। गुर के सेवक सतिगुर पिआरे ॥ ओइ बैसहि तखति सु सबदु वीचारे ॥ ततु लहहि अंतरगति जाणहि सतसंगति साचु वडाई हे ॥१५॥ पद्अर्थ: अंतरगति = अपने अंदर ही।15। अर्थ: गुरु से प्यार करने वाले गुरु के सेवक (माया-मोह से निर्लिप रह के) हृदय-तख़्त पर बैठे रहते हैं, गुरु के शब्द को अपनी सोच के मण्डल में टिकाते हैं, वे जगत के मूल प्रभु को पा लेते हैं, अपने अंदर बसता पहचान लेते हैं, साधु-संगत में टिक के सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करते हैं, और आदर पाते हैं।15। आपि तरै जनु पितरा तारे ॥ संगति मुकति सु पारि उतारे ॥ नानकु तिस का लाला गोला जिनि गुरमुखि हरि लिव लाई हे ॥१६॥६॥ पद्अर्थ: जन = सेवक। गोला = गुलाम।16। अर्थ: (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है) वह स्वयं संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, अपने पित्रों को (पिता-दादा आदि बुजुर्गों को) भी पार लंघा लेता है। उसकी संगति में आने वालों को भी माया के बंधनो से स्वतंत्रता मिल जाती है, वह सेवक उनको पार लंघा देता है। जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ी है नानक (भी) उस (भाग्यशाली) का सेवक है गुलाम है।16।6। मारू महला १ ॥ केते जुग वरते गुबारै ॥ ताड़ी लाई अपर अपारै ॥ धुंधूकारि निरालमु बैठा ना तदि धंधु पसारा हे ॥१॥ पद्अर्थ: केते = अनेक ही। वरते = गुजर गए। गुबारे = घोर अंधेरे में। ताड़ी लाई = अपने आप में टिका रहा। अपारै = अपार प्रभु ने। अपर = जिससे परे और कोई नहीं। धुंधूकारि = घुप अंधेरे में। निरालमु = निर्लिप। तदि = तब। धंधु = माया वाली दौड़ भाग।1। अर्थ: अनेक ही युग घोर अंधकार में गुजर गए, (भाव, सृष्टि-रचना से पहले बेअंत समय ऐसी हालत थी जिसके बाबत कुछ भी समझ नहीं आ सकती), तब अपर-अपार परमात्मा ने (अपने आप में) समाधि लगाई हुई थी। उस घुप अंधेरे में प्रभु स्वयं निर्लिप बैठा हुआ था, तब ना जगत का पसारा था और ना ही माया वाली दौड़-भाग थी।1। जुग छतीह तिनै वरताए ॥ जिउ तिसु भाणा तिवै चलाए ॥ तिसहि सरीकु न दीसै कोई आपे अपर अपारा हे ॥२॥ पद्अर्थ: तिनै = जिस ही, उस परमात्मा ने ही। तिसहि = तिसु ही, उस प्रभु का ही।2। अर्थ: (घोर अंधकार के) छक्तिस युग उस परमात्मा ने ही बरताए रखे, जैसे उसे अच्छा लगा उसी तरह (उस घुप अंधेरे वाली कार ही) चलाता रहा। वह परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, उससे परे और कोई हस्ती नहीं, उसका परला छोर नहीं पाया जा सकता, कोई भी उसके बराबर का नहीं दिखता।2। गुपते बूझहु जुग चतुआरे ॥ घटि घटि वरतै उदर मझारे ॥ जुगु जुगु एका एकी वरतै कोई बूझै गुर वीचारा हे ॥३॥ पद्अर्थ: जुग चतुआरे = चार जुगों में। उदर मझारे = पेट में, हरेक के हृदय में। एका एकी = अकेला स्वयं ही। कोई = कोई विरला।3। अर्थ: (अब जब उसने जगत-रचना रच ली है, तो भी, हे भाई! उसी को) चारों जुगों (जगत के अंदर) गुप्त व्यापक जानो। वह हरेक शरीर के अंदर हरेक के हृदय में मौजूद है। वह अकेला स्वयं ही हरेक युग में (सारी सृष्टि के अंदर) रम रहा है; इस भेद को कोई वह विरला व्यक्ति समझता है जो गुरु (की वाणी) की विचार करता है।3। बिंदु रकतु मिलि पिंडु सरीआ ॥ पउणु पाणी अगनी मिलि जीआ ॥ आपे चोज करे रंग महली होर माइआ मोह पसारा हे ॥४॥ पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य की बूँद। रकतु = रक्त, लहू। पिंडु = शरीर। सरीआ = पैदा हुआ। महली = शरीरों का मालि प्रभु।4। अर्थ: (उस परमात्मा के हुक्म में ही) पिता के वीर्य की बूँद और माता के पेट के लहू ने मिल के (मनुष्य का) शरीर बना दिया। हवा-पानी-आग (आदि तत्वों ने मिल के) जीव रच दिए। हरेक शरीर में बैठा परमात्मा स्वयं ही सब चोज-तमाशे कर रहा है, उसने स्वयं ही माया के मोह का खिलारा पसारा हुआ है।4। गरभ कुंडल महि उरध धिआनी ॥ आपे जाणै अंतरजामी ॥ सासि सासि सचु नामु समाले अंतरि उदर मझारा हे ॥५॥ पद्अर्थ: उरध = उल्टा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाले = संभालता है, याद करता है।5। अर्थ: (उस प्रभु के हुक्म अनुसार ही) जीव माँ के पेट में अल्टा (लटक के) प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है, प्रभु अंतरजामी स्वयं ही (जीव के दिल की) जानता है। जीव माँ के पेट के अंदर हर सांस में सदा-स्थिर परमात्मा का नाम चेते करता रहता है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |