श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चारि पदारथ लै जगि आइआ ॥ सिव सकती घरि वासा पाइआ ॥ एकु विसारे ता पिड़ हारे अंधुलै नामु विसारा हे ॥६॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सिव सकती घरि = शिव की शक्ति के घर में, प्रभु की रची माया के घर में। एकु = एक परमात्मा को। अंधुलै = अंधे जीव ने।6।

अर्थ: (परमात्मा से) चार पदार्थ ले कर जीव जगत में आया है, (पर यहाँ आ के) प्रभु की रची हुई माया के घर में ठिकाना बना बैठा है (भाव, माया के मोह में फंस जाता है, माया के मोह में) अंधे हुए जीव ने प्रभु का नाम भुला दिया है। जो जीव नाम भुलाता है वह मानव जनम की बाजी हार जाता है।6।

बालकु मरै बालक की लीला ॥ कहि कहि रोवहि बालु रंगीला ॥ जिस का सा सो तिन ही लीआ भूला रोवणहारा हे ॥७॥

पद्अर्थ: लीला = खेल। कहि कहि = कह कह के। तिन ही = तिनि ही, उस (प्रभु) ने ही।7।

अर्थ: (देखो माया के मोह का प्रभाव! जब किसी के घर में कोई) बालक मरता है, तो (माता-पिता-बहिन-भाई आदि संबंधी जन) उस बालक की प्यार-भरी खेलें याद करते हैं, और यह कह: कह के रोते हैं कि बालक बहुत ही हस-मुख था। जिस प्रभु का भेजा हुआ वह बालक था उसने वह वापस ले लिया (उसको याद कर-कर के) रोने वाला (माया के मोह में फंस के जीवन-राह से) टूट जाता है।7।

भरि जोबनि मरि जाहि कि कीजै ॥ मेरा मेरा करि रोवीजै ॥ माइआ कारणि रोइ विगूचहि ध्रिगु जीवणु संसारा हे ॥८॥

पद्अर्थ: कि कीझे = क्या कर सकता है? रोइ = रो रो के। विगूचहि = दुखी होते हैं।8।

अर्थ: जब कोई भर जवानी में मर जाते हैं तो भी क्या किया जा सकता है? ये कह: कह के रोया जाता ही है कि वह मेरा (प्यारा) था। (जो रोते भी हैं वह भी अपनी कमियां याद कर कर के) माया की खातिर रो-रो के दुखी होते हैं। जगत में ऐसा जीवन धिक्कारयोग्य हो जाता है।8।

काली हू फुनि धउले आए ॥ विणु नावै गथु गइआ गवाए ॥ दुरमति अंधुला बिनसि बिनासै मूठे रोइ पूकारा हे ॥९॥

पद्अर्थ: हू = से। फुनि = दोबारा। गथु = पूंजी (गत्थ = प्र:)। बिनसि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। मूठे = ठगे जा के।9।

अर्थ: (जवानी गुजर जाती है) काले केसों से फिर धौले आ जाते हैं (इस उम्र तक भी) प्रभु के नाम से टूटा रह के मनुष्य अपने आत्मिक जीवन की संपत्ति गवाए जाता है। बुरी मति के पीछे लग के माया के मोह में अंधा हुआ जीव आत्मिक मौत सहेड़ के आत्मिक मौत मरता रहता है। माया का ठगा हुआ माया की खातिर ही रो-रो के पुकारता है (उस उम्र तक भी माया के रोने रोता रहता है)।9।

आपु वीचारि न रोवै कोई ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होई ॥ बिनु गुर बजर कपाट न खूलहि सबदि मिलै निसतारा हे ॥१०॥

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। बजर = बज्र, करड़े। कपाट = किवाड़, भिक्त।10।

अर्थ: जो कोई मनुष्य अपने आप को विचारता है (अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है) वह पछताता नहीं है। पर यह समझ किसी को तब ही होती है जब उसको गुरु मिल जाए। (माया के मोह के कारण मनुष्य की अक्ल पर पर्दा पड़ा रहता है; अक्ल मानो, करड़े किवाड़ों में बंद रहती है) गुरु के बिना (वे) करड़े किवाड़ नहीं खुलते। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है वह (इस कैद में से) मुक्ति हासिल कर लेता है।10।

बिरधि भइआ तनु छीजै देही ॥ रामु न जपई अंति सनेही ॥ नामु विसारि चलै मुहि कालै दरगह झूठु खुआरा हे ॥११॥

पद्अर्थ: छीजै = कमजोर हो जाता है। देही = शरीर। जपई = जपै, जपता है। अंति = आखिर में। सनेही = प्यार करने वाला, मित्र। मुहि कालै = काले मुँह से।11।

अर्थ: मनुष्य बुढा हो जाता है, (उसका) शरीर भी कमजोर हो जाता है (पर माया का मोह इतना प्रबल है कि अभी भी) परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता जो (सब साक-संबंधियों के साथ छोड़ जाने पर भी) अंत को प्यारा साथी बनता है। परमात्मा का नाम भुला के मनुष्य बदनामी का टीका माथे पर लगा के यहाँ से चल पड़ता है, पल्ले झूठ ही है (पल्ले माया का मोह ही है, इस वास्ते) प्रभु की हजूरी में ख़्वार ही होता है।11।

नामु विसारि चलै कूड़िआरो ॥ आवत जात पड़ै सिरि छारो ॥ साहुरड़ै घरि वासु न पाए पेईअड़ै सिरि मारा हे ॥१२॥

पद्अर्थ: कूड़िआरे = झूठ का बनजारा। पड़ै = पड़ता है। छारो = राख। घरि = घर में। सिरि = सिर पर।12।

अर्थ: (सारी उम्र) झूठ का व्यापार करने वाला व्यक्ति परमात्मा का नाम भुला के (यहाँ से आत्मिक गुणों से खाली हाथ) चल पड़ता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए के सिर पर राख ही पड़ती है (धिक्कारें पड़ती हैं)। (यहाँ से गए को) परमात्मा के दर पर कोई जगह नहीं मिलती, (जब तक) जगत में (रहा, यहाँ) भी सिर पर चोटें ही खाता रहा।12।

खाजै पैझै रली करीजै ॥ बिनु अभ भगती बादि मरीजै ॥ सर अपसर की सार न जाणै जमु मारे किआ चारा हे ॥१३॥

पद्अर्थ: खाजै = खाते हैं। पैझै = पहनते हैं। रली = रंग रलियाँ। अभ = अंदरूनी (अभ्यंतर)। बादि = व्यर्थ। सर अपसर = अच्छा बुरा समय। सार = समझ, परख। चारा = जोर, पेश।13।

अर्थ: (अच्छा) खाते हैं, (अच्छा) पहनते हैं, (दुनिया की) मौज मनाते हैं (इन ही व्यस्तताओं में) हृदय परमात्मा की भक्ति से सूना रहने के कारण व्यर्थ ही आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। जो व्यक्ति (इस तरह अंधा हो के) अच्छे-बुरे समय की सूझ नहीं जानता, उसको जम दुखी करता है, और उसकी कोई पेश नहीं चलती।13।

परविरती नरविरति पछाणै ॥ गुर कै संगि सबदि घरु जाणै ॥ किस ही मंदा आखि न चलै सचि खरा सचिआरा हे ॥१४॥

पद्अर्थ: परविरती = (प्रवृक्ति) दुनिया वाली व्यस्तता। नरविरती = (निवृक्ति) उपरामता। घरु = वह ठिकाना जहाँ मन शांत रह सकता है।14।

अर्थ: जो मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ दुनिया से उपराम रहना जानता है, जो गुरु की संगति में रह के गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ मिलाप-अवस्था वाली सांझ डाले रखता है, जीवन-यात्रा में किसी को बुरा नहीं कहता, सदा-स्थिर-प्रभु में टिका रहता है वह सच का व्यापारी व्यक्ति (प्रभु की हजूरी में) खरा (सिक्का माना जाता) है।14।

साच बिना दरि सिझै न कोई ॥ साच सबदि पैझै पति होई ॥ आपे बखसि लए तिसु भावै हउमै गरबु निवारा हे ॥१५॥

पद्अर्थ: सिझै = कामयाब होता। पैझै = सिरोपा मिला। पति = इज्जत। तिसु = उस प्रभु को।15।

अर्थ: सदा-स्थिर-प्रभु के नाम के बिना कोई मनुष्य (प्रभु के) दर पे (जिंदगी की पड़ताल में) कामयाब नहीं होता। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में जुड़ने से सिरोपा मिलता है सम्मान मिलता है। (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस पर प्रभु स्वयं बख्शिश करता है, वह उसको प्यारा लगने लग जाता है और वह अहम्-अहंकार (अपने अंदर से) दूर करता है।15।

गुर किरपा ते हुकमु पछाणै ॥ जुगह जुगंतर की बिधि जाणै ॥ नानक नामु जपहु तरु तारी सचु तारे तारणहारा हे ॥१६॥१॥७॥

पद्अर्थ: ते = से। बिधि = (संसार समुंदर से पार लांघने की) विधि। सचु = सदा स्थिर प्रभु।16।

अर्थ: गुरु की मेहर से ही मनुष्य परमात्मा के हुक्म को पहचानता है और युगों-युगांतरों से चली आ रही उस विधि से सांझ डालता है (जिससे संसार-समुंदर से सही सलामत पार लांघा जा सकता है। वह विधि है परमात्मा का नाम स्मरणा)। हे नानक! (कह: हे भाई! परमात्मा का) नाम जपो (नाम स्मरण की) तैराकी तैरो, (इस तरह) सदा-स्थिर-प्रभु और पार लंघाने में समर्थ प्रभु (संसार-समुंदर में से) पार लंघा लेता है।16।1।7।

मारू महला १ ॥ हरि सा मीतु नाही मै कोई ॥ जिनि तनु मनु दीआ सुरति समोई ॥ सरब जीआ प्रतिपालि समाले सो अंतरि दाना बीना हे ॥१॥

पद्अर्थ: सा = जैसा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सुरति = सूझ। समाई = टिका दिया है। समाने = संभाल करता है। दाना = दिल की जानने वाला। बीना = देखने वाला।1।

अर्थ: मुझे परमात्मा जैसा और कोई मित्र नहीं दिखता, (परमात्मा ही है) जिसने मुझे यह शरीर दिया यह (मन) जीवात्मा दी और मेरे अंदर तवज्जो टिका दी। (वह सिर्फ प्रभु ही है जो) सारे जीवों की पालना करके सबकी संभाल करता है, वह सब जीवों के अंदर मौजूद है, सबके दिलों की जानता है, सबके किए कर्मों को देखता है।1।

गुरु सरवरु हम हंस पिआरे ॥ सागर महि रतन लाल बहु सारे ॥ मोती माणक हीरा हरि जसु गावत मनु तनु भीना हे ॥२॥

पद्अर्थ: हंस पिआरे = प्यारे के हंस। सागर = समुंदर। भीना = खुश होता है।2।

अर्थ: (पर वह मित्र-प्रभु गुरु की शरण पड़ने से मिलता है) गुरु सरोवर है, हम जीव उस प्यारे (सरोवर) के हंस हैं (गुरु के हो के रहने वाले हंसों को गुरु मान-सरोवर में मोती मिलते हैं)। (गुरु समुंदर है) उस समुंदर में (परमात्मा की महिमा के) रतन हैं, लाल हैं, मोती-माणक हैं, हीरे हैं। (गुरु-समुंदर में टिक के) परमात्मा के गुण गाने से मन (हरि के प्रेम-रंग में) भीग जाता है, शरीर (भी) भीग जाता है।2।

हरि अगम अगाहु अगाधि निराला ॥ हरि अंतु न पाईऐ गुर गोपाला ॥ सतिगुर मति तारे तारणहारा मेलि लए रंगि लीना हे ॥३॥

पद्अर्थ: अगाहु = अथाह। रंगि = रंग में, प्रेम में।3।

अर्थ: (सब जीवों में व्यापक होते हुए भी) परमात्मा जीवों की पहुँच से परे है, अथाह है, उसके गुणों (के समुंदर) की थाह नहीं मिलती, वह निर्लिप है। सृष्टि के रखवाले, सबसे बड़े हरि के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। सब जीवों को संसार-समुंदर से पार लंघाने में समर्थ प्रभु सतिगुरु की मति दे कर पार लंघा लेता है। जिस जीव को वह अपने चरणों में जोड़ता है वह उसके प्रेम-रंग में लीन हो जाता है।3।

सतिगुर बाझहु मुकति किनेही ॥ ओहु आदि जुगादी राम सनेही ॥ दरगह मुकति करे करि किरपा बखसे अवगुण कीना हे ॥४॥

पद्अर्थ: किनेही = कैसी? सनेही = प्यार करने वाला।4।

अर्थ: वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, जुगों के आरम्भ से है, सबमें व्यापक और सबसे प्यार करने वाला है (वह स्वयं ही गुरु से मिलाता है), गुरु को मिले बिना (माया के मोह-समुंदर से) मुकित नहीं मिलती। वह परमात्मा मेहर करके हमारे किए अवगुणों को बख्शता है, हमें अवगुणों से मुक्ति देता है और अपनी हजूरी में रखता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh