श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतिगुरु दाता मुकति कराए ॥ सभि रोग गवाए अम्रित रसु पाए ॥ जमु जागाति नाही करु लागै जिसु अगनि बुझी ठरु सीना हे ॥५॥

पद्अर्थ: जागाति = मसूलीआ। करु = कर, मसूल। ठरु = ठंडा, ठरा हुआ।5।

अर्थ: (परमात्मा की मेहर से मिला हुआ) सतिगुरु आत्मिक जीवन के गुणों की दाति देता है, विकारों से बचाता है, हमारे हृदय में अमृत-नाम का रस डाल के हमारे रोग दूर करता है। (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य की तृष्णा-अग्नि बुझ जाती है जिसकी छाती (नाम की ठंड से) ठंडी-ठार हो जाती है, जम-मसूलिया उसके नजदीक नहीं फटकता, उसको (जम का) कर नहीं देना पड़ता (क्योंकि उसको गुरु की किरपा से स्मरण के बिना और कोई मायावी वस्तु सौदा अपने जीवन-बेड़े में लादा ही नहीं)।5।

काइआ हंस प्रीति बहु धारी ॥ ओहु जोगी पुरखु ओह सुंदरि नारी ॥ अहिनिसि भोगै चोज बिनोदी उठि चलतै मता न कीना हे ॥६॥

पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। हंस = जीवात्मा। ओहु जोगी = वह जीवात्मा जोगी की तरह फेरा डाल के चले जाने वाला। अहि = दिन। निसि = रात। बिनोदी = रंग रलियां मानने वाला।6।

अर्थ: यह जीवात्मा (मानो) एक जोगी है (जो जोगी वाली फेरी डाल के जगत से चला जाता है)। यह काया (जैसे) एक सुंदर स्त्री है (पर जगत में आ के) पक्षी जीवात्मा काया-नारि से बहुत प्रीति बना लेता है। रंग-रलियों में मस्त जोगी-जीवात्मा दिन-रात काया को भोगता है (दरगाह से संदेशा बुलावा आने पर) चलने के वक्त (जोगी-जीव काया नारि से) सलाह भी नहीं करता।6।

स्रिसटि उपाइ रहे प्रभ छाजै ॥ पउण पाणी बैसंतरु गाजै ॥ मनूआ डोलै दूत संगति मिलि सो पाए जो किछु कीना हे ॥७॥

पद्अर्थ: छाजै = ऊपर छाया कर रहा है, रक्षा कर रहा है। गाजै = गरजता है। बैसंतरु = आग। दूत = कामादिक वैरी। पाए = भुगतता है। कीना = (अपना) किया।7।

अर्थ: जगत पैदा करके प्रभु सब जीवों की रक्षा करता है, हवा पानी आग (आदि सब तत्वों से शरीर रच के सबके अंदर) प्रकट रहता है, (पर उस रखवाले प्रभु को भुला के) मूर्ख मन कामादिक वैरियों की संगति में मिल के भटकता है, और अपने किए का फल पाता है।7।

नामु विसारि दोख दुख सहीऐ ॥ हुकमु भइआ चलणा किउ रहीऐ ॥ नरक कूप महि गोते खावै जिउ जल ते बाहरि मीना हे ॥८॥

पद्अर्थ: कूप = कूआँ। मीना = मछली।8।

अर्थ: परमात्मा का नाम भुला के दोखों (विकारों) में फंस जाया जाता है दुख सहने पड़ते हैं। जब प्रभु का हुक्म (बुलावा) आता है, यहाँ से चलना पड़ता है, फिर यहाँ रह ही नहीं सकते। (परमात्मा की याद से टूट के सारी उम्र) नर्कों के कूएँ में गोते खाता रहता है (इस तरह तड़फता है) जैसे पानी से बाहर निकल के मछली (तड़फती है)।8।

चउरासीह नरक साकतु भोगाईऐ ॥ जैसा कीचै तैसो पाईऐ ॥ सतिगुर बाझहु मुकति न होई किरति बाधा ग्रसि दीना हे ॥९॥

पद्अर्थ: साकतु = माया ग्रसित जीव। चउरासीह नर्क = चौरासी लाख जूनियों रूपी नर्क। किरति बाधा = अपने किए कर्मों का बँधा हुआ।9।

अर्थ: माया-ग्रसित जीव (परमात्मा को भुला के) चौरासी लाख जूनियों के चक्कर में दुख भोगता है, (विधाता की रजा का नियम ही ऐसा है कि) जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं। गुरु की शरण पड़े बिना (चौरासी के चक्करों में से) मुक्ति नहीं होती, अपने किए कर्मों का बँधा जीव उस चक्कर में फंसा ही रहता है।9।

खंडे धार गली अति भीड़ी ॥ लेखा लीजै तिल जिउ पीड़ी ॥ मात पिता कलत्र सुत बेली नाही बिनु हरि रस मुकति न कीना हे ॥१०॥

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। सुत = पुत्र।10।

अर्थ: (इस विकार भरे जगत में सही इन्सानी जीवन का रास्ता, मानो) एक बड़ी ही तंग गली (में से गुजरता है जहाँ बहुत ही संकोच करके संजोअ के चलना पड़ता) है (वह रास्ता, जैसे) खंडे की धार (जैसा तेज) है (जिसके ऊपर से गुजरते हुए थोड़ा सा भी डोलने से विकारों के समुंदर में गिर जाते हैं)। किए कर्मों का हिसाब भी पूरा करना पड़ता है (भाव, जब तक मन में विकारों के संस्कार मौजूद हैं, तब तक विकारों से मुक्ति नहीं मिलती) जैसे तिलों को (कोल्हू में) पीड़ने से ही तेल निकलता है (वैसे ही दुख के कोल्हू में पड़ कर विकारों से मुक्ति मिलती है)। इस दुख में माता-पिता-पत्नी-पुत्र कोई भी सहायक नहीं हो सकता। परमात्मा के नाम-रस की प्राप्ति के बिना (विकारों से) मुक्ति नहीं मिलती।10।

मीत सखे केते जग माही ॥ बिनु गुर परमेसर कोई नाही ॥ गुर की सेवा मुकति पराइणि अनदिनु कीरतनु कीना हे ॥११॥

पद्अर्थ: केते = कितने ही। पराइणि = आसरा। अनदिनु = हर रोज।11।

अर्थ: जगत में (चाहे) अनेक ही मित्र साथी (बना लें), पर गुरु के बिना परमात्मा के बिना (विकारों के समुंदर में डूबते जीव का) कोई मददगार नहीं बनता। गुरु की बताई हुई सेवा ही (विकारों से) मुक्ति का आसरा बनता है। (जो व्यक्ति) हर वक्त प्रभु की महिमा करता है (वह विकारों से स्वतंत्र हो जाता है)।11।

कूड़ु छोडि साचे कउ धावहु ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु ॥ साच वखर के वापारी विरले लै लाहा सउदा कीना हे ॥१२॥

पद्अर्थ: साच = सदा स्थिर रहने वाला। लाहा = लाभ।12।

अर्थ: (हे भाई!) माया का मोह छोड़ के सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को मिलने का उद्यम करो (माया की ओर से नहीं तरसोगे), जो कुछ (प्रभु-दर से) माँगोगे वही मिल जाएगा। (पर माया इतनी प्रबल है कि) सदा-कायम रहने वाले नाम-वस्तु के व्यापार वाले (जगत में) कोई एक-आध ही होते हैं। जो मनुष्य ये वाणज्य करता है वह (उच्च आत्मिक अवस्था का) लाभ कमा लेता है।12।

हरि हरि नामु वखरु लै चलहु ॥ दरसनु पावहु सहजि महलहु ॥ गुरमुखि खोजि लहहि जन पूरे इउ समदरसी चीना हे ॥१३॥

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सम दरसी = एक ही (प्यार की) निगाह से देखने वाला।13।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम का सौदा (यहाँ से) खरीद के चलो, परमात्मा के दर्शन पाओगे, उसकी दरगाह से (वह दाति मिलेगी जिसकी इनायत से) अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहोगे। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे लोग (आत्मिक गुणों में) पूर्ण (हो के प्रभु का नाम-सौदा) हासिल कर लेते हैं, और इस तरह प्यार करने वाले परमात्मा को (अपने अंदर बसता ही) पहचान लेते हैं।13।

प्रभ बेअंत गुरमति को पावहि ॥ गुर कै सबदि मन कउ समझावहि ॥ सतिगुर की बाणी सति सति करि मानहु इउ आतम रामै लीना हे ॥१४॥

पद्अर्थ: को = कोई विरला। आतमरामै = आतम राम में, सर्व व्यापक हरि में।14।

अर्थ: कोई विरले (भाग्यशाली) लोग गुरु की मति ले कर बेअंत गुणों के मालिक परमात्मा को पा लेते हैं, गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने) मन को (विकारों की तरफ दौड़ने से हटाने के लिए) समझाते हैं। हे भाई! सतिगुरु की वाणी में पूर्ण श्रद्धा बनाओ। इस तरह (भाव, गुरु की वाणी में श्रद्धा बनाने से) सर्व-व्यापक परमात्मा में लीन हुआ जाता है (और विकारों की ओर की दौड़ भटकना समाप्त हो जाती है)।14।

नारद सारद सेवक तेरे ॥ त्रिभवणि सेवक वडहु वडेरे ॥ सभ तेरी कुदरति तू सिरि सिरि दाता सभु तेरो कारणु कीना हे ॥१५॥

पद्अर्थ: सारद = सारदा, सरस्वती देवी। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर। कारणु = जगत।15।

अर्थ: हे प्रभु! नारद (आदि बड़े-बड़े ऋषिगण) और शारदा (जैसी बेअंत देवियाँ) सब तेरे (ही दर के) सेवक हैं, इस त्रिभवनी संसार में बड़े से बड़े कहलवाने वाले भी तेरे दर के सेवक हैं। यह सारी रचना तेरी ही रची हुई है, यह सारा संसार तेरा ही बनाया हुआ है। तू हरेक जीव के सिर पर राज़क है।15।

इकि दरि सेवहि दरदु वञाए ॥ ओइ दरगह पैधे सतिगुरू छडाए ॥ हउमै बंधन सतिगुरि तोड़े चितु चंचलु चलणि न दीना हे ॥१६॥

पद्अर्थ: दरि = प्रभु के दर पर। इकि = अनेक जीव। वञाए = वंजाए, भेज के, दूर करके। ओइ = ओय, वह लोग। पैधे = आदर पाते हैं। सतिगुरि = सतिगुरु ने। चलणि न दीना = भटकने नहीं दिया।16।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: अनेक ही जीव (तेरे नाम की इनायत से अपना) दुख-दर्द दूर करके तेरे दर पर तेरी सेवा-भक्ति करते हैं। जिनको सतिगुरु (विकारों के पँजे से) छुड़ा लेता है उनको परमात्मा की दरगाह में आदर-सत्कार मिलता है। जिस (भाग्यशालियों) के अहंकासर के बंधन सतिगुरु ने तोड़ दिए, उनके चँचल मन को गुरु ने (विकारों की तरफ) भटकने नहीं दिया।16।

सतिगुर मिलहु चीनहु बिधि साई ॥ जितु प्रभु पावहु गणत न काई ॥ हउमै मारि करहु गुर सेवा जन नानक हरि रंगि भीना हे ॥१७॥२॥८॥

पद्अर्थ: चीनहु = देख लो। बिधि = तरीका। जितु = जिस तरीके से। गणत = लेखा। हरि रंगि = प्रभु के प्रेम रंग में।17।

अर्थ: हे भाई! तुम गुरु को मिलो, और (गुरु से) वह ढंग-तरीका सीख लो जिसकी सहायता से परमात्मा को मिल सको, और कर्मों का लेखा भी कोई ना रह जाए। अपने अहंकार को मार कर गुरु द्वारा बताई हुई सेवा करो।

हे दास नानक! (जो मनुष्य गुरु द्वारा बताई हुई सेवा करता है) वह परमात्मा के प्रेम-रंग में भीग जाता है।17।2।8।

मारू महला १ ॥ असुर सघारण रामु हमारा ॥ घटि घटि रमईआ रामु पिआरा ॥ नाले अलखु न लखीऐ मूले गुरमुखि लिखु वीचारा हे ॥१॥

पद्अर्थ: असुर = दैत्य, कामादिक (असुर)। सघारण = संघारण, मारने (वाला)। घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सुंदर राम। नाले = साथ ही, हरेक जीव के अंदर ही। अलखु = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। मूलो = बिल्कुल ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लिखु = (अपने हृदय में) परो के। वीचारा = गुणों की विचार।1।

अर्थ: हमारा परमात्मा (हमारे मनों में से कामादिक) दैत्यों का नाश करने में समर्थ है। वह प्यारा सुंदर राम हरेक शरीर में बसता है। हर वक्त हमारे अंदर मौजूद है, फिर भी वह अलख है, उसका स्वरूप बिल्कुल ही बयान नहीं किया जा सकता। (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर उसके गुणों की विचार (अपने हृदय में) परो लो।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh